विश्व का बढ़ता और आत्मा का घटता तापमान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 अक्टूबर 2018
सत्ता, चुनाव और प्रचार के अंधड़ के परे मानवता के अस्तित्व का मुद्दा नज़रअंदाज किया जा रहा है। आधी डिग्री से दो डिग्री तक तापमान बढ़ सकता है। इसके प्रभाव बहुआयामी और भयावह हो सकते हैं। ध्रुव पर सदियों से जमती हुई बर्फ का थोड़ा-सा भी पिघल जाना नदियों में बाढ़ ला सकता है। शहरी सड़कों पर नावें चलती नजर आ सकती हैं। फसलें तबाह हो सकती हैं। पानी और वायु प्रदूषण बीमारियों को निमंत्रित करने की तरह है। आज़ादी के 71 वर्ष हो गए हैं और 71 फीसदी क्षेत्रों में पीने लायक पानी की व्यवस्था नहीं हो पाई। बोतल में तथाकथित शुद्ध पानी का व्यवसाय चमक रहा है। महानगरों में गर्म करके पानी के कीटाणु मारे जाते हैं, उसे ठंडा करके, उसकी बर्फ बनाकर बेची जा रही है। साधन संपन्न लोगों को अपनी शराब में इसी तरह के कीटाणु रहित बर्फ की आवश्यकता होती है। यूं भी शराब में कीटाणु जीवित नहीं रह पाते।
हमारी फिल्मों की कहानियां पश्चिम और कोरिया से चुराई जाती हैं। उन फिल्मों के पात्र ओवरकोट पहने नज़र आते हैं। इसी तर्ज पर भारतीय फिल्मों के पात्र भी ओवरकोट पहने दिखाए जाते हैं। नकल की प्रवृत्ति इतनी मजबूत है कि हम भारतीय पात्रों को अभारतीय पोशाकें पहनाते हैं। भरी गर्मी में पात्र तीन पीस का सूट पहने दिखाया जाता है। मौसम के अनुरूप वस्त्र पात्रों को नहीं दिए जाते। इसके साथ ही एक सितारा जब फिल्म में शर्ट उतार कर फेंकता है तो दर्शक ताली बजाते हैं। एक दौर में खलनायक अमरीश पुरी भी शर्ट पहनने की जहमत नहीं उठाते थे। बलिष्ट शरीर को उघड़ा दिखाना भी हम अभिनय कौशल मानते हैं।
एक सफल फिल्मकार एक चरित्र भूमिका के लिए सलीम खान को अनुबंधित करने की ज़िद कर रहा था। यह बात उस दौर की है जब सलीम साहब अभिनय के लिए संघर्ष कर रहे थे। बहरहाल, सलीम साहब ने बाद में तहकीकात की तो पता चला कि निर्माता उनसे बार-बार निवेदन इसलिए कर रहा था कि उसकी पिछली फिल्म में उनकी चरित्र भूमिका के लिए एक सूट सिलाया गया था, जिसके दोबारा इस्तेमाल के लिए यह मशक्कत की जा रही थी। किसी और अभिनेता का चयन करते तो नया सूट सिलाना पड़ता। पात्रों का चयन ऐसे भी किया जाता है गोयाकि आदमी वस्त्र नहीं पहनता, वस्त्र आदमी को धारण करते हैं। इसी आशय का संवाद ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी फिल्म 'श्री 420' में भी था।
किसी दौर में मुंबई फिल्म जगत में मगनलाल ड्रेसवाला बड़ा प्रसिद्ध था। उसने विविध अवसरों के लिए विविध नाप के वस्त्र तैयार कर रखे थे। निर्माता छोटी भूमिकाओं को अभिनीत करने वाले कलाकारों के लिए उसी से वस्त्र लेते थे। नायक और नायिका की पोशाकों को बनाने वाले उनके अपने पसंद के लोग होते हैं। गरीब पात्र के लिए भी वह सितारा मन भाया, ड्रेस डिजाइनर हजारों रुपए लेता था। कभी-कभी फिल्म बनने में लंबा समय लगता था और इस बीच नायक अथवा नायिका का वजन बढ़ जाता था तो नए वस्त्र बनाने पड़ते थे। हॉलीवुड में सितारे के अनुबंध में लिखा होता था कि शूटिंग के दरमियान अपना वजन एक-सा रखना उसकी जवाबदारी है। ऐसा नहीं करने पर उसे आर्थिक दंड भुगतना होता है। वहां का उद्योग अनुशासित है। हमारा उद्योग सितारा सनक आधारित है।
हमारे हुक्मरान का भी अपना ड्रेस डिजाइनर है जो दस लाख का कोट बनाने के लिए सुर्खियों में आया था। सुचारु व्यवस्था चलाने का प्रशिक्षण नहीं होता। यह हमारी कमतरी है। एक शिक्षा संस्था इस काम के लिए भी खोली जा सकती परंतु हमें शिक्षकों को विदेशों से निमंत्रित करना होगा। कहते हैं कि राजा को 64 कलाओं का ज्ञान होना चाहिए। 64वीं कला चोरी है। राजा को इसका ज्ञान इसलिए जरूरी है, क्योंकि उसे चोर को पकड़ना और दंडित करना है। मसलन सेंध मारने के बाद सेंध में पहले पैर डालना चाहिए। सिर पहले डालने पर जागा हुआ घर मालिक बाल पकड़कर दबोच सकता है। पैर पर खूब तेल लगाना चाहिए। चौर्य कला पर एक उपन्यास है 'रात का मेहमान'। लेखक है मनोज बसु। शशि कपूर की फिल्म 'उत्सव' में एक चोर का मजेदार पात्र रचा गया था। यह फिल्म संस्कृत के दो नाटकों से प्रेरित थी। एक नाटक 'मृच्छकटिकम्' है। शूद्रक रचित नाटक का अच्छा इस्तेमाल किया गया है। इस फिल्म के सभी गीत मधुर थे परंतु लता मंगेशकर और आशा भोसले का गाया गीत 'रात शुरू होती है, आधीरात को' आज भी गूंजता है।
चीन और भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या भी विश्व तापमान की वृद्धि का कारण हो सकती है। मानव शरीर की ऊष्मा भी कम नहीं होती परंतु आत्मा का ताप घटता जा रहा है। एयर कंडीशनर से निकलने वाली गैस भी विश्व का तापमान बढ़ा रही है। आजकल सभी कारों में भी एयर कंडीशनर लगे होते हैं। एक पुरानी घटना याद आ रही है कि पृथ्वीराज कपूर ने अपने घर में एयर कंडीशनर केवल इसलिए नहीं लगाया था कि उनके घर से सटे कैफी आजमी को एयर कंडीशनर की अवाज से कष्ट हो सकता था। पहले पड़ोसी की सुविधा का ध्यान रखा जाता था। आज तो पड़ोसी का कोई परिचय ही हमें नहीं होता। हम सब अपने-अपने अजनबियों के बीच जी रहे हैं। यह अजनबियत भी विश्व का तापमान बढ़ाती है।