विश्वासघात / अलका सैनी
उस दिन प्रतिमा बहुत ख़ुश थी। अभी एक साल भी नहीं हुआ था उन्हें इस नई जगह पर आए हुए और एक साल के अन्दर-अन्दर न सिर्फ़ उन्होंने अपनी किताबों की दुकान अच्छी ख़ासी चला ली थी बल्कि अपनी ख़ुद की दुकान भी ख़रीद ली थी। प्रतिमा मन ही मन काफ़ी निश्चिन्त थी कि अब कम से कम दुकान के मालिक की हर महीने की चिक-चिक नहीं सुननी पड़ेगी। भगवान से वह यह भी प्रार्थना कर रही थी कि अगर उनका ख़ुद का घर भी ज़ल्द बन जाए तो कितना अच्छा रहेगा। नई दुकान ख़रीदने की ख़ुशी में उन्होंने दुकान पर ही छोटा-सा हवन और चाय-पानी का प्रोग्राम रखा था, जिसमें उनके वहाँ रहने वाले कुछ रिश्तेदार और उसके सास ससुर ही थे। दुकान ख़रीदने के लिए उन्होंने अपनी हिस्से की गाँव की ज़मीन बेच दी थी। प्रतिमा हवन के बाद सब को चाय आदि पूछ रही थी कि उसे बहुत हैरानी हुई जब उसने अंजलि को आते देखा। उसने तो वहाँ की अपनी किसी भी सहेली को नहीं बुलाया था। उसने सोचा था कि वह जब अपना घर ख़रीदेगी तभी सबको बुलाएगी। मन ही मन वह काफ़ी दुविधा में थी अंजलि को देखकर।
अंजलि का बेटा आदित्य और उसका बेटा शिवम् एक ही कक्षा में पढ़ते थे। जब प्रतिमा अपने बेटे शिवम् को आदित्य के जन्मदिन पर उसके घर छोड़ने गई तब वह अंजलि से पहली बार मिली थी। पहली मुलाक़ात में ही उसे अंजलि एक पढ़ी-लिखी और आकर्षक व्यक्तित्व वाली महिला लगी थी।
अंजलि के पति का दो साल पहले एक कार एक्सीडेंट में देहाँत हो गया था। तब उसे उसके पति के बैंक में ही नौकरी मिल गई थी। अंजलि के पति नहीं थे बावजूद वह ख़ुद को काफ़ी सजा-संवार कर रखती थी। वह अपने बेटे और सास के साथ रहती थी।
धीरे-धीरे उनका एक दूसरे के घर आना-जाना बढ़ता गया। प्रतिमा को अंजलि के पति न होने की वजह से उससे हमदर्दी हो गई थी। प्रतिमा को भी बेटे के साथ-साथ अंजलि के रूप में नई जगह पर अच्छी सहेली मिल गई थी। अंजलि अपनी नौकरी के कारण इतना व्यस्त रहती कि आदित्य काफ़ी समय प्रतिमा के यहाँ ही बिताता था। कभी-कभी देर होने की वजह से उसके पति को आदित्य को घर छोड़ने जाना पड़ता।
जब पहली बार राखी का त्यौहार आया तो आदित्य ज़िद करके अपनी मम्मी के साथ प्रतिमा की बेटी चंदा से राखी बंधवाने आ गया। आदित्य और चंदा में काफ़ी पटती थी। आदित्य भी चंदा को सगी बहन की तरह ही प्यार करता था। इस तरह दोनों परिवार थोड़े समय में ही आपस में काफ़ी घुल-मिल गए थे। कई बार प्रतिमा उसके पति और बच्चे घूमने जाते तो अंजलि और उसके बेटे को भी साथ ले लेते।
कुछ दिनों बाद प्रतिमा की मेहनत और प्रयासों से उन्हें बच्चो के डीएवी स्कूल की किताबों का काम भी मिल गया था। वह आशुतोष की उसके काम में पूरी मेहनत से मदद करती। यदि आशुतोष स्कूल वाली दुकान संभालते तो वह अपनी पुरानी दुकान का काम देखती। प्रतिमा काफ़ी मेहनती थी वह दुकान के साथ-साथ घर और बच्चों की ज़िम्मेवारी भी बख़ूबी संभाल लेती थी। प्रतिमा एक अच्छे घर-परिवार की थी और काफ़ी पढ़ी-लिखी होने के साथ-साथ अपने पति और बच्चो की तरफ पूरी तरह समर्पित थी।
अंजलि को आया देख उसे औपचारिकतावश उसका अभिवादन करना पड़ा। पर मन ही मन उसके हल-चल चलती रही कि अंजलि बिन बुलाए आख़िर वहाँ कैसे पहुँच गई। उस समय तो वह सबके सामने सहज होने का अभिनय करती रही पर ध्यान उसका इसी बात पर अटका रहा।
रात को जब सब काम निबटा कर वह ख़ाली हुई तो उसने आशुतोष को पूछ ही लिया कि अंजलि को किसने बुलाया था। आशुतोष कहने लगे, "हाँ प्रतिमा, मैं तुम्हें बताना भूल गया था उस दिन जब रात को काफ़ी देर हो गई थी और आदित्य को मैं छोड़ने गया तो अंजलि के बार-बार कहने पर मैं कुछ देर उनके घर बैठ गया। तब इधर-उधर की बातों में जब दुकान की बात निकली तो मैंने ही औपचारिकता वश उनको आने के लिए कह दिया था।"
प्रतिमा आशुतोष की बात पर कोई प्रतिक्रिया न कर सकी पर मन ही मन बेचैन-सी हो गई कि आख़िर अंजलि उसकी सहेली है तो जब तक प्रतिमा ने उसे आने के लिए नहीं कहा था तो उसे इस तरह आना शोभा नहीं देता था। उसकी बाक़ी सहेलियों को ख़ासकर मीनाक्षी को पता चलेगा तो उसे कितना बुरा लगेगा।
कुछ दिनों से वह अंजलि और आशुतोष के व्यवहार में काफ़ी बदलाव महसूस कर रही थी जब कभी भी आदित्य को छोड़ने या अंजलि के घर का कोई भी काम होता तो आशुतोष काफ़ी उत्सुक हो जाते। अंजलि भी अब पहले की तरह प्रतिमा को फ़ोन नहीं करती थी। अब कोई काम होता तो वह सीधे आशुतोष को ही फ़ोन करके कह देती।
एक दिन जब आदित्य को उसके घर छोड़ने जाना था तो उसकी बेटी चंदा ज़िद करने लगी,”पापा, आज हम सब चलते है और हमे आइसक्रीम खिला कर लाओ,मम्मी भी चलेगी, प्लीज़ पापा, आज बहुत मन है आइसक्रीम खाने का।।।”उसकी ज़िद के कारण प्रतिमा और सब साथ में आइसक्रीम खाकर आदित्य को घर तक छोड़ने चले गए। आदित्य अपने घर पहुँच कर कहने लगा, "आंटी, आप तो कई दिनों बाद हमारे घर आई हो, अन्दर चलिए ना और मम्मी से भी मिल लीजिये।"
अन्दर चल कर वे लोग ड्राइंग रूम में बैठ गए। कुछ देर बाद अंजलि अपने कमरे से बाहर आई तो उसने बहुत ही महीन सी नाइटी पहनी थी जिसमें ना सिर्फ़ उसका गोरा बदन यहाँ तक कि उसके उरोज भी साफ़ दिखाई दे रहे थे। प्रतिमा को यह देखकर शर्म से पानी-पानी हो गई कि अंजलि को आशुतोष की तो कम से कम कोई शर्म करनी चाहिए थी। प्रतिमा का अंजलि की बेशर्मी देखकर वहाँ दम घुटने लगा और वह झट से खड़ी हो गई।
प्रतिमा उस दिन से काफ़ी परेशान रहने लगी थी। एक दिन आशुतोष स्कूल वाली दुकान पर जाते समय प्रतिमा को पुरानी दुकान पर छोड़ गए।कुछ देर बाद प्रतिमा को अपनी तबीयत ख़राब-सी लगने लगी, उस दिन दुकान पर कोई ख़ास काम भी नहीं था। उनकी दुकान के नज़दीक ही उसका घर था। कुछ देर तो उसने कोशिश की बैठने की पर जब हिम्मत जवाब देने लगी तो उसने सोचा कि कुछ देर के लिए घर चली जाती है और थोड़ी देर दवाई लेकर आराम करके बाद में आ जाएगी। वह नौकर को दुकान पर बैठकर घर चली गई। अक्सर उनके घर की चाबी वही गमले के नीचे पड़ी रहती थी। उस दिन घर पर भी कोई नहीं था क्योंकि बच्चे स्कूल गए थे। उसने देखा तो उसे चाबी वहाँ नहीं मिली कुछ देर तो वह ढूँढने की कोशिश करती रही। फिर उसने देखा तो पाया कि घर तो अन्दर से ही बंद है। जब उसने दरवाज़ा खटखटाया तो जो दृश्य उसे सामने नज़र आया उससे उसके पैरों तले की ज़मीन ही सरक गई। वह अंजलि और आशुतोष को वहाँ देखकर बिना कुछ बोले उलटे पाँव वापिस दुकान पर चली गई।
उस दिन के बाद वह बहुत गुम-सुम रहने लगी। उसे यह सोचकर गहरा आघात पहुँचा कि जिस सहेली को बेसहारा समझ कर उसने सहारा देने की कोशिश की उसने उसी के साथ विश्वास-घात किया। और उसके पति आशुतोष जिनके हर सुख-दुःख में वह एक परछाई की तरह साथ निभाती रही उसी इंसान ने सही ग़लत का फ़र्क ख़त्म कर दिया। उसे मन ही मन आशुतोष से नफ़रत हो गई कि मर्द की तो जात ही ऐसी होती है। अगर उसकी आँखों के सामने ये सब चल रहा था तो चोरी-छिपे तो पता नहीं किन-किन औरतों के साथ हमबिस्तर हुए होंगे अभी तक। प्रतिमा बहुत दुखी रहने लगी। सारा दिन घर में पड़े रहना न किसी से बात करना न कहीं जाना, बस मन ही मन घुटते रहना। वह अन्दर से बुरी तरह टूट कर बिखर गई थी। कोई फ़ोन भी आता तो भी बात न करती।
आशुतोष की मासी का वहीं पास में ही घर था उन्होंने जब वह इस अनजान जगह पर आए थे तो उनकी काम के लिए दुकान ढूँढने और घर की तलाश में काफ़ी मदद की थी। उस मासी का बेटा विक्रम और प्रतिमा कभी कालेज में साथ-साथ पढ़ते थे। एक दिन वह अचानक उनके घर चला आया और शिकायत करते हुए कहने लगा, “क्या बात है भाभी आज कल फ़ोन का जवाब भी नहीं देती मैं कबसे आपको फ़ोन कर रहा था। आपने फ़ोन नहीं उठाया तो मुझे चिंता होने लगी तो सोचा कि चल कर देखूँ तो सही कि माज़रा क्या है। दरवाज़ा भी आपने कितनी देर बाद खोला है। मम्मी भी आपको कई दिनों से याद कर रही थी।"
प्रतिमा अपनी उदासी छुपाती हुई सहज होने का अभिनय करते हुए,”नहीं विक्रम ऐसी कोई बात नहीं है। बस कुछ दिनों से तबीयत ठीक नहीं थी इसीलिए नहीं आ पाई।"
विक्रम उसके चेहरे के भावो को पढ़ते हुए बोला, “क्यों झूठ बोल रही हो? कोई बात तो ज़रूर है। आशुतोष के साथ कोई बात हुई है क्या? मैं तुम्हे कालेज के ज़माने से जानता हूँ।"
प्रतिमा और विक्रम कालेज से ही एक दूसरे को अच्छे से जानते थे। शुरू से ही वह विक्रम को एक अच्छा दोस्त मानती थी परन्तु जब आशुतोष से उसका विवाह हो गया तो रिश्ते की मर्यादा के तहत वह विक्रम से दूरी बनाए रखती। विक्रम भी अब उसे उसका नाम लेकर बुलाने की बजाय भाभी कहकर बुलाता था।
उस दिन इतने दुविधा भरे हालात में विक्रम को सामने देख कर वह ख़ुद को रोक नहीं पाई और भावुक होकर उसने अंजलि और आशुतोष वाला सारा किस्सा ब्यान कर दिया। प्रतिमा बात करते-करते अपने आँसुओं को रोक नहीं पा रही थी जो आंसू कब से उमड़ने के लिए बेचैन थे। विक्रम को प्रतिमा की ऐसी हालत पर तरस आने लगा और आशुतोष पर उसे बहुत गुस्सा आया। कि इतनी अच्छी, पढ़ी-लिखी और सुशील पत्नी को छोड़कर ये सब बातें क्या उसे शोभा देती है? विक्रम को शुरू से ही प्रतिमा से लगाव रहा था पर उसके विवाह के बाद उसने अपने आपको सीमित कर लिया था और कभी भी कोई फ़ालतू बात करने की कोशिश तक नहीं की थी।
विक्रम प्रतिमा की कहानी सुनकर एक बार तो जड़वत हो गया। उसे कुछ देर समझ नहीं आया कि वह क्या कहे फिर वह काफ़ी देर प्रतिमा के पास बैठा उसे सांत्वना देता रहा। उसे प्रतिमा की हालत काफ़ी चिंता जनक लगी कि कहीं मानसिक परेशानी के चलते वह कुछ उल्टा सीधा न कर ले। विक्रम की बातों से प्रतिमा थोड़ा संभल गई।
प्रतिमा ने विक्रम को इस बारे में किसी से भी बात करने के लिए मना कर दिया यह सोचकर कि कहीं बात ज़्यादा न बिगड़ जाए। उस दिन के बाद विक्रम को प्रतिमा की चिंता रहने लगी। वह दिन में कई बार फ़ोन करके उससे उसका हाल पूछता और समय मिलता तो उसे मिलने चला आता। विक्रम की आत्मीयता से प्रतिमा को काफ़ी होंसला मिला कहते है न ढूबते को तिनके का सहारा।
जब ये बातें आशुतोष के कानो तक पहुंची कि विक्रम कई बार प्रतिमा से मिलने आ चुका है तो वह बहुत आग बबूला हुआ। पहले तो फ़ोन करके उसने विक्रम को बहुत बुरा भला कहा और फिर बहुत तैश में आकर घर पर आकर प्रतिमा को बुरा-भला कहने लगा, “क्या बात प्रतिमा आज कल विक्रम बहुत आने जाने लगा है, पुराना प्यार तो कहीं जाग नहीं रहा। मेरी ख़ूब बुराइयाँ कर रही होगी उसके सामने और वह भी पूरी हमदर्दी जता रहा होगा पुराना दोस्त जो ठहरा। एक बात को पकड़ कर बैठे रहना है तो बैठी रहो। रोती रहो सारा सारा दिन घर बैठकर, लोगों को जतला रही होगी कि तुम कितनी दुखी हो मेरे साथ और करलो जितना बदनाम करना है मुझे, जिस-जिस को भी जो बताना है मेरे बारे में बता दो तुम्हे शान्ति मिल जाएगी न ये सब करके।"
प्रतिमा के सब्र का बाँध टूटने लगा तो आशुतोष की शूल के समान चुबने वाली बातें सुनकर आख़िर प्रतिमा को बोलने के लिए मजबूर होना पड़ा।,"आशुतोष, तुम मर्द लोग भी बहुत अजीब होते हो जब तुम लोग बाहर जाकर दूसरी औरतों के साथ हमदर्दी करते हो और गुलछर्रे उड़ाते हो तो तुम्हें कुछ भी करने की छूट है क्योंकि तुम मर्द हो इसलिए। हमारा पुरुष प्रधान समाज भी बहुत अजीब क़ायदे क़ानून बनता है, दोहरापन फैला हुआ है हमारे समाज में। जब किसी अपने ने आकर तुम्हारी पत्नी से हमदर्दी से दो बोल बोले तो तुमसे बर्दाश्त नहीं हुआ। यदि विक्रम समय सिर आकर मुझे न संभालता तो पता नहीं तनाव में मैं क्या कर बैठती।"
"हाँ हाँ सबको चिल्ला-चिल्ला कर बताओ कि मैं तुम्हे कितना दुखी रखता हूँ।”कहते-कहते आशुतोष का हाथ प्रतिमा पर उठते-उठते रह गया।
प्रतिमा आशुतोष की ऐसी हरक़त पर एक दम से स्तब्ध रह गई और आख़िर इतने दिनों से जो गुभार प्रतिमा के अन्दर भरा पड़ा था वह लावा बन कर बाहर आ गया,”आशुतोष तुम जैसे लोगों के लिए भावनाओं की कोई कद्र नहीं होती, तुम्हारे लिए तो प्यार सिर्फ़ ज़िस्म पाने का ही नाम होता है। यदि सही मायने में अंजलि से हमदर्दी है तो हिम्मत है तो जाओ उसके साथ रहकर दिखाओ। अरे तुम में कहाँ इतनी हिम्मत है पर अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह पाऊँगी क्योंकि प्यार ज़िस्म से नहीं आत्मा से होता है और जब किसी रिश्ते में प्यार ही न हो तो उसे मेरे हिसाब से उसे घसीटने से कोई लाभ नहीं। इसलिए हम दोनों के लिए बेहतर होगा कि हम दोनों अलग हो जाए।"