विश्व धरोहर अंगकोरवाट से चर्चित कंबोडिया / संतोष श्रीवास्तव
सुना था कम्बोडिया हिन्दू मंदिरों का प्राचीन देश है। प्राचीन काल में जब संस्कृत वहाँ की राजभाषा हुआ करती थी तब कम्बोडिया को कंबोज कहते थे। वैसे इसे कम्पूचिया भी कहते हैं। ऐसा लगता है जैसे एक भव्य नाम के कई लाड़ले नाम हैं।
कम्बोडिया के सिआमरिप शहर में छत्तीसगढ़ सर्जन गाथा डॉट कॉम के द्वारा आयोजित एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने के लिये मैंने जब बैंकॉक के सुवर्ण भूमि अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर क़दम रखा तो बिल्कुल भी गुमान नहीं था कि मैं एक ऐसे देश में जा रही हूँ जहाँ भारतीय धर्म, सभ्यता, संस्कृति, साहित्यिक परम्पराएँ, वास्तुकला और भाषा तक में भारतीयता की गहरी छाप देखने मिलेगी। चूँकि हम बैंकॉक से जा रहे थे अत: पोईपेट (poipet) बॉर्डर पर हमें वीज़ा और इमीग्रेशन के लिये काफ़ी वक़्त गुज़ारना पड़ा। उस वक़्त को हमने वहाँ के अजीबोग़रीब शक्ल वाले फलों को चखने में गुज़ारा। एक फल गोल चीकू जैसा लेकिन ऊपर से सेही के काँटों (नर्म) का जाल...छीलने पर लीचीनुमा मीठा फल निकला। एक अनन्नास की शक्ल का गहरे बैंगनी रंग का फल...छीलने पर मीठे-मीठे ताड़ के गोलनुमा चार फल निकले। एक फल डंडी सहित बिक रहा था। लम्बी डंडी में बेर बराबर भूरे फल लगे थे जिन्हें बिना छीले खाना था...इतने मीठे जैसे शक्कर की पोटली...इमीग्रेशन के बाद हमारी बस कच्चे पक्के धूल उड़ाते रास्तों से गुज़रने लगी। आसपास भारतीय गाँव जैसा दृश्य था। छोटे-छोटे फूस और खपरैल और कुछ टीन के शेड वाले मकान जिनके बाहर आँगन में कम्बोडियाई औरतें घरेलू कामकाज में व्यस्त थीं... मर्द आराम से बैठे तम्बाखू खाते हुए बतिया रहे थे।
कम्बोडिया दक्षिण पूर्व एशिया का प्रमुख देश है। आबादी एक करोड़ बयालीस लाख, इकतालीस हज़ार छै: सौ चालीस है। यहाँ की मुद्रा राइल है। यहाँ संवैधानिक राजशाही और संसदीय प्रतिनिधित्व लोकतंत्र है। राजशाही है तो राजा भी हैं नोरोदम शिहामोनी। राजधानी नामपेन्ह है। सिआमरिप के बाद हम नामपेन्ह भी घूमेंगे। कम्बोडिया का आविर्भाव शक्तिशाली हिन्दू एवं बौद्ध खमेर साम्राज्य से हुआ जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं सदी के बीच इन्डोचाइना पर शासन किया था। खमेर साम्राज्य के कारण ही यहाँ की भाषा खमेर कहलाती है। हम जिन रास्तों से गुज़र रहे थे अधिकतर औरतें काम करती मिलीं...मर्द सिर्फ़ पैंट या जींस पहने बिना शर्ट के... बाइक या स्कूटर पर दिखे...शर्ट भले नहीं थी पर हेल्मेट ज़रूर लगाए थे और पैरों में जूतों की जगह रबर की चप्पलें...मुझे कम्बोडिया गरीब देश लगा जहाँ की अर्थ व्यवस्था वस्त्र उद्योग, पर्यटन और निर्माण उद्योग पर आधारित है। यहाँ चावल, तम्बाखू, कहवा, नील और रबर की खेती होती है। हालाँकि भूमि उपजाऊ है पर श्रम नहीं के बराबर। कुछ ही खेत दिखे बाकी विस्तृत उपजाऊ ज़मीन बिना खेती के ख़ाली पड़ी है क्योंकि उस पर खेती करने के लिए श्रमिक नहीं मिलते। ऐसा क्यों है मेरी समझ से परे था...क्यों स्त्रियाँ ही श्रम करती हैं पुरुष नहीं जबकि विधाता ने कम्बोडिया को प्राकृतिक खूबसूरती और उपजाऊ भूमि प्रदान की है। कम्बोडिया को हेलीकॉप्टर से देखो तो तश्तरी के आकार की एक खूबसूरत घाटी दिखती है। घाटी में मीकांग नदी (जो कम्बोडिया की प्रमुख नदी है) उदाँग नदी और शीशे-सी चमकती तांगले झील है। गझिन हरियाली से भरे घने और गहरे जंगल हैं। चावल तो यहाँ बहुतायत से पैदा होता है इसलिए चावल और मछली यहाँ से निर्यात भी की जाती है। कम्बोडिया को अण्डमान सागर और दक्षिण चीन सागर घेरे है जिन पर बड़े-बड़े जलयान चलते हैं। निश्चय ही व्यापार के लिए चलते होंगे।
एक देश से दूसरे देश की सरहद पार कर हम थके माँदे जब सिआमरिप पहुँचे तो शाम हो चुकी थी पर सूरज चमक रहा था। रास्ते से ही डिनर लेते हुए हम होटल पेसिफ़िक पहुँचे जो सिआमरिप में हमारा ठिकाना था।
सुबह दस बजे सम्मेलन का उद्घाटन सत्र था जिसकी अध्यक्षता मुझे करनी थी। हॉल में लेखक कम साहित्य के रसिक अधिक थे जो मेरे लिए बड़ा प्यारा तजुर्बा था क्योंकि ज़्यादातर सम्मेलनों में लेखक ही मंच पर होते हैं और लेखक ही श्रोता भी। संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों के बीच टी ब्रेक और लंच ब्रेक का भी इंतज़ाम था। सम्मेलन की अवधि सुबह दस से रात के नौ बजे तक की थी। बावजूद इसके संगोष्ठी के सभी सत्र सफलतम रहे। अंतिम सत्र काव्य विधा पर था। अभी मैंने अपनी कविता की शुरुआत ही की थी कि हॉल में हलचल-सी शुरू हो गई। अप्सरा शो का समय निकला जा रहा था जिसकी प्रवेश टिकट सभी ने पहले से ख़रीद ली थी। आयोजक साहित्य का गंभीरता वश सत्र कैसे बीच में ख़त्म करते, लिहाज़ा तय हुआ पहले अप्सरा शो देख लिया जाए फिर लौटकर अंतिम सत्र होगा जिसमें प्रतिभागियों को प्रतीक चिह्न और प्रमाण पत्र दिया जायेगा।
एक बहुत बड़े कम्पाउन्ड में काफी बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटकों के बैठने की व्यवस्था थी और आसपास बुफ़े डिनर की भी...अप्सरा शो जैसा कि मेरा अनुमान था भारतीय आध्यात्म पर आधारित स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक पर तैयार नृत्य नाटिका थी जिसकी साज सज्जा, परिधान, श्रृँगार, नृत्य मुद्राएँ सब पर भारतीय नृत्य कला की छाप थी। नृत्य अनवरत चल रहा था। बीच में दर्शक डिनर भी परोस लाते। जब मैं डिनर लेने टेबिल के पास पहुँची तो मेरे खाने लायक वहाँ कुछ भी न था। कम्बोडियाई जुगनू, टिड्डी, मच्छर, मकड़ी, कॉकरोच, मेंढक, साँप आदि सब तरह के कीड़े मकोड़े खाते हैं। यही सब कुछ बड़े-बड़े बर्तनों में चावल के साथ रखा था। उफ़...मैं तो उबक़ाई दबाकर चुपचाप अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई। किसी ने कहा था कि दाहिनी तरफ़ के स्टॉल में प्याज़, आलू के पकौड़े हैं पर मेरा मन खाने से उचट गया था। क्या पता पकौड़ों के साथ परोसी जाने वाली चटनी
इन्हीं कीड़े मकोड़ों से बनी हो। वैसे लाल चीटी की चटनी तो मेरे भारत के बस्तर जनपद और बुँदेलखंड के आदिवासी भी खाते हैं।
अप्सरा शो से लौटने के तुरंत बाद अंतिम सत्र सम्पन्न हुआ। सुबह हमें सिटी टूर करना था जिसमें प्रमुख अंगकोरवाट है जो वर्ल्ड हेरिटेज़ में गिना जाता है। लिहाज़ा हम शुभरात्रि कहकर अपने-अपने कमरों में सोने चले गये। कमरे में मेरी पार्टनर प्रख्यात लेखिका डॉ. प्रमिला वर्मा थीं। मैंने उनके साथ मिलकर एक उपन्यास लिखा है "हवा में बंद मुठ्ठियाँ" जिसके आठ चैप्टर मैंने और आठ प्रमिलाजी ने लिखे हैं। महिला लेखकों के द्वारा इस सहयोगी लेखन को राजेन्द्र यादव जी ने अभिनव प्रयोग कहा है।
टूर की शुरुआत में ही हमें हिदायत दे दी गई थी कि अपना पर्स, कीमती सामान सम्हालकर रखना है। पता भी नहीं चलेगा कब जेब कट गई। लेकिन इस हिदायत के बावजूद भी और पूरी सतर्कता के रहते एक पर्स वाले ने मेरे सौ डॉलर पार कर लिये और मेरी सावधानी कुछ काम नहीं आई। काफ़ी देर मैं उदास रही। सौ डॉलर यानी छै: हज़ार का नुकसान। लेकिन जब हम अंगकोरवाट के लिए रवाना हुए तो खुशगवार मौसम ने मुझे उदास नहीं रहने दिया। आसमान में बादल छाए थे और देर शाम तक चमकने वाला सूरज लापता था। ठंडी हवाएँ चल रही थीं। मौसम के इस खुशनुमा मिजाज ने अंगकोरवाट देखने की दुगनी ललक जगा दी। रास्ते में प्रवेश टिकट निकलवाना था तभी बस आगे बढ़ सकती है। काउंटर पर हमारे डिजिटल फोटो लिये गये जो टिकट में प्रिंट होकर आये। टिकट सुंदर और संग्रहणीय था। बस जहाँ पार्क हुई वहाँ से अंगकोरवाट के भव्य गेट तक पैदल जाना था। सामने दर्पण-सी
सामने दर्पण-सी चमकती झील...झील नहीं नहर जिसे राजा इंद्र वर्मन ने एक झरने के पानी को तालाब जैसी जगह में एकत्रित कर झील बनवाई थी। झरने से झील तक का पंद्रह फुट चौड़ा और पाँच मील लम्बा पानी का सफ़र मानो नहर बनकर आसपास हरियाली के दृश्य उकेरता चला गया। इसीलिए दरख़्तों का घना रास्ता बेहद छायादार है। झील के उस पार किनारे से लगा अंगकोरवाट जो अति प्राचीन हिन्दू मंदिर है और आकार में दुनिया का सबसे बड़ा धर्मस्थल है। इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय के शासन में (1112 से 53 ई.) हुआ। मीकांग नदी के किनारे बसे सिआमरिप शहर में यह मंदिर सैंकड़ों वर्गमील में फैला हुआ है। कम्बोडिया ने इस मंदिर को राष्ट्रीय सम्मान देते हुए राष्ट्रीय ध्वज में अंकित किया है। हमारे तिरंगे के समान तीन धारियों वाला पहले सिलेटी फिर लाल और फिर सिलेटी ध्वज के बीचोंबीच यह सफेद रंग से अंकित है। यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से अंगकोरवाट एक है।
झील के इस पार सड़क है जिसके किनारे पर बरगद आदि के दरख़्त कतार में लगे हैं। जिसकी छतनारी डालियों ने रास्ते पर मँडप-सा तान दिया है। डालियों पर बंदर धमाचौकड़ी मचाए थे। अंदर प्रवेश करते ही विशाल प्रांगण में मंदिर ही मंदिर...एक दिन में क्या इतने सारे मंदिर देखे जा सकते हैं? असंभव फिर भी अधिक से अधिक देखने के प्रयास में हमारे क़दमों में गति आ गई। प्रसात क्रान, नीक पिएन, प्राहा खान और ता प्रोम मंदिरों को देखते हुए पत्थरों पर की गई कारीगरी ने हमें विस्मित कर दिया। ता प्रोम और प्राहा खान मंदिर बारहवीं शताब्दी में राजा जयवर्धन ने अपने माता पिता की स्मृति में बनवाए थे। ता प्रोम की शायद ठीक से देखभाल नहीं की गई। बरगद की मोटी-मोटी जड़ें अजगर की तरह मंदिर को लपेटे हुए थीं। मंदिर की दीवारों पर भी जहाँ जगह मिली बरगद उग आया था।
बेयोन मंदिर जयवर्मन सप्तम ने 1181 से 1220 के दरम्यान बनवाया। इस मंदिर की ढेर सारी मीनारों (लगभग 54 तो गिनी मैंने) पर राजा जयवर्मन का चेहरा बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में चारों ओर बना है जैसे चारों दिशाओं का एक साथ निरीक्षण कर रहा हो।
अंगकोरवाट मंदिर हिन्दू पौराणिक कथाओं पर आधारित है। इसके पाँच शिखर हैं। बीच का शिखर काफी ऊँचा पूरे ब्रह्मांड के मध्य में स्थित सुमेरु पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है। शिखर में देवता क्रिया कलाप करते नज़र आते हैं। यह पाँच शिखर वाला मंदिर ब्रह्मा की नगरी कहलाता है। वैसे ब्रह्मा के मंदिर अजमेर के पुष्कर को छोड़कर मैंने कहीं नहीं देखे। इन शिखरों पर खुदी हुई सागर मंथन की सुंदर कृतियाँ रोमांचित कर रही थीं। इसके पश्चिम में महाभारत के कुरुक्षेत्र के दृश्य अंकित हैं। श्रीकृष्ण चक्र धारण किये हैं, भीष्म शरशैय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसी के सामने मानो हम त्रेता युग में पहुँच गए हों। लंका में श्रीराम, रावण और वानरों का संग्राम और राम से जुड़े उस काल के तमाम दृश्य उकेरे गए हैं। ऐसा लगता था जैसे अंगकोरवाट देवी देवताओं का विशाल मॉल है जहाँ हर एक देवी देवता बिराजमान हैं। शिव शंकर भी हैं, विष्णु लक्ष्मी भी... इस मंदिर का सम्पूर्ण आकार सुमेरु पर्वत जैसा है। चारों ओर की दीवारों पर क्षीर सागर उकेरा गया है। इस मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि यह पश्चिममुखी है जबकि विश्व के सभी मंदिर पूर्वमुखी होते हैं। खमेर भाषा में वाट का अर्थ मंदिर है और अंगकोर...नगर...यानी मंदिरों का नगर। अंगकोरवाट मिली जुली संस्कृतियों, सभ्यताओं और आध्यात्म के एक दूसरे में समाहित हो जाने का सबूत है। पहले इसका नाम वराह विष्णुलोक था। पूरा का पूरा महाभारत, पूरी रामचरितमानस, समुद्रमंथन के पत्थरों पर उकेरे गए दृश्य...बौद्ध मंदिरों का विशाल समूह है अंगकोरवाट...सचमुच विश्व धरोहर है यह।
मंदिर के गेट से बाहर आते ही पहले बूँदाबाँदी और फिर तेज बारिश शुरू हो गई। पहले तो हम लोग पेड़ के नीचे खड़े होकर बारिश के रुकने का इंतज़ार करते रहे। लेकिन बारिश नहीं रुकी और हमें टुकटुक लेनी पड़ी। टुकटुक एक ऐसा रिक्षानुमा वाहन है जिसमें आगे साईकल की जगह बाइक होती है और टुकटुक का ड्राइवर बाकायदा हेलमेट पहने बाइक चलाता है। टुकटुक ने हमें पार्किंग प्लेस पहुँचा दिया फिर भी थोड़े बहुत तो भीग ही गए थे।
आज की रात कम्बोडिया में आख़िरी रात है। कल हम वियतनाम के लिए रवाना होंगे। डिनर के दौरान चर्चा का विषय कम्बोडिया ही था। विश्व धरोहर के नाम से पूरी दुनिया में चर्चित कम्बोडिया के निवासी अगर मेहनती होते तो इसकी उपजाऊ धरती सोना उगलती लेकिन वे मेहनती नहीं हैं और इसीलिए विकासशील देशों में इसकी गिनती नहीं है।