विष्णु नागर से बातचीत - 2 / कुमार मुकुल

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संगीत सी गहराई कविता में नहीं
विष्‍णु नागर से कुमार मुकुल की बातचीत

विडंबना-बोध को ऐसे यथार्थवादी ढंग से अभिव्यक्त करना कि वह रूढि़यों की मिट्टी पलीद कर दे, विष्‍णु नागर की रचनाओं की खासियत है। हिंदी में यह बात नागार्जुन के यहाँ और ज्यादा सादगी के साथ केदारनाथ अग्रवाल के यहाँ दिखती है। ऐसे में जब कवि ईश्वर से जुड़ी नई रूढि़याँ पैदा कर रहे, नागर ईश्वर को यथार्थ की नई रोशनी में देखते हैं और उसके नाम पर हो रही क्रूरता को रेखांकित करते हैं - ' मेरे जाल में एक मछली फंसी / वह जिस कदर तड़प रही थी / उससे लगता नहीं था कि वह किसी ईश्वर को याद कर रही थी / वह ठीक कर रही थी / क्योंकि उस वक्त उसका ईश्वर मैं था / और मैं उसे पका कर खाने की जल्दी में था।'

प्रस्‍तुत हैं कवि, व्‍यंग्‍यकार, पत्रकार विष्‍णु नागर से कुमार मुकुल की बातचीत के अंश -

सोशल मीडिया को लेकर शुरू में रचनात्‍मकता को प्रभावित करने के लिहाज से एक डर था लेखकों में अब वह दूर हो रहा। नयी रचनात्‍मकता को सामने लाने में इस मीडिया की भूमिका बढ रही है, पारंपरिक प्रकाशन जगत को यह कहां तक प्रभावित करेगी?

मैं इस संबंध में कोई भविष्यवाणी करने की स्थिति में नहीं हूँ.इस बारे में ही क्या,किसी बारे में।जितना मैं समझ सकता हूँ, सोशल मीडिया रचनात्मकता को प्रभावित करने का एकमात्र स्रोत है नहीं है, न हो सकता है। इस मीडिया मे अभी बहुत अधकचरापन है,जो वैसे पारंपरिक मीडिया में भी कम नहीं है मगर शायद सोशल मीडिया से कम।।इतनी स्वतंत्रता इस माध्यम ने जरूर दी है कि इसे इस्तेमाल करनेवालों को संपादकीय हस्तक्षेप से मुक्त किया है, जो अच्छा और बुरा दोनों है। संपादकीय विवेक का जिस पत्र-पत्रिका सचमुच इस्तेमाल होता है, वहाँ चीजें छनकर आती हैं। वहाँ रचना के प्रकाशित होने पर संपादक के साथ लेखक-–कवि की प्रतिष्ठा भी बढ़ती है,लेखकीय विवेक का विकास भी निरंतर होता है।उसे अपनी किसी रचना को प्रकाशन के लिए भेजने से पहले सोचना पडता है-चाहे वह नया लेखक हो या पुराना। सोशल मीडिया में लेखक इतना निर्भय हो जाता है कि कुछ भी प्रकाशित करने से संकोच नहीं करता। बहरहाल इस माध्यम से बहुत से कवियों-कथाकारों-आलोचकों ने अपनी रचनात्मकता को बहुत से नये पाठकों तक पहुँचाया है, बहुत से मोजूं सवाल उठाये है।अतः मैं इस माध्यम के जरिये व्यक्त रचनात्मकता को द्वंद्वात्मक रूप में देखना पसंद करता हूँ। वैसे मैंने यहाँ सोशल मीडिया के सवाल को महज साहित्यिक रचनामकता तक सीमित करके देखा है।.

आपने कविता, कहानी, व्‍यंग्‍य तमाम विधाओं में लिखा है। आप मूलत: खुद को किस विधा से जोड़ते हैं?

यह कहना ईमानादारी नहीं होगी कि मैं खुद को कविता से ही जोड़ता हूँ क्योंकि सवाल तब यह पैदा होगा कि जब दूसरी विधाओं से स्वयं को नहीं जोड़ता तो उन विधाओं मे लिखा क्यों है?दूसरी विधाओं मे अपने लेखन को भी मैंने उसी गंभीरता से लिया है, जितना कविता को।यह सवाल दूसरों पर ही छोड़ देना चाहिए कि उन्हे मेरा कौनसा लेखकीय रूप पसंद है या कोई भी पसंद नहीं है।

मारक व्‍यंग्‍य आपकी रचनाओं में आधार की तरह दिखता है। व्‍यंग्‍य लिखने को कहां से प्रेरित हुए आप, इस व्‍यंग्‍यात्‍मकता का उत्‍स क्‍या है?

मैं सचमुच ठीक-ठीक नहीं बता सकता क्योंकि व्यंग्य की उपस्थिति मेरी हर विधा की अधिकतर रचनाओं मे मिलेगी। व्यंग्य मेरे लिए स्वाभाविक है, उसे भाषा का खेल करके मुझे पैदा नहीं करना पड़ता।अब ऐसा मेरे साथ हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जैसे व्यंग्यकारों को शुरू से पढ़ने के कारण पैदा हुआ हो या राजनीतिक-सामाजिक चेतना से खुद को लैस करने के प्रयत्न का परिणाम है या दोनों है या हरेक लेखक मे अभिव्यक्ति अपने ढँग से अपना रास्ता ढूँढती है,इस कारण से हुआ होगा।

भटकना आपको प्रिय रहा है और रचना के लिए भटकाव को आप जरूरी मानते हैं। नये दौर में साइबर स्‍पेस में भटकाव की सूरतें ज्‍यादा निकल रही हैं। पुराने भटकाव के मुकाबले यह साइबर भटकाव हमारी रचनात्‍मकता को किस तरह, कहां तक प्रभावित करेगा?

भटकाव को अगर एक रचानात्मक जरूरत मानें- -जो मैं मानता हूँ-कि है-चाहे वह भौगौलिक अर्थ में भटकाव हो या जीवन में जीवनशैली और अनुभवों के स्तर पर, वह-आवश्यक है।कोई भी कैद- जो रचनाकार को, नये अनुभव हासिल करने की प्रक्रिया को बाधित करती हो,-घातक है। हमारे गंभीर लेखक अब सोशल मीडिया की दुनिया में भी भटकने-टकराने लगे हैं,यह अच्छा लक्षण है। वे सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर भी अपना राय खुलकर दे रहे हैं,दूसरों की राय, इनके अवलोकनो से टकरा रहे हैं, यह शुभ है। एक नये तरह के अधीर पाठक वर्ग से उसका सामना हो रहा है,जो सोशल मीडिया के अवतरण से पहले गुम था। बहुत से कवि-लेखक अपनी रचनात्मकता को कम प्रचारित कर, दूसरों की रचनात्मकता को ज्यादा रंखांकित कर रहे हैं, ये सब अच्छे लक्षण हैं।माजिक –राजनीतिक रूप से प्रखर और कुंद और जड़ सभी तरह के लोगों के सामने लेखक निरस्त्र खड़ा है,यह पहली बार हो रहा है।

महाकवि की तरह महाकथाकार और महाउपन्यासकार क्‍यों नहीं हुए ? महाकवियों का भी अवतरण बंद क्‍यों हो गया ?

मैं न किसी तरह का ‘महा’ हूँ, न ‘महा’ होने की कोई संभावना अब है,इसलिए किसी तरह के ‘महा’ के बारे में मेरा कोई सोच नहीं बना है। वैसे भी मेरा खयाल है यह महाकाव्य-महाकथा, महाउपन्यास लिखने का समय नहीं है। महाकाव्यात्मक दृष्टि जरूर लेखक में प्रतिबिंबित हो सकती है

आपको शाजापुर ने बनाया। अधिकांश लेखक अपने निर्माण में छोटे शहरों की भूमिका को याद करते हैं। पर लोगों को नाम-धाम बड़े शहरों से मिलता है। पर उसे कोई याद नहीं करता उस तरह, आखिर क्‍यों?

मुझे नहीं लगता, ऐसा है।सच के करीब शायद यह है कि कुछ लेखक तो किशोरावस्था से बुढ़ापा तक दिल्ली-मुंबई या किसी और महानगर में बरसोंबरस गुजारते हैं मगर कम से कम अपने लेखन में तो उस शहर में नहीं आ पाते, रहते हुए नहीं लगते।जिस शहर में अपनी जिंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा गुजारा है उन्होंने, वहाँ के दुखदर्दों से जुड़ नहीं पाते, जो विचित्र और दुर्भाग्यपूर्ण है। इनमें ,से कई लेखक तो मुझे अपने कस्बाई या ग्रामीणपन के विक्रेता लगते हैं,लगता है क् अहा ग्राम्यजीवन भी क्या है, कर रहे हैं।निश्चित रूप से हम उन गाँवों-कस्बों,स्मृतियों से बनते हैं और उससे उऋण होना संभव नहीं है, न कोई अच्छा लेखक ऐसा करना चाहेगा लेकिन लेखक को उम्र और अनुभवों की दृषिट से लेखन में भी बड़ा होना चाहिए। वैसे कोई कस्बा या गाँव या बचपन किस रूप में लेखक की रचना में व्यक्त होता है, यह लेखक पर ही छोड़ देना चाहिए।मेरे यहाँ शाजापुर कहीं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आया है क्योंकि मुझे लेखक होना है, शाजापुर का दुकानदार नहीं।

संगीत की संगत आपको पसंद है। कुछ संगीतकारों को सुनकर मिली तन्‍मयता की मिसाल आप किसी कवि की कविता में नहीं देख पाते, ऐसा आपने कहीं कहा है। यह कवियों की कमजोरी है या माध्‍यम की सीमा?

यह कवियों की नहीं शायद मेरी कमजोरी हो।माध्यम की सीमा भी शायद न हो, मेरी अपनी सीमा हो।किसी न किसी रूप मे संगीत हमसे ठेठ बचपन से जुड़ा होता है। माँ आपको लोरी गाकर सुनाती है और आज की माँ अगर लोरी नहीं सुना सकती तो कुछ और मघुर गाकर बच्चे को सुलाती है।फिर हम लोकगीत-संगीत से बावस्ता होते हैं,फिल्मी संगीत से भी हमारा संबंध लगभग अनिवार्य रूप से बनता है। इतना तो होता ही है हर किसी के साथ,चाहे उसकी रुचि संगीत में आगे जागे या नहीं। वैसे संगीत से कोई भी कभी विमुख नहीं हो सकता। वह किसी न किसी तरह आपमें बहता रहता है,बल्कि कविता भी पहले हम तक संगीत के रूप में पहुँचती है-भजन के रूप में, गायन के रूप मेंसलोकगायन के रूप में, नाटक-नौटंकी के रूप में। फिर श्रेष्ठ संगीत अगर शब्द का सहारा न भी ले तो वह अपने आप में कविता होता है।मुझे लगता है कि श्रेष्ठ संगीत जहाँ आपको पहुँचा देता है,जिस लोक में आपको ले जाता है,जिस अमूर्तता की सृष्टि करता है,संवेदना की जिन गहराइयों को छूता है, वह शायद कविता के बस में नहीं है।वैसे मैं गलत भी हो सकता हूँ।