विश्व-कल्याण एवं भारतीय ज्ञान-परम्परा / कविता भट्ट
वैज्ञानिक विकास के चरम की वर्तमान सदी भौतिकता की पराकाष्ठा पर है। ऐसा होने से वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप मानव का जीवन भौतिक रूप से सरल किंतु नैतिक तथा आध्यात्मिक रूप से निम्नतम अवस्था में जाने के कारण जटिल हो गया। मानव मानसिक एवं नैतिक समस्याओं के पाश में निबद्ध है; जिससे वैश्विक परिदृश्य में अनेक सामाजिक समस्याएँ आज चिंता का विषय हैं। आज मानव समाज पर आतंकवाद, युद्ध, अशान्ति, असुरक्षा, वैमनस्य, अपराध, चोरी, हिंसा, वर्ग-संघर्ष, विभेद, शोषण, अनाचार, बलात्कार एवं अत्याचार आदि जैसे संकट हैं। इनके मूल में मानव की असीम भौतिक इच्छाएँ तथा उसका चारित्रिक पतन है। आज पुनः उन मूल्यों के अनुगमन की आवश्यकता है; जिनके द्वारा भारतीय ज्ञान-परम्परा में विश्व-कल्याण का पथ प्रशस्त किया गया है। आज पुनः ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।......‘जैसी मंगलकामनाओं से युक्त भारतीय ज्ञान-परम्परा को समझने एवं उसमें निहित नैतिक मूल्यों को अपनाने से ही विश्व-कल्याण सम्भव है। अतः इस शोध-पत्र के माध्यम से इसे समझने का प्रयास किया जायेगा।
उल्लेखनीय है कि भारतीय ज्ञान-परम्परा भारतीय दर्शन में ही समाहित है। जब पाश्चात्य संस्कृति राजनीति, समाज, कला, इतिहास, भूगोल तथा विज्ञान आदि विषयों का प्रथम सोपान विकसित कर रही थी; उससे सदियों पूर्व ही भारतीय सभ्यता उपनिषदों के द्वारा ‘ब्रह्मविद्या (नित्य-विषयक)‘ ज्ञान को अन्य सभी विषयों के आधारस्वरूप प्रस्तुत कर चुकी थी। डॉ0 राधाकृष्णन् ने उल्लेख किया है कि कौटिल्य का कथन है, ‘‘दर्शनशास्त्र (आन्विक्षिकी-दर्शन) अन्य सब विषयों के लिए प्रदीप का कार्य करता है।यह समस्त कार्यों का साधन और समस्त कर्त्तव्यकर्मों का मार्गदर्शक है ।”(1) इसको तीन प्रकार से समझना आवश्यक है; प्रथम- भारतीय ज्ञान परम्परा के आधारभूत तथ्य; द्वितीय- भारतीय ज्ञान-परम्परा की ज्ञान मीमांसा एवं नीतिमीमांसा तथा तृतीय इसी आधार पर विश्व-कल्याण हेतु नैतिक उन्नयन सम्बन्धी सार्वभौम नियम एवं उनकी वर्तमान प्रासंगिकता। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए हमने शोध-पत्र को तीन भागों में विभाजित किया है; जिनमें हम उपर्युक्त तीनों विषयों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए भारतीय ज्ञान परम्परा को विश्व-कल्याण के सन्दर्भ में स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे।
प्रथम भाग
भारतीय ज्ञान परम्परा के आधारभूत तथ्य
हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके है कि भारतीय ज्ञान-परम्परा यहाँ के दर्शन में समाहित है; इसलिए पहले दर्शन सम्बन्धी सामान्य तथ्यों को समझने का प्रयास करेंगे। ‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्‘ अर्थात् यह वह प्रक्रिया जिसके अन्तर्गत देखा जाय अर्थात् विश्लेषण, चिंतन या मनन किया जाय। चिंतन की एक संज्ञा ‘मीमांसा‘ भी है। ‘मीमांसा के अर्थ हैं- गहन विचार, परीक्षण एवं अनुसंधान आदि‘(2) इस दृष्टि से ज्ञान-परम्परा या दार्शनिक चिंतन तीन अनुभागों में वर्गीकृत है- तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं नीतिमीमांसा। इनके क्रमशः सत्, प्रकाश एवं अमरत्व ये तीन लक्ष्य के रूप में निरूपित किये गये है। सत् या तत्त्व सृष्टि का मूल कारण; ज्ञान या प्रकाश उस सत् को जानने की प्रक्रिया तथा अमरत्व या परमशुभ हेतु निर्धारित आचरणगत नियम या नीति; ये तीनों ही भारतीय ज्ञान परम्परा का सार है। भारतीय वांग्मय में मानव जीवन के भी ये तीन लक्ष्य ही निरूपित हैं। भाव यह है कि ज्ञान एवं नीति के द्वारा व्यक्ति सत् की खोज करे; यही भारतीय ज्ञान-परम्परा में निर्देशित है। प्राचीन भारतीय वाङ्मय चित् या चेतना की उच्चतम अवस्था तक उन्नति के पथ का समर्थक रहा है। कहा भी गया है ‘सा विद्या या विमुक्तये‘ अर्थात् जो मुक्ति का पथ प्रशस्त करे वही विद्या या ज्ञान है। ज्ञान मात्र भौतिक जीवन को सुखी बनाने हेतु नहीं; अपितु वह है; जो शरीर में निबद्ध चेतना को ब्रह्माण्डीय चेतना के स्तर पर प्रतिष्ठापित करे। भारतीय ज्ञान परम्परा के सार माने जाने वाले उपनिषदों में से एक मुण्डक उपनिषद् में ज्ञान का स्पष्ट एवं उत्कृष्ट वर्गीकरण किया गया है। यह वर्गीकरण इतना उच्चस्तरीय है; संसार की किसी भी सभ्यता में ऐसा विवेचन प्राप्त नहीं। इस उपनिषद् में मनुष्य जीवन के समस्त ज्ञान को विद्या कहा गया है। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है- अपराविद्या एवं पराविद्या।(3) मुण्डक उपनिषद् में एक प्रसंग है कि शौनक ऋषि के पूछने पर महर्षि अंगिरा बोले कि मनुष्य के लिए जानने योग्य दो विद्याएँ हैं- अपरा विद्या एवं परा विद्या। जिसके द्वारा इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी भोगों की स्थिति, रचना तथा नानाविधि उनकी प्राप्ति हेतु साधनों का ज्ञान प्राप्त किया जाय वह सभी प्रकार का ज्ञान अपरा विद्या में आता है।(4) पराविद्या- ब्रह्मविद्या या अध्यात्मविद्या वह है जिसमें उपर्युक्त सभी लौकिक ज्ञान के स्थान पर ब्रह्म अर्थात् जगत् के मूल कारण का ज्ञान हो। वस्तुतः पराविद्या एवं अपरा विद्या का वर्गीकरण आध्यात्मिक ज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान के रूप में किया गया है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि गणित एवं तकनीकि के ज्ञान द्वारा व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधा के साधनों का आविष्कार तो कर सकता है; किन्तु भौतिक सुख-सुविधाओं द्वारा आत्मिक शान्ति प्राप्त नहीं होती। आत्मिक शान्ति की प्राप्ति हेतु आवश्यक है- व्यावहारिक जीवन को सुव्यवस्थित करते हुए आत्मज्ञान हेतु निरन्तर प्रयास करना। इस आवश्यकता का प्रतिपादन उपनिषद् साहित्य में भी एक प्रार्थना के माध्यम से किया गया है; जिसमें कहा गया है कि हे परमात्मा! हमें असत् से सत् की ओर ले चलो, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो एवं मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।(5)
ज्ञान परम्परा जिसमें से सत् तत्त्वमीमांसीय प्रत्यय है; तत्त्वमीमांसा भारतीय ज्ञान परम्परा या दर्शन की वह शाखा है; जिसमें सृष्टि के मूल कारण पर विचार किया जाय। इसका मूल कारण ‘तत्त्व‘ है; जो दो पदों से निष्पन्न है- तत् एवं त्व अर्थात् तुम वही हो। वही का तात्पर्य जिससे समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है। ज्ञान एवं आचारगत उन्नयन ही व्यक्ति की उच्चतम चेतना को ब्रह्माण्डीय चेतना में समाहित करके मूलतत्त्व का बोध करवाने के साधन हैं। तत्त्व सम्बन्धी अनेक प्रकार के मत हैं। एक, दो, तीन तथा अनेक तत्त्वों को सृष्टि का मूल कारण मानने वाले दर्शन क्रमशः एकतत्त्ववादी, द्वैतवादी, त्रैतवादी एवं बहुतत्त्ववादी कहलाते हैं। इस प्रकार कुछ दर्शन मात्र चेतन को, कुछ मात्र जड़ को एवं कुछ दोनों को तथा कुछ इनके अतिरिक्त अन्यों को भी मूल तत्त्व मानते हैं। भारतीय परम्परा में माना गया है कि तत्त्व ही सत् है। इस सत् को खोजना ही जीवन का उद्देश्य है। इस सत् की खोज ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है तथा इसके फलस्वरूप ही आनन्द की प्राप्ति होती है। इस सत् को खोजने की ज्ञान प्रक्रिया एवं उसका सुन्दर विवेचन ही भारतीय वांग्मय की सुन्दरता है। सम्पूर्ण वाङ्मय इस ज्ञान प्रक्रिया को सत् तक पहुंचने के साधन के रूप में विवेचित करता है। ज्ञानप्रक्रिया द्वारा सत् को प्राप्त करने हेतु उसे ज्ञान के साथ ही नैतिक नियमों के पालन की आवश्यकता भी होती है। इसका कारण है; मानव समाज की समरसता, प्रेमपूर्णता, सुदृढ़ता एवं एकीभाव युक्त रूपरेखा तैयार करना आवश्यक है। ऐसा होने पर ही ‘भ्रातरा मानवे सर्वा, एकेव मानुषीः जातिः‘ का आदर्श चरितार्थ हो सकेगा। प्रत्येक व्यक्ति को स्वस्थ वातावरण प्रदान करने हेतु भारतीय वाङ्मय में आचरणगत नियमों का निर्देश है; नीतिमीमांसा के अन्तर्गत रखे गये हैं; जो समस्त मानव समाज हेतु उपयोगी हैं। वस्तुतः भारतीय ज्ञान परम्परा का सार ज्ञानप्राप्ति तथा नीतिगत नियमों को जानकर उनका अनुपालन करते हुए सत् या तत्त्व बोध तथा इसकी प्राप्ति ही है।
पहले हम शोध-पत्र के द्वितीय भाग में भारतीय ज्ञान परम्परा एवं उसमें ज्ञान तथा नीति को समझने का प्रयास करेंगे; तत्पश्चात् विश्व-कल्याण हेतु भारतीय ज्ञान-परम्परा द्वारा प्रदत्त नीतिगत आचरण के साररूप सार्वभौम नैतिक नियमों का उनकी प्रासंगिकता के साथ संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण करेंगे।
द्वितीय भाग
भारतीय ज्ञान मीमांसा एवं ज्ञान-परम्परा
भारतीय ज्ञान परम्परा को समझने हेतु पहले ज्ञानमीमांसा एवं ज्ञान को समझना होगा। विभिन्न इन्द्रियों के अनुभवों तथा अन्तःप्रज्ञा या बुद्धि के तर्कों आदि के आधार पर किसी प्रत्यय अथवा वस्तु का प्रमाणीकरण ज्ञान से होता है। इस प्रकार ज्ञानमीमांसा में ज्ञान के उद्भव, स्वरूप, प्रमाणीकरण तथा सीमा आदि पर चर्चा या विचार किया जाता है। इसके अन्तर्गत वे समस्त ज्ञान के साधन व प्रक्रियाएँ आती हैं; जिससे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में सहयोग प्राप्त हो। ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान तीन अववयों के द्वारा समग्र ज्ञान प्रक्रिया सम्पन्न होती है। इन तीनों को सम्मिलित रूप से त्रिपुटीसंवित् कहा जाता है। ज्ञानमीमांसा में इन तीनों को ही विवेचन किया जाता है। आत्मा ही ज्ञाता होती है; इसके लिए प्रमाता तथा विषयी जैसी संज्ञाएँ भी उपयोग में लायी जाती हैं। जड़-चेतन का विभेद करते हुए विशुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा को जानना ही तत्त्वज्ञान कहलाता है। भारतीय दर्शन के अनुसार ‘आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ, बुद्धि-ज्ञान-उपलब्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेतभाव, फल, दुःख एवं अपवर्ग; ये 12 ज्ञेय या प्रमेय या साध्य या ज्ञान के विषय हैं।‘ ज्ञेय या प्रमेय हेतु प्रमाण साधनस्वरूप हैं; सामान्य रूप से माना जाता है कि ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त होता है; किन्तु भारतीय वांग्मय मानता है कि इन्द्रियाँ तो मात्र वातावरण की सूचनाओं को ग्रहण करती हैं तथा ये सूचनाएँ मन के द्वारा संवेदित होती हैं; तदुपरान्त व्यक्ति के भीतर उपस्थित आत्मा या चेतना (जो कि ब्रह्माण्डीय चेतना का एक अंश है) ही ज्ञान का वास्तविक ज्ञाता या प्रमाता होता है। ‘इसकी चार अवस्थाएँ हैं- जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय।‘ प्रमाता या विषयी के रूप में शरीरी आत्मा, तैजस आत्मा, प्रज्ञारूप आत्मा तथा तुरीयावस्था स्थित आत्मा के प्रमेय क्रमशः ब्रह्माण्ड-व्यवस्थित विश्व, विश्व की आत्मा, आत्मप्रज्ञ- ईश्वर तथा आनन्द- ब्रह्म हैं।‘ तुरीय विशुद्ध चैतन्य की अवस्था है; जिसका सम्बन्ध पराज्ञान से है। इसके अतिरिक्त तीन अवस्थाएँ- व्यावहारिक या भौतिक जीवन से जुड़ी हैं। जितने भी इस आत्मा के विषय होते हैं; लौकिक या आध्यात्मिक सभी प्रमेय होते हैं। इन प्रमेयों की सिद्धि हेतु जो प्रक्रिया अपनायी जाती है; वह है प्रमा। अशोक कुमार वर्मा ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘प्रमेय जैसा हो वैसा ही दिखाई दे तो उसे प्रमा या यथार्थ ज्ञान कहा जाता है; जबकि यदि वह वैसा न दिखायी दे अर्थात् उसमें कोई भ्रम हो तो उसे अप्रमा या अयथार्थ ज्ञान कहा जाता है।”‘जो प्रमा का कारण हो वही प्रमाण हैं‘ ; जो ज्ञान के साधन हैं। सामान्य रूप से तीन मुख्य प्रमाण माने गये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम।45 इन्द्रियों की क्रियाशीलता से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है। जब कोई पदार्थ, जैसे कि एक बड़ा घड़ा दृष्टिपथ में आ जाता है तो बुद्धि में इस प्रकार का परिवर्तन होता है कि वह घड़े का रूप धारण कर लेती है और आत्मा घड़े के अस्तित्व से अभिज्ञ हो जाता है। प्रत्यक्ष दो प्रकार के हैं- निर्विकल्प एवं सविकल्प। अनुमान दो प्रकार का बताया गया है- विध्यात्मक (वीत) और निषेधात्मक (अवीत) तथा शब्द में वेद व आप्तवचन आते हैं। वीत अनुमान के दो- सामान्यतोदृष्ट एवं पूर्ववत् तथा अवीत अनुमान का एक ही प्रकार शेषवत् बताया है।
यों तो भारतीय वांग्मय में प्रमाणों की संख्या पर भी पर्याप्त मतभेद है; किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण को सभी मानते हैं। अनुमान को मात्र चार्वाक् परम्परा में स्वीकार नहीं किया अन्य ने किया है। इसके अतिरिक्त अन्य दर्शनों में अर्थापत्ति तथा उपमान आदि प्रमाण भी स्वीकार किये गये हैं। भारतीय ज्ञान-परम्परा में मुख्य निर्धारक है; शब्द प्रमाण। शब्द का अर्थ है- वेद या आगम तथा आप्तपुरुष। वेद भारतीय ज्ञान परम्परा के प्रारम्भिक ज्ञान स्रोत हैं और इनके साथ ही अपराविद्या में शिक्षा, व्याकरण, छंद, ज्योतिष एवं निरुक्त समाहित हैं। मानव-सभ्यता के प्रारम्भिक काल में इन्द्रिय-सुख के अतिरिक्त चिंतन या मनन भी मानव का स्वभाव है; यहीं से दर्शन की नींव पड़ी। तत्त्व, ज्ञान एवं नीति जैसे अनुभागों में व्यवस्थित यह चिंतन अत्यंत उच्चकोटि का था। वेद संख्या में चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद। इनमें अधिकांशतः प्रकृति, दुःख से बचने के लिए प्रकृति की शक्तियों की उपासना, मनुष्य के अच्छे आचरण या व्यवहार को चिंतन का मुख्य विषय रखा गया तथा कल्याण हेतु मार्ग खोजे गये। ऐसा माना जाने लगा कि संसार की सभी व्यवस्थाओं को एक सर्वशक्तिमान सत्ता नियन्त्रित करती है। इसके लिए किसी अज्ञात शक्ति से प्रार्थनाएँ भी की जाने लगी। संक्षेप में कहा जाए तो वेद तत्त्व, ज्ञान एवं नीति के पवित्र संगम हैं।
वेदों या शब्द प्रमाण के आधार पर ही भारतीय ज्ञान परम्परा का वर्गीकरण दो भागों में किया गया- वेदों में विश्वास करने वाले अर्थात् आस्तिक एवं इनमें विश्वास न करने वाले अर्थात् नास्तिक। आस्तिक वाले अधिक थे और इन्होंने वेदों की विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम किया। महाकाव्य, पुराण तथा उपनिषद् जैसी ज्ञान-परम्पराएँ वेदों से ही निःसृत हैं। यह चिंतन धारा आगे बढ़ी और इनके साररूप में उपनिषद् दर्शन निःसृत हुआ। उपनिषदों की संख्या एक सौ आठ है; जिनमें से ग्यारह उपनिषद् (प्रश्न, कठ, केन, मुण्डक, ऐतरेय, श्वेताश्वतर, ईश, ईशवास्य, माण्डूक्य, तैत्तिरीय तथा वृहदारण्यक) प्रमुख हैं। उपनिषद् का अर्थ होता है- ज्ञान प्राप्त करने हेतु गुरु के समीप बैठना। ऐसा माना गया कि ‘‘ज्ञानेन मुक्तिः‘‘ अर्थात् ज्ञान प्राप्ति से ही मुक्ति सम्भव है। मुक्ति का अर्थ है- व्यक्ति भौतिक सुख एवं दुःख के भाव से मुक्त होर आत्मिक आनन्द को परमशुभ के रूप में प्राप्त करे। भारतीय ज्ञान परम्परा मानती है कि मुक्ति एकमात्र मार्ग है; जिससे कि व्यक्ति दुःख के सभी कारणों से निवृत्त हो सकता है। आगे चलकर इनका सार आस्तिक परम्परा के षड्दर्शन के रूप में प्रस्फुटित हुआ। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदान्त षड्दर्शन कहलाते हैं। चार्वाक्, जैन एवं बौद्ध नास्तिक दर्शन हैं। साथ ही उल्लेखनीय है कि श्रीमद्भगवत्गीता को तो वेद और उपनिषदों का सार माना जाता है। यह ग्रन्थ इतना श्रेष्ठ है कि इसके पढ़ने एवं अनुकरण करने से व्यक्ति जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान खोज सकता है। उल्लेखनीय है कि नास्तिक विचारधारा वाले दर्शन शब्द को प्रमाणरूप में स्वीकार नहीं करते; किन्तु किसी न किसी रूप में इनसे प्रभावित होने के कारण; सभी भारतीय दर्शन शाखाएँ (चार्वाक् दर्शन को छोड़कर) विश्वकल्याण हेतु नैतिक उन्नयन को आवश्यक मानते हैं। बौद्ध एवं जैन दर्शन भी विश्व-कल्याण हेतु आचारगत नियमों का निर्देश देते हैं। कालान्तर में ये धर्मों के रूप में भी प्रतिष्ठापित हुए; जिनका प्रसार विश्व के विभिन्न भूभागों में हुआ। भारतीय ज्ञानपरम्परा में विश्व-कल्याण हेतु निर्देशित इन नैतिक नियमों को समझने हेतु अब हम मुख्य आचारगत नियमों का संक्षिप्त विवेचन करेंगे। तृतीय भाग
विश्व-कल्याण हेतु भारतीय ज्ञान परम्परा प्रदत्त सार्वभौम नियम एवं उनकी वर्तमान प्रासंगिकता
‘नी‘ धातु एवं क्तिन् प्रत्यय के सम्मिलन से नीति शब्द का निर्माण हुआ है; जिसके अर्थ हैं- निर्देशन, दिग्दर्शन, प्रबंध, आचरण, व्यवहार, चालचलन, औचित्य एवं शालीनता‘ इस प्रकार नीतिमीमांसा का अर्थ हुआ जिसके अन्तर्गत यथोचित आचरण तथा दिग्दर्शन आदि के नियमों के सम्बन्ध में गहनता के साथ विचार किया जाय। आचरण के नियमों के अनुसार चलने वाला व्यक्ति ही समाज के लिए कल्याणकारी है। व्यक्ति के ऐसे ही आचरण सम्बन्धी या नीतिमीमांसीय नियमों के मापदण्डों को भारतीय नीति शास्त्र में प्रस्तुत किया गया है। इसमें सर्वांगीणता व सनातनता पर विशेष बल दिया गया है। नीतिशास्त्र को शुभ का विज्ञान भी कहा गया है। शुभ का सामान्य अर्थ है वांछित या जिसकी इच्छा रखी जाया। यहाँ यह भी प्रश्न उठ सकता है कि यदि व्यक्ति को मात्र इन्द्रिय सुख ही वांछित है तो क्या वह भी शुभ है। परन्तु इसका सीधा उत्तर है कि ऐसा वांछित जो दीर्घकाल तक वांछित हो; अर्थात् जिसमें आत्मिक कल्याण भी हो। इस प्रकार मात्र आत्मिक कल्याण को ही परमशुभ कहा जा सकता है। ऐसे नियम या कर्म जो सार्वभौमिक व कल्याणकारी हों; वे ही नैतिक कहलायेंगे। नीतिशास्त्र के अन्तर्गत व्यक्ति को श्रेयस की ओर प्रवृत्त करने हेतु उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ, सकारात्मक-नकारात्मक प्रयासों के निर्णय सम्बन्धी जिन नियमों का निर्देशन किया गया है, वे सभी नैतिकता की श्रेणी में हैं। नैतिकता जीवन को सुखमय व श्रेष्ठ बनाते हुए पारलौकिक जीवन को भी कृतार्थ करती है; ऐसा भारतीय दर्शन का नीतिशास्त्र निर्विवाद रूप से मानता है।
प्राचीन काल में मानव के अन्तःकरण की पवित्रता नैतिकता का सबसे बड़ा कारक थी। भौतिक लक्ष्यों से अधिक व्यक्ति आध्यात्मिक लक्ष्यों पर केन्द्रित था। आत्म-संतुष्टि व संयम उसके चरित्र में सम्मिलित थे। विषयों के प्रति उसका झुकाव मात्र जीविकोपार्जन तक ही सीमित था, लालच हेतु नहीं। कालान्तर में मानसिक विकृतियों , प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण तथा अत्यंत विषय-वासना ने नैतिक मूल्यों का ह्रास कर मानव को अनैतिकता की ओर अग्रसर कर दिया। वासनाओं को नियन्त्रित करने के लिए प्रत्याहार के रूप में योगदर्शन का लक्ष्य आध्यात्मिक कल्याण तो है ही। इसके साथ ही यदि हम पौराणिक भारतीय मीमांसाओं पर दृष्टिपात करें तो हम पातें हैं कि हमारी सभ्यता का मूल मंत्र समभाव है। इस सम्बन्ध में डॉ0 राधाकृष्णन् ने ऋग्वेद को उद्धृत करते हुए उल्लेख किया है कि भारतीय दर्शन का सार है- एकैव मानुषी जातिः। भ्रातरो मानवाः सर्वे। अर्थात् सम्पूर्ण मानवजाति एक ही है; सभी मनुष्य भाई हैं। इसके विपरीत वैश्विक परिदृश्य में मानव समाज आज परस्पर संघर्ष में ही अपनी शक्ति को स्वाहा कर रहा है। अतः विश्व-कल्याण हेतु भारतीय ज्ञान-परम्परा द्वारा मानव कल्याण हेतु निर्देशित सार्वभौम नैतिक महाव्रतों के अनुपालन की सर्वाधिक आवश्यकता है। इन सार्वभौम नैतिक नियमों को संक्षेप में अग्रांकित विवेचन द्वारा समझा जा सकता है।
अहिंसा (प्राणिमात्र को किसी भी प्रकार से पीड़ा न पहुंचाना), सत्य (मन, कर्म व वचन से सत्याचरण), अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (कामेच्छा पर नियन्त्रण) तथा अपरिग्रह (अनावश्यक द्रव्य का संग्रह न करना) ये ऐसे नैतिक नियम हैं; जिनका सभी ने एकमत से समर्थन किया। आज वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय भारतीय दर्शन की एक शाखा योगदर्शन ने भी योग का प्रारम्भिक अभ्यास इन पांच नैतिक प्रत्ययों को ही माना है। योगदर्शन ने इन्हें यम की संज्ञा दी है। प्रत्येक जाति, देश, काल एवं प्रत्येक परिस्थिति में बिना व्यवधान के निरंतर इनका पालन करना अनिवार्य है। इसीलिए इन्हें सार्वभौम महाव्रत भी कहा जाता है। सार्वभौम महाव्रत इसलिए कहा गया क्योंकि; इसको धर्म, जाति, राष्ट्र, भूत-वर्तमान-भविष्य और किसी भी परिस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के लिए पालनीय हैं। इन्हें निम्न प्रकार से समझा जा सकता है।
अहिंसा
यह प्रथम अभ्यास है। अहिंसा शब्द हिंसा पद में अ उपसर्ग लगने से बना है। जिसका अर्थ है हिंसा न करना। इसके अनुसार प्राणिमात्र को मन, कर्म या वचन के द्वारा कृत, कारित या अनुमोदित किसी भी प्रकार से पीड़ा न देना। व्यासभाष्य में विवेचन मिलता है कि पांचों यमों में से सब प्रकार से सदैव किसी भी प्राणि को पीड़ा न पहुंचाना अहिंसा है। अहिंसा के पश्चात् वाले सभी यमांग और नियम अहिंसामूलक ही होते हैं। अहिंसा-सिद्धिपरक होने के कारण अहिंसा की निष्पत्ति के लिए ये चारों यम और पांचों नियम ग्रहण किये जाते हैं। उसी अहिंसा को सर्वथा निर्मल या निर्दोष करने के लिए ही इनका अभ्यास या अनुष्ठान किया जाता है। वैसे ही कहा भी गया है- वह यह ब्राह्मण जैसे-जैसे अनेक व्रतों का पालन करता जाता है, वैसे-वैसे असावधानी से होने वाली हिंसा के कारणों से दूर होता हुआ उस अहिंसा को अत्यंन्त निर्मल करता जाता है। वैश्विक परिदृश्य में अहिंसा का अनुपालन सर्वाधिक प्रासंगिक हैं। अहिंसाव्रत पालन के भारतीय शास्त्रों में महान फल बताये गये हैं। महर्षि पतंजलि का मानना है कि अहिंसा का पालन करने से वैरभाव या शत्रुता का त्याग होता है। अहिंसा के अनुपालन से व्यक्तित्व में सत्त्वगुण का प्रभाव बढ़ता है। ऐसा होने से क्रोध शान्त होता है। इस प्रकार यह दूसरों के लिए ही नहीं अपने लिए भी अतिमहत्त्वपूर्ण है। इससे तनाव, अशान्ति, मानसिक द्वन्द्व, चिड़चिड़ापन आदि समस्याओं का निदान होता है। अहिंसा का पालन मनसा, वाचा एवं कर्मणा करने पर आतंकवाद, अशान्ति, वैमनस्य, हिंसा, युद्ध, शोषण तथा वर्ग-संघर्ष आदि समस्त वर्तमान विसंगतियों पर नियन्त्रण होना निश्चित है। अहिंसा के उपरान्त यम का अगला अभ्यास सत्य है; इसे संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है।
सत्य
सत्य ही विजयी होता है; झूठ नहीं क्योंकि वह देवयान नामक मार्ग सत्य से परिपूर्ण है; जिससे पूर्णकाम ऋषिजन गमन करते हैं; जहाँ उस सत्यस्वरूप परमात्मा का परमधाम है। सत्यमेय जयति सत्य का अर्थ है जो प्रत्यय यथार्थता/वास्तविकता में जैसा है मन, कर्म व वचन से उसकों वैसे ही ढंग प्रस्तुत करना। अर्थात् स्वार्थवश प्रत्ययों/वस्तुओं/कथनों आदि को असत्यता/अयथार्थता के साथ प्रस्तुत न करना। व्यास भाष्य मंे बताया गया है कि प्रत्यक्षप्रमाणरूप इन्द्रियों से प्रत्यक्ष किया गया हो, जैसा तर्क से अनुमान किया गया हो और जैसा आगम से सुना गया हो, उसे यथार्थ कहते हैं। अर्थात् जैसी वाणी है वैसा ही मन होना चाहिए। अतः वक्ता अपने चित्तनिष्ठ ज्ञान के सदृश ज्ञान को अन्य पुरुष के चित्त में स्थापित करने के लिए जो वाणी कहता है और यदि वह वाणी विपरीतबोधजनिका न हो तो सत्य कही जाती है। जब असत्याचरण मन, कर्म अथवा वचन में सम्मिलित हो जाता है तो व्यक्ति का चित्त नकारात्मक प्रवृत्तियों में ही उलझ जाता है। जब असत्य का अनुकरण किया जाता है तो एक असत्य को सत्य सिद्ध करने हेतु अनेक असत्य तथ्यों को बार-बार दोहराना होता है। इससे एक प्रकार की नकारात्मकता सदैव ही व्यक्ति को घेर कर रखती है। ऐसा होने से इन्द्रियों की बाह्य-विषयों में अतिसंलग्नता होती है। व्यास ने कहा है कि बुद्धि का सत्त्व जिसका सारतत्त्व प्रकाश है, जब अशुद्धि के मल से उन्मुक्त हो जाता है तो एक स्फटिक के सदृश निर्मल तथा स्थिर प्रवाह का रूप धारण कर लेता है जिस पर रजोगुण तथा तमोगुण अपना आधिपत्य नहीं कर सकते। सत्य में भली भाँति प्रतिष्ठित हो जाने पर क्रिया में फल का आश्रय होता है। योग की शब्दावली में इसे वाणीसिद्धि कहा जाता है। जब साधक सत्य की साधना द्वारा उसमें भली प्रकार स्थित हो जाता है; देश, काल व परिस्थिति आदि द्वारा जरा भी विचलित नहीं होता है तो उसके भीतर एक प्रकार का दिव्य बुद्धि का विकास होना प्रारम्भ होता है। इससे दो प्रकार के प्रभाव होते हैं- पहला, व्यक्ति जो कुछ भी बोलता है, वह सबका सब पूरी तरह सत्य होता है और द्वितीय यह कि उसके कार्याें का फल उसकी अपनी इच्छा के अधीन होता है। वह अन्यथा हो ही नहीं सकता। वर्तमान युग में वैयक्तिक एवं सामाजिक विश्वसनीयता में वृद्धि हेतु यह अत्यंत उपयोगी अभ्यास है। इसके उपरान्त तीसरा अभ्यास अस्तेय है। इसे संक्षेप में निम्न प्रकार समझा जा सकता है।
अस्तेय
स्तेय क्रिया में अ उपसर्ग लगने से अस्तेय शब्द व्युत्पन्न है, जिसका सामान्य अर्थ चोरी न करना समझा जाता है, परन्तु तत्त्ववैशारदी में इसका व्यापक अर्थ समझाया गया है। इसके अनुसार शास्त्र विहित पद्धति का उल्लंघन करते हुए दूसरे के द्रव्य का ग्रहण स्तेय कहलाता है। अर्थात् शास्त्रानुसार द्रव्य के ग्रहण को अस्तेय कहते हैं। वाचिक तथा कायिक व्यापार मानसव्यापारपूर्वक होते हैं। अतः मानसव्यापार की प्रधानता होने से मन से भी किसी अन्य के पदार्थ ग्रहण की इच्छा न होना अस्तेय है। इस तथ्य को इस प्रकार भी समझा जा सकता है। मन, वाणी एवं कृति से अन्य व्यक्ति के किसी भी प्रकार के अधिकार को, स्वत्व को अथवा वस्तु को उसकी अनुमति के बिना न चाहना, न कहना, न लेना, न अपहृत करना तथा न चुराना अस्तेय है। इसी प्रकार अपहृत वस्तुओं का संग्रह न करना तथा उपयोग न करना भी अस्तेय कोटि में आता है। इस व्रत की सिद्धि से साधक के निकट सर्वरत्नों का उपस्थान होता है। तात्पर्य सभी लोगों का वह विश्वासपात्र होता है। इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से अस्तेय का आशय स्पष्ट हो जाता है। अस्तेय के पश्चात् ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक है, इसलिए अब हम इसे विवेचित करेंगे। महर्षि पतंजलि ने इसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानते हुए उल्लेख किया है कि चोरी न करने के नियम का जो साधक अनुशासन पूर्वक पालन करता है व किसी भी परस्थिति में चोरी नहीं करता है; उसके पास समस्त रत्नों की उपस्थिति होती है। इसका अर्थ यह है उस अस्तेय पालन करने वाले व्यक्ति को किसी की वस्तुओं को ग्रहण करने का कोई लोभ नहीं होता; तो वह सभी का विश्वासपात्र होता है। सामाजिक अस्थिरता, चोरी, डाका, भ्रष्टाचार तथा अन्यान्य आपराधिक प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने हेतु यह उत्तम साधन है। यम के अभ्यास का अगला चरण ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म एवं चर्य दो पदों से निर्मित है; जिसका अर्थ है- ब्रह्म के समान आचरण करना। इस शब्द को यथोचित ढंग से समझने हेतु हमें योग के भाष्यों के सन्दर्भ में इस शब्द को विवेचित करना होगा। ब्रह्मचर्य को विवेचित करते हुए तत्त्ववैशारदी में उल्लेख मिलता है कि ब्रह्मचर्य का स्वरूप गुप्त है। उपस्थेन्द्रिय में संयत (जिसने जननेन्द्रिय के आवेगों को नियन्त्रित कर लिया है) व्यक्ति भी ब्रह्मचारी नहीं कहलाता है, यदि वह स्त्रीपेक्षण अर्थात् स्त्री को सस्पृह देखता है अथवा प्रेमपूर्वक वार्तालाप तथा कामोत्तेजक अंगस्पर्श में आसक्ति रखता है। इसलिए इन सब प्रेमपूर्ण प्रसंगों के निराकरण के लिए ब्रह्मचर्य के अभ्यासी को उपस्थेन्द्रिय की भांति उद्विग्नकारी समस्त अन्य इन्द्रियों को भी नियन्त्रित करना चाहिए। ब्रह्मचर्य के पालन से वीर्यलाभ होता है। आधुनिक युग में अनियन्त्रित यौन सम्बन्धों द्वारा होने वाले रोगों जैसे- एड्स आदि के नियन्त्रण के साथ ही यह जनसंख्या नियन्त्रण हेतु भी उपयोगी है। इसके उपरान्त अपरिग्रह का अभ्यास आवश्यक है।
अपरिग्रह
अपरिग्रह शब्द परिग्रह का विपरीतार्थी है। परिग्रह का तात्पर्य है अनावश्यक पदार्थ संग्रह को भी लोभ-मोह पूर्वक अर्जित/संग्रहित करना। ऐसा माना गया है कि बारम्बार भोगों को भोगने से व्यक्ति की भोगेच्छा या राग और इन्द्रियों की भोगविषयिणी पटुता बढ़ती है। प्राणियों की हिंसा किये बिना विषयों का उपभोग सम्भव नहीं है। इसके द्वारा विषयभोग में हिंसासम्बन्धी दोष बताये हैं। प्रतिग्रहादिरूप अर्जनदोष होने से तथा शास्त्रविहित पद्धति से प्राप्त विषयों में भी रक्षणादि दोष होने से विषय ग्रहण के प्रति होने वाली अस्वीकृति को अपरिग्रह कहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में आसक्ति के अभावादि को ज्ञानप्राप्ति के लक्षणों के रूप में निर्देशित किया गया है। पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा हि चित्त का सम रहना ये सभी आत्मज्ञान प्राप्ति के लक्षण हैं। यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है कि आसक्ति के अभाव से आत्मज्ञान प्राप्ति होती है। आत्मज्ञान प्राप्ति से हम इन्द्रियों को विषयाभिमुख होने के स्थान पर चित्त में समाहित करने की ओर अभिमुख होते हैं। आधुनिक युग में अधिकाधिक संग्रह के कारण होने वाले सामाजिक असंतुलन एवं वर्ग विभेद तथा पूँजीवादी मानसिकता, निर्धनता, बेरोजगारी, रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश हेतु अपरिग्रह एक अच्छा अभ्यास है।
निष्कर्ष- इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि भारतीय ज्ञान परम्परा के नैतिक आयामों द्वारा मानवता के कल्याण हेतु निर्देशित नैतिक मूल्यों का संवर्धन एवं अनुगमन करने से ही विश्व-कल्याण होना सम्भव है। इससे वर्तमान युग की अनेकानेक समस्याओं का निवारण किया जा सकता है। अतः वैश्विक स्तर पर भारतीय ज्ञान-परम्परा का अध्ययन एवं प्रचार-प्रसार होना अपेक्षित है।
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1-डॉ0 राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन भाग 1, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, 2004, पृष्ठ 18
2-सिंह, जयदेव, पाश्चात्य दर्शन की मुख्य अवधारणाएँ, विकास पब्लिशिंग हाउस, विकास हाउस, 20/4 इण्डस्ट्रियल एरिया, गाजियाबाद, उ0प्र0, 1980, पृष्ठ 17
3-मुण्डकोपनिषद्, 1/1: 4 तस्मै च होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च।।
4-उपर्युक्त, 1/1: 5 तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्यातिषमिति अथ परा यया तदक्षरमधिमधिगम्यते।।
5-बृहदारण्यक उपनिषद्, 1/3:27 असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतम् गमय।
6-सिंह, जयदेव, पाश्चात्य दर्शन की मुख्य अवधारणाएँ, विकास पब्लिशिंग हाउस, विकास हाउस, 20/4 इण्डस्ट्रियल एरिया, गाजियाबाद, उ0प्र0, 1980, पृष्ठ 17
7-पातंजलयोगप्रदीप, गीताप्रेस गोरखपुर, सम्वत् 2067, पृष्ठ 60-61
8- बृहदारण्यक उपनिषद्, 4/ 4: 3
9- मुण्डक उपनिषद्, 3/13: 3
10-वर्मा, अशोक कुमार, तत्त्वमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा, मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली, 2010, पृष्ठ 211
11-उपर्युक्त
12- पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 1/7 प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।
13-आप्टे, वामन शिवराम, संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृष्ठ 533
14-राधाकृष्णन्, डॉ0 सर्वपल्ली, भारतीय संस्कृति: कुछ विचार, हिन्द पॉकेट बुक्स, 2004, पृष्ठ 12, 16, 21
15-पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2/30, श्रीमन्माधव योग मन्दिर समीति, लोनावला, पुणे, 2001 अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।
16-पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2/31, श्रीमन्माधव योग मन्दिर समीति, लोनावला, पुणे, 2001 जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
17- उपर्युक्त
18-उपर्युक्त, पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2/35, श्रीमन्माधव योग मन्दिर समीति, लोनावला, पुणे, 2001 अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संन्निधौ वैरत्यागः।
19- मुण्डकोपनिषद्, 3/1: 6
20-व्यास भाष्य (पातंजलयोगसूत्र), 2/30 व्याख्याकर्त्री डॉ0 विमला कर्नाटक, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय व रत्ना प्रकाशन, वाराणसी, 1992
तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्राहः, उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलास्तस्सिद्धिपरतयै व सत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यान्ते, तदवदातरूपकरणायैवोपादीयन्ते।
21- उपर्युक्त पृ0 963-64 यथार्थे वाङमनसे इति। यथाशब्दं साकांङ्क्षं पूरयति-यथा दृष्टमिति। प्रतिसंबन्धिनं तथाशब्दं प्रतिक्षिपति तथा वाङ्मनश्येति। विवक्षायां कर्तव्यायामिति। अन्यथा तु न सत्यम्।
22-पातंजलयोगसूत्र 2/36
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।
23-उपर्युक्त पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2/36, श्रीमन्माधव योग मन्दिर समीति, लोनावला, पुणे, 2001 सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।
24-तत्त्ववैशारदी, 2/36 व्याख्याकर्त्री डॉ0 विमला कर्नाटक, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय व रत्ना प्रकाशन, वाराणसी, 1992
25-पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2/36
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नापस्थानम्।
26-तत्त्ववैशारदी, 2/36 व्याख्याकर्त्री डॉ0 विमला कर्नाटक, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय व रत्ना प्रकाशन, वाराणसी, 1992
27-पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2/38
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः।
28-तत्त्ववैशारदी, 2/39 व्याख्याकर्त्री डॉ0 विमला कर्नाटक, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय व रत्ना प्रकाशन, वाराणसी, 1992
29-श्रीमद्भगवद्गीता, 13/9, गीता प्रेस गोरखपुर, सम्वत् 2062
असक्तिरनभिश्वंगः पुत्रदारगृहादिषु। नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।। -0-