विश्व सिनेमा पर चीन का नियंत्रण / जयप्रकाश चौकसे

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विश्व सिनेमा पर चीन का नियंत्रण
प्रकाशन तिथि : 23 नवम्बर 2018


अमेरिका में एक एक्शन फिल्म की पटकथा बनाई गई, जिसका नायक किसी अन्य ग्रह से पृथ्वी पर आया है और वह चीन की दीवार को ध्वस्त कर देता है। दरअसल, वह पृथ्वी पर बनी सभी सरहदों को मिटाकर विश्व को एक 'कुटुंब' बनाना चाहता है। चीन ने तमाम देशों में पूंजी निवेश किया है, क्योंकि वह सेना द्वारा विश्व विजय नहीं करते हुए पूरे विश्व के व्यापार और मंडियों पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते हैं। मुद्रा मूल्य के भी वे निर्णायक बनना चाहते हैं। उनकी आर्थिक घुसपैठ, बतर्ज 'इकोनॉमिक हिटमैन' हॉलीवुड पर भी है। उन्होंने इस पटकथा से चीन की दीवार तोड़ने के दृश्य को हटवा दिया और परामर्श दिया कि ध्वंस का एक्शन दृश्य आवश्यक हो तो आगरा के ताज़महल को ध्वस्त करने का दृश्य रखा जा सकता है। यह सब कार्य इसलिए हो रहे हैं कि चीन ने कम्यूनिस्ट तौर तरीकों से विपुल धन कमाकर पूंजीवादी बन जाने का संकल्प संकल्प पूरा कर लिया है। चीन का अवाम आज भी कम्यूनिस्ट कोड़े के भय से खूब परिश्रम करता है और वहां के हुक्मरान पूंजीवादी मंसूबे बनाते हुए उन पर अमल भी करते हैं। वर्तमान में किसी भी देश का फिल्मकार चीन विरोधी फिल्म नहीं बना सकता।

गौरतलब यह है कि चीन की इस सिनेमाई ताकत का राज क्या है? चीन में 45,000 स्क्रीन है, अतः वहां फिल्म प्रदर्शन से निर्माता को बहुत आय प्राप्त होती है। इसके साथ ही अमेरिका में सिनेमा देखने के प्रति दर्शक का उत्साह घटता जा रहा है। इस कारण अमेरिका का फिल्म उद्योग अन्य देशों में अपनी फिल्म के प्रदर्शन पर निर्भर करता है। चीन में प्रदर्शन से प्राप्त आय अमेरिकन फिल्म उद्योग की प्राणवायु बन चुकी है।

इस तरह चीन की दीवार अपने अन्य स्वरूप में पूरी पृथ्वी को घेरना चाहती है। दूसरों के जीवन पर नियंत्रण रखकर 'कंट्रोल फ्रीक' बनने की महत्वाकांक्षा मनुष्य को स्वयं अपने से दूर कर देती है और जब कोई राष्ट्र कंट्रोल फ्रीक बन जाता है तो आम नागरिक की स्वतंत्रता सीमित कर देता है। चीन यही कर रहा है। अगर चीन अपना पूंजी निवेश पश्चिमी देशों से हटा ले तो उनकी आर्थिक व्यवस्था टूट सकती है। कुछ समय बाद यह रहस्योद्‌घाटन हो सकता है कि डोनाल्ड ट्रम्प और उनके जैसे ही हुक्मरानों को अन्य देशों में चीन ने ही स्थापित किया है। अमेरिका के विगत चुनाव में हिलेरी को रूसी सहायता मिल रही है यह झूठ भी संभवत: चीन ने ही फैलाया, जिससे उसे दो लाभ हुए। रूस बदनाम हुआ और डोनाल्ड ट्रम्प जीत गए।

चीन ने अपने तौर-तरीके बदले हैं। एक दौर में 'चीनी-हिंदुस्तानी भाई भाई' का नारा देते हुए चीन के सैनिक भारत में घुस आए। नेहरू का पंचशील सपना ध्वस्त हो गया। पंचशील की प्रेरणा नेहरू को भारतीय संस्कृति से प्राप्त हुई थी। वर्तमान में चीनी सैनिक कोई नारेबाजी नहीं करते हुए डोकलाम में जमीन हड़प रहे हैं और भारतीय हुक्मरान कसमसा रहे हैं, क्योंकि चीन से टकराने में वे असमर्थ हैं। इस कमजोरी को छुपाने के लिए उन्होंने भारत-पाकिस्तान सरहदों को सुलगाए रखा है। चीन में हुक्मरान के बदल जाने पर भी उनकी नीतियों में परिवर्तन नहीं होता। चीन ने अपने विराट देश का विकास भी सुनियोजित ढंग से किया है। वर्तमान में चीन का एक भाग अमेरिका की तरह विकसित किया जा चुका है। विकास का व्रत धीरे-धीरे फैलाने की 100 वर्षीय योजना पहले ही बना ली गई थी और कितने ही हुक्मरान बदलें, चीन अपने विशेष नियंत्रण की नीति पर चलता रहेगा।

चीन का आम आदमी अपने मन को मारकर देश की नीतियों पर चलता है। आज चीन के अवाम में भी आक्रोश है। भरपेट भोजन मिलने और सिर पर छत होने से ही संतोष नहीं मिलता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ही आनंद प्राप्त होता है। क्या यह संचित आक्रोश किसी दिन कंट्रोल फ्रीक बनने की महत्वाकांक्षा के खिलाफ विद्रोह करेगा? इस विषय पर विचारक एकमत है कि विद्रोह नहीं होगा परंतु वे नहीं जानते कि आम आदमी के मन में चिंगारी कब शोला बन जाती है।

रोटी, कपड़ा और मकान से भी अधिक आवश्यक है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। यह इच्छा जुगनू की तरह अंधेरी रात में ही नज़र आती है। चीन का अवाम भी एक दिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अवश्य प्राप्त करेगा। चीन में चाय बहुत पी जाती है। हर गली मोहल्ले के नुक्कड़ पर यह उपलब्ध होती है। इस मसले को इस तरह देखें। किसी अन्य संदर्भ में लिखी डॉ रेणु शर्मा की पंक्तियां इस तरह हैं- 'वो अंधेरे मेरी सहूलियत थे ( चीन में कोड़े मारकर काम कराने का अंधकार) कैसे बरसी मैं उजालों में, (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ) कौन आवाज दे रहा है मुझे टूटे चाय के उन प्यालों से, अब इस शहर की रोशनी किस काम की, आंखें छोड़ आए हैं उसकी गली में....