विश्वास / पद्मजा शर्मा
मैं दुकानदार को फोन पर ही किराणे का सामान लिखवा देती हूँ। उनका आदमी घर आकर सामान दे जाता है। अगर बिल नौ सौ अठावन का है तो दुकानदार लड़के को छुटे रुपए देकर भेजता है। लड़का मुझे सामान के साथ छुट्टे रुपए और बिल थमाता है। मैं उसे एक हजार का बंधा नोट थमा देती हूँ। जिससे मुझे असुविधा न हो और उनका आदमी खोटी न हो। समय की बचत हो। यह सिलसिला लगभग दस साल से अनवरत चल रहा है।
कुछ दिन पहले उसी दुकान से एक नया लड़का सामान लेकर आया। उसने मुझे बिल थमा दिया। मैंने उसकी ओर देखा कि शायद पैसे निकाले। मगर उधर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर मैंने उसे पूरे रुपए दे दिए. अब के फिर उसने ऐसा ही किया। मुझे दाल में कुछ काला लगा। दफ्तर से लौटते समय मैं एक दिन किसी सामान के लिए उस दुकान पर रुकी। भीड़ लग रही थी। मुझे वही लड़का दिख गया। मैंने दुकानदार को सारी बात बताई. दुकानदार ने आश्चर्य किया। मगर मुझे बोला-'मैडम, हम उसे पैसे देते तो वह आपको देता न? हमने अब सिस्टम बदल दिया। पहले आदमियों की कमी थी। इसलिए ऐसा करते थे।'
मुझे उनके जवाब से संतोष तो नहीं हुआ पर चली आई. अगली बार जब मैंने दुकान पर फोन किया तो दुकानदार ने कहा 'सॉरी मैडम, उस दिन मैं आपको झूठ बोला। उस लड़के ने गड़बड़ की थी। आपके जाने के बाद जब भीड़ छंट गई तब मैंने उसका हिसाब चुकता कर दिया और सदा के लिए उसकी छुट्टी कर दी। उसे निकाल दिया।'
दुकानदार के इस बर्ताव पर मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने कहा 'उस समय आपने उसका पक्ष क्यों लिया?' 'वो इसलिए कि उस समय दुकान पर ग्राहकों की भीड़ थी। वे हमारी बातें सब सुन रहे थे। मैं सबके सामने अपने आदमी को चोर बताता तो ग्राहकों का विश्वास हम पर से उठ जाता। विश्वास बनाने में सालों लगते हैं पर टूटने में एक ही पल।'