विश्व-कथा यात्रा: जल-प्रलय से अणु-प्रलय तक / कमलेश्वर
सदियों, सभ्यताओं, संस्कृतियों और इतिहासों के बीच से गुजरते हुए कहानी ने जो-जो रूप अख्तियार किये, यदि उन्हें मानव-विकास से सम्बद्ध किया जाए, तो सहज ही पता लगेगा, कि आदमी के लौकिक अस्तित्व और पारलौकिक आकांक्षाओं को मूलतः कहानी ने ही वाणी दी है, यदि इन कहानियों को सभ्यताओं के नीचे से हटा लिया जाए, तो सभ्यताएँ भरभराकर ढह जाएँगी!
आदिम मानव-सभ्यता की पहली काव्य-कथा (महागाथा ‘गिलगमेश’)की केन्द्रीय चिन्ता है कि मानव जाति मृत्यु से कैसे मुक्ति पा सकती है। नायक गिलगमेश इसी चिन्ता में है, और अमरता प्राप्त जिउसुद्दू उसे बताता है।
“यह अमरता मिलती है एक औषध (पौधे) से जो उगता है समुद्र तल में उसके काँटे तेरे हाथों में चुभेंगे गुलाब की तरह फिर भी पा ले अगर तू उसे, तो जीवन (अमरता) पा लेगा!”
और तब गिलगमेश अँधेरे समुद्र तल में उतरता जाता है, पैरों में पत्थर बाँधकर, और औषध लेकर जब ऊपर चलता है तो पत्थरों की रस्सियाँ काटकर भार-मुक्त होता है। वह बेहद थका हुआ है। जीवन-औषध को वह एक सरोवर के तट पर रख देता है, जरा स्नान करने के लिए, कि तभी ‘सर्प’ उस औषध की गन्ध पा लेता है और उसे लेकर भाग जाता है। अपने प्रयत्नों की इस निरर्थक परिणति से क्षुब्ध होकर गिलगमेश रोने लगता है।
और शायद तभी से ‘मृत्यु’ के लिए जन्मा मनुष्य अपने हर प्रयत्न को अन्ततः निरर्थक पाकर फिर-फिर प्रयत्न करता रहा है। हर बार कोई सर्प वह औषध लेकर भाग जाता है।
सदियाँ आयीं और बीत गयीं। सभ्यताएँ जन्मीं और मिट गयीं-पर ‘मृत्यु’ की यही केन्द्रीय चिन्ता चिरन्तन बनी रही, क्योंकि जब-जब मानव-मेधा ने औषध खोजी, तब-तब सर्प उसे लेकर भाग गया।
कीलाक्षरों में मृत्तिका पट्टों पर खुदी यह महान गाथा, अब तक प्राप्त प्राचीनतम साहित्य में सबसे पुरानी है। इस कथा का घटना-क्षेत्र दजला-फरात नदियों का दक्षिणी भाग है। मनुष्य नदियों के ऊपरी हिस्सों में रहते थे और जो देवता हो जाते (या थे), वे नदियों के मुहानों पर रहते थे। इस कथा का घटनाकाल कुछ विद्वान 8000 ई. पू. तक ले जाते हैं और मानते हैं कि कई सदियों बाद 3000-2000 ई.पू. में यह लिपिबद्ध की गयी।
असल में आदिम मानव का क्रीड़ांगण ही मध्य एशिया था - यहाँ अनेक सभ्यताओं, संस्कृतियों और इतिहासों ने जन्म लिया। कई बड़े धर्म यहीं से शुरू हुए।
मानवता की जहाँ यह पहली गाथा जन्मी, वह क्षेत्र सभ्यताओं की उर्वर भूमि रहा है, प्राचीनतम आर्य, मिस्री, सुमेरी, असीरी, बेबिलोनी, हिब्रू, हित्ती, यूनानी, रोमन सभ्यताएँ भूमध्य सागर के चारों ओर ही थीं। जैसे यह सागर फूल का बीजपिण्ड रहा हो और ये सभ्यताएँ फूल की पत्तियाँ। प्राचीनतम आर्य सभ्यता (भारतीय से पहले) भी इसी क्षेत्र की उपज है - जहाँ इतनी सभ्यताएँ जन्मीं, वहाँ कहानी न जन्मी हो, यह कैसे सम्भव है?
शिलालेख, अभिलेख, पट्टिका लेख, नरकुल पट्ट (पेपिरस), मृत्तिका पट्ट, चर्म पट्ट, धातु पट्ट आदि जितने भी लेखन को जीवित रख सकने वाले साधन थे, उन पर या तो घटनाएँ खुदी हैं, या आदेश, नियम, सूचनाएँ, विजय-विवरण, सन्धियाँ, सीमांकन, प्रशस्तियाँ, आज्ञाएँ, वृत्तान्त आदि। यह सही है कि इनमें ‘कहानियाँ’ नहीं हैं, पर कहानी के प्राचीनतम अवशेष यही हैं, क्योंकि इनमें विवरण ही प्रमुख है -सार्थक और सामयिक विवरण। वे विवरण, जिन्हें मनुष्य ने सुरक्षित रखना चाहा है, आगे आने वाली सदियों को सुनाना चाहा है।
आदिम युग में विशुद्ध काव्य की कृतियाँ भी प्रमुख नहीं हैं, अगर हैं भी, तो गेय गाथाएँ। वे चाहे सुमेरी हों, मिस्री, असीरी, बेबिलोनी, हित्ती या आर्य या फिर मिलते हैं मिस्री राजवृत्तान्त, क्रीट सभ्यता (यूनानी) के अनुवृत्त, या यूनानी संवाद-कथाएँ (मिस्री संवाद-कथाएँ सबसे प्राचीन हैं) या आर्य गेय गाथाएँ, या चीनी गद्यकाव्य (फ़ू.) या बेबिलोनी लोकगाथाएँ, या हित्ती चरित, या गान-मधुर गद्य, या फिर आर्य नीतिकथाएँ, या हिब्रू कहानियों (कहावतों के पीछे निश्चय ही उनके सार्थक घटना सन्दर्भ हैं) या सभी सभ्यताओं में समान रूप से प्राप्त-प्रसंग।
लोकोत्तर शक्तियों से भरा हुआ यह पूरा पुरातन संसार कथाओं के सहारे खड़ा है। यानी जहाँ कविता ने लौकिक को भी बहुत हद तक पारलौकिक बनाया, वहाँ पारलौकिकता को लौकिकता की आधार-भूमि देने में कथा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। कई सभ्यताएँ तो ऐसी हैं कि उनके नीचे से यदि वृत्तान्तों की धरोहर खींच ली जाए, तो वे भरभराकर गिर पड़ेंगी। पुरातन संसार देवी-देवताओं, अर्ध देवों, शक्तिमान असुरों, मन्त्र-शक्ति युक्त नर-नारायणों और अलौकिक पक्षियों से भरा हुआ है। जादू, रहस्य, मन्त्र, शाप, वरदान, ‘कर्सेज,’ आशीर्वादों और चमत्कारों से भरी इन सभ्यताओं में, देवता, देवी, नरसिंह, गरुड़, सर्प, सूर्य, इन्द्र, वज्र, वायु, नदी, हाथी, शेर, शूकर, पर्वत, जंगल, सरोवर, स्त्री, पुरुष, चींटी, खरगोश, सब मौजूद हैं - और सब एक साथ - ‘सृष्टि’ को सँभाले हुए हैं। चाहे वह ‘बृहत्कथा’ का लोह-जंघ हो या बेबिलोनी कथा का एतना-दोनों ही गरुड़ को इस्तेमाल करते हैं (एक पैशाची भाषा की कथा का भारतीय पात्र है और दूसरा अक्कादी पुराणों का एक कथा पात्र)।
लेकिन इस पूरे पुरातन संसार में जो कथाएँ भी प्रचलित हुईं, वे इस बात का प्रमाण निश्चय ही देती हैं कि सारी संस्कृतियों का मूल स्रोत एक ही रहा है-जिसका सबसे सबल प्रमाण हैं जल-प्रलय की वे कथाएँ, जो सबमें समान हैं (चीनी को छोड़ कर)। वे चाहे जिउसुद्दू हों, या मनु या हजरत नूह!
मानव-गाथा का उद्भव और मूलभूत प्रश्नों का सिलसिला
जहाँ हमारा प्रथम पूर्व पुरुष (अब तक ज्ञात) गिलगमेश ‘मृत्यु से मुक्ति’ के लिए छटपटा रहा है, वहीं जल-प्रलय की सृष्टि-कथाएँ मृत्यु के बाद जीवन की कामना से ओतप्रोत हैं। यानी फिर वही मृत्यु पर हावी रह सकने का प्रयास! वही मनु या मनुष्य हर संकट और संहार के बाद इस सृष्टि को अब तक बचाता आया है, चाहे उसे आदेश दैवी शक्तियों से मिलते रहे हों-पर हर युग और हर सभ्यता के नायक ने मनुष्योचित प्रश्न ही पूछे हैं-चाहे वह गिलगमेश हो, या प्रमथ्यु, या स्वर्ग से अमृत का घड़ा लाने वाले गरुड़, या ययाति, या एतना, जो जन्म की व्याख्या करना चाहता है, या अदपा, जो मृत्यु की खोज में व्यस्त है, या यूडिथ! या फिर चीनी जल-प्रलय का नायक (जो नितान्त लौकिक भौतिक है) और कहता है कि इस जल-प्लावन को मैंने संयमित किया, अन्न पैदा करना मैंने बताया...
यों देखने पर आज के सन्दर्भों में इन कथाओं की मुद्राएँ शायद कुछ सतही लगें, पर इनमें उठाये गये मूलभूत प्रश्नों का एक अटूट सिलसिला आज तक चला आ रहा है। वेद व्यास, होमर, एरिस्टोफेंस, ईसप, गुणाढ्य, ओविड, पेट्रोनियस, लूसियन, शेख सादी से होता हुआ डॉन जुआन मैनुअल, चॉसर, बोकेशियो और पोगियो तक, और उसके बाद वाल्तेयर, गोगोल, फ्लाबेयर, जोला, दॉस्तोवस्की से होता हुआ चेखव, काफ्का, प्रेमचन्द, गोर्की, लू सुन और फिर सार्त्र, जेम्स जॉयस, कामू, ओ’ कूनर, हेमिंग्वे, बेकेट से मंटो तक!
कथा संक्रमण और आदिम संस्कृतियों की अनुगूँज
यह लम्बी वैचारिक कथा यात्रा इतनी विचित्र सभ्यताओं, संस्कृतियों और इतिहासों के दौर से गुजरी है कि देखकर चमत्कृत रह जाना पड़ता है। इन्हीं युगों ने आदिम कहानियाँ दी हैं।
अक्कादी (सुमेरी, आसुरी, बेबलोनी; 3000 ईसा पूर्व से भी पहले) सभ्यता ने अदम्य शौर्य और मनुष्य की जिजीविषा की काव्य-कथाएँ दी हैं, तो प्राचीन सूर्योपासक मिस्र (3000 ईसा पूर्व से भी पहले) ने दिये हैं वृत्तान्त, चरित और फन्तासी (नौविप्लूप माँझी की कहानी)।
यज्ञपरक आर्यों (3000 ईसा पूर्व) ने दिये हैं छन्दबद्ध आख्यान और संवाद-कथाएँ। चीनी सभ्यता (2000 ईसा पूर्व) हमें देती है गद्यकाव्य, छन्दबद्ध उपन्यास और वृत्त (पतझड़ और वसन्त के)।
हित्ती सभ्यता (तुर्की में आर्य वंशजों की सभ्यता, 2800 ईसा पूर्व) ने इन्द्र, वरुण, मित्र आदि ऋग्वैदिक देवताओं को साक्षी बनाकर दिये हैं राजवृत्त, आख्यान और पत्र-कथाएँ! एक पत्र-कथा तो बहुत दिलचस्प है - “...कि राजा शुप्पिलुलिउमाश को मिस्र की महारानी ने लिखा है (पत्र द्वारा) कि हित्ती राजा अपने एक पुत्र को उसका पति बनने के लिए भेज दे। कुछ समय बाद राजा ने एक पुत्र भेजा, जिसे मिस्रियों ने मार डाला।” (जर्मन पुराविद ह्यूगो विंकलर के अनुसार)
इधर आर्य सभ्यता में राम-कथा और कृष्ण-कथा इतनी महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं (धार्मिक तथा अन्य कारणों से) कि वैदिक देवताओं को अपदस्थ करके वे नये-नये देवता गढ़ देती हैं। ग्रीक सभ्यता (1000 ईसा पूर्व) में आती हैं गड़रिये की गेय-गाथाएँ (जो क्रीट सभ्यता, 2500 ईसा पूर्व से सीधी चली आ रही हैं) कोरस-विवरण, संवाद-वृत्त, नाटकों की कथाएँ, व्याख्यान और इतिहास-कथाएँ (हेरोडोटस की)!
हिब्रू (इब्राकी) सभ्यता (1000 ईसा पूर्व) ने व्रतों-त्यौहारों के जो नियम बनाये, उनमें विश्वास पैदा करने के लिए कथाएँ गढ़ीं और बाइबिल को अपनी सशक्त लोक-कथा परम्परा दी। तभी भारत में गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ आती है और भारतीय आर्य प्रतिभा कहानियों का पहला विशुद्ध रूप प्रस्तुत करती है ‘हितोपदेश!’ (डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल यद्यपि ‘हितोपदेश’ को ‘पंचतन्त्र’ से प्रभावित मानते हैं, और बहुत बाद का) और विष्णु शर्मा कृत ‘पंचतन्त्र’! ये आर्यों की लौकिक कथाएँ हैं और बहुत मुमकिन है कि इनकी मौखिक धारा बहुत पहले से चली आ रही हो!
भारत : विश्व का पहला कथापीठ
‘पंचतन्त्र’ और ‘हितोपदेश’ में ऐसी नीति-कथाएँ हैं, जो भारत ही नहीं, विश्व भर को आप्लावित कर लेती हैं और निश्चित रूप से विश्व का पहला कथापीठ भारत बन जाता है। भारतीय कथापीठ को और महिमा मिलती है-जैन आगम कथाओं से, जातकों से, थेरिगाथाओं से। यहीं से इस महान कथापीठ की पूरब और पश्चिम दोनों दिशाओं में कथा संस्कृति फैलने लगती है। पंचतन्त्र और हितोपदेश की कथा संस्कृति फैलती है भूमध्यसागर से उत्तरी अफ्रीका, स्पेन, इटली, ग्रीस और सारे मध्य योरप में। और जातकों की कथा संस्कृति पूरब में चीन, जापान, बर्मा, लाओस, कम्बोडिया, इन्दोनेशिया तक फैल जाती है। यहाँ तक कि ‘धर्म’ को लेकर भी कथाएँ पेश की जाती हैं। वैसे गुणाढ्य की लौकिक कहानियाँ (बृहत्कथा) बहुत प्राचीन हैं, पर वे पैशाची भाषा में होने के कारण अन्धकार में रहीं।
और उधर भूमध्य सागर के पास की सभ्यताओं में होरेस, ओविड और दान्ते (लातीनी) उदित होते हैं-कवियों के रूप में, जो बाद में कथाकारों के लिए प्रेरणा सिद्ध होते हैं। यहाँ तक आते-आते हम ईसवी सदी के उदय काल तक आ पहुँचते हैं।
पहली सदी में योरप अपना पहला समर्थ कहानीकार पैदा करता है पेट्रोनियस! एपूलियस भी इसी समय लिखना शुरू करता है, पर कहानी के फार्म के लिए पेट्रोनियस और संक्षिप्तता के लिए मार्शल को स्वीकार करना जरूरी हो जाता है। पेट्रोनियस की प्रतिभा ने अपने समय में व्याप्त छद्म को उजागर किया और स्थापित वर्जनाओं-कुण्ठाओं को लेकर बड़ी सशक्त पर पुरमजाक कहानियाँ लिखीं, इसी सदी के जोवेनल को पहला व्यंग्यकार और सेनेका को त्रासदीकार के रूप में ख्याति मिली। पहली सदी समाप्त होते-होते पश्चिमी कहानी की दागबेल इन लेखकों ने डाल दी थी। इन प्रख्यात प्रतिभाओं के बाद लगभग दस सदियों तक भारतीय कथा संस्कृति का प्रचार-प्रसार मध्येशिया से होता हुआ योरप तक होता रहा।
जिस अमृत को प्रथम पूर्व पुरुष गिलगमेश ने खो दिया था, उसे ईरानी सम्राट खुसरो के राजवैद्य और मन्त्री बुर्जुए ने फिर खोज लिया-और कहा कि ‘पंचतन्त्र नामक ग्रन्थ ही अमृत है!’ वह सचमुच भारत में संजीवनी खोजते हुए आया था और ‘पंचतन्त्र’ को लेकर गया था (550 ई.)। हिब्रू तालमूद की बोधकथाओं के साथ-साथ लोक-कथाओं की एक सशक्त धारा भी इन सदियों में बह रही थी। चीनी कथाओं की विचित्र दुनिया भी उद्घाटित हो रही थी। जापान में राजघरानों की विलास-कथाएँ लिखी जा रही थीं और पंचतन्त्र के अनुवाद पहलवी भाषा से होकर मध्य एशिया, अरब देशों, उत्तरी अफ्रीका और स्पेन तक पहुँचते हैं। दूसरी ओर यूनानी अनुवाद होता है, जो रूस, जर्मनी होता हुआ योरप में फैलता है और इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के उदय से पहले भारतीय प्रतिभा की यह देन स्थापित हो जाती है।
दस सदियों तक निरन्तर भारतीय कथापीठ अपनी कथा संस्कृति फैलाता रहा। अरबी कथाएँ इनसे प्रभावित या प्रेरित हुईं। इसका प्रमाण इतना ही काफी है कि अरबों ने हाथी, मोर, सियार और शेर जैसे जानवरों का परिचय भारतीय कथाओं से ही प्राप्त किया, जो वहाँ की कथाओं में बार-बार आते हैं, पर वहाँ पाये नहीं जाते थे। और बारहवीं सदी तक आते-आते इस कथा संस्कृति की संजीवनी को विदेशी आक्रमणों के नाग ने चुरा लिया।
13वीं सदी में स्पेन ने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रतिभा को जन्म दिया - डॉ. जुआन मैनुअल। मैनुअल की रचनाओं का प्रेरणा-स्रोत भी भारतीय कहानियाँ ही रहीं। पर उसने साथ ही उस दृष्टि को भी जन्म दिया, जो अगली सदियों की कहानी को एक सशक्त साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित कर सकी।
धर्म, रोमांस, राजनीति के दायरे और कहानी-कला का विकास
मध्यकालीन युगों (13वीं से 16वीं सदी) में मठों और सामाजिक मूल्यों वाले समाज का भयंकर संघर्ष चला। धर्मसत्ता को तब कहानी ने ही छीलना शुरू किया और इटली ने बोकेशियो पैदा किया। पोगियो और स्ट्रेपरोला भी इसी समय आये और उधर चॉसर ने इसे समृद्ध किया (अपनी काव्य-कथाओं द्वारा)। उस समय धर्म का सबसे बड़ा केन्द्र था रोम, और वहीं कहानीकारों ने मनुष्य की स्वतन्त्रता (धर्म से) के लिए अपने प्रतिवाद अंकित किये। धार्मिक असहिष्णुता, कर्मकाण्ड, जड़ता और पाखण्ड को उद्घाटित करने में इस युग की कथाओं ने योगदान दिया।
उधर फ्रांस में (16वीं सदी प्रारम्भ) तभी रोमाण्टिक युग की शुरुआत हुई और मार्गराइट (नेवेयर की रानी) ने अद्भुत रोमाण्टिक कथाओं की सृष्टि की।
16वीं और 17वीं सदी में एक और प्रयाण हुआ। ये सदियाँ राजनीतिक हलचल, दिशाभ्रम, मोहभंग और राजनीतिक सत्ता की बेहूदी संस्कृति की रहीं, जिसने सर्वाण्टीज जैसा कथाकार पैदा किया, जिसने राजनीति के पाखण्ड को उधेड़कर रख दिया।
सर्वाण्टीज के युग की परिस्थितियों का साम्य आज स्वयं अपने देश में देखा जा सकता है...(परसाई और शरद जोशी के लेखन के रूप में!) डॉन क्विग्जोट जैसा कथा नायक अपने युग की विसंगति और पाखण्ड को निचोड़कर सामने रख देता
है।
18वीं सदी औद्योगिक क्रान्ति की सदी है और यहीं से आधुनिक उपन्यास की शुरुआत फील्ंिडग और रिचार्डसन द्वारा होती है। रिचार्डसन को पहला उपन्यासकार होने का गौरव प्राप्त है, और यह सीधे-सीधे फ्रांस की रोमाण्टिक धारा (मार्गराइट और अन्य) से प्रभावित होकर ‘पामेला’ और चार हजार पृष्ठों का ‘क्लेरिसा हारलो’ लिखता है।
पत्र शैली में यह उपन्यास बरसों लिखा जाता रहा। यह उपन्यास रोमाण्टिक और गलदश्रु भावुकता की बेजोड़ मिसाल है, जिसे (‘क्लेरिसा हारलो’) लिखते-लिखते स्वयं रिचार्डसन रोता जाता था।
बुलदुंग्सरोमा : खण्डित होती हुई कहानी और अखण्डित नायक की वापसी
फील्ंिडग के उपन्यास ज्यादा प्रौढ़ और चिन्तन से युक्त साहसी कथानकों के थे। फील्ंिडग की धारा का विकास जर्मनी (हरमन हेस) और बाद में मार्क ट्वेन द्वारा अमरीका में हुआ। जर्मनी में तो एक नयी विधा को ही जन्म दे दिया गया, जिसे ‘बुलदुंग्सरोमा’ कहा गया। ‘बुलदुंग्सरोमा’ में कहानी चाहे खण्डित होती रही, पर नायक हमेशा अखण्डित वापस आया।
मार्क ट्वेन (जिसने इस धारा को सबसे ज्यादा समृद्ध किया और अमरीका में कथा साहित्य की सही दागबेल डाली) का उपन्यास ‘हकिलबेरी फिन’ इस धारा का अद्भुत नमूना है। यहाँ मूल्य ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं, आदमी भी महत्त्वपूर्ण है, पर कहानी उतनी नहीं-ये उपन्यास अनुभव की खोज-यात्राएँ हैं।
और 19वीं सदी में कथा क्षेत्र में तीन महानतम प्रतिभाएँ आती हैं-गोगोल, बालजक और पो। एक रूस में, दूसरा फ्रांस में, तीसरा अमरीका में जनमा! ‘अनुभव की खोज-यात्रा’ के पड़ाव पर ये तीनों कथाकार मिलते हैं।
गोगोल अनुभव को युगीन यथार्थ से जोड़ देता है। बालजक यथार्थ के अँधेरे को चीरता हुआ अप्रिय यथार्थ की परतों तक पहुँचता है, और पो आन्तरिक रोमांस की ओर मुड़ जाता है।
इतना साफ जाहिर है कि इन कथाकारों के लिए पाठकों की कतई कमी नहीं थी, क्योंकि पूरे योरप में पाठकों की संख्या में दिनों-दिन वृद्धि हो रही थी। रिचार्डसन, फील्ंिडग और उनके बाद के उपन्यासकारों, तथा 19वीं सदी के आरम्भ के कथा लेखकों ने धारावाहिक उपन्यासों से बाजारों को इस तरह भर दिया था कि इन्हें न पढ़ना असभ्य रह जाना माना जाने लगा था।
और फिर विश्व-कथा क्षितिज पर तीन चमकदार नाम नक्षत्रों की तरह उभर कर आते हैं। गोगोल पहला यथार्थवादी है, जो सामन्ती युग की समाप्ति की रचनात्मक घोषणा करके अपने समय के प्रति प्रतिश्रुत होता है और यथार्थ से भी परे यथार्थ को देखता है।
बालजक धूमकेतु की तरह जलता और जलाता चला गया। पो में इन दोनों से ज्यादा कल्पनाशीलता तो थी, पर उसकी दुनिया विक्षिप्तता, भय, नाटकीयता और आकस्मिकताओं से भर गयी, जो बाद की सदी में जासूसी दुनिया की पीठिका बन गयी।
और आधुनिक युग में तीन कथापीठ स्थापित हुए-रूस, अमरीका और फ्रांस। सदियों से फ्रांस वैचारिक विकास को उसी तरह रेखांकित करता रहा था, जैसे खगोलशास्त्री नक्षत्रों को परखता रहता है। फ्रांस की प्रतिभा ने कहानी के पीछे छिपे विचार तत्त्व को सबसे पहले अन्वेषित किया, क्योंकि फ्रांस की बौद्धिक जनता ‘विचारों के इतिहास’ के प्रति हमेशा जागरूक रही है।
कहानी : अन्तरराष्ट्रीय स्तर, सार्वजनीन विधा और
यथार्थवाद के स्वर्णिम युग का प्रारम्भ
इसीलिए तीनों कथापीठों का महापीठ फ्रांस बन जाता है, जिस में फ्लाबेयर, तॉल्सतॉय और तुर्गनेव आकर मिलते हैं और यथार्थवाद का स्वर्णिम युग शुरू होता है।
इसी समय संक्षिप्तीकरण या शब्दबहुलता से रक्षा एक साहित्यिक आवश्यकता बन जाती है और कहानी अपने विशुद्ध फॉर्म को प्राप्त करती है (वही जिसका प्रयास पेट्रोनियस और मार्शल ने पहली सदी में किया था)।
फ्लाबेयर जैसा उपन्यासकार भी कहानी की नुकीली और तेज विधा को एक निकष के रूप में अपनाता है और गोगोल की कलात्मक कमियों को (कहानी में) पूरा कर देता है।
फ्रांस के कथापीठ की स्थापना से कहानी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनीन विधा के रूप में स्वीकृति पाती है, जहाँ पूरबी और पश्चिमी कथा धाराएँ आकर मिल जाती हैं। यह कार्य रूस के गोगोल के यथार्थवाद और तुर्गनेव की नाजुक रचनाओं ने किया।
उपन्यास साहित्य के लिए तब भी रूस की ओर ही देखा जा रहा था, क्योंकि तॉल्सतॉय और दास्तोवस्की विश्लेषक की गरुड़ दृष्टि और कृतिकार की संवेदना से अपने समय को रच रहे थे। यह उनके ‘आत्मोद्घाटन’ का युग था।
तभी मोपासाँ ने प्रकृतवाद को अपनाया और कहा, “मेरे पात्र जो कुछ कह रहे हैं, वह उनका अपना है। उनके कुछ भी करने से मेरा कोई वास्ता नहीं है। मैं केवल उन्हें, जैसे वे हैं, सामने रख देता हूँ।” मोपासाँ की कहानियाँ उसके वक्तव्य को बहुत हद तक गलत कर देती हैं पर उसका वक्तव्य ओ’ हेनरी जैसी प्रतिभा को महान (नैरेटर के रूप में) भी बनाता है और गर्त में भी गिरा देता है। ओ’ हेनरी तो अपने वक्तव्य में यहाँ तक चला जाता है, “...(कहानी को) रूमाल में ऐसे बाँधो कि वह मूर्खों को नजर न आए।”
अन्तपूर्ण कहानियों का अपनी तरह का यह अकेला लेखक ओ’ हेनरी शायद पहला लेखक है, जिसे लोकप्रिय कहानी का जनक माना जा सकता है। आज भी अमरीका तथा अन्य देशों की कहानियों की विपुल लोकप्रिय धारा उसी के फार्मूले पर जी रही है।
डी.एच. लॉरेंस की महत्ता कहानीकार के रूप में अब बढ़ती जा रही है, क्योंकि उसकी कहानियाँ कलात्मक संक्षिप्तता का नमूना बन गयी हैं।
मोपासाँ ने गोगोल, फ्लॉबेयर, जोला, तुर्गनेव और तॉल्सतॉय की धारा को अवरुद्ध कर दिया, और कहानी को लेकर वह व्यावसायिक लेखन की सीमा तक भी पहुँच गया। जहाँ से सत्य के अन्वेषण या आत्मोद्घाटन की विश्लेषणात्मक दृष्टि धुँधली होने लगी। उधर दास्तोवस्की ने जर्मन, आस्ट्रियन और चेक कथाकारों को प्रभावित किया और चेखव ने फिर कहानी को कहानी की कलात्मकता प्रदान की। यदि चेखव न होता, तो शायद कहानी एक कला-विधा के रूप में जीवित न रह पायी होती।
यानी कहानी का आन्तरिक गम्भीर वैचारिक पक्ष और ऊपरी संवेदनात्मक प्रतीति खो गयी। पर तभी इसे तीन कथाकारों ने और भी सँभाल लिया। गोर्की, प्रेमचन्द, और लू सुन ने, गोर्की ने सर्वहारा को उठा लिया, तो प्रेमचन्द ने कहानी को समय की सार्थकता दी और भारतीय मध्य तथा निम्न वर्ग, विशेषतः ग्राम समाज के स्रोत से जोड़ दिया। प्रेमचन्द ने वही काम किया, जो गोगोल ने रूस में किया था। शरत् और प्रेमचन्द ने गोगोल और तुर्गनेव की तरह जीवन और सार्थक चिन्ताओं से कथा को जोड़कर इस महाद्वीप में मानवीय तलाश की नींव रख दी। और उधर गोगोल, चेखव की वह धारा तब फ्रांस से सूखकर जैसे आयरलैण्ड में जा निकलती है। मोटे रूप में ‘ब्रूम्सबरी स्कूल’ के नाम से जो निकाय जाना जाता है, उसने कहानी की रक्षा की। इसमें लॉरेंस भी हैं और जेम्स जॉयस भी। व्यक्ति की सत्ता में इस समय आमूल परिवर्तन होता है। वह एक आर्थिक-राजनीतिक इकाई बन जाता है और दो महायुद्धों से ध्वस्त योरप के ध्वंसावशेषों को देखता है।
व्यक्ति और भीड़ के अस्तित्व का संघर्ष अभी जारी है!
अरस्तू और सुकरात की धारणाएँ व्यर्थ हो जाती हैं। उधर अर्थपुरुष को मार्क्स जन्म देते हैं और फ्रायड घोषणा करते हैं कि वे ‘मस्तिष्क’ को निकालकर मक्खन की तरह मेज पर सजा देंगे-यानी उसकी गुह्यतम क्रियाओं को सरल करके रख देंगे। और योरप का व्यक्ति देखता है कि कुछ भी नहीं हुआ...पागलखानों में फ्रायड के मरीज बढ़ गये, अर्थपुरुष भीड़ में परिवर्तित हो गया और सदियों के जीवन्त प्रश्नों के उत्तर में महायुद्ध मिले! रिश्ते डाँवाडोल हो गये और आन्तरिक की जगह बाह्य यथार्थ महत्त्वपूर्ण होता गया। यथार्थ के पार देखनेवाला यथार्थ मृत हो गया।
बाह्य दुनिया के सामने व्यक्ति की अपनी सत्ता विघटित होती गयी। एक ने आदमी नहीं, भीड़ को स्वीकारा, दूसरे ने ‘व्यक्ति’ के नाम पर ‘संस्थान यन्त्र’ को ही व्यक्ति की संज्ञा दी। यानी दोनों ने व्यक्तित्व-सम्पन्न व्यक्ति को अस्वीकार कर दिया। अन्वेषक, आत्मोद्घाटक, यथार्थ से परे यथार्थ को देखने वाले व्यक्ति की हत्या हो गयी।
अतः वह व्यक्ति, जो अपने समय में शामिल था, जो कुछ लेना और देना चाहता था, वह ‘देने’ के लिए मुक्त नहीं रहा, पर ‘लेने’ के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया गया और वह उस पर लाद भी दिया गया।
इसी बिन्दु पर विचारशील प्रतिभा ने ‘अपनी पहचान’ या ‘आत्मबोध’ का सवाल उठाया, कि व्यक्ति अपने को पहले जरा पहचान तो ले। यहीं से दास्तोवस्की की सोच के बीज ने अँकुये फोड़े। कीर्केगार्द, काफ्का, सार्त्र और कामू ने प्रश्न उठाये।
सार्त्र ने कहा, “जब तक मुझे यह न मालूम हो कि मेरे ‘मैं’ का वह कौन-सा हिस्सा है, जो मुझे व्यक्त करता है, तब तक मैं कुछ भी कैसे कर पाऊँगा?” मुझे जब अपनी ही सत्ता नहीं मालूम कि वह कहाँ-कहाँ, कब-कब और किन-किन स्थितियों में पिघलकर मिट गयी है, तो व्यक्तिगत स्तर पर मैं कुछ कर भी नहीं पाऊँगा-अतः सबसे पहले ‘आत्म’ की तलाश का सवाल है।” और आत्म की तलाश में सार्त्र ने पाया कि व्यक्तित्व का थोड़ा-सा हिस्सा आईसबर्ग की तरह डूबने से बचा हुआ है।
डूबा हुआ समूचा व्यक्तित्व और निरर्थक मूल्यों का अस्वीकार
इसी पर रोब ग्रिले, सारुत, बेकेट, ब्रबर, आयनेस्को और पिण्टर ने पूछा, “हम यह क्यों न मानें कि अब व्यक्तित्व का कोई हिस्सा डूबने से बचा ही नहीं है। कोई हिस्सा बचा हुआ है, इसका क्या सबूत सार्त्र दे सके हैं? जब कुछ भी बचा ही नहीं है, तो ‘आत्मान्वेषण’ का प्रश्न ही नहीं उठता। चेहरे सब यकसाँ हो गये हैं, अतः उन्हें पहचाना नहीं जा सकता!”
और बेकेट ने तब अन्तिम टीप लगायी - “कुछ नहीं से बेहतर कुछ नहीं है!” यानी सभ्यता-संस्कृति के सब मूल्य निरर्थक हो गये हैं!
...गिलगमेश की तरह निरर्थकता की इस अनुभूति पर पहुँचकर, जहाँ सदियों के गलत निर्णयों के नाग फिर ‘औषध’ को चुरा ले गये हैं-जहाँ दुनिया जल-प्रलय से खण्ड-प्रलय तक पहुँच चुकी है, जहाँ आदमी को अपने हर प्रयत्न का उत्तर नागासाकी, हिरोशिमा के कुरूप, बीभत्स, जले हुए चेहरे के रूप में घूरता है, वहाँ सृष्टि की कामना करते हुए कुछ शाश्वत-स्वर फिर सुनाई पड़ते हैं-(नये आइरिश कथापीठ के) जॉयस, हेमिंग्वे, ओ’ कूनर, शाँ ओ’ फ्लाँ और बेकेट के! जहाँ बेकेट का बुड्ढा क्रुप कई वर्ष पहले खुद बोले हुए अपने ही एक शब्द का अर्थ भूल जाता है, और उसी शब्द का अर्थ शब्दकोश में खोज रहा है।
शायद इतिहास अपने को दोहराये। पर ‘इतना जरूर है कि इतिहास अपने को उन्हीं क्षणों में कभी नहीं दोहराएगा!’ और मनुष्य इतिहास की इसी विकल और आवश्यकता ने कहानी की निरंतरता को बनाये रखा है!