विश्व में पसरती रेतीली समस्या / निर्देश निधि
आज विश्व अनेक समस्याओं और संकटों से जूझ रहा है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, प्रकाश प्रदूषण से लेकर पारिस्थितिकी तंत्र के बिखराव को मुख्य रूप से गिना जा सकता है ।आज मनुष्य के द्वारा फैलाए गए अनेक किस्म के प्रदूषणों से विश्व भर की साँसें संकट में हैं । इन प्रदूषणों के परिणामस्वरूप विश्व में प्रकट होते अनेक नकारात्मक परिवर्तन भी हैं जो मनुष्य जाति और धरती पर विचरने वाले अन्य जीव- जंतुओं के लिए विकराल समस्याएँ हैं । विश्व भर पर पर्यावरण सम्बन्धी अनेक संकट मँडरा रहे हैं, उन मँडराते तमाम संकटों में एक नया संकट और भी है जिसकी ओर मनुष्य उतनी गम्भीरता से विचार नहीं कर रहा जितना उसे करना चाहिए ।
बात सुनने में अटपटी लग सकती है पर आने वाले कल विश्व में रेत की कमी पड़ने वाली है । रेत के कारण विश्व में भयानक संकट गहराने वाला है । मनुष्य निरंतर निर्माण प्रक्रिया में रत है। उसे रहने के लिए घर-मकान के साथ-साथ सड़कें और दूसरे कई निर्माणों की आवश्यकता होती है । विश्व भर में निर्माण में रेत का प्रयोग किया जाता है और कोई भी निर्माण रेत के बिना संभव नहीं है । कंक्रीट के निर्माण से लेकर काँच की दीवारों, काँच के बर्तनों, कम्प्यूटर के कलपुर्ज़ों, स्मार्ट फ़ोन, टूथपेस्ट,सौंदर्य प्रसाधन, काग़ज़, पेंट, टायर आदि तक, एक अंतहीन सूची है, जिन वस्तुओं के निर्माण में रेत का प्रयोग किया जाता है। उसके बिना इन वस्तुओं का निर्माण सम्भव नहीं है। यही कारण है कि मनुष्य रेत का अत्यधिक दोहन कर रहा है । अमेरिका जैसे पूर्ण विकसित देशों में भी रेत की खपत दिनों दिन बढ़ रही है फिर विकासशील देश या पिछड़े देशों में निर्माण कार्य के लिए इसकी कितनी आवश्यकता होगी और इसका कितना दोहन किया जा रहा होगा, अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है। भारत सहित विभिन्न देशों में तेज़ी से होते शहरीकरण के चलते रेत की माँग बहुत अधिक हो गई है ।
वैसे तो विश्व में रेत की कोई कमी नहीं है । कई रेगिस्तान दूर-दूर तक पसरे पड़े हैं, जहाँ रेत का विपुल भंडार उपस्थित है; परंतु रेगिस्तानों की रेत को निर्माण कार्य में प्रयोग नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह पानी के स्थान पर हवा के घर्षण से अपना आकार लेती है । हवा के घर्षण के कारण वह इतनी गोल हो जाती है कि उसके दो कणों का आपस में जुड़ पाना संभव नहीं होता है । समुद्र की रेत भी लवणीय होती है, जो निर्माण कार्य के लिए आदर्श तो नहीं है; परंतु कुछ निर्माणों में इसका प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त निर्माण प्रक्रिया में प्रयोग करने के लिए रेत के कणों का एक विशेष साइज़ होता है । यह साइज़ 0.06 मिलीमीटर से लेकर 2 मिलीमीटर तक का होना चाहिए। इससे मोटे या इससे बारीक रेत से न तो कंक्रीट ही बनाई जा सकती है और न ही किसी अन्य निर्माण- कार्य में इसका प्रयोग किया जा सकता है । यदि हम इस साइज़ के अतिरिक्त किसी साइज़ के रेत को सीमेंट में मिलाते हैं तो सीमेंट उसे पकड़ ही नहीं पाता है । जिसके कारण उसका प्रयोग किया जाना संभव नहीं होता।
यह राहत भरी बात है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा रेत के संकट को समझ लिया गया है । उसके द्वारा इसके संरक्षण को ग्लोबल चिंता में सम्मिलित किया गया है । संभव है स्थिति में कुछ सुधार आ पाए, जो कि मनुष्य की आवश्यकताओं को देखते हुए संभव लगता भी नहीं है । परंतु इस विषय पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा चिंता करना यह दर्शाता है कि आने वाला समय मनुष्य के लिए दूसरे संकटों के साथ-साथ रेत का भी संकट लेकर आने वाला है।
रेत, जल के बाद दूसरा सबसे अधिक दोहन किया जाने वाला पदार्थ है । हालाँकि जल की समस्या एकबारगी हम वॉटर ट्रीटमेंट प्लांटों के माध्यम से सॉल्व करने का प्रयास कर भी सकते हैं; परंतु रेत को बनाने की कोई त्वरित रासायनिक प्रक्रिया खोजने के लिए अभी बहुत संघर्ष करना है । हालाँकि चट्टानों को तोड़कर उनसे रेत बनाया जाता है, परंतु यह प्रक्रिया भी काफ़ी कठिन है । चट्टानों को तोड़कर बनाई गई इस रेत को विनिर्मित रेत या एम - सैंड कहा जाता है ।यह रेत नदियों, झीलों आदि से दोहन किए जाने वाले रेत का मुख्य विकल्प है । परंतु धरती पर प्रकृति के संतुलन में चट्टानों की भी महती भूमिका होती है । यदि भारी मात्रा में चट्टानों को तोड़कर रेत बनाया जाता रहा तो भी उनके टूट जाने से धरती पर प्रकृति के संतुलन के गड़बड़ा जाने की आशंका मुश्तैद खड़ी ही हुई है । धरती पर तेज़ी से जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, जिसके साथ ही निर्माण की तमाम आवश्यकताएँ भी बढ़ती चली जा रही हैं । वैसे तो धरती के भीतर-बाहर संसाधनों के विपुल भंडार हैं; परंतु यहाँ हमें महात्मा गाँधी के उस कथन को अनदेखा नहीं करना चाहिए, जिसके अनुसार धरती इंसान की आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकती है परंतु यह उसका लालच पूरा करने में समर्थ नहीं है । धरती पर बढ़ती जनसंख्या के कारण दिन पर दिन मनुष्य की आवश्यकताओं की वृद्धि हो रही है; परंतु धरती की संपदाएँ तो सीमित ही हैं ।
अफ़सोस यह है कि प्रकाश प्रदूषण की ही भाँति, रेत के अंधाधुंध खनन या दोहन पर अभी तक विश्व की सरकारों या विश्व के नागरिकों का बहुत अधिक ध्यान नहीं जा सका है और रेत खनन को एक छोटा-मोटा अपराध मान कर अभी तक अनदेखा किया जाता रहा है । रेत माफ़िया हैं, जिन्हें निर्ममता से नदियों की रेत को निकालने में किसी लज्जा या नैतिकता का ख़याल नहीं है । रेत, नदियों, झीलों और समुद्र आदि के पारिस्थितिकि तंत्र की आवश्यक संपदा है । रेत नदियों के जल प्रवाह, जल के शुद्धीकरण और उनके स्वास्थ्य के लिए कार्य करता है । रेत - भू जल के पुनर्भरण के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण पदार्थ है । यदि हम नदियों को रेत से रिक्त कर देंगे, तो उनकी जैविक क्रियाएँ भी मर जाएंगी । बेतहाशा रेत खनन के कारण विश्व की हज़ारों छोटी नदियाँ मर चुकी हैं; क्योंकि रेत ना होने के कारण उनका विशाल नदियों तक जाने का रास्ता ही नहीं रह गया । ध्यान देने योग्य बात यह है कि विशाल नदियों की विशालता में इन छोटी नदियों का बहुत मत्त्वत्वपूर्ण योगदान होता है ।यदि नदियाँ मरीं, तो उनके भीतर के जीव-जंतु और उनके भीतर पनपती वनस्पतियों के विपुल भंडार भी विनाश की कगार पर पहुँच जाएँगे, जिससे संसार का पारिस्थितिकी तंत्र डगमगा जाएगा । पारिस्थितिकी तंत्र के डगमगाने के दुष्परिणामों की भयावहता हर प्रबुद्ध व्यक्ति समझ ही सकता है ।
पुनः कहना होगा कि रेत संसार का सबसे अधिक खनन किया जाने वाला ठोस पदार्थ है, जिसे कृत्रिम रूप से बनाने की प्रक्रिया बहुत कठिन है और प्राकृतिक रूप से उसे बनने में बहुत अधिक लम्बा समय लगता है । रेत का खनन मुख्यतः झीलों, नदियों आदि से किया जाता है, रेत को समुद्रों से भी निकाला जाता है । रेत खनन के चलते तमाम नदियाँ अपने जीवन काल में ही मरणासन्न हो जाती हैं । नदियों का ही जीवन ख़तरे में नहीं है, समुद्र भी इस खनन के दुष्परिणामों से जूझ रहा है । समुद्र के कई तट वीरान हो गए हैं और उसके कई द्वीप तो विलुप्त ही हो गए हैं । द्वीपों का विलुप्त होना उस पर बसे जीवन का भी विलुप्त होना है । इस तरह नदियों का विनाश और समुद्रों की हानि का बहुत नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न हो रहा है, जिसके कारण पर्यावरण या पृथ्वी के संतुलन का बिगड़ जाना लगभग तय होता जा रहा है ।
इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनडीपी) की चिंता अकारण ही नहीं है । यह बिल्कुल सच है कि मानव सभ्यताएँ उस दौर से गुजर रही हैं जहाँ निर्माण कार्य आवश्यक माना जा रहा है, आवश्यक है भी । जिसके लिए रेत की आवश्यकता पहले से कई गुना बढ़ गई है । स्पष्ट है कि भूवैज्ञानिक क्रिया - प्रक्रियाओं के विपरीत रेत का तेज़ी से दोहन किया जा रहा है । जिसका खामियाजा निर्दोष नदियाँ, झीलें और समुद्र भुगत रहे हैं । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार यदि हमारा पूरा विकास, निर्माण प्रक्रिया पर निर्भर करता है जिसमें रेत की भूमिका मुख्य है, तो उसे एक राजनयिक, राजनैतिक सामग्री के रूप में पहचाना जाना चाहिए । यदि संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अभी भी उचित निर्णय ले लिया गया तो भी आने वाले कल रेत के अनियंत्रित दोहन के दुष्परिणामों से संसार और उसकी पारिस्थितिकी को कुछ तो सुरक्षित किया जा सकता है ।
धरती पर प्राकृतिक रूप से रेत के बनने की प्रक्रिया आख़िर है क्या ? साधारण भाषा में, मोटे तौर पर कहें तो, कई स्थानों पर दिन में अत्यधिक तापमान होता है और रात में भीषण ठंड हो जाती है । वातावरण के इस चरम बदलाव के कारण पत्थर चटकने लगता है उसके बाद जब बरसात होती है तो टूटे पत्थरों के टुकड़े महीन हो जाते हैं और तेज़ हवाओं से घर्षण उत्पन्न होता है । एक लंबे समय तक इस घर्षण से टुकड़े और महीन होते जाते हैं और वे रेत में परिवर्तित होने लगते हैं । यह प्रक्रिया लाखों बरसों की भी हो सकती है।या कहें कि लाखों बरसों तक चट्टानें स्वाभाविक रीति से निरंतर अपक्षरित होती रहती हैं, उनका यही अपक्षरण नदियों में रेत के रूप में एकत्र होता रहता है । इस तरह प्राकृतिक रूप से बहुत लंबे समय में जाकर चट्टानों का रेत बन पाना संभव होता है । प्राकृतिक रूप से जितना समय इसके निर्माण में लगता है उसके अनुपात में इसका दोहन बहुत अधिक रफ़्तार से किया जा रहा है । इसलिए कहना होगा कि जितनी रेत संसार में बनती है, इस समय उससे कहीं अधिक रेत का दोहन मनुष्य कर रहा है । रेत के बनने की इस लम्बी प्रक्रिया और उसके तेज़ी से, अंधाधुंध दोहन के कारण ही नदियों की रेत अब दुर्लभ होती जा रही है ।यही कारण है कि संसार में आगामी समय में रेत का संकट निःसंदेह सबसे बड़ा संकट बनकर सामने आने वाला है । तमाम देशों की सरकारों की चिंता इस आने वाले संकट को लेकर बढ़ गई है ।
विश्व में सिंगापुर रेत के संकट से जूझने वाला प्रमुख देश है । रेत का संकट झेलने वाले देशों में उसे एक उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है । वह निरंतर अपनी सीमाओं का विस्तार करता चला जा रहा है । पिछले 4 दशकों में उसने अपने क्षेत्रफल का लगभग 130 किलोमीटर तक विस्तार कर लिया है, जिसके कारण उसे भारी मात्रा में रेत का आयात करना पड़ा । स्पष्ट है कि उसे रेत के आयात के लिए माफ़ियाओं पर निर्भर करना पड़ा होगा । प्राकृतिक रूप से पसरी रेत को एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर कृत्रिम रूप से स्थापित कर देना भी प्रकृति में असंतुलन पैदा करता है ।
संयुक्त अरब अमारात, दुबई और सऊदी अरब जैसे तमाम देशों में, जहाँ रेत के भंडार हैं, उस रेत के, जिसे निर्माण कार्य में प्रयोग नहीं किया जा सकता, संसार में सबसे ऊँची, अधुनातन और भव्य इमारतों में से अनेक इमारतें वहाँ खड़ी है । इन भव्य इमारतों के निर्माण के लिए जिस रेत का प्रयोग किया गया है वह ऑस्ट्रेलिया के समुद्र तटों से आयात की गई है । अरब में इमारतें ही क्या, चौड़ी - चौड़ी सीमेंट वाली सड़कों का निर्माण भी ऑस्ट्रेलिया से लाए गए समुद्र तटों की रेत से ही हुआ है । यही कारण है कि ऑस्ट्रेलिया के कई समुद्र तट आज वीरान दिखाई देते हैं । समुद्र का रेत भी हर निर्माण कार्य के लिए आदर्श नहीं जैसा कि पहले भी कहा। बचीं झीलें और नदियाँ, मुख्यतः नदियों की रेत का ही प्रयोग निर्माण प्रक्रिया में किया जा रहा है । जिसके कारण अति का खनन भी किया जा रहा है । ऐसा किया जाना उनका विनाश कर रहा है । हमारे ऋषि - मुनि कह ही गए हैं- ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ इस अति के कारण आशंका तो यह भी है कि आने वाले कल विश्व के विभिन्न देशों के मध्य कहीं रेत के लिए तनातनी और युद्ध न होने लगें ।
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