विष्‍णु खरे की कविताएँ / कुमार मुकुल

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परंपरागत अथों में बुरी कविताएँ
विष्‍णु खरे की कविताएँ

ओ माँ-मुझे भगवान दिये कर्इ-कर्इ
तुझसे भी निरीह, मुझसे भी निरीह!

अपनी इन कविता पंकितयों पर टिप्पणी करते शमशेर लिखते हैं, 'भावुकता एक ऐसी पूंजी है कवि की कि इसको वश में रखना ही होगा। उससे काम लेना होगा, न कि उसकी रौ में बह जाना। लेकिन ज्यादातर तो मैं बह ही गया।‘ भावनाओं की बाबत मुक्तिबोध ज्यादा कठोरता से पेश आते हैं- 'भावनाएँ बच्चा हैं अगर उन्हें आदमी नहीं बना सकते तो उन्हें मार डालो।‘

यहाँ शमशेर व मुक्तिबोध दोनों ही भाव पर नियंत्रण की बात करते हैं। विष्णु खरे की कविताओं से गुजरते यह महसूस होता है कि उनकी कविताएँ करुणा की आत्मरतिक मुद्राओं से मुक्त होकर विवेकवान भावों की अभिव्यकित के लक्ष्य को प्राप्त करती हैं। निराला की कविता 'भिक्षुक’ की खरे की कविता 'एक कम’ से तुलना कर इस विकास को समझा जा सकता है। 'एक कम’ में भिक्षुक को देख कवि का कलेजा दो टूक नहीं होता, बल्कि वह विचारता है कि इस तरह एक आदमी (भिक्षुक) जो हेराफेरी कर हर्षद मेहता या चंद्रास्वामी हो सकता था, या पाकेटमार-बटमार हो सकता था, वह आपके सामने हाथ पसारकर ऐसे एक कुपात्र की संख्या कम कर रहा है। यहाँ दया का पात्र भिक्षुक नहीं, दाता हो जाता है। करुणा की जगह विवेक के प्रयोग से ही ऐसा संभव हो पाता है। खरे की अधिकांश कविताओं से गुजरने पर लगता है कि करुणा की विगलित लय से मुक्त होकर भी अच्छी कविता हो सकती है।

जिस तरह निराला ने कविता को छंदों से मुक्त किया, केदारनाथ सिंह ने उदात्तता से मुक्त किया और उसी तरह एक हद तक रघुवीर सहाय ने और ज्यादा समर्थ ढंग से विष्णु खरे ने उसे करुणा की अकर्मण्य लय से मुक्त किया है, और इस कविता को बचा लिया है अस्तित्व के संकट से। कवियों की बड़ी दुनिया के लिए नया प्रवेश द्वार खोल दिया है।

केदार जी के यहाँ करुणा की जगह अगर खुशी दिखार्इ देती है, रघुवीर सहाय के यहाँ अगम्य-अवध्य आतंक, तो खरे के यहाँ क्षोभ और यथार्थ का स्वीकार मिलता है। पर रघुवीर सहाय की कविता जहाँ महानगर केंदि्रत है और 'मैं पन’ के बोझ से दबी है, वहाँ खरे की कविता महानगर से तो अपने पात्रों को उठाती है पर जब कविता पूरी होती है तो महानगर की जगह कविता में उठा विषय अस्तित्वमान हो उठता है। महानगर गौण होकर गायब-सा हो जाता है। यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि इसके लिए ना तो उन्हें केदार जी की तरह मात्र स्मृतियों के सहारे रहना पड़ता है, ना वे संदभों का आधुनिक कवियों की तरह चौंकाने वाले ढंग से इस्तेमाल की प्रचलित चालाकी दिखलाते हैं। बलिक विषयवस्तु से ऐसा गहरा लगाव (एगेजमेंट) य प्रतिबद्धता वहाँ दिखती है कि एक दर्शक या प्रस्तुतकर्ता के रूप में कवि गायब-सा हो जाता है। खरे की अधिकांश कविताएँ रघुवीर सहाय के 'मैं पन, जिसमें गवाह होने की ध्व्नि गहरे तक सुनाई पड़ती है, से मुक्त रहकर भी समस्या को पाठकों के रूबरू खड़ा कर देती है, और कवि अनुपस्थित-सा हो जाता है। यही कारण है कि कुछ कविताओं को तो दुबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं पड़ती। ‘आग’ एक ऐसी ही कविता है। जो रोज घटने वाली दहेज प्रताड़ना को लेकर है, पर उसे पढ़ते लगता है कि अगर ऐसी घटना घट रही है और आप उसे जान रहे हैं तो या तो इस आग को बुझाने की कोशिश कीजिए या इस मुददे को प्रसंग से बाहर कीजिए। ऐसी कविताएँ ‘कविता के लिए कविता’ की सुविधा से हमें वंचित करती हैं।

इस मामले में ये कविताएँ परंपरागत रूप से अच्छी कविता होने की बजाय बुरी कविताएँ साबित होती हैं। क्योंकि ये अपने कष्ट में आपकी हिस्सेदारी माँगती हैं। ये स्त्रियों के जलाए जाने की पीड़ा को उत्सवता में नहीं बदल डालती हैं।

‘उनकी हत्या की गर्इ उन्होंने आत्महत्या नहीं की इस बात का महत्त्व और उत्सव कभी धूमिल नहीं होगा कविता में’ (ब्रूनो की बेटियाँ-आलोक धन्वा)

इस मामले में मैं अपने ही आचरण से परेशान हूँ। क्योंकि ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ मेरी प्रियतम कविताओं में है। खरे पर विचार करने पर लगता है कि क्या मुझे भी करुणा के महोत्सव में शामिल होना अच्छा लगता है। ‘आग’ को तो मैं मुश्किल से पढ़ सका। बेचैन-सा हो गया जैसे कविता नहीं पढ़ रहा होऊँ खुद जला रहा होऊँ या जलती देख रहा होऊँ। अब ऐसी कविता लोग बार-बार कैसे पढ़ सकते हैं। इस मामले में ये बुरी कविताएँ हैं कि ये परंपरागत रूप से अच्छी 'फिर से पढ़ो’ वाले तर्ज पर पढ़ी जाने वाली कविताएँ नहीं हैं। बलिक ये संवेदनशील पाठक को चुप करा देने वाली कविताएँ हैं। जैसे गोहत्या का पाप लगा हो। और यह कहते मुझे डर लगता है कि ये कविताएँ हैं या श्राप, जो मेरी आँखों में आँखें डाल खड़ी हो जाती हैं।

'आग के अलावे’, 'लड़कियों के बाप’, 'जिल्लत’, 'बेटी’, 'हमारी पत्नियाँ’, 'बच्चा’, 'एक कम’, 'साम्बवती’ आदि ऐसी ही बुरी कविताएँ हैं, जो कहती हैं कि अगर ये स्थितियाँ हैं और बुरी हैं, तो इसके कारक आप भी हैं। संभव हो तो इसे मिटाएँ, नहीं तो चर्चा कर उत्सव ना बनाएँ।

'लोग भूल गए हैं’ की एक कविता 'अरे अब ऐसी कविता लिखो’ में रघुवीर सहाय लिखते हैं-
अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि कोर्इ मूड़ नहीं मटकाय
ना कोर्इ पुलक-पुलक रह जाय
ना कोर्इ बेमतलब अकुलाय

सहाय की इस माँग को खरे की कविताएँ पूरा करती लगती हैं। 'रामदास’ जैसी कविताओं में सहाय जी भी ऐसी कविता लिखने की कोशिश करते हैं। पर वे एक आतंककारी विवरण से आगे नहीं बढ़ पाते। खरे के यहाँ आतंक चुनौती की तरह सामने आता है।

नामवर सिंह ने अच्छे आलोचक के बारे में कहीं लिखा था कि उसकी पहचान इससे होती है कि वह कविता की किन पंकितयों को उद्धृत करता है। पर इस अर्थ में विष्णु खरे को अच्छा आलोचक शायद कभी नहीं मिल पाएगा। क्योंकि उनकी अधिकांश कविताएँ भाषा संबंधी किसी भी रेटारिक, मुहावरे या पंक्तियों या पैरे को ज्यादा या कम प्रभावी बनाने के लिए किए गए चमत्कारों से मुक्त हैं। इस संदर्भ में मुकितबोध की ये पंकितयाँ द्रष्टव्य हैं कि-‘यह सबके अनुभव का विषय है कि मानसिक प्रतिक्रिया हमारे अंतर में गधभाषा को लेकर उतरती है, कृत्रिम ललित काव्य-भाषा में नहीं। फलत: नर्इ कविता का पूरा विन्यास-गधभाषा के अधिक निकट है।‘

'सोनी’, 'हर शहर में एक बदनाम औरत होती है’, जैसी एकाध सामान्य कविताओं को छोड़कर अधिकांश का प्रभाव छायाचित्रों की तरह पड़ता है, जिनमें कुछ भी घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता। यहाँ ज्ञानेंद्रपति की बात महत्त्वपूर्ण लगती है कि-'सच्ची कविता में स्थितियाँ, जिन्हें मानवीय संवेदना से निहारा जाता है, वे अपने प्रभावों में प्रतीक बन जाती हैं। उन्हें प्रतीक बनाने की सचेत कोशिश नहीं की जाती। बल्कि वे प्रत्यालोकन में प्रतीक बन जाती हैं।‘ रघुवीर सहाय यहीं कमजोर पड़ जाते हैं, उनके यहाँ निहारना कम देखना ज्यादा है। पर खरे के संदर्भ में यह निहारना भी काफी नहीं पड़ता। निहारना की जो एक रोमांटिकता है उसकी जगह एक गहरा व जटिल दायित्वबोध पैदा करते हैं वे। वह दो टूक कलेजे के नहीं करता, दो टूक पूछता है कि मैं हूँ यह आपके समक्ष, जो भी जैसा भी आपका जो उत्तरदायित्व बनता हो, वह पूरा करें।

पर निहारना के रागात्मक स्वरूपोंवाली अप्रतिम सौंदर्यबोध की कविताएँ भी खरे के पास हैं। लापता, अज्ञातवास, सत्य, द्रौपदी के विषय में कृष्ण आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। 'द्रौपदी के विषय में कृष्ण पढ़ते 'कनुप्रिया’ की याद आती है। हालाँकि भारती के यहाँ आवेगों, उच्छवासों की जो व्यापकता है, उससे यह कविता मुक्त है। पर स्त्री-पुरुष की आदिम अंतरंगता को शायद यह कविता अब-तक की सर्वाधिक मधुरता के साथ सामने लाती है। इस तरह के ये चरित्र कविता में अपनी ऐतिहासिकता खोकर समकालीन होते लगते हैं। लगता है कि इतिहास ऐसे ही मधुर स्पंदनों के सहारे जीवित रहता है।

किन्तु किसे विश्वास होगा
कि तुम्हारे मुख पर सदैव ऐसा कुछ था
कि प्रासाद में अकेले छोड़ दिए गए हम
परस्पर अथों को अंतिम सीमाओं तक समझते हुए
एक-दूसरे के स्पर्श तक की इच्छा नहीं करते थे

(या)

कौरव तथा पांडव मेरी मुस्कराहटों से संभ्रमित होते होंगे
किंतु पूरे कुरुक्षेत्र पर मैं तुम्हारी आँखें देखता था

प्रेम के नाम पर हिंदी में इधर भौंडे प्रयास किए जा रहे हैं। प्रेम की वापसी का हर पाँच साल पर हल्ला मचाने वाले इस एक कविता को पढ़ें और देखें कि कैसे प्रेम की महाकाव्यात्मकता को इस कविता में समेटा गया है। कविता पढ़कर लगता है कि क्या विष्णु खरे और क्या कबीर शायद यह प्रेम की मौलिकता ही है, जो आ ही जाती है ऊपर, सात तहों को फाड़कर और हम गुनगुनाने लगते हैं-तोको पिऊ मिलेंगे, घूंघट के पट खोल रे।

इसके अलावे लापता, अज्ञातवास और सत्य जैसी अन्य कविताएँ भी महाभारत के संदभों पर आधारित हैं। महाभारत के ऐतिहासिक पात्रों को जब मानवीय स्वभाव की कसौटी पर कवि कसता है, तो वे तमाम शौर्यवान, भीमकाय चरित्र करुणा के पात्रों में तब्दील हो जाते हैं।

‘प्रश्न यहाँ महाभारत में अविश्वास का नहीं
मानव स्वभाव में आस्था का है’

या

‘हमारे वक्त यदि पांडव और द्रौपदी होते तो कीचक को
गलतफहमी दूर करने के लिए डिनर पर बुलाया जाता’

हमारे तमाम मिथकीय चरित्रों की सच्चार्इ भी यही है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भी अगर हम मनुष्य के स्वभाव के आधार पर विश्लेषित करें, तो वे आज के सामान्य प्रेमियों से अलग नहीं दिखते। ऐतिहासिक, धार्मिक उन्माद से आप्लावित इस काल में मानवीय स्वभाव की कसौटी को स्वीकार करने की माँग करती ये कविताएँ जैसे तमाम बेबुनियाद बहसों को प्रहसन बना डालती हैं। अगर हम आज के मानवीय स्वभाव को कसौटी मानें तो अन्य समस्याएँ भी हल हो जाएँगी। धर्म के लिए जिहाद करनेवाले तमाम लोग क्या बताएँगे कि उनमें से कितने अपनी संतानों को मठों और मंदिरों में पुजारी बनाना चाहते हैं।

'लालटेन जलाना’ खरे की एक ऐसी कविता है, जो आधुनिक संदभों में आप्रासंगिक होती चीजों की अर्थवत्ता को बड़े बारीक ढंग से रेखांकित करती हैं। लगता है फालतू या बेकार जैसे शब्द नहीं हैं खरे के शब्दकोश में। इस कविता को पढ़कर साफ होता है कि कोर्इ वस्तु आधुनिक या पुरानी, नर्इ या बेकार नहीं होती बलिक समय की र्इकाइयाँ बेकार या अच्छी होती हैं। इसमें खरे ऐसी लालटेन जलाते हैं, जिसकी लाल और सुखद लौ में हम इस भागदौड़ के दर्शन में गुम होती चीजों की अर्थवत्ता को पहचान सकते हैं; उसे बचा सकते हैं। यह एक चुनौती भी है कि अगर हम इन्हें नहीं बचा सकते, तो क्या गारंटी है कि मनुष्यता को बचा लेंगे। आखिर चीते की प्रजाति नष्ट हो ही गर्इ। ऐसी विवरणात्मक और बारीक बुनार्इ की कविता हिंदी में ऋतुराज और ज्ञानेंद्रपति के यहाँ देखने को मिलती है। ज्ञानेंद्रपति की 'चींटियाँ’ और ऋतुराज की 'तीसरा क्षण’ ऐसी ही कविताएँ हैं। 'लालटेन जलाना’ की तरह 'तीसरा क्षण’ में ऋतुराज रोटी बनाने की कला पर प्रकाश डालते हैं। इनका साम्य देखने लायक है।

‘लालटेन जलाना उतना आसान बिल्कुल नहीं है
जितना उसे समझ लिया गया है
और
लालटेन जलाने की प्रक्रिया में
लालटेन बुझाना या कम करना भी शामिल है।‘

(या)

‘रोटी बनाना एक कला है
और
जो महज लफ्फाज और चुहलबाज होते हैं
वे अपनी बिगड़ी हुर्इ रोटी को भी
संपूर्ण कलाकृति घोषित करते हैं।‘

पर जहाँ खरे के यहाँ विवरणात्मक लहजे की बारीकियाँ और विस्तार साथ-साथ हैं, वहाँ ऋतुराज के यहाँ पंक्तियों से प्रक्षेपित निहितार्थ ज्यादा तीखे हैं। यहाँ ज्ञानेंद्रपति की 'चीटियाँ’ की भी कुछ पंकितयों को देखना जरूरी होगा-

‘चींटियों से वे घबराते हैं
घबराते और घिनाते हैं
उन्हें बड़ा अजीब लगता है हाँ अभद्र भी कि वे एक साथ
अपने अधैर्य में उनकी चीजों पर कब्जा कर लेना चाहें’

खरे का संग्रह भी 14-15 वषों बाद आया। ज्ञानपति और ऋतुराज के संग्रह 1981 में आए थे। पर उन पर उस तरह चर्चा नहीं हुर्इ। इस बीच कवियों की एक पूरी पीढ़ी ताव खायी और अब सिरा भी रही है। खरे ने रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह के बाद के सन्नाटे को तोड़ा है तो ज्ञानेंद्रपति और ऋतुराज को भी याद करना अच्छा लगता है। क्योंकि तीनों कवियों ने असाधारण विषयों की साधारण चर्चित कविताएँ लिखने की बजाय साधारण विषयों पर साफ व सरल कविताएँ लिखी हैं। फिर भी इनके यहाँ चुनौती कम नहीं है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आक्रमण से काँपती हमारी राजधनी केंदि्रत संस्कृति के मुकाबले लगता है ये कविताएँ मोरचा लेने में सक्षम हैं। महानगर में रहकर भी खरे ने जिस तरह महानगरीय जंजाल से खुद को बाहर किया है वह एक साहसिक कदम है। शायद ऋतुराज अपनी कविता में ऐसे ही साहसिक कर्म की अपेक्षा रखते हैं। 'उन्हें दिखानी होगी कविता में वे लिखते हैं-

'हमें बिखेरना होगा उनके आर्इनों में से
गिरता मायावी प्रकाश
उनकी प्रसिद्ध राजधानियों को
अपनी भाषा के प्रक्षेपास्त्रों से उजाड़ना होगा’

खरे की कविताएँ ऐसा करती हैं, क्योंकि अगर नियान बल्बों के इस युग में वे लालटेन की धीमी लौ में सुबह उगते सूरज की तरह लाल और सुखद रोशनी का आभास पाते हैं, तो यह अकारण नहीं है। यह अकारण नहीं है कि वे उल्लू, चील, गिद्ध व चमगादड़ों पर कविता लिखते हैं और ज्ञानेंद्रपति चींटी, नेवला और चमगादड़ पर। खरे लालटेन जलाते हैं, तो ज्ञानेंद्रपति नगर में आए हाथी और चिडि़याखाने से भागे साँप पर कविता लिखते हैं। ऋतुराज रोटी बनाने और दाल बनाने की प्रक्रिया पर प्रकाश डाल रहे होते हैं, तो ज्ञानेंद्रपति की चिडि़या टैंक की नली में घर बना रही होती है। दरअसल यही भाषा के वे प्रक्षेपास्त्रा हैं, जो राजधानियों का तिलिस्म तोड़ेंगे।

और यह सब बिल्कुल नया नहीं है, हमारी परंपरा में शामिल हो चुका है। नागार्जुन ने कटहल और सुअरी पर कविता लिखी है, तो केदारनाथ सिंह अपसंस्कृकति के टूटे ट्रक पर कब्जा करती घास और लत्तरों को देखते हैं। विनोद कुमार शुक्ल पहाड़ों और नदियों जैसे लोगों से मिलना चाहते हैं। और यह सबकुछ जीतने की इच्छा से नहीं, किसी महत्ता के लिए नहीं, बस जीवित रहने के लिए करते हैं वे। कविता कोर्इ तिलस्म नहीं है, जो टूट जाएगा। यह जीवन की एक धारा है, जो भाव, भाषा व विवेक से पोषित होती है और जब तक 'दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद’ भी आदमी का सोचना बंद नहीं होता है कविता जीवित रहेगी।

'सबकी आवाज के पर्दे में’ और 'काल और अवधि’ के दरमियान के प्रकाशन के बीच एक दशक का फासला है। इस बीच खरे ने जहाँ हिंदी कविता में कुछ और मील के पत्थर खड़े किए हैं; वहीं उनकी कुछ सीमाएँ भी दृषिगोचर होने लगी हैं। समाज के और बाज़ारवाद के बहुआयामी संकटों से एक रचनाकार को कैसे निपटना चाहिए इसकी बेहतरीन मिसालें हमें खरे की इधर की कविताओं में मिलती हैं। 'एक प्रकरण : दो प्रस्तावित कविता स्वरूप’, 'जर्मनी में एक भारतीय कम्प्यूटर विशेषज्ञ की हत्या पर...’ आदि कविताओं में इसे देखा जा सकता है। हालाँकि 'एक प्रकरण...’ जैसी कविता से नवकलावादी नजरिये को बढ़ावा मिलने का ख़तरा भी पैदा होता है। एक ही विषय को दो तरीके से अभिव्यक्त करने की क्षमता का प्रदर्शन आखिर और क्या साबित करता है! इधर की कर्इ कविताओं, जैसे 'नेहरू-गाँधी परिवार के साथ मेरे रिश्ते’ आदि में कवि ने अपने संस्मरणों को कविता के चौखटे में जड़ दिया है। गध लेखन के मामले में कवियों के अधैर्य को मैं समझ सकता हूँ, पर पाठकों को इस तरह कविता और संस्मरण दोनों से वंचित कर देना कहाँ का न्याय है। अगर इन बातों को कहने लायक काव्य-शैली कवि के कथनानुसार ही संभव नहीं थी, तो क्या गद्य की भी कोर्इ शैली संभव नहीं थी?

‘क्या कोर्इ ऐसी काव्य शैली भी संभव है
जिसमें ऐसा इसी तरह कह सकते हों
यानी अपनी बात भी रह जाए और
काव्य-प्रेमियों और कला पारखियों की
भावनाओं और कसौटियों को
ठेस भी न पहुँचे’

(एक प्रकरण : दो प्रस्तावित कविता-प्रारूप)

खरे जैसे गंभीर कवि का यह हाल कि 'अपनी बात भी रह जाए’ और 'ठेस भी न पहुँचे’! यह तरीका अरुण कमल पर फबता है, खरे को नहीं। इधर की कुछ कविताओं में 'हारे को हरिनाम’ की ध्वनि भी दिखती है-

‘...अपनी सृष्टि पर विचारता होगा लीलामय यदि कोर्इ हुआ तो’।

(रोने के बारे में दो कविताएँ)

कुल मिलाकर खरे का नया विकास मुझे सरस्वती की विलुप्त हो चुकी धाराओं की याद दिलाता है। इधर की रचनाओं में उनका जीवन जल (कविता) कहीं गहरे छुपता जा रहा है और यह सब एक दिन में नहीं 'काल और अवधि के दरमियान’ हुआ है। आज खरे रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और विनोद कुमार शुक्ल को कविताइ में पीछे छोड़ते नजर आ रहे हैं, हाँ मुकितबोध-शमशेर जैसी कठिन मंजिलें अभी आगे हैं।

यह आलेख अक्तूबर 2012 के 'कल के लिए' के अंक में विष्णु जी की कविताओें के साथ विशेष आलेख के रूप में प्रकाशित है।