विष्णु नागर होने का मतलब / प्रेमचंद गांधी
विष्णु नागर होने का मतलब : प्रेमचंद गांधी
नागर जी से मेरा पहला परिचय उनके असंख्य पाठकों की तरह नवभारत टाइम्स के जरिए ही हुआ। ये मेरे लेखकीय शैशवकाल के दिन थे, जब पढ़ने की भूख कुछ भी पढ़वा लेती थी और जिन लेखकों को पत्र-पत्रिकाओं में किसी ना किसी रूप में पढ़ता रहा, उनमें नागर जी अहम थे। उन दिनों मुझे लगता था कि विष्णु नागर नाम के तीन लोग हैं, जिनमें से एक कविताएं लिखता है, दूसरा व्यंग्य और तीसरा पत्रकारिता करता है। कई साल बाद जब असलियत मालूम हुई तो आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति कैसे इन तीन विधाओं को साध सकता है। आश्चर्य इस बात का भी था कि एक पत्रकार इस कदर रचनात्मक हो सकता है कि वह कविता को व्यंग्य जैसी विधा के साथ साध लेता है। आज भी मुझे लगता है कि विष्णु नागर जैसी रचनात्मकता के लिए बहुत गहरे आंतरिक रचनात्मक अनुशासन और संवेदनशीलता की जरूरत है, जो हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं है और पत्रकारिता में रहते हुए तो यह लगभग असंभव ही है। और यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हिंदी दैनिक पत्रकारिता में विष्णु नागर जैसा दूसरा कोई पत्रकार नहीं दिखाई देता, जो कविता, कहानी, व्यंग्य और समसामयिक विषयों पर एक साथ कलम चला सकता हो।
मुझे यह याद नहीं आ रहा कि पहली बार मेरा उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलना कब हुआ। लेकिन स्मृति पर जोर डालता हूं तो लगता है जैसे हम सदियों से एक-दूसरे को जानते हों। कुछ व्यक्ति ऐसे ही होते हैं, जिनसे आप कितनी ही बार मिले हों, लगता है, जैसे उनसे आपका बहुत पुराना रिश्ता है। विष्णु जी की सहज, सरल मृदुल मुस्कान आपको पहली नजर में अपनत्व से भर देती है और उनकी मिलनसारिता अपने मोहपाश में इस कदर जकड़ लेती है कि आप बरसों बाद मिलेंगे तो भी आपको वे कुछ नहीं कहेंगे और अपनी निर्मल मुस्कान से फिर अपना बना लेंगे। मेरे जैसे बेहद आलसी व्यक्ति से भी वे कभी निराश नहीं होते और कभी उलाहना भी नहीं देते। अगर प्रभाष जोशी होते तो इसे मालवा की मिट्टी की खासियत के तौर पर रेखांकित करते। लेकिन उसी मालवा की धरती से निकले कई रचनाकार मिल जाएंगे जिनके व्यक्तित्व में नागर जी जैसी सहजता नहीं है।
पिछले करीब बीस वर्षों में नागर जी से बीसियों मुलाकातें और गप्प गोष्ठियां हुई हैं, और मैंने कभी भी किसी मसले पर उत्तेजित होते नहीं देखा, एक सहज सौम्य मृदुल उपस्थिति से वे पूरे माहौल को गरिमामय बनाए रखते हैं। सायंकालीन रसरंजन गोष्ठियों में जब भाई लोग किसी विषय पर विचारोत्तेजक होते हुए वीरोचित मुद्रा अख्तियार कर लेते हैं, नागर जी शांत और सौम्य बने रहते हैं और अक्सर वातावरण को सामान्य बनाने में उन्हीं की मुख्य भूमिका होती है। नागर जी स्वाद के बहुत शौकीन हैं और उत्तेजनापूर्ण माहौल को सहज करने में उनकी यह रूचि प्रायः काम कर जाती है, जब वे बहस में संलग्न मित्रों से कहते हैं, छोड़िए इन बातों को, ये जो नमकीन है वो लाजवाब है, आपके यहां के नमकीन व्यंजनों की तो बात ही निराली है। और फिर बहस व्यंजनों की ओर मुड़ जाती है, जिसमें हर भोजनभट्ट अपनी तरफ से नई जानकारियां जोड़ते हुए नागर जी की जीभ का जायका बढ़ाने लगता है और उन्हें दावत देने लगता है। एक बार बातचीत में नागर जी ने बताया था कि उनकी मां बहुत अच्छा खाना बनाती थीं, जहां से उन्हें अच्छे खाने का चस्का लगा। और प्रमिला भाभी भी बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाती हैं और इसमें भी कमाल की बात यह कि दोनों पति-पत्नी ही जायकेदार भोजन के गुणग्राहक हैं। लेकिन बहुत से लोग शायद यह नहीं जानते कि प्रमिला भाभी का कण्ठ बहुत सुरीला है। उनके स्वर में कबीर को सुनना एक अद्भुत अनुभव होता है। उन्हें सुनते हुए आपको कुमार गंधर्व और प्रहलाद टिपनिया का कबीर गायन याद आता है। मालवी लोकगीत भी प्रमिला भाभी को खूब याद हैं और मन करता है तो खुलकर गाती हैं। मुझे नहीं मालूम कितने सौभाग्यशाली मित्रों को प्रमिला भाभी को सुनने का अवसर मिला है, लेकिन मैं उन खुशकिस्मत लोगों में हूं।
नागर जी कविता में जितने सहज हैं, व्यंग्य में उतने ही तीखे और पत्रकारिता में वैसे ही प्रखर और गंभीर। मेरे खयाल से पत्रकारिता जो सबसे बड़ी चीज सिखाती है, वो है पठनीयता। और नागर जी ने इसे इस कदर साध लिया है कि वे सामान्य पाठक के दिल में सीधे उतर जाते हैं, फिर वो रचना किसी भी विधा की हो। इसीलिए हिंदी आउटलुक ने एक बार जब हिंदी के दस लोकप्रिय लेखकों का सर्वेक्षण किया तो उसमें विष्णु नागर भी एक रहे। ऐसी लोकप्रियता सहज बोधगम्य लेखन से ही हासिल होती है। उनकी कविताओं में मुझे लगता है कई बार उनका व्यंग्यकार बहुत सहजता से दाखिल होकर कविता को बहुआयामी और बेहद तीक्ष्ण बना देता है। ‘हंसने की तरह रोना’ संग्रह में ऐसी ही एक अद्भुत कविता है, जिसमें नरेंद्र मोदी और जॉर्ज बुश एकमेक होकर नई अर्थछवियां रचते हैं।
ग्लोबलाइजेशन के इस जमाने में
हत्यारे का नाम कुछ भी हो सकता है
जॉर्ज मोदी भी और नरेंद्र बुश भी
नागर जी अपनी कविता में कहीं भी, एक क्षण के लिए भी वैयक्तिक नहीं होते। आत्म से अगर उनकी कविता शुरु भी होती है तो एकाध पंक्ति के बाद ही उसमें पूरा मानव समाज किसी ना किसी रूप में आ जाता है और वैयक्तिक को निर्वैयक्तिक में बदलते हुए समूची मानवता को अपने संवेदना संसार में शामिल कर लेती है। उनका आधुनिकता बोध इतना गहरा है कि वे अत्यंत साधारण विषय को भी रोचकता के साथ बहुआयामी अर्थ दे देते हैं। ‘घर के बाहर घर’ संग्रह में एक कविता है ‘स्वर्ग में कुछ भी नहीं है’। इस कविता में नागर जी स्वर्ग में आधुनिक सुख सुविधाओं के अभाव की बात करते हुए कहते हैं,
स्वर्ग में बाज़ार नहीं है, भूमण्डलीकरण नहीं है
नहीं है, नहीं है, मैंने कहा न स्वर्ग में कुछ भी नहीं है
इसलिए मैं नरक तो फिर भी जा सकता हूं
लेकिन स्वर्ग-बिल्कुल नहीं!
विष्णु नागर का गद्य बहुआयामी है। वे इतिहास में जाकर पुराण कथाओं का ग़जब पुनराविष्कार करते हैं। कछुए और खरगोश की कहानी का जो नवीनीकरण नागर जी ने किया है, वह हमारे समय में पुराने आख्यानों को देखने की एक नई दृष्टि देता है। नागर जी ने इस क्रम में बहुत सारी पुराकथाओं का नवीकरण किया है। लेकिन मेरे विचार से उनका सबसे महत्वपूर्ण काम है, ‘ईश्वर की कहानियां’। ईश्वर का ऐसा दयनीय और मार्मिक रूप नागर जी ने रचा है कि आज के घोर आस्थावान और अंधभक्ति के माहौल में इन कथाओं को पढ़कर किसी भी पाठक को ईश्वर पर दया आ सकती है। नागर जी के लेखन की एक और जो बड़ी विशेषता है वो यह है कि वे हमारे समय में घट रहे यथार्थ को अतीत के आख्यानों से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भों में व्याख्यायित करते हुए पाठक को एक नये किस्म का आस्वाद देते हैं और अपने समय व समाज के प्रति और अधिक संवेदनशील बनाते हैं। उनकी एक कविता है ‘लगते तो नहीं’:
कई बार लोग मुझी से पूछते हैं
कि क्या आप
विष्णु नागर हो
जब मैं कहता हूं कि हां हूं
तो वे कहते हैं कि लेकिन लगते तो नहीं
और वे भीड़ में
विष्णु नागर को ढूंढने आगे बढ़ जाते हैं।
यह जो नहीं लगना है वह बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि विष्णु नागर को देखकर सचमुच आपको नहीं लगता कि यह शाश्वत मुस्कुराने वाला मृदुलता से ओतप्रोत व्यक्तित्व इतना बहुआयामी लेखक-रचनाकार हो सकता है। और लोग अगर भीड़ में विष्णु नागर को ढूंढने निकल पड़ते हैं तो इसका यही अर्थ है कि विष्णु नागर जनता का रचनाकार है, वह व्यक्ति में नहीं समष्टि में मिलेगा। जहां भी जनता के सवाल होंगे, जनता होगी, आप विष्णु नागर को वहीं पाएंगे। हम खुशकिस्मत लोग हैं कि हमारे समय में एक ऐसा लेखक-रचनाकार मौजूद है, जो हमारे समय और समाज को विविध रूपों में रचते हुए न केवल साहित्य को समृद्ध कर रहा है, बल्कि अपनी जनता को, उसकी संवेदना को, उसकी सोच-समझ और संस्कारों को भी नए आयाम दे रहा है। विष्णु नागर शतायु हों, सहस्रायु हों, और निरंतर हमें अपनी रचनाशीलता से लाभान्वित करते रहें, यही कामना है।
यह आलेख 'संबोधन' पत्रिका के 'विष्णु नागर' पर केंद्रित अंक, अप्रेल-जून 2010 में प्रकाशित हुआ। :अशोक कुमार शुक्ला