विष्णु नागर से बातचीत / कुमार मुकुल

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"मनोविज्ञान की समझ आम लोगों तक साहित्य के माध्यम से ही जाती है"
विष्णु नागर से कुमार मुकुल की बातचीत

आप कवि के साथ समर्थ व्यंग्यकार भी हैं, व्यंग्य की रचना-प्रक्रिया क्या कविता से अलग है?

कविता हो या व्यंग्य रचना-प्रक्रिया तो एक ही है। जिस तरह कविता दिमाग में आती है उसी तरह व्यंग्य भी आता है। कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ पता नहीं चलता कि यह रचना क्या रूप ले रही है। कब वह कविता से कहानी बनने लगती है, इसका अंदाज नहीं हो पाता, हालांकि अब ऐसा अक्सर नहीं होता है। कई बार रचना पूरी होने पर ही स्थिति साफ होती है कि वह क्या बनी। कई बार व्यंग्य लिखना चाहता हूं और वह कुछ और हो जाता है - उसमें कटुता ज्यादा आ जाती है या वह व्यंग्य से अधिक व्यक्ति के मर्म को अधिक छूने वाली रचना बन जाती है पर प्रक्रिया एक ही होती है। व्यंग्य चूंकि आजकल रोज लिखना होता है तो अभ्यास होने से एक आसानी होने लगती है पर कविता उस आसानी से नहीं आती। कभी आई नहीं।

सारा साहित्य एक मनोविज्ञान को सामने लाता है, तो साहित्यकार किस हद तक मनोविज्ञानी है? क्या इस रूप में उनकी भूमिका को रेखांकित किया जा सकता है?

बिल्कुल किया जा सकता है। मनोविज्ञानी आमतौर पर रचनात्मक नहीं होतेे और वे मनोविज्ञान को कुछ फार्मूलों के तहत ज्यादा समझना चाहते हैं। आदमी उनके सामने होने पर भी उसके मन में उतरने की बजाय वे अपने सीमित टूल्स का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह वे सामने वाले को एक ऑब्जेक्ट के रूप में देखने लगते हैं - फलतः आप उसके मनोविज्ञान को समझ कर भी नहीं समझ पाते। लेखक के लिए आदमी ऑब्जेक्ट नहीं होता - उसे उसका इस्तेमाल नहीं करना होता है - उसे वह जीवन की सहज प्रक्रिया के दौरान ही जानता-समझता है। मनोविज्ञान की समझ उसकी आम लोगों तक किसी-न-किसी किस्म के साहित्य के माध्यम से की जाती है। हमारी दुनिया के बड़े लेखकों ने भले मनोविज्ञान की पढ़ाई न की हो, पर उनसे बड़े मनोवैज्ञानिक कम ही हैं, जैसे - चेखव, प्रेमचंद आदि।

एक रचनाकार अपने रचना-कर्म से असंतुष्ट भी रहता है और उससे मोह भी रहता है। इस द्वंद्व के साथ उसे कैसे तालमेल बैठाना चाहिए?

कोई भी रचनाकार मेरे खयाल से कभी अपनी रचना से संतुष्ट नहीं होता। उसे उसकी रचना के और अपने अधूरेपन का अहसास हमेशा रहता है। रचनाकार का कोई एवरेस्ट शिखर नहीं होता, जहाँ वह झंडा फहरा आए। लेकिन जो रचा है, उसे सबके सामने लाने की इच्छा भी रहती है ताकि दूसरों की आँख से भी उसे जाँचा-परखा जा सके। इस द्वंद्व के साथ ही कोई भी रचनाकार जीता है।

आप ‘भटकते रहने में’ विश्वास करते हैं। इसके पीछे आपकी सोच क्या है?

मैं इसके शाब्दिक अर्थ में भी यानी सड़क पर भटकने में भी विश्वास रखता हूं और एक रचनाकार के रूप में भटकते रहने में भी। भटकने की आदत के चलते मुझे आपने आसपास के तमाम रास्तों का पता रहता है और नए रास्ते मिलते रहते हैं। एक रचनाकार के रूप में क्यों हम अपनी एक खास छवि ही प्रक्षेपित करने पर जोर दें? जो आपका मन करे, जैसे करे, वैसा उस रूप में लिखा जाए फिर उसे कोई मान्यता दे या ना दे। यह दूसरों की स्वतंत्राता है कि वे उसे रचना के रूप में माने या न माने और यह रचनाकार की स्वतंत्राता है कि वह लिखे और संभव हो तो प्रकाशित कराए। मेरा विश्वास है कि छवियोें में बंद होना अपनी रचनात्मकता को खत्म करना है।

माँ पर आपकी कई कविताएँ हैं। माँ को लेकर अपनी यादों से कुछ बाँटना चाहेंगे?

मैंने अपने पिता को अपनी स्मृति में देखा नहीं। मैं अपने परिवार में अपनी माँ के अलावा अकेला था। तो माँ ने ही मुझे पाला-पोसा, बड़ा किया। उसी से मैं लड़ता भी रहा और प्यार भी करता रहा, पाता रहा। मेरी एक इच्छा पूरी नहीं हो पाई कि मैं उनके जीते जी उन्हें कुछ भौतिक सुख प्रदान कर पाता। यह दुख मुझे सालता है। उनका जीवन आर्थिक तंगी और उसके तनावों में ही बीता।

अन्य बीमारियों के उलट मनोरोग को भारतीय समाज एक कलंक मानता है। इस प्रवृत्ति को कैसे बदला जाए?

हमारे समाज में चिकित्सा की इतनी कम सुविधाएं रही हैं कि लोग शरीर के इलाज के अलावा मानसिक इलाज के बारे में जानते ही नहीं ? आदमी के पागल हो जाने के बाद ही यह सोचा जाता है कि उसे किसी मनोचिकित्सक को दिखाना है, कि वह समाज के किसी काम का नहीं, कि उसे पागलखाने में भर्ती कराना है। सदियों से गहरे में बैठी इस मानसिकता का नतीजा है कि जागरूक लोग भी मानसिक बेचैनियों की स्थिति में किसी मनोचिकित्सक के पास जाने से हिचकते हैं। इस प्रवृत्ति से लड़ना होगा क्योंकि अपनी कई मानसिक परेशानियों का निदान न होने पर आदमी कई बार अचानक हिंसक हो उठता है, आत्महंता हो जाता है या पागल हो जाता है। अपनी भूमिका को मीडिया कुछ हद तक निभा रहा है पर वह पर्याप्त नहीं है।

मनोवेद में और कौन-सी नई सामग्री आप चाहेंगे?

चाहे वह भले ही सीधे मनोविज्ञान से न जुड़ी हो पर जिसका रवैया रचनात्मक हो तो उसका इस्तेमाल इसमें होना चाहिए। गिजुभाई जैसे बाल मनोविज्ञान के जानकार लेखकों की सामग्री को हिन्दी में मनोवेग जैसी पत्रिकाओं को उपलब्ध कराना चाहिए। वैसी सामग्री जो किसी भी रूप में लोगों के मनोविज्ञान को सामने लाती हो, चाहे वह ऊपर से मनोवैज्ञानिक न लगती हों उसका इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए।

‘मन ही मनुष्य है’ इस उक्ति को आप कहां तक उचित मानते हैं?

उक्तियों के उलझाव में मैं जाना नहीं चाहता। ये ऊपर से आकर्षक होती हैं पर कई बार पूरी सच्चाई को सामने नहीं आने देतीं। मानव इतना जटिल जीव है कि वह खुद भी नहीं जानता कि वह क्या है - रोज-रोज उसके सामने उसका अपना रहस्योद्घाटन होता रहता है। कई बार बुरे अर्थों में और कई बार बहुत अच्छे अर्थों में। मेरा खयाल है कि जो अपने व्यवहार का और समाज का भी लगातार विश्लेषण और आत्म विस्तार करता रहता है वही एक बेहतर मनुष्य हो पाता है। ऐसा करने के लिए आपके पास कई तरह के मानवीय-सांस्कृतिक औजार होने चाहिए क्योंकि जब आप अपनी क्षमता से बड़ी चुनौती के आगे खड़े होते हैं तब भी आपकी समझ में आता है कि आप कहां हैं, क्या हैं। हालांकि आज का हमारा संसार बहुत ही आत्मतुष्ट किस्म के लोगों का संसार है। और उन्हें अपनी हर छोटी-मोटी उपलब्धि पर गर्व है।

किन रचनाकारों ने आपके मनोविज्ञान पर प्रभाव डाला?

किसी एक का नाम लेना सरलीकरण होगा। फिर भी जिनका नाम याद आ रहा है, वे हैं - तालस्ताय, चेखव, ब्रेख्त, प्रेमचंद, रघुवीर सहाय और कुछ हद तक जैनेंद्र। असंख्य रचनाकार हैं जिन्होंने तरह-तरह से प्रभावित किया है। एक आदमी मात्रा लिखित रचना से ही प्रभावित नहीं होता। रचनात्मकता के अलिखित रूप भी उसे प्रभावित करते हैं। मसलन संगीत, भारतीय शास्त्राीय संगीत ने गहरे से मथा है मुझे। कई बार लगता है कि संगीत से बड़ी कोई रचना शब्दों में नहीं की जा सकती।

कुछ घटनाएं, जिन्होंने आपको विचलित किया हो?

रोज ही कुछ न कुछ विचलित करता है पर जो आपके साथ घटित होता है तो आदमी उससे ज्यादा विचलित होता है। जैसे - भोपाल गैस हादसे का मैं शिकार होते-होते बचा क्योंकि - हादसे के एकाध घंटे पहले मैं भोपाल से निकल गया था जबकि मेरा इरादा उसी रेलवे स्टेशन पर सोने का था। बाद में हादसे की भयानकता का अंदाजा लगा तो जीवित होतेे हुए भी कई दिनों तक या शायद महीनों तक खुद को मरा हुआ ही समझता रहा। इस हादसे के मनोवैज्ञानिक प्रभाव से निकलने में सालों लगे पर उस पर एक लाइन नहीं लिख पाया मैं, यह भी दिलचस्प है। जबकि मैं बाद में नवभारत टाइम्स के लिए कवरेज करने के लिए गया भी था। एक सप्ताह वहां रहा। आज भी भोपाल शहर को मैं बहुत पसंद करता हूं। वहां बार-बार जाने की इच्छा होती है।

मनोवेद से