विश्वभाषा हिन्दी / डॉ. लालचन्द गुप्त ‘मंगल’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा (सह-राजभाषा) होने के साथ-साथ, हिन्दी एक विश्वभाषा भी है, क्योंकि यह दुनियाँ के अधिकतर देशों में भी, पर्याप्त संख्या में, लोगों द्वारा लिखी, बोली और समझी जाती है। उल्लेखनीय है कि व्यापक जनाधार एवं विस्तृत भौगोलिक व्याप्ति के साथ-साथ, कोई भी भाषा अपनी पुरातनता, मानकता, सुग्राह्यता, विकासोन्मुखता एवं लिपि की वैज्ञानिकता के बल पर विश्वभाषा बनती है। ‘विश्वभाषा’ का सीधा अर्थ है - विश्व की अन्य समृद्ध-समर्थ भाषाओं के समकक्ष होना, उन्हीं जैसे स्तरीय साहित्य का सृजन करना और विश्व-भर में वृत्तिक या व्यावसायिक अवसर उत्पन्न करना। निस्संदेह, हिन्दी, विश्वभाषा की इस कसौटी पर, अधिकांशतः, खरी उतरती है। ‘वैश्विक हिन्दी-शोध संस्थान, देहरादून’ के महानिदेशक डॉ. जयन्तीप्रसाद नौटियाल ने अपने शोध-अध्ययन ‘विश्वभाषा हिन्दी: तथ्य एवं आँकडे़’ (2017) के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘‘यह (हिन्दी) विश्व में सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। विश्व-जनसंख्या में इसकी भागीदारी लगभग उन्नीस प्रतिशत है। सात अरब चालीस करोड़ जनसंख्या में हिन्दी के जानकारों की संख्या एक अरब चालीस करोड़ से अधिक है। ’’ अब तक, भारत सहित, विश्व के शीर्ष 172 भाषाविद्, विशेषज्ञ और विद्वान् इस निष्कर्ष की प्रामाणिकता पर अपनी सहर्ष-स्वीकृति की मुहर लगा चुके हैं। इसीलिए, आज हिन्दी की स्थिति-गति को भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा और राजभाषा तक ही सीमित न रखकर, उसके वैश्विक संदर्भों का आकलन करना अनिवार्य हो गया है।

संसार में इस समय 6912 भाषाएँ बोली जाती हैं। न्यूयार्क में किए गए भाषा सबन्धी ताज़ा अध्ययन - वाइटल साइन रिपोर्ट - में कहा गया है कि इक्कीसवीं शताब्दी के अन्त तक इनमें से 90 प्रतिशत भाषाओं के अपने मूल को खो देने की आशंका है। अनेकानेक अपरिहार्य कारणों से लोग स्वतः अपनी भाषाओं से दूर होते जा रहे हैं और एक दिन इन्हें सर्वथा भूल जाएँगे। ध्यातव्य है कि जो 10 प्रतिशत भाषाएँ बचेंगी, उनमें हिन्दी तो होगी ही। हिन्दी पर विश्व-बाज़ार की निर्भरता को देखते हुए हमें उसके विश्वव्यापी भाषायी स्वरूप पर कोई सन्देह नहीं है, क्योंकि भूमण्डलीकरण के इस दौर में दुनियाँ के सबसे बड़े लोकतंत्र, सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र और सबसे बड़े उपभोक्ता-बाज़ार (मण्डी) की भाषा हिन्दी को नज़रअंदाज़ करना संभव नहीं है।

यदि थोड़ी देर के लिए, विश्व में हिन्दी के भावी स्थान की बात छोड़कर, उसकी वर्तमान स्थिति-गति और महत्ता पर ही नज़र दौड़ाएँ, तो हमारे सामने बेहद उत्साहवर्द्धक आँकड़े उपस्थित होते हैं। उदाहरणार्थ –

विश्व के कुल 237 देशों में से 200 से अधिक देशों में हिन्दी की स्वर-लहरियाँ, देशी-विदेशी लोगों के बीच, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रति अपनत्व-भाव जगा रही हैं। (यह बात दूसरी है कि युनेस्को की नौ भाषाओं (अरबी, अंगरेज़ी, चीनी , फ्रेंच, रूसी, स्पेनिश, हिन्दी, इतालवी, पुर्तगाली) में सम्मिलित होते हुए भी, हमारी अपनी सरकारी उपेक्षा/उदासीनता के कारण, वह अभी तक ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ की आधिकारिक छह भाषाओं (चीनी: 80 करोड़, स्पेनिश: 40 करोड़, अंगरेज़ी: 40 करोड़, अरबी: 20 करोड़, रूसी: 17 करोड़, फ्रेंच: 9 करोड़) में अपना नाम जुड़वाने का गौरव प्राप्त नहीं कर सकी है। ) यह सच है कि 4 अक्तूबर, 1977 ई. को तत्कालीन विदेशमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ में, पहली बार हिन्दी में भाषण दिये जाने के बाद, हिन्दी को ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ की आधिकारिक भाषा बनवाने के प्रयासों में लगातार वृद्धि हो रही है; ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ के मंच पर भारतीय नेताओं द्वारा हिन्दी में ही वक्तव्य देने की भावना बलवती हुई है; ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ द्वारा अपने कार्यक्रमों को, यूएन रेडियो की वेबसाइट पर, हिन्दी में प्रसारित किया जाने लगा है; लेकिन अब तो विश्व के समस्त हिन्दी-अनुरागियों की बस यही एकमात्र तमन्ना है कि हिन्दी को, येन-केन प्रकारेण, शीघ्रातिशीघ्र ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ में, आधिकारिक भाषा के रूप में, स्थायी मान्यता मिलनी ही चाहिए।

विश्व की जीवित भाषाओं के अध्ययन, विकास और दस्तावेजीकरण में, वर्ष 1951 से जुटी सर्वाधिक विश्वस्त पुस्तक, ‘एथेनेलॉग’ की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में हिन्दी बोलने वालों की संख्या 60.9 करोड़ हो चुकी है। एबीपी चैनल द्वारा प्रस्तुत सर्वेक्षण-रपट के अनुसार, भारत के अतिरिक्त विश्व में हिन्दी बोलने-समझने वालों की संख्या लगभग 80 करोड़ है।

विश्व के 140 देशों में जा बसे भारतीय मूल के लगभग 2.19 करोड़ लोग हिन्दी-माध्यम से ही अपना कार्य निष्पादित करते हैं। उपलब्ध ताज़ा आँकड़ों के अनुसार, भारतीयों की संख्या अमेरिका में 22,45,239, कनाडा में 10,00,000, स्वीडन में 18,000, जर्मनी में 70500, रशियन फेडरेशन में 15,007, फ्राँस में 65,000, इटली में 99,127, स्पेन में 30,000, इस्राइल में 78,000, मैक्सिको में 2000, गुयाना में 3,20,200, ब्राजील में 2000, अर्जेंटीना में 1400, यूएई में 17,50,000, सऊदी अरब में 17,89,000, दक्षिण अफ्रीका में 121,8000, श्रीलंका में 16,01,600, सिंगापुर में 6,70,000, आस्ट्रेलिया में 4,48,430, चीन में 14,950, मलेशिया में 20,50,000, थाईलैंड में 1,50,000 और न्यूज़ीलैंड में 10,000 है।

अंगरेज़ी के शब्दकोशों में हिन्दी के शब्द निरन्तर स्थान प्राप्त करते जा रहे हैं। सद्य-प्रकाशित ‘ऑक्सफोर्ड अंगरेज़ी शब्दकोश’ में हिन्दी के लगभग सभी प्रचलित शब्दों, यथा - साड़ी, धोती, घी, पूड़ी, समोसा, चपाती, परांठा, जलेबी, योगी-संत, योगासन, आलू, अच्छा, अरे, देसी, फिल्मी, गोरा, चड्डी, यार, जंगली, धरना, गुण्डा, बदमाश, बिंदास, लहंगा व मसाला आदि को स्थान दिया गया है। ‘ऑक्सफोर्ड एड्वांस लर्नर डिक्शनरी’ के ताज़ा संस्करण में तो ‘जुगाड़’ को भी स्थान मिल गया है। एक अनुमान के अनुसार, अब तक पाँच प्रतिशत हिन्दी-शब्द अंगरेज़ी में प्रवेश कर चुके हैं।

‘पब्लिक लैंग्वेज सर्वे ऑफ इण्डिया’ का ताज़ा सर्वेक्षण बताता है कि वृद्धि की वर्तमान गति से हिन्दी, आगामी 50 वर्षों में, अंगरेज़ी को बहुत-पीछे छोड़ देगी। विश्व के 91 विश्वविद्यालयों में विशेष हिन्दी पीठ स्थापित हो चुकी हैं।भारत के अतिरिक्त लगभग 200 विदेशी विश्वविद्यालयों और विद्यालयों में हिन्दी शिक्षण-प्रशिक्षण के कार्यक्रम और शोधकार्य सुचारु रूप से चल रहे हैं।

अकेले अमेरिका के ही लगभग 70 विश्वविद्यालयों और 100 से अधिक शिक्षण-केन्द्रों में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन की सुविधाएँ दी जा रही हैं। सरकारी ‘स्टार टॉक प्रोग्राम’ में हिन्दी-शिक्षकों के प्रशिक्षणार्थ यथोचित धन दिया जा रहा है। न्यूयार्क की ‘विश्व हिन्दी समिति’, हिन्दी प्रचार-प्रसार में, तन-मन-धन से संलग्न है। एक अन्य संस्था ‘हिन्दी संगम फाउंडेशन’ ने न्यूजर्सी में, 25 करोड़ रुपये की लागत से, ‘अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी केन्द्र’ स्थापित किया है, ताकि अमरीकी-भारतीय शिक्षण-संस्थानों में सांस्कृतिक-शैक्षणिक आदान-प्रदान को बढ़ावा मिल सके। सुषम बेदी, सुधाओम ढींगरा, रेणु गुप्ता राजवंशी, इलाप्रसाद, सुदर्शन प्रियदर्शनी और भूदेव शर्मा आदि अमेरिका के प्रख्यात हिन्दी-सेवी हैं। डॉ. अंजना संधीर ने अमेरिका के सृजनामक हिन्दी-साहित्य को उजागर करने में ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य किया है। अमेरिका में गत लगभग 60 वर्षों से रह रहे तामिलभाषी डॉ. जयरामन ने हिन्दी में ‘संतवाणी’ को, दस खण्डों में, अनूदित-प्रकाशित किया है। ताज़ा सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 07 लाख अमरीकी नियमित रूप से हिन्दी बोलते हैं। समूची सिलिकॉन-वैली तो है ही हिन्दी-हिन्दी ! ‘वॉयस ऑफ अमेरिका’ तथा हिन्दी के रेडियो व टीवी-चैनल इस सुविधा में और-वृद्धि कर रहे हैं। अब तो अमेरिका के स्कूली पाठ्यक्रम में 480 पृष्ठों पर आधारित ‘नमस्ते जी’ नामक हिन्दी-पाठ्यपुस्तक को, विभिन्न स्तरों पर, सम्मिलित कर लिया गया है, जिसे एक भारतवंशी शिक्षक ने आठ वर्षों के कठिन परिश्रम से तैयार किया है। यूनिवर्सिटी ऑव पेंसिलवानिया ने अपने एमबीए-पाठ्यक्रम में भी हिन्दी-विषय को सम्मिलित किया हुआ है और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ऐसे छात्रों का, भारत में व्यापारिक कड़ी के रूप में, उपयोग करके भरपूर आर्थिक लाभ अर्जित कर रही हैं।

आपको यह तो याद ही होगा कि अमेरिका से भारत-दौरे पर आए ‘माइक्रोसॉफ़्ट’ के प्रमुख बिल गेट्स ने, हिन्दी के वैश्विक महत्त्व को स्वीकार करते हुए, मुम्बई में कहा था कि ‘भारत को हिन्दी-सॉफ़्टवेयर की आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु हमारा माइक्रोसॉफ़्ट तैयार है।’ हमने देखा कि दो वर्षों के भीतर ही उन्होंने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के कम्प्यूटर बाज़ार में उतार दिए थे। इसी प्रकार ‘गूगल’ के संस्थापकों - सर्वश्री लैरीपेज और सर्जीबिन-ने एक ऐसा टूल बनाने में सिद्धि प्राप्त कर ली है, जिसे डाउनलोड करने पर, बोलने-मात्र से ही, वह हिन्दी में टाईप करने लगता है। ‘ऐपल’ द्वारा दशहरा (2017) के अवसर पर लाँच किया गया ‘आईफोन’ 8 और 8$2’ अब हिन्दी में भी सेवाएँ देने लगा है। ज्ञान बाँटने एवं बढ़ाने का ऑनलाइन मंच ‘कोरा’ अब तक अंगरेज़ी, स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी और इण्डोनेशियाई भाषाओं में ही प्रश्नोत्तर की सुविधा प्रदान करता था। ‘फेसबुक’ के पूर्व-मुख्य तकनीकी अधिकारी एडम डी एंजलो द्वारा 2009 में स्थापित और हर महीने बीस करोड़ से अधिक व्यक्तियों को जानकारी देने-लेने वाले इस ‘कोरा’ ने, 31 मई, 2018 ई. को, अपना हिन्दी-संस्करण भी प्रारम्भ कर दिया है।

हिन्दी के बढ़ते कदमों की आहट पाते ही दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति, अमेरिका केे तत्कालीन राष्ट्रपति बुश, ने ‘राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा कार्यक्रम’ के अन्तर्गत अपने देशवासियों को हिन्दी, फ़ारसी, अरबी, चीनी और रूसी भाषाएँ सीखने के लिए प्रेरित करते हुए कहा था - ‘‘हिन्दी ऐसी विदेशी भाषा है, जिसे इक्कीसवीं सदी में, राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए, अमेरिका के नागरिकों को सीखना चाहिए।’’ इसी क्रम में राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपने पहले चुनावी घोषणापत्र की प्रतियाँ, अंगरेज़ी के साथ-साथ, हिन्दी में भी प्रकाशित करवायीं थीं। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद ओबामा ने हिन्दी को न-केवल इक्कीसवीं सदी की भाषा कहा था, बल्कि 10 करोड़ 40 लाख डॉलर देने की सार्वजनिक घोषणा करके उसके प्रचार-प्रसार को क्रियान्वित भी कर-दिखाया था। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी सरकार की कार्यकारी शाखा में राजनीतिक पदों को भरने के लिए विश्व की जिन 101 भाषाओं में आवेदनपत्र तैयार करवाया था, उनमें, हिन्दी सहित, भारत की 20 क्षेत्रीय भाषाओं को भी स्थान दिया गया था। वे रमज़ान की मुबारकबाद, उर्दू के साथ-साथ, हिन्दी में भी देते रहे हैं। सन् 2012 के पुनः राष्ट्रपति-चुनाव में तो उन्होंने मत-पत्र हिन्दी में भी प्रकाशित करवाये थे। यों भारत सरकार द्वारा आयोजित आठवें विश्व-हिन्दी सम्मेलन की मेज़बानी करके अमेरिका, पहले-ही, हिन्दी के अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व को स्वीकार कर चुका है। ‘विश्व व्यापार-केन्द्र’ पर 9/11 हादसे के बाद अमरीका में जिन भाषाओं को जानने-सीखने पर बल दिया जा रहा है, उनमें से हिन्दी/उर्दू भी एक है। यहाँ यह बताना भी सार्थक रहेगा कि दक्षिण-अमरीकी शहर पेरू की राजधानी लीमा में, प्रथम दिसम्बर 2014 को, जलवायु-परिवर्तन पर, संयुक्त राष्ट्र के 190 देशों का, अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए, जो बारह-दिवसीय सम्मेलन हुआ था, ग्रीनपीस कार्यकर्त्ताओं ने उसकी अपील हिन्दी में की थी। संदेश में लिखा था - ‘‘जलवायु-परिवर्तन के लिए आवाज़ उठाइए। ’’

रूस में हिन्दी के प्रति आकर्षण, पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन, सृजन-अनुवादन एवं सम्पादन-प्रकाशन की लगभग डेढ़-सौ वर्ष पुरानी समृद्ध परम्परा विद्यमान है। इस दृष्टि से इवान पाव्लोविच मिनायेव द्वारा 1876 ई. में किया गया कुमाऊँ की लोककथाओं का रूसी अनुवाद पहला मील-पत्थर माना जाता है। रूसी विद्वानों द्वारा प्रणीत हिन्दी पाठ्य-पुस्तकों, व्याकरण-ग्रन्थों, शब्दकोशों और प्रतिष्ठित हिन्दी-साहित्यकारों सम्बन्धी बहुमुखी शोध-आलोचना ने वहाँ हिन्दी की अलख जगाने में अद्वितीय भूमिका निभायी है। विश्वविख्यात डॉ. वारान्निकोव-कृत रामचरितमानस का रूसी अनुवाद तथा हिन्दी में अनेक मौलिक ग्रंथों का प्रणयन रूस में हिन्दी की उत्साहवर्द्धक स्थिति के द्योतक हैं। मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालयों तथा ताशकंद के ‘प्राच्य विद्या संस्थान’ के अन्तर्गत हिन्दी-अनुसंधान सम्बन्धी स्तरीय सुविधाएँ उपलब्ध हैं। ताशकंद में भारत सरकार का लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय विद्यालय भी, अपने ढंग से, रूसियों को हिन्दी पढ़ाने का दायित्व बाखूबी निभा रहा है।

चीन की ऐतिहासिक दीवार की स्वागत-शिला पर ‘ओम नमो भगवते’ अंकित है। सन् 1942 में चीन में पहला सरकारी हिन्दी-संभाग खुला। आज पेइचिंग विश्वविद्यालय में पीएच.डी. उपाधि तक हिन्दी-शिक्षण उपलब्ध है। पीकिंग विश्वविद्यालय सहित छह विश्वविद्यालयों में हिन्दी को ‘सर्वसुलभ भाषा’ की श्रेणी में रखा गया है। रेडियो पेइचिंग से हिन्दी-कार्यक्रम निरन्तर प्रसारित होते रहते हैं। रामचरितमानस का चीनी पद्यानुवाद, हिन्दी-चीनी शब्दकोश, हिन्दी-चीनी मुहावराकोश, व्याकरण ग्रन्थों की निर्मिति तथा रामायण, महाभारत, टैगोर और प्रेमचन्द आदि पर सम्पन्न कार्य चीन में हिन्दी की अच्छी स्थिति के द्योतक हैं। हमारा हिन्दी-सिनेमा भी, चीन में हिन्दीमय वातावरण बनाने में, बहुत-बड़ी भूमिका निभा रहा है। ध्यातव्य है कि विदेशांे में हिन्दी प्रचार-प्रसार को समर्पित, चीनी प्रोफ़ेसर जी भूपिंग को, भारत सरकार द्वारा हिन्दी-सेवी सम्मान - ‘जॉर्ज ग्रियर्सन एवार्ड’ (2012) - से अभिनंदित किया जा चुका है।

सर्वाधिक भारतीय (लगभग 25 लाख) मलेशिया तथा दक्षिण अफ्रीका में बसे हैं। दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी विषयक सुविधाओं में हो रहे विस्तार को देखते हुए ही भारत सरकार ने अपना नौवाँ विश्व-हिन्दी सम्मेलन जोहान्सबर्ग में आयोजित किया था। यहाँ के ‘हिन्दी शिक्षा संघ’ तथा ‘हिन्दवाणी रेडियो स्टेशन’ की हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ताज़ा रपट के अनुसार, जनवरी 2013 में, फीनिक्स में, हिन्दू-लोकाचार पर आधारित, एक विद्यालय की स्थापना की गयी थी, जिसमें हिन्दी और तामिल भाषाओं का पठन-पाठन अनिवार्य कर दिया गया है।

दक्षेस (सार्क, एसएएआरसी) देशों (भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान, मालद्वीप) की कुल आबादी, विश्व की आबादी का, बाईस प्रतिशत है और एशिया की आबादी का एक-तिहाई है। कहना न होगा कि इन देशों के आपसी सांस्कृतिक और आर्थिक सम्बन्धों में हिन्दी-भाषा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। पाकिस्तान में हिन्दी-शिक्षण की विश्वविद्यालयीय व्यवस्था अच्छे स्तर की है - लाहौर से कराची तक हिन्दी की गूँज है। शास्त्रीय संगीत और हिन्दी-फिल्मों ने श्रीलंका में हिन्दी को बचाकर रखा है। यहाँ की इंदिरा दसनायके अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी-जगत् की एक विभूति हैं, एक श्रेष्ठ अध्यापिका और लेखिका हैं। म्याँमार (बर्मा) में, विगत लगभग एक शताब्दी से, हिन्दी का अध्ययन, ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के माध्यम से होता रहा है। एक समय वहाँ पाँच-सौ से अधिक हिन्दी-पाठशालाएँ थीं। वहाँ की आर्यसमाजी संस्थाएँ हिन्दी के प्रचार-प्रसार में तत्पर रही हैं। यहाँ हिन्दी के अन्यतम प्रचारक, प्रसारक और शब्दशिल्पी ‘मौतिरि’ (चन्द्रप्रकाश प्रभाकर) रहे हैं, जिन्हें, ‘गोदान’ का बर्मी भाषा में अनुवाद करने पर, तत्कालीन बर्मी सरकार द्वारा, पुरस्कृत किया गया था। आज, राजनीतिक कारणों से, म्याँमार में हिन्दी के प्रति आग्रह समाप्तप्रायः है। मालद्वीप की राजधानी माले में, नवम्बर 1990 में, आयोजित ‘दक्षेस’ के पाँचवें सम्मेलन को, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री चन्द्रशेखर, हिन्दी में संबोधित कर सदस्य-देशों का ध्यान इस ओर आकृष्ट कर चुके हैं।

नेपाल एकमेव हिन्दू-राष्ट्र के रूप में जाना-पहचाना जाता रहा है। नवीनतम जनगणना के अनुसार, इस देश की 81 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू है और ‘ओंकार परिवार’ सहित यह हिन्दू-संख्या 94 प्रतिशत हो जाती है। इसी से वहाँ हिन्दी के महत्त्व और प्रयोग का, सहज ही, अनुमान लगाया जा सकता है। सचमुच, नेपाल में हिन्दी बोलने वालों की संख्या नेपाली-भाषियों से कहीं-अधिक है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी का प्राचीन साहित्य-चर्यागीत-नेपाल में ही रचा गया था। दाँग के राजा रतनसेन की ‘रतनबोध’ नेपाल में रचित 660 साल पुरानी रचना है। हिन्दी का भाषिक और साहित्यिक अध्ययन नेपाल के सभी विश्वविद्यालयों में हो रहा है। विशेषकर त्रिभुवन विश्वविद्यालय में भारतीय हिन्दी-प्राध्यापक आमन्त्रित किए जाते रहे हैं। गोपालसिंह नेपाली तो हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं ही।

जापान में हिन्दी का इतिहास शताधिक वर्ष पुराना है। टोक्यो यूनिवर्सिटी में, सन् 1908 में, हिन्दी के उच्च अध्ययन का श्रीगणेश हो गया था। अब तो, मुख्य रूप से, जापानी मूल के लोग ही वहाँ हिन्दी पढ़ा रहे हैं। यहाँ अस्सी हज़ार से अधिक शब्दों पर आधारित हिन्दी-जापानी कोश के अतिरिक्त प्रेमचन्द और अज्ञेय आदि की रचनाओं के जापानी अनुवाद उपलब्ध हैं। टोमियो निजुकामी ने 1951 से 1980 की अवधि के 300 हिन्दी-लोकप्रिय फ़िल्मी गानों का जापानी में अनुवाद किया है। उल्लेखनीय है कि जापान में हिन्दी-फ़िल्में खूब देखी जाती हैं। राजकपूर की पुरानी फ़िल्म का गाना - ‘मेरा जूता है जापानी’ - तथा जापान में बनी ऐनिमेशन फ़िल्म ‘रामायण’ समूची हिन्दी-दुनियाँ में लोकप्रिय हैं। जापान में, सन् 2005 से, प्रतिवर्ष ‘विश्व हिन्दी-दिवस’ मनाया जाता है। भारत द्वारा आयोजित सातवें, आठवें और दसवें विश्व हिन्दी-सम्मेलनों में जापान के तीन हिन्दी-विद्वानों - प्रोफ़ेसर तोशियो तनाका (2003), प्रोफे़सर ताकेशी फुजिई (2007) तथा शिशिरो सोमा (2015) - को ‘विश्व हिन्दी सम्मान’ (जॉर्ज ग्रियर्सन एवार्ड) से अभिनंदित किया जा चुका है। जापान का आकाशवाणी, प्रतिदिन दो बार, हिन्दी-समाचार व अन्य कार्यक्रम प्रसारित करता है। सुप्रसिद्ध जापानी विद्वान् प्रोफ़ेसर क्यूया दोई की यह स्पष्ट मान्यता है कि ‘‘दस-दस साल में सीखी अंगरेज़ी बोलने से तीन महीने में सीखी हिन्दी बोलना आसान है। ’’

कोरिया में हिन्दी की स्थिति पर्याप्त उत्साहवर्द्धक एवं प्रभावशाली है। एक समय तो बौद्धधर्म कोरिया का राजधर्म भी रहा है। सन् 1929 में टैगोर द्वारा रचित कुछ कवितानुमा पंक्तियाँ (‘पूर्व का दीप’) कोरिया के बच्चे-बच्चे की ज़बान पर हैं। दक्षिण कोरिया में सोल-स्थित हांगुक विश्वविद्यालय और बूसान-स्थित बूसान विश्वविद्यालय भारत और हिन्दी-अध्ययन के गढ़ हैं, जहाँ पीएच.डी तक की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। हिन्दी-कोरियाई शब्दकोश, हिन्दी टीवी चैनलों और कोरियाई कम्पनियों की भारत में प्रभावशाली उपस्थिति ने वहाँ हिन्दी-विकास की अनन्त संभावनाएँ खोल दी हैं। वरिष्ठ कवयित्री किमयंगशिक पहली कोरियाई हैं, जिन्हें, उनके भारत-प्रेम के कारण, ‘पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। इसी कड़ी में यू जो किम का नाम आता है, जिन्हें हिन्दी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए, भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा, 27 अगस्त 2014 को, ‘जॉर्ज ग्रियर्सन अवार्ड’ से सम्मानित किया गया। इस तथ्य की जानकारी तो हमें है ही कि दक्षिण कोरिया अधिवासी, ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ के महासचिव, बान की मून ने, न्यूयार्क में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी-सम्मेलन में अपना उद्घाटन-भाषण हिन्दी में दिया था।

इण्डोनेशिया की ‘भाषा इण्डोनेशिया’ में लगभग बीस प्रतिशत शब्दावली संस्कृत-हिन्दी की है। यहाँ ‘डेंजर’ नहीं, ‘भय’ लिखा रहता है और तीनों सेनाओं का संयुक्त समाचारपत्र ‘त्रिशक्ति’ निकलता है। ‘भगवान ब्रह्मा’ नामक ज्वालामुखी पर्वत के मुहाने पर ‘गणेश-प्रतिमा’ सुशोभित है। इस मुस्लिम देश के पास ‘गरुड़ एयरलाइन्ज़’ है, ‘दीर्घायु मंत्रालय’ है, राजधानी जकार्ता के हवाई-अड्डे के बाहर भव्य रथ पर ‘अर्जुन-कृष्ण’ सवार हैं, ‘शैलेन्द्र’ रेस्तरां है और है - मैदान ‘मरदेका (मारना) चौराहा’।

अंगरेज़ी के गढ़ ब्रिटेन की बीबीसी हिन्दी-सेवा के 85 वर्ष पूरे हो चुके हैं। सन् 1940 की 11 मई को शुरू हुई यह यात्रा अब ‘बीबीसी हिंदी डॉट कॉम’ तक पहुँच चुकी है। आज विश्व-भर में इसके श्रोताओं की संख्या करोड़ों में है। यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कालाकांकर-नरेश रामपालसिंह ने, 1883 ई. में, लंदन में, ‘हिन्दोस्तान’ नामक त्रिभाषी (हिन्दी, उर्दू और अंगरेज़ी) त्रैमासिकी का प्रकाशन आरम्भ किया था, जो उसी वर्ष दैनिक-समाचारपत्र के रूप में परिवर्तित हो गया था। वस्तुतः, ब्रिटेन के रेडियो और टीवी-चैनलों पर हिन्दी की धूम है। अन्य अनेक सामान्य-विशिष्ट कार्यक्रमों के साथ-साथ यहाँ से एक बार महाभारत सीरियल का प्रसारण हो चुका है। ब्रिटेन में अब तक रामचरितमानस के आठ हिन्दी-अनुवाद हो चुके हैं और यहाँ स्थापित अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी समिति, निजी तौर पर, अपना हिन्दी-सम्मेलन आयोजित कर चुकी है। हिन्दी समिति के अतिरिक्त ‘कथा यूके’, ‘कृतिकाव्य रंग’ और ‘वातायन’ आदि संस्थाएँ हिन्दी की भरपूर सेवा कर रही हैं। बर्मिंघम-स्थित ‘मिडलैण्ड्स वर्ल्ड ट्रेड फोरम’ के अध्यक्ष पीटर मैथ्यूज़ ने ब्रिटिश उद्यमियों, कर्मचारियों और छात्रों को हिन्दी सीखने की सलाह दी है; ताकि हिन्दी-संसार पर व्यापारिक-सांस्कृतिक पकड़ और-मज़बूत की जा सके। यह हिन्दी की ही ताकत है कि ब्रिटेन के अठारह लाख प्रवासी भारतीयों का वोट पाने के लिए प्रधानमंत्री टेरीजा मे की चुनावी-टीम को ‘टेरीजा के साथ’ नामक हिन्दी-गीत लाँच करना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि ‘अंतरराष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा-सम्मान’ हिन्दी का अकेला ऐसा सम्मान है, जो किसी-दूसरे देश की संसद-ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स - में प्रदान किया जाता है। यह बात तो जगजाहिर है ही कि ब्रिटेन से हिन्दी-सेवियों का सबसे बड़ा दल, अपने खर्च पर, भारत द्वारा आयोजित विश्व हिन्दी-सम्मेलनों में सक्रिय भाग लेता है। यह देख-सुनकर कितना अच्छा लगता है कि 18 लाख भारतीयों वाले ब्रिटेन में, अंगरेज़ी के बाद, हिन्दी ही दूसरे स्थान पर है। लंदन शहर, लगता है , जैसे मुम्बई का टुकड़ा हो- ‘साउथ हाल’ पूरी तरह हिन्दी की ध्वनि से गुंजित रहता है। भारत सरकार ने अपना छठा विश्व-हिन्दी सम्मेलन लंदन में ही आयोजित किया था। ध्यातव्य है कि महान् साहित्यकार शेक्सपीयर के घर में स्थित संग्रहालय में, देवनागरी लिपि में, लिखा है - ‘‘यह शेक्सपीयर का निवास है। ’’

हॉलैंड-नीदरलैंड में बहुत-बड़ी संख्या सूरीनाम-निवासियों की है, जो सुविधामयी हिन्दी का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। नीदरलैंड के विदेशमंत्री भारत में आकर हिन्दी ही बोलते हैं। सदियों से बहुभाषी इन देशों में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के साथ-साथ लायडन विश्वविद्यालय में हिन्दी-अध्ययन की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध है। हंगरी की राजधानी बुदापैश्त में, सोलहवीं शताब्दी में स्थापित ओत्वोश लोरांद विश्वविद्यालय के भारोपीय अध्ययन-विभाग में, गत लगभग 150 वर्षों से, संस्कृत की विधिवत् पढ़ाई हो रही है और पिछले 60-70 सालों से यहाँ हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन भी किया जा रहा है।

थाईलैंड के चार विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ायी जा रही है। ‘भारत-थाई सांस्कृतिक परिषद्’, ‘थाईलैंड हिन्दी-परिषद्’ और ‘आधारशिला’ के संयुक्त तत्त्वावधान में अब तक 15 ‘विश्व हिन्दी-सम्मेलन’ आयोजित किए जा चुके हैं। सर्वश्री प्रोफे़सर चिराफ़ात, पद्मा शवांग्सी, कित्तीफोंग बुंकूअद, बूमरुंग एम खाम, करुणा शर्मा और सुशीलकुमार धानुक आदि उन विशिष्ट लोगों में गण्य हैं, जो हिन्दी की अलख जगा रहे हैं। यह भी ध्यातव्य है कि बैंकाक और पताया में, जगह-जगह, भारतीय नामों के रेस्तरां खुले हुए हैं।

पोलैंड में प्रथम विश्वयुद्ध से पहले हिन्दी-अध्ययन की सुविधा रही है। यहाँ सभी लोगों को संस्कृत का अध्ययन करना होता है। वारसा के ‘भारतीय विद्या संस्थान’ में एम.ए. तक की सुविधा उपलब्ध है। यों, सामान्यतः, यहाँ सप्ताह में दस घण्टे, देवनागरी-माध्यम से, हिन्दी पढ़ाई जाती है।

इटली के नेपल्स तथा वेनिस विश्वविद्यालयों में इटैलियन मूल के अनेकानेक छात्र हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं। ‘इतालवी-हिन्दी विश्वकोश’ और सुप्रसिद्ध इतालवी हिन्दी-सेवी तैत्सितोरी ने इटली में हिन्दी को स्थापित करने में बहुत-बड़ी भूमिका निभायी है। यह सच है कि फ्राँस में जाकर मन घबराता है, परन्तु हिन्दी भाषा वहाँ के हर शहर में है। यहाँ के सौंपन विश्वविद्यालय में गत 50 वर्षों से हिन्दी अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है। फ्राँस शासित ‘रीयूनियन द्वीप’ में भारतीय मूल के लगभग ढाई-लाख लोग रहते हैं, जिनमें गुजराती, तामिल और मुस्लिम आदि सम्मिलित हैं। कुछ वर्ष-पूर्व जब वहाँ, पहली बार, हिन्दी-दिवस मनाया गया, तो विभिन्न भाषाभाषी लगभग 400 लोग उपस्थित हुए थे। इज़रायल में, हिब्रू के बाद, हिन्दी को द्वितीय स्थान प्राप्त है; यहाँ अंगरेज़ी तीसरे स्थान पर आती है।

जर्मनी में, बीबीसी की तर्ज़ पर, हिन्दी का ‘दोएचे वेले’ कार्यक्रम चलता है। हाईडेलबर्ग विश्वविद्यालय में सन् 1962 में स्थापित ‘साउथ एशिया इंस्टीच्यूट’ (साई) के माध्यम से यहाँ बड़ी-संख्या में लोग, संस्कृत साहित्य के अलावा, बंाग्ला व हिन्दी-साहित्य के जानकार हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर, मुक्तिबोध, नज़रूल इस्लाम, फैज़, इक़बाल, अज्ञेय, निराला व महादेवी आदि यहाँ सभी के परिचित हैं। अज्ञेय जी तो अनेक बार हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में, अतिथि-प्रोफ़ेसर के रूप में, अपनी सेवाएँ दे चुके हैं। ‘साई’ को क्रांतिकारी स्वरूप प्रदान करने में प्रोफ़ेसर लोठार लुत्से का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः, भारतीय साहित्य को शेष विश्व से जोड़ने में प्रोफे़सर लोठार लुत्से का हर भारतीय पर एक ऋण है। जर्मनी के ही एस लायेनहार्ड द्वारा हिन्दी-व्याकरण पर किया गया शोध भी अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। वर्तमान में जर्मनी के लगभग बीस विश्वविद्यालयों और अध्ययन-केन्द्रों में हिन्दी-प्राध्यापन किया जा रहा है तथा रेडियो कोलोन से प्रायः हिन्दी में कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं।

बेल्जियम में लगभग सवा-सौ वर्षों से संस्कृत का विधिवत् अध्ययन हो रहा है। गेंट विश्वविद्यालय में कार्यरत इस अध्ययन-केन्द्र को, बाद में, ‘भारतीय विद्या-विभाग’ में बदल दिया गया, जिसमें पिछले लगभग 60 वर्षों से हिन्दी को भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है। सन् 1988 में पृथक् हिन्दी-विभाग स्थापित होने से अब यहाँ परास्नातकीय अध्ययन-सुविधा उपलब्ध है। क्या, ‘‘हिन्दी मेरी मातृभाषा है और भारत मेरी मातृभूमि’’ कहने वाले बेल्जियम के फ़ादर कामिल बुल्के के अवदान को, हिन्दी कभी विस्मृत कर पायेगी  !

‘अर्द्धरात्रि में सूर्य’ वाले देश नार्वे में लगभग दस हज़ार भारतीय रहते हैं। यहाँ प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय (ओस्लो)-स्तर तक हिन्दी पढ़ायी जाती है। हिन्दी-परिवेश निर्मित करने में हिन्दी-फिल्मों ने यहाँ सराहनीय भूमिका निभायी है। स्पेन तो हमारा घर है। यूरोप में यात्रा करते हुए उत्तर-भारतीयों को प्रायः स्पेन का निवासी समझा जाता है। यहाँ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी बराबर पढ़ायी जा रही है।

चैकोस्लॉव्हाकिया के डॉ. आदोलेन स्मेकल भारत में चेक-गणराज्य के राजदूत रहे हैं। चार्ल्स विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए., पीएच.डी. करने वाले डॉ. आदोलेन ने ‘गोदान’ का चेक-भाषा में अनुवाद किया। वे हिन्दी को अपनी दूसरी मातृभाषा मानते हैं। हिन्दी में उनके आठ कविता-संग्रह प्रकाशित हैं। तुर्की में स्नातक-स्तर पर हिन्दी भाषा, अन्य विषयों के समान, एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ायी जाती है, जिसमें उत्तीर्ण होने के लिए सत्तर प्रतिशत अंक प्राप्त करना अनिवार्य है। अंकारा विश्वविद्यालय में गत लगभग चार दशकों से परास्नातकीय-स्तर पर हिन्दी भाषा और साहित्य के पठन-पाठन की सुव्यवस्था है। यहाँ ‘हिन्दी-तुर्की शब्दकोश’ का निर्माण तो बहुत-पहले ही हो चुका था।

अंगरेज़ी के तीसरे बड़े देश ऑस्टेªलिया की प्रधानमंत्री सन् 2012 में जब भारत पधारीं, तो उन्होंने अपने सभी देशवासियों से यथाशीघ्र हिन्दी पढ़ने-सीखने और व्यवहार में लाने की अपील की थी, ताकि भारत और आस्ट्रेलिया के विविध स्तरीय सम्बन्धों में और-मज़बूती लायी जा सके। इसी कड़ी में आस्ट्रेलियाई सरकार ने अपने हिन्दीभाषी (सिडनी विश्वविद्यालय से परास्नातकीय हिन्दी उपाधि-प्राप्त) राजनयिक पैट्रिक सकलिंग को नयी दिल्ली में उच्चायुक्त नियुक्त किया। इस कार्य को अधिक-गतिमान बनाने के लिए आस्ट्रेलिया की राजधानी मेलबर्न में स्थापित ‘आस्ट्रेलियाई इण्डिया इंस्टीच्यूट’ नामक थिंक टैंक ने सरकार सेे सिफारिश की है कि आस्ट्रेलिया में मौजूद कुशल प्रवासी-भारतीयों से यहाँ के विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़वायी जाये। सत्र 2016 से तो ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने स्कूलों में, ऐच्छिक रूप में, हिन्दी पढ़ाने की अनुमति दे दी है। वर्तमान में आस्ट्रेलिया की कईं व्यावसायिक/अव्यावसायिक संस्थाएँ (ऑस्ट्रेलियन हिन्दी नेशनल यूनिवर्सिटी, हिन्दी स्कूल ऑफ साउथ ऑस्ट्रेलिया, हिन्दी समाज: वैस्टर्न ऑस्ट्रेलिया आदि), अद्यतन तकनीकों का सदुपयोग करते हुए, प्रत्येक स्तर पर, हिन्दी-प्रशिक्षण का अच्छा कार्य कर रही हैं।

मॉरीशस की लगभग 12 लाख आबादी में से 85 प्रतिशत भारतीय हैं और उन 85 प्रतिशत में से 90 प्रतिशत बिहारी हैं। वास्तव में, यहाँ एक लघुभारत के दर्शन होते हैं, जहाँ ‘राम-राम’ या ‘ऊँ॰ नमः शिवाय’ कहकर परस्पर-अभिवादन किया जाता है। यद्यपि मॉरीशस में सरकारी कामकाज की भाषा अंगरेज़ी है, तथापि यहाँ के प्रत्येक विद्यार्थी के लिए हिन्दी पढ़ना अनिवार्य है। मॉरीशस विश्वविद्यालय में पीएच.डी. तक हिन्दी-अध्ययन की सुविधा है। इस देश में हिन्दी-पत्रकारिता का इतिहास लगभग 130 वर्ष पुराना है। इस अवधि में यहाँ पचास से अधिक हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘हिन्दी प्रचारिणी सभा’, ‘हिन्दी लेखक संघ’, ‘हिन्दी अकादमी’, ‘साहित्य संवाद’ तथा ‘इन्द्रधनुष सांस्कृतिक परिषद्’ आदि संस्थाएँ तो वहाँ पहले से ही कार्यरत थीं , अब यहाँ भारत सहित 138 देशों के सहयोग से ‘विश्व हिन्दी सचिवालय’ की स्थापना हो चुकी है, जो विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार और आकलन-विश्लेषण के केन्द्र-रूप में कार्य कर रहा है तथा नियमित रूप से ‘विश्व हिन्दी समाचार’ त्रैमासिकी प्रकाशित कर रहा है। अब तक यहाँ तीन विश्व हिन्दी-सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं। स्वर्गीय अभिमन्यु अनत के बाद रामदेव धुरंधर, भानुमती नागदान, सरिता बुद्धू और हेमराज संुदर आदि हिन्दी के बहुत-बड़े साहित्यकार हैं, जो हिन्दी-सेवा में सन्नद्ध हैं। विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को समर्पित अलका दुनपुथ को, भारत सरकार द्वारा, ‘जॉर्ज ग्रियर्सन एवार्ड (2013) से नवाज़ा जा चुका है। उल्लेखनीय है कि मॉरीशस में गत लगभग 100 वर्षों से हिन्दी-रचनाएँ मिलती हैं, फलस्वरूप यहाँ हिन्दी-साहित्य का एक पुष्कल भण्डार उपलब्ध है।

शर्त्तबंदी-प्रथा के अन्तर्गत बहला-फुसलाकर फीजी ले जाये गए हज़ारों गिरमिटिये-भारतीयों में से अधिकतर पश्चिमी-उत्तरप्रदेश तथा पूर्वी-बिहार के रहने वाले थे, जिनकी भाषा, सामान्यतः, अवधी व भोजपुरी थी। वर्तमान में भारतीय मूल के लगभग 44 प्रतिशत हिन्दू-समाज में हिन्दी-भाषा और साहित्य की परिधि अत्यन्त व्यापक है। यहाँ की घोषित तीन राजभाषाओं में से हिन्दी भी एक है। यद्यपि फीजी में शासन और शिक्षा की भाषा अंगरेज़ी है, तथापि फीजीवासी हिन्दी-प्रेमियों के हृदय में अपनी भाषा के प्रति विशेष मोह है और वे इस सत्य से सुपरिचित हैं कि अपनी भाषा की प्रतिष्ठा से ही अपनी संस्कृति को जीवित और संरक्षित रखा जा सकता है। फीजी का लम्बासा-क्षेत्र तो पूरा अयोध्या ही है। सन् 1927 में मास्टर अमीचंद के फीजी-आगमन से हिन्दी के विधिवत् पठन-पाठन को गति मिली। वर्तमान में ‘रेडियो नवरंग’ सहित अनेक प्रसारण-माध्यम चौबीसों घण्टे हिन्दी-कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहते हैं, जिनसे फीजी में हिन्दी की स्वीकार्यता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यहाँ की ‘हिन्दी टीचर एसोसिएशन’ और ‘आर्यसमाज’ आदि संस्थाएँ हिन्दी की विस्तृति में अपना भरपूर योगदान दे रही हैं। राजधानी सूवा से गत अस्सी वर्षों से, लगातार निकल रहा साप्ताहिक समाचारपत्र ‘शांतिदूत’ विदेशी हिन्दी-पत्रकारिता का कीर्ति-स्तम्भ माना जाता है, जो फीजी के अतिरिक्त आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड तथा प्रशांत-महासागर के अनेक द्वीपों में बसे भारतीयों द्वारा नियमित रूप से पढ़ा जाता है।

आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि सूरीनाम गणराज्य में तो हिन्दी न जानने वाला व्यक्ति सरकार में मंत्री ही नहीं बन सकता। यहाँ आकाशवाणी के छह रेडियो-केन्द्र और चार टीवी-केन्द्र हैं, जिनसे हिन्दी-समाचार, धारावाहिक और फ़िल्मी गीत निरन्तर प्रसारित होते रहते हैं। यहाँ के दूरदर्शन पर महाभारत सीरियल का दो बार प्रसारण हो चुका है। भारत सरकार ने अपना सातवाँ विश्व-हिन्दी सम्मेलन सूरीनाम में ही आयोजित किया था। यहाँ की लगभग 40 प्रतिशत आबादी भारतवंशियों की है और उनमें से लगभग 30 प्रतिशत हिन्दू हैं। सूरीनाम की 90 प्रतिशत आबादी ‘सरनामी हिन्दी’ का प्रयोग करती है, जिसमें 70 प्रतिशत अवधी, 20 प्रतिशत भोजपुरी और 10 प्रतिशत डच-शब्दावली का मिश्रण है। सूरीनाम के शताधिक विद्यालयों और उत्रेखत विश्वविद्यालय में सरनामी हिन्दी की पढ़ाई होती है। यहाँ की ‘सूरीनाम हिन्दी परिषद्’ भी बहुत-अच्छा कार्य कर रही है। गयाना में 44 प्रतिशत भारतीय बसते हैं और हिन्दी उनकी सामाजिक पहचान एवं सांस्कृतिक परम्परा को बनाये रखने का साधन बन चुकी है।

त्रिनिदाद-टोबेगो में लगभग 41 प्रतिशत लोग उत्तरप्रदेश और बिहार, अर्थात् डायस्पोरा हैं। यहाँ अभिवादन के समय प्रायः ‘सीताराम’ का प्रयोग किया जाता है। यहाँ के प्रधानमंत्री श्री वासुदेव पाण्डेय और श्रीमती कमलाप्रसाद बिसेसर हिंदीभाषी रहे हैं, जो नियमित रूप से ‘हनुमानचालीसा’ का पाठ करते थे। हिंदी-गाने यहाँ बहुत लोकप्रिय हैं। ‘दुलारी’ फिल्म (1949) का ‘सुहानी शाम ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे’ गाना तो यहाँ के अघोषित-राष्ट्रगान का स्थान ले चुका है। त्रिनिदाद के भारतवंशी भारत को अपनी ‘नानीमाता’ पुकारते हैं। यहाँ हिन्दी पढ़ाने का अधिकांश कार्य लगभग 400 मंदिरों के पंडितों-पुजारियों द्वारा निष्ठापूर्वक किया जा रहा है। अनेक महाकाव्यों के प्रणेता हरिशंकर आदेश यहाँ के विश्वविख्यात हिन्दी-सेवी हैं। यहाँ की ‘भारतीय विद्या संस्थान’, ‘हिन्दी निधि’ और ‘हिन्दी बात’ जैसी संस्थाओं का हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान है। भारत सरकार ने अपना पाँचवाँ विश्व-हिन्दी सम्मेलन त्रिनिदाद में ही आयोजित किया था। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार गिरमिटिया देशों में हिन्दी के अध्ययन और विकास के लिए छात्रवृत्तियाँ भी प्रदान कर रही है।

खाड़ी देशों में भारतीयों के लिए, अमीरों की कम्पनियों द्वारा, ‘इण्डियन स्कूल’ का प्रबन्धन होता है, जहाँ भारतीय सीबीएसई-पाठ्यक्रम और परीक्षा-संचालन पद्धति प्रभावी है। मस्कट में 16 ऐसे भारतीय विद्यालय हैं, जिनमें प्रत्येक स्कूल में कम-से-कम दो हज़ार विद्यार्थी पढ़ते हैं। इन विद्यार्थियों के लिए आठवीं कक्षा तक हिन्दी-पढ़ना अनिवार्य है। आबुधाबी में, अरबी और अंगरेज़ी के बाद, अब हिन्दी को न्यायालयों की आधिकारिक भाषा बनाया गया है। ध्यातव्य है कि यूएइ में 26 लाख भारतीय रहते हैं, जो वहाँ की कुल आबादी का 30 प्रतिशत हैं।

हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय महत्ता के संदर्भ में यह जानकर हमारा अन्तर्वाह्य आह्लादित हो उठता है कि हिन्दी-भाषा, साहित्य और लिपि सम्बन्धी पाठ्यपुस्तक-निर्माण, सर्वेक्षण और शोध-कार्य सबसे पहले विदेशी विद्वानों द्वारा ही किया गया था। पहला हिन्दी-व्याकरण डच विद्वान् जॉन जोशुआंे केटिलयर ने सन् 1698 में लिखा था। हिन्दी भाषा, साहित्य तथा व्याकरण के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाला पहला ग्रन्थ 1773 ई. में लन्दन से प्रकाशित हुआ था, जो जॉन फर्गुसन की ‘हिन्दुस्तानी डिक्शनरी’ के रूप में प्रख्यात है। हिन्दी की प्रारम्भिक पाठ्यपुस्तकों का निर्माण फोर्ट विलियम कॉलिज (1800 ई.) में हिन्दुस्तानी अध्यापक-पद पर नियुक्त जॉन बोथविक गिलक्राइस्ट द्वारा किया/कराया गया था। हिन्दी-साहित्य का पहला इतिहास ‘इस्त्वार द ला लित्रेत्यूर ऐंदुई ऐ ऐंदूस्तानी’ (1839-47) फ्राँसीसी विद्वान् गार्सां द तासी ने लिखा था। इसी कड़ी में सन् 1888 में आयरिश भाषाविद् सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने ‘द मॉडर्न वर्नेक्युलर लिट्रेचर ऑव हिन्दुस्तान’ नामक दूसरा साहित्येतिहास लिखा। इन्हीं जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इण्डिया’ (1898-1928) सम्पन्न किया था। इनसे पहले यही कार्य जर्मन-ब्रिटिश प्राच्यविद् एएफआर हार्नले, 1880 ई. में, ‘ए कम्पैरेटिव ग्रामर ऑव द गौडियन (इंडो-आर्यन) लैंगुएजिज़’ शीर्षक के अन्तर्गत कर चुके थे। रामचरितमानस पर पहला शोधालेख ‘इल रामचरितमानस ए इल रामायण’ (1911 ई.) इटली के विद्वान् एल.पी. तैत्सितोरी ने लिखा था, जिस पर उन्हें फ्लोरेंस विश्वविद्यालय ने पीएच.डी की उपाधि प्रदान की थी। दूसरा शोधप्रबन्ध ‘द थियोलॉजी ऑव तुलसीदास’ (1918 ई.) अंगरेज़-विद्वान् जे.आर. कार्पेण्टर ने लिखा था। रामचरितमानस का संसार की सभी भाषाओं में अनुवाद विदेशी हिन्दी-विद्वानों द्वारा ही किया गया है। विदेशी भाषाओं के हिन्दी-द्विभाषी कोश तो विदेशी विद्वानों द्वारा ही लिखे गए हैं।

जहाँ तक लिपि का सम्बन्ध है, देवनागरी लिपि में हिन्दी का पहला व्याकरण सन् 1771 ई. में ईसाई पादरी बेंजामिन शुल्ज़ ने ‘ग्रामेटिका हिन्दुस्तान’ नाम से तैयार किया था। फ्रेहरिक जॉन शौर ने 20 मई, 1832 ई. से 01 जून, 1834 ई. तक अनेक तर्कपूर्ण-न्यायपूर्ण लेख हिन्दी-भाषा और देवनागरी लिपि के समर्थन में लिखे थे। वह पहला अंगरेज़-पदाधिकारी था, जिसने भारत की कार्यपालिका और न्यायपालिका की भाषा एवं लिपि पर गहन-निष्पक्ष विचार करते हुए हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के पक्ष में अपना ऐतिहासिक निर्णय दिया था - इतना ही नहीं, उसने अंगरेज़ी-पुस्तकों का प्रकाशन देवनागरी लिपि में करने का भी परामर्श भी दिया था।

हिन्दी को विश्वव्यापी बनाने में मिशनरियों की भी बड़ी भूमिका रही है। जहाँ ईसाई मिशनरियों ने प्रवासी भारतीयों का धर्म-परिवर्तन करने के लिए हिन्दी में अनूदित बाईबल उपलब्ध करवायी, वहीं, इसके विरोध में भारतीय मिशनरियों ने सनातनी शिक्षक नियुक्त करके हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। निस्संदेह, आज भी आर्यसमाज सरीखी संस्थाएँ, व्यापक स्तर पर, विदेशों में हिन्दी शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य कर रही हैं।

भारत सरकार का विदेश मंत्रालय विश्वभाषा-हिन्दी की समृद्धि के लिए प्रतिबद्ध है। सन् 1975 से लेकर अब तक भारत सरकार द्वारा ग्यारह विश्व हिन्दी-सम्मेलन (नागपुर-1975, मॉरीशस-1976, दिल्ली-1983, मॉरीशस-1993, त्रिनिदाद-1996, लंदन-1999, सूरीनाम-2003, न्यूयार्क-2007, जोहान्सबर्ग-2012, भोपाल-2015 और मॉरीशस-2018) आयोजित किए जा चुके हैं, जिनमें से आठ विदेशों में आयोजित हुए हैं। जोहान्सबर्ग में आयोजित नौवें विश्व हिन्दी-सम्मेलन में भारतीयों के अतिरिक्त लगभग सात सौ विदेशी प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इनमें से विभिन्न देशों (आस्ट्रेलिया, रूस, चेक गणराज्य, इटली, मॉरीशस, थाईलैंड, श्रीलंका, बुल्गारिया, अफगानिस्तान आदि-आदि) के उन तीस विद्वानों को सम्मानित किया गया था, जिन्होंने अंगरेज़ी, रूसी, जापानी तथा जर्मनभाषी देशों में जन्म लेकर भी न-केवल हिन्दी की पढ़ाई की, बल्कि उसके प्रचार-प्रसार में भी अपना जीवन लगा दिया। वस्तुतः, मनसा-वाचा-कर्मणा हिन्दी को समर्पित इन महानुभावों के कारण ही आज विश्व में हिन्दी का झण्डा बुलन्द है।

सितम्बर 10-12, 2015 ई. को भोपाल में आयोजित दसवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन पहला ऐसा सम्मेलन था, जो केवल-और-केवल हिन्दी-भाषा को समर्पित था (साहित्य को नहीं)। ‘हिन्दी जगत्: विस्तार एवं संभावनाएँ’ विषय पर आयोजित इस सम्मेलन में 39 देशों के प्रतिनिधियों सहित लगभग 5000 लोगों ने, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर, हिन्दी-भाषा के विविधमुखी विकास-विस्तार की सफलताओं और संभावनाओं पर खुलकर विचार-विमर्श किया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को डिजिटल-भाषा के अनुरूप बनाने के प्रयास करने पर बल दिया था। इस अवसर पर लगभग दो दर्जन देशी-विदेशी हिन्दी-सेवियों को ‘विश्व-हिन्दी सम्मान’ से विभूषित किया गया था।

ग्यारहवाँ विश्व-हिन्दी सम्मेलन 18-20 अगस्त, 2018 को मॉरीशस (राजधानी पोर्ट लुई) में सम्पन्न हुआ, जिसका मुख्य विषय था - ‘हिन्दी-विश्व और भारतीय संस्कृति’। इसमें भारतीय प्रतिनिधि-मण्डल के अतिरिक्त 20 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन की मुख्य चिन्ता के अन्तर्गत ‘‘प्रौद्योगिकी और भाषा को जोड़ने तथा उसके माध्यम से व्यापक जनता तक पहुँचने पर ज़ोर दिया गया।’’ उल्लेखनीय है कि 10 जनवरी, 1975 ई. को, नागपुर में, प्रथम विश्व हिन्दी-सम्मेलन का आयोजन हुआ था। इसमें 30 देशों के 122 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। तब से लेकर प्रतिवर्ष, 10 जनवरी को, भारत सरकार द्वारा, सभी विदेशी भारतीय दूतावासों में, अनिवार्य रूप से, विश्व हिन्दी-दिवस मनाया जा रहा है। ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ का कार्यालय भी अब हिन्दी में ट्वीट करने लगा है और इसने हिन्दी में ही, साप्ताहिक तौर पर, समाचारों का प्रसारण शुरू कर दिया है।

हमारा राजभाषा विभाग विदेशों में स्थित भारतीय कार्यालयों हेतु वार्षिक कार्यक्रम तैयार करता है और उसे कार्यान्वित करने का भरसक प्रयास करता है। विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी-शिक्षण हेतु, भारत से प्रतिनियुक्ति पर प्रोफ़ेसरों को भेजने के साथ-साथ, सरकार द्वारा विदेशी संस्थाओं को हिन्दी भाषा और साहित्य की पुस्तकें भी निःशुल्क उपलब्ध करवायी जाती हैं। विदेशी छात्रों को हिन्दी में शिक्षित-दीक्षित करने के लिए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है। ‘भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्’ ने विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में, देशी-विदेशी छात्रों को हिन्दी पढ़ाने के लिए, ‘भारतीय अध्ययन पीठ’ स्थापित की हुई हैं। इस परिषद् और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के प्रकाशन भी इस दिशा में बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा एतद्विषयक शिक्षण व शोध का कार्य शिखर पर है। आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा ने हिन्दी-कार्यक्रमों को प्रसारित करके, उसे विश्वभाषा बनाने में, महती भूमिका निभायी है। प्रवासी सर्जनात्मक हिन्दी-साहित्य के सर्वेक्षण-संकलन एवं विश्लेषण-मूल्यांकन की दृष्टि से केन्द्रीय साहित्य अकादेमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘विश्व हिन्दी रचना’ (267 रचनाओं का संकलन) तथा ‘हिन्दी का प्रवासी साहित्य’ नामक ग्रन्थ मील के पत्थर सिद्ध हुए हैं। इसी कड़ी में ‘मिट्टी की सुगन्ध’, ‘प्रवासी हस्ताक्षर’, ‘प्रवासिनी के बोल’, ‘दिशान्तर’, ‘देशांतर’ (दो भाग), ‘प्रतिनिधि आप्रवासी कहानियाँ’ के साथ-साथ ‘साक्षात्कार’ (329-31 अंक, मई-जुलाई 2007) का ‘प्रवासी भारतीय हिन्दी लेखन विशेषांक’, ‘विकल्प’ का ‘विश्व में हिन्दी’ तथा ‘हरिगंधा’ का ‘प्रवासी विशेषांक’ और विश्व हिन्दी-सम्मेलनों के अवसरों पर अनेकानेक सरकारी/ग़ैर-सरकारी पत्रिकाओं के विशेषांक आदि-आदि का भी ऐतिहासिक महत्त्व है।

सरकारी-अर्द्धसरकारी-गै़रसरकारी संस्थानों द्वारा विदेशों में प्रकाशित होने वाली हिन्दी-पत्रिकाएँ- ‘आर्यावर्त’, ‘आर्यवीर’, ‘आर्योदय’, ‘रिमझिम’, ‘इन्द्रधनुष‘, ‘पंकज’, ‘जनता’, ‘अनुराग’, ‘आभा’, ‘दर्पण’, ‘विश्व हिन्दी समाचार’, ‘विश्व हिन्दी पत्रिका’, ‘जागृति’, ‘ओरियंटल गज़ट‘, ‘आक्रोश’, ‘वसन्त’ (मॉरीशस), ‘साहित्य’, ‘मौजी’ (बंाग्लादेश), ‘हिमालिनी’ (नेपाल), ‘अमरदीप’, ‘प्रवासी टाइम्स’, ‘पुरवाई’ (ब्रिटेन), ‘भारत-दर्शन’ ‘हिन्दू टाइम्स’, ‘हिन्दी टीचर’(न्यूज़ीलैंड), ‘निकट’ (दुबई), ‘रूस’, ‘सोवियत नारी’, ‘सोवियत भूमि’ (रूस), ‘बसेरा’ (जर्मनी), चीन सचित्र’, ‘जनसचित्र’ (चीन), ‘स्पाइल-दर्पण’, ‘त्रिवेणी’, ‘परिचय’, ‘पहचान’, ‘आप्रवासी टाइम्स’, ‘सनातन मंच’, ‘शान्तिदूत’, ‘वैश्विका’, (नार्वे), ‘हिन्दी समाचार पत्रिका’, ‘हिन्दी गौरव’(ऑस्टेªलिया) , ‘ज्ञानदा’ (गुयाना) ‘सनातनधर्म प्रकाश’, ‘विकास’, ‘जागृति’, ‘धर्मप्रकाश’, ‘वैदिक संदेश’, ‘प्रेम संदेश’, ‘भारतोदय’, ‘आर्यदिवाकर’, ‘सूरीनाम दर्पण’, ‘सरस्वती’ (सूरीनाम), ‘शान्तिदूत’, ‘नवज्योति’, ‘फीजी समाचार पत्रिका’ (फीजी), ‘कोहेनूर’, ‘आर्यसंदेश’, ‘ज्योति’ (त्रिनिदाद-टोबेगो), ‘हिन्दी टाइम्स’, ‘हिन्दी अब्रोड’, ‘हिन्दी समाचार’, ‘वसुधा’, ‘हिन्दी चेतना’ (कनाडा), ‘अंक’, ‘सर्वोदय’, ‘जापान भारती’, ‘ज्वालामुखी’ (जापान), ‘विश्वा’, ‘सौरभ’, ‘विश्वविवेक’, ‘यादें’, ‘हिन्दी चेतना’, ‘कर्मभूमि’, ‘उमंग’, ‘हिन्दी-जगत्’, ‘भारत दर्शन’, ‘न्यास समाचार’, ‘विज्ञान प्रकाश’, ‘बाल हिन्दी जगत्’, ‘नमस्ते इण्डिया’ (अमेरिका) आदि-आदि - भी हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में अपना अप्रतिम योगदान दे रही हैं। इनमें से अनेक पत्रिकाएँ अब इंटरनेट पर भी उपलब्ध हैं।

इसी प्रकार भारतवर्ष से निकलने वाली प्रवासी पत्रिकाओं में ‘अक्षरम् संगोष्ठी’, ‘अन्यथा’, ‘प्रवासी’ और ‘प्रवासी टुडे’ आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में गत लगभग 40 वर्षों से निरन्तर निकल रही ‘गगनांचल’ सर्वाधिक उल्लेखनीय है, क्योंकि यह एकमात्र ऐसी साहित्यिक पत्रिका है, जो ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्’, नई दिल्ली’ से प्रकाशित होकर, विश्व-भर के सभी दूतावासों में नियमित रूप से पहुँचकर, विश्व-हिन्दी की सशक्त-समर्थ पहचान बनी हुई है।

अन्यान्य क्षेत्रों में भी हिन्दी लगातार आगे बढ़ रही है। आँकड़े साक्षी हैं कि हिन्दी-फ़िल्में पहले दिन 50 से अधिक देशों में एक-साथ प्रदर्शित होती हैं। हम आपके हैं कौन की जितनी टिकटें विदेशों में बिकीं, संसार-भर में उतनी टिकटें किसी अन्य फ़िल्म की नहीं बिकीं। अभी कल ही की तो बात है कि हमारी आवारा व हाथी मेरे साथी फिल्मों के प्रति रूसियों/विदेशियों में कैसा पागलपन देखने को मिलता था! यह भी एक अकाट्य तथ्य है कि सत्यसाई बाबा के भजनों को हृदयंगम करने के लिए विश्व के लाखों लोग हिन्दी सीख चुके/रहे हैं। केबीसी, कॉमेडी नाइट्स विद कपिल, भाबी जी घर पर हैं, शाहरुख-आमिर-सलमान आदि की फ़िल्मों तथा सास-बहू सीरियलों आदि-आदि को देखने के लिए अगणित विदेशी हिन्दी-व्यवहार में निपुण हो चुके हैं। निस्संदेह, हिन्दी को दुनिया-भर में पहुँचाने-फैलाने में इन माध्यमों की बहुत-बड़ी भूमिका है। डब्ल्यू-डब्ल्यू-इ की कमेण्टरी हिन्दी में होने लगी है। हिन्दी में ‘लीला’ ऐप (लर्निंग इण्डियन लैंग्वेज विद आर्टिफिशयल इंटैलिजैंस) उपलब्ध है। विकीपीडिया पर, विविध विषयात्मक, एक लाख से अधिक लेख हिन्दी में उपलब्ध हैं।

इतना सब-कुछ होते हुए भी, हिन्दी को वैश्विक स्तर पर वैज्ञानिक-औद्योगिक भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए तत्काल कुछ ठोस एवं सार्थक कदम उठाने होंगे। हिन्दीभाषियों की भाषागत कुण्ठा को समाप्त करने के लिए निरन्तर विचार-विनिमय और प्रोत्साहन-आयोजन करते रहना होगा। समृद्ध हिन्दी-विश्वकोश को और-समृद्धतर करके उसके अधिकाधिक प्रयोग को सुनिश्चित बनाना होगा। मानविकी, समाजशास्त्र, वाणिज्य, प्रबन्धन, विधि, विज्ञान एवं तकनीकी की स्तरीय पुस्तकें लिखवानी-छपवानी होंगी तथा इस क्षेत्र में उपलब्ध समग्र देशी-विदेशी साहित्य/वाङ्मय को हिन्दी में लगातार अनूदित करते रहकर उसे इंटरनेट पर भी उपलब्ध कराना होगा। मनसा-वाचा-कर्मणा हिन्दी को अपनाने वालों की एक पूरी फौज तैयार करना भी हमारा धर्म बनता है। इस अभाव की पूर्ति हुए बिना हिन्दी का, सिद्धान्त एवं व्यवहार, दोनों रूपों में, विश्वहिन्दी के आसन पर बने रहने में असुविधा ही होगी।

दर्पण झूठ न बोले ! निष्कर्षस्वरूप कहा जा सकता है कि आज हिन्दी मात्र-एक देश ;भारतद्ध की ही भाषा नहीं है, वह विश्व-भर में फैले लाखों-करोड़ों प्रवासी भारतीयों और हिन्दी-सेवियों के परस्पर-सम्पर्क व सांस्कृतिक पहचान की अनुराग-भाषा भी है; एक नये विश्वधर्म, अन्तरराष्ट्रीय अनुशासन और मानवीय समरसता की भाषा भी है तथा विश्व की प्रतिष्ठित, मान्यता-प्राप्त और प्रयुक्त भाषा भी है। आज इंटरनेट पर जिस भाषा में सबसे अधिक कंटेंट जनरेट होता है, वह हिन्दी ही है। निस्संदेह, एक छत के नीचे आ चुके सम्पूर्ण विश्व के कोने-कोने में आप हिन्दी की अनुगूँज सुन सकते हैं। इसलिए सम्प्रेषण की नव्यतम तकनीक के साथ गहरा तालमेल स्थापित करने में निरन्तर समर्थ-सक्षम होती जा रही हिन्दी की वैश्विक भूमिका को अब और-अधिक महत्त्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। हाँ! यह उद्देश्य प्राप्त करने के लिए एक परिपक्व एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण तो अपनाना ही होगा तथा सर्वप्रथम ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ में हिन्दी को उसका चिर-प्रतीक्षित स्थान एवं महत्त्व दिलाने के लिए सत्यनिष्ठा से जुट जाना होगा।