विश्वसनीय / सुदर्शन रत्नाकर
उन्हें नई कॉलोनी में आए थोड़े ही दिन हुए थे। नई जगह नई समस्याएँ। सब से बड़ी समस्या काम वाली बाई की थी। वहाँ जो बाइयाँ काम करती थीं वह इतनी सुबह आ नहीं सकती थीं। कुछ दिन ऐसे ही चला फिर एक दिन वह स्वयं ही काम करने के लिए उनके फ़्लैट पर आ खड़ी हुई। देखने में ठीक ठाक लग रही थी। बातचीत हुई और अगले दिन से वह काम पर आने लगी। पर समस्या यह थी कि उन्हें ऑफ़िस जल्दी निकलना होता था, तब तक उसका काम समाप्त नहीं होता था और उसके सहारे घर खुला छोड़ कर नहीं जा सकते थे। उन्होंने ने कई बार सोचा कि वह काम करके ताला बंद कर के चली जायेगी पर पति उस पर विश्वास नहीं कर सके।
तब विशेष मन्त्रणा हुई और पतिदेव ने अपने समय में एडजेस्टमेंट की और वह काम समाप्त करवा कर कॉलिज जाने लगे। एक दिन शाम को कॉलिज से लौट कर पतिदेव ने काग़ज़ में लिपटा झुमका उनकी हथेली पर रखते हुए कहा, "क्या यह तुम्हारा है?"
उन्होंने देखते ही कहा, "हाँ यह तो मेरा ही है आपको कहाँ से मिला! मैंने तो दो दिन पहले ही दोनों झुमके अल्मारी में रखे थे।"
"शायद रखते हुए तुम्हारे हाथ से एक झुमका गिर गया था। आज सुबह झाड़ू लगाते हुए सावित्री को अल्मारी के नीचे से मिला था। उस समय मैं नहाने गया हुआ था। मेरे आते ही उसने मुझे देते हुए कहा," अंकल चीज़ें सम्भाल कर रखनी चाहिएँ। खो जाएँ तो शक ग़रीब पर ही जाता है। "
जब वह आई तो उन्होंने पूछा, "सावित्री इतना क़ीमती झुमका देख कर लालच नहीं आया?"
"नहीं ऑटी, चाहती तो मैं छुपा कर भी ले जा सकती थी। पर यह मेरे कितने दिन काम आता। एक न एक दिन आप झुमका सम्भालतीं। चोरी कभी न कभी पकड़ी ही जाती है। आप मुझे काम से निकाल देतीं। साथ ही औरों से भी कहतीं कि सावित्री चोर है। फिर भला मुझे कौन काम देता। छोटी होकर भी सावित्री ने कितनी बड़ी बात कह दी थी। उनके दिल में उसने एक विशेष जगह बना ली थी।