विष्णु खरे को आदरांजलि ! / जयप्रकाश चौकसे

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विष्णु खरे को आदरांजलि !
प्रकाशन तिथि : 21 सितम्बर 2018


हिंदी साहित्य के कवि, आलोचक और पत्रकार विष्णु खरे का निधन हो गया। कुछ माह पूर्व 'आप' दल के सिसोदिया के आमंत्रण पर वे हिंदी अकादमी से जुड़ने के लिए दिल्ली आए थे। वे राजनीति में प्रतिक्रियावादी ताकतों से युद्ध करने का संकल्प करके आए थे। उन्हें पक्षाघात हो गया और शरीर का बायां भाग सुन्न पड़ गया था जैसे भारत में वामपंथी सुस्त पड़ गए थे। अब तो सड़क पर बांए चलने की ही इजाजत है। दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की गई और 'आप' पार्टी ने ही सारा खर्च दिया। विष्णु खरे के पिता सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और बार-बार तबादले होते थे। उनका जन्म छिंदवाड़ा में हुआ। कुछ वर्ष पूर्व वे मुंबई छोड़कर छिंदवाड़ा चले गए। अपनी जड़ों से जुड़े रहने का प्रयास था। संभवत: वे अपने बचपन में देखे छिंदवाड़ा की छवि मन में लेकर गए थे परंतु उन्हें शहर अजनबी लगा। शहरों ने अपनापन खो दिया है। विष्णु खरे ने बीए नीलकंठ कॉलेज खंडवा से किया। उन दिनों मैं बुरहानपुर के सेवा सदन महाविद्यालय में पढ़ता था। क्रिकेट प्रतिस्पर्धा में पहली मुलाकात हुई परंतु मित्रता हुई इंदौर के रूप राम नगर में जहां ज्वालाप्रसाद शुक्ला के मकान में हमने दो कमरे किराए से लिए थे, दोनों कमरों को जोड़ने वाला दरवाजा खुला रखा जाता था। हम दोनों अपनी-अपनी निजता की रक्षा करते हुए मित्र बने रहें। विष्णु खरे ने ही मेरा परिचय हेमचंद्र पहारे से कराया। हम तीनों ही अंग्रेजी साहित्य में एमए के छात्र थे।

हम तीनों ही फिल्मों के दीवाने थे। विष्णु के प्रिय सितारा दिलीप कुमार थे। हेमचंद्र पहारे देवआनंद को पसंद करते थे और खाकसार राज कपूर के सिनेमाई जादू से मंत्रमुग्ध था। हम तीनों ही अपने-अपने प्रिय सितारे को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए बहस करते थे। हमने संगीतकार भी बांट लिए थे। विष्णु, नौशाद को, हेमचंद्र पहारे सचिन देव बर्मन और खाकसार शंकर जयकिशन को पसंद करता था। हम तीनों जमकर बहस करते और अन्य लोगों को यह लगता कि किसी भी क्षण हम हिंसा पर उतर सकते हैं। दरअसल, हम अन्य लोगों के भ्रम को मजबूत बनाते रहते थे। यह हमारा शगल था। खाकसार और विष्णु खरे प्रतिदिन रानीपुरा के खुर्शीद होटल में भोजन करने जाते थे। वहां का खाना बहुत लज़ीज था और परतदार रोटी को फरमाइशी रोटी कहा जाता था। हमारी मित्रता भी परतदार थी। वामपंथ की ओर झुकाव एकमात्र समानता थी। साधनहीन के प्रति करुणा तक सीमित था हमारा वामपंथ। उसका इस तरह जाना हमारे साथ धोखा करना है। तय तो यह किया गया था कि विष्णु सबसे बाद में जाएगा, क्योंकि उसके कंधे अधिक मजबूत थे और उसे अकेला चलना बहुत पसंद था। अत: अजनबियों के कंधे पर उसका जाना उसकी सजा की तरह तय पाया गया था और उसने अपनी रजामंदी भी दी थी। बहरहाल, 'आप' के कंधे भी कोई अजनबी नहीं हैं। 'आप' लेफ्ट के करीब है या उसे होना चाहिए।

विष्णु खरे ने मात्र 20 वर्ष की वय में टीएस एलियट की 'वेस्टलैंड' और अन्य कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया था। तत्कालीन मंत्री हुमायूं कबीर ने इस संग्रह की भूमिका लिखी थी। प्रकाशक से अपने पत्र-व्यवहार में विष्णु ने अपना युवा होना छुपा लिया था, क्योंकि टीएस एलियट जैसे कवि की रचनाओं का अनुवाद अत्यंत कठिन था और कोई यकीन नहीं करता था कि मात्र 20 वर्ष के युवा ने यह अनुवाद किया है। रामधारी सिंह दिनकर ने इस प्रकाशन के लिए 'दो शब्द' लिखने के पहले अनुवाद को मूल पाठ से मिलाकर खूब परखा था और पूरी तरह संतुष्ट होने पर 'दो शब्द' लिखे। अनुवाद कठिन विद्या है और टीएस एलियट का अनुवाद कठिनतम है। टीएस एलियट के पिता संस्कृत जानते थे और स्वयं टीएस एलियट ने कभी 'गंगा' को 'गेन्जीस' नहीं लिखा और न ही 'हिमवत' को 'हिमालया' लिखा। उनकी कविताओं में पूर्व की उदात्त संस्कृति हिलोरे लेती नज़र आती है।

विष्णु खरे ने कहानियां भी लिखी हैं परंतु रुझान काव्य की ओर था और अनुवाद ने उन्हें रोजी-रोटी दी। उन्होंने विदेश यात्राएं कीं और यूरोप के एक छोटे देश के महाकाव्य का हिंदी अनुवाद भी किया। उनकी एक अप्रकाशित कहानी का सार कुछ इस तरह था कि एक स्कूल शिक्षक का तबादला बार-बार होता है और हर बार वे घर से केवल आवश्यक वस्तुओं को ही साथ ले जाते हैं। एक ऐसे ही तबादले के बाद वे जान-बूझकर पूजा के सामान को वहीं छोड़ देते हैं। इसी तरह अनास्था बहुत गहरे अध्ययन के बाद प्राप्त होती है। इसका संबंध उस दर्शन से है, जिसमें नेति-नेति कहते हुए सार्थकता प्राप्त होती है।

विष्णु खरे ने नवभारत टाइम्स की नौकरी छोड़ने के बाद कहीं कोई नौकरी नहीं की और उनकी रोजी-रोटी का एकमात्र साधन लेखन रहा। रॉयल्टी के सहारे इस कालखंड में जीवन यापन करने वाले वे एकमात्र लेखक थे। उनकी सपाट बयानी इतनी प्रखर रही है कि प्राय: लोग उनसे नफरत करते थे। दरअसल, आप उन्हें प्यार करें या नफरत करें, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता था। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में वे जिधर से भी गुजरे, वहां आस-पास खड़े लोग लहूलुहान हो गए। तर्क सम्मत विचार शैली के हामी विष्णु से नजर मिलाते ही कुछ लोगों को अनुभव होता मानो उन्हें बिच्छू ने डंक मार दिया हो। विष्णु के लिए मीडियोक्रेटी को सहन करना कठिन था। मीडियोक्रेटी के इस महापर्व में उसका जाना अनिवार्य था। पोस्टमार्टम से भी कई बार मृत्यु का असली कारण ज्ञात नहीं होता। यह संभव है कि वह 'दज्जाल' का शिकार हुआ हो।

विष्णु खरे ने एलियट की कविता 'ऐश वेडनसडे' का अनुवाद किया है जिसका एक अंश इस तरह है 'असंतुष्ट प्रणय का अंत/ संतुष्ट प्रणय के महतर कष्ट का अंत/ अंतहीनों का अंत/ अनंत की ओर यात्रा/ उन सबकी समाप्ति जो असाम्य हैं/ शब्दहीन वाणि तथा वाणि रहित शब्द/ माता की गरिमा इस उपवन के लिए/ जहां समस्त प्रणय अंत होता है।' विष्णु खरे को शराब पीने का शौक था और उसकी पीने की क्षमता कभी भी मयनशी के अखाड़े में किसी भी गामा को चित्त कर सकती थी। वह अपनी शराब में पानी या बर्फ कभी नहीं मिलाता था। जीवन के हर क्षेत्र में शुद्धता के प्रति उसका आग्रह था। उसके अंतिम प्रकाशित काव्य संकलन में एक कविता है 'दज्जाल' जिसकी कुछ पंक्तियां इस तरह हैं- 'लेकिन दज्जाल अपनी असली किमाश को/ कब तक पोशीदा रख सकता है/ जब तक उसका दहशत नाक चेहरा सामने आएगा और वह वही सब करेगा जिसके खिलाफ उतरने का उसने दावा और वादा किया था/ बल्कि और भी बेवकूफ बेखौफ उरियानी और दरिंदगी से/ तो अगर तबाही से बचें तो खून के आंसू रोते हुए अवाम जमीन पर गिर छटपटाने लगेंगे/ किसी इब्ने मरियम, किसी मेहंदी, किसी कल्कि की दुहाई देते हुए जो आए भी तो तभी आएंगे जब कौमें पहले खुद खड़ी नहीं हो जाएंगी। दज्जाल की शनाख्त कर मुहर्रिफ मसीहा के खिलाफ' विष्णु खरे ने शोक सभाओं का खोखलापन एक कविता में अभिव्यक्त किया है- 'मेरे साथ यह विचित्र है कि अगर किसी शोक सभा में जाता भी हूं तो मंच पर और मेरे आसीनों को देखते हुए उन पर और उनके बीच बैठे खुद पर और दिवंगत आत्मा पर बल्कि सारे जमाने पर लगातार खिलखिलाने, कुछ अभद्र कहने की असभ्य इच्छा होती रहती है, जिसे अपने निजी जीवन की चुनिंदा त्रासदियों को सायास याद करके ही दबा पाता हूं। कम्बख्त जाने की ऐसी भी क्या जल्दी थी?