विस्तार है अपार : आवरण कथा / कमलेश कमल
गाँव से एक बेटी जब ससुराल जा रही होती है और पिता द्वारा दी गई गाय को हाँकते हुए जहाँ गाँव की सीमा को पार करती है, वहाँ पलट कर अपने गाँव को देखती है। उस क्षण में 'पीहर छूटा जाए' का एक भाव उसकी आँखों के कोर को नम करता है, आँचल से उसे पोछ कर, पितृगृह की कुशलता के लिए प्रार्थना करती है। साहित्य यह सब निरूपित करता है। बिहारी भाषाओं के साहित्य में ऐसी सूक्ष्म संवेदनाओं का गहनतम वर्णन है।
बिहार एक विशिष्ट भाषिक समाज है। ध्यातव्य है कि समाज लोगों की भीड़ का नाम नहीं, वरन् विशिष्ट भावनाओं, संवेदनाओं की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है, विश्वासों, व्यवहारों एवं उद्देश्यों की सुगठित भाषिक इकाई है। एक स्टेडियम या सिनेमाघर में बैठे हजारों लोग समाज नहीं बनाते; जबकि किसी विरल जनसंख्या वाले गाँव में कुछ दर्जन भर लोग भी एक समाज का विनिर्माण करते हैं। इस लिहाज़ से देखें, तो बिहारी कहीं भी हैं, न्यू दिल्ली या न्यूजर्सी, एक बिहारी समाज निर्मित करते हैं, जो हर हाल में अक्षुण्ण रहता है।
कैरेबियाई देश हों, कनाडा हो या केलिफोर्निया-बिहारी जहाँ भी हैं, होली, दिवाली, छठ आदि त्यौहार ही केवल अपनी तरह से नहीं मनाते, अपितु अपने खान-पान, गीत-संगीत और आचार-व्यवहार को भी संरक्षित रखते हैं। प्रकृति और पर्यावरण को बचाने के लिए 'धारित-आर्थिक विकास' की परिकल्पना को साकार करने का त्यौहार छठ जब आता है, दुनिया में कहीं भी कोई बिहारी हो, अपने घर को याद करता है, ठेकुआ आदि प्रसाद खाने को मचल जाता है। कई पीढ़ियों के बाद भी प्रवासी बिहारियों के वही शादी-विवाह, वही गीत-संगीत आदि लोक-संस्कार हैं। यही कारण है कि कैलिफोर्निया में भी विद्यापति समाज है, वहाँ भी किसी मांगलिक अथवा शोक के अवसर पर पत्ते के प्लेट में ब्राह्मण-भोजन करवाया जाता है। वे वहाँ भी रामचरितमानस की चौपाई और हनुमान चालीसा पढ़ते हैं, मंदिर जाते हैं। होली के दिन अगर बहुत ठंढ है, तो उस दिन पुआ पकवान आदि बनाकर खा लेते हैं और 1 महीने बाद जब वहाँ मौसम ठीक होता है, तब एकत्रित हो रंग खेलते हैं, मगर खेलते अवश्य हैं। यह बिहारी संस्कृति है, यही असली बिहारीपन है।
लेकिन बात आगे बढ़े, इससे पहले देख लें कि बिहार क्या और बिहारीपन क्या है? अगर किसी आम आदमी से यह पूछें, तो शायद वह यह जवाब देगा कि बिहारी लिट्टी-चोखा, पुआ, फुलौरी, कढ़ी, खाजा, अनारसा, पपड़ी, पेड़ा (करवा मोड़ का पेड़ा) , चना-चबेना, मूढ़ी-घुघनी आदि चाव से खाते हैं, धोती-कुर्ता या लुंगी-गंजी के साथ गमछा या अंगोछा (धूल, धूप, बारिश और ठंड से बचाने के लिए) रख पान खाकर शान से घूमते हैं। निश्चित ही यह बड़ा छिछला-सा आकलन है।
बिहारीपन महज़ बिहार के आचार-विचार, खाना-पीना, वेशभूषा, शादी-ब्याह के रीत-रिवाज़, टोना-टोटका, तीज-त्यौहार, कलात्मक मनोरंजन जैसे फाग, ठुमरी, कजरी, सेमा-चकेवा, लौंडा या विद्यापति नाच से परिभाषित नहीं होता; न ही यह संस्कृति सतुआ-पर्व, होली, दिवाली, जितिया, छठ, भैया-दूज, जैसे तीज-त्यौहारों भर से परिभाषित हो जाती है।
दरअसल बिहारीपन एक अस्मिता है, एक पहचान है, एक महती संस्कृति है-श्रम की गरिमा कि संस्कृति, मेधा कि संस्कृति, सौराट सभा कि स्वयंवर प्रथा वाली संस्कृति, मिथिला पेंटिंग, कोहबर, मोर, केला-पत्ता, पान-मखान की संस्कृति, राष्ट्रहित में बलिदान हो जाने की संस्कृति। इस संस्कृति में केवल बौद्धिकता (बुद्धि की महती क्रियात्मकता) ही नहीं है, चुनौतियों का सामना करने की शक्ति भी है-चाहे बाढ़ की विभीषिका हो या फिर सुखाड़ का संकट। यह सहकार की संस्कृति है, 'मैं' नहीं 'हम' की संस्कृति है। यह विडंबना अवश्य है कि 'हम' बोलने वाले बिहारी भी बाहर जाकर 'मैं' बोलने लग जाते हैं।
हमें स्मरण रखना होगा कि विश्व में गणतांत्रिक शासन का प्रथम उदाहरण उस बिहार के वज्जि गणराज्य में मिलता है, जो बौद्ध भिक्षुओं के मठ- 'विहार' से अपभ्रंश के रूप में बदल कर 'बिहार' बनता है और 1911 में बंगाल से तथा 1936 में उड़ीसा से अलग होकर आधुनिक भौगोलिक स्वरूप प्राप्त करता है। गौरवशाली पाटलिपुत्र हो, विक्रमशिला, नालंदा या राजगीर हो, बिहार का इतिहास हजारों वर्ष प्राचीन, भव्य एवं दिव्य रहा है।
एक बिहारी आर्यभट्ट ने सदियों पूर्व शून्य की खोज की और यह भी बता दिया कि पृथ्वी 'चपटी' नहीं 'गोल' है तथा यह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। यह बिहारी मेधा का अप्रतिम उदाहरण है। अध्यात्म का सूरज यहीं से भगवान बुद्ध और महावीर बन कर चमका। मिथिलेश कुमारी सीता यहीं अवतरित हुईं, तो अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर गांधीजी तक की कर्मभूमि यही रही। जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल बिहार से बजा तो मेधा और सादगी की मिशाल राजेंद्र प्रसाद यहीं से निकले, जो राष्ट्रपति भवन में भी दाल-भात और आलू का भुजिया चाव से खाते थे।
भाषिक रूप से देखें, तो बिहारियों के दो वर्ग हैं:-पहला अभिजात्य वर्ग जो अपने बिहारीपन को छुपाता है और अंग्रेज़ी में या फिर दिल्ली या मुंबई के टोन में हिन्दी बोलकर गौरव पाता है और दूसरा एक निचला तबका है जो बिहारी ठाठ लिए हास्य का पात्र बन जाता है। मनोवैज्ञानिक सत्य है कि आदमी अपनी भाषा में सोचता है और सहज चिंतन स्वभाषा में ही संभव है, किंतु बिहारी मन में, ख़ासकर बिहार से बाहर निकलते ही भाषा को लेकर चिंता के बादल घिरे जाते हैं। वे इसकी शक्ति और इसके सामर्थ्य का चिंतन नहीं करते, क्रियान्वयन तो बहुत दूर की बात है।
ध्यातव्य है कि मुँह खुलता नहीं कि पता लग जाता है कि आदमी कहाँ से है। इसे 'मातृभाषा का क्षेत्रीय प्रभाव' या 'Gravitational pull of the tongue' कहते हैं और इससे पूर्णतः मुक्त नहीं हुआ जा सकता और दीगर बात यह है कि मुक्त होना ही क्यों? तमिलनाडु का कोई व्यक्ति हो, या बंगाली हो, राजस्थानी हो या हरियाणवी-हर जगह की भाषा का अपना एक 'अंदाज़े बयां' है, फिर बिहार का अलग है, तो इसमें कोई ऐसी बात तो नहीं। ऐसे में, इसे लेकर हीन भावना पालना सर्वथा अनुचित है।
यहाँ विचारणीय है कि भाषा बस वक्ता या लेखक की विचार-वाहिका नहीं होती, संस्कृति की संवाहिका भी होती है। वह स्वयं एक माध्यम मात्र न होकर, एक विचार भी होती है। यह कारण भी होती है और कार्य भी। नदी का प्रवाह भी होती है और तटबंध भी। तथ्य है कि उपभोक्तावादी समाज में भाषा कि समस्या पावर पॉलिटिक्स, बाज़ार के दबाव और बहुसंख्यक अल्पसंख्यक जैसे मुद्दों से जुड़ जाती है। इन दबावों में भाषा कि प्रतिभा और उसके तेवर और जौहर गौण हो जाते हैं। यही कारण है कि आज मुंबई और दिल्ली की भाषा नए फैशन की भाषा बन जाती है, क्योंकि इनमें से एक जहाँ देश की आर्थिक राजधानी है; वहीं दूसरी राजनीतिक राजधानी।
साथ ही, देखा गया है कि किसी भी राष्ट्र की शासन-पद्धति या राजनीतिक-प्रणाली में परिवर्तन के साथ-साथ उसकी भाषाओं का मिज़ाज और अंदाज़ भी बदल जाता है। सत्तासीन वर्ग की चेतना में जहाँ झूठे गर्व की मिलावट हो जाती है, वहीं पराजित और पिछड़े हुए समाज में एक ख़तरनाक अविश्वास या आत्महीनता-बोध का संचार हो जाता है। दुर्भाग्य से बिहार, बिहारी भाषा एवं बिहारीपन के साथ यही आत्महीनता बोध संलग्न हो गई।
साहित्य की भारतीय अवधारणा 'सहित' के भाव और पारस्परिकता के मूल्यबोध की माँग करती है, जो कल्याणधर्मिणी होती है। विचार करने पर हम पाते हैं कि सभी भारतीय भाषाओं का मूल उत्स, मूल प्रेरणास्रोत एक ही है। ये सभी भाषाएँ भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन आदि को उपजीव्य बनाकर एकात्मभाव के साथ प्रवाहमयी रही हैं। बिहार के साहित्यिक परिदृश्य में यह अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है। यहाँ की भाषिक और साहित्यिक ऊर्जा निश्चय ही पर्याप्त प्रखर और सुषुप्त चेतना को जाग्रत करनेवाली है।
तमाम विडंबनाओं के बावजूद बिहार की हिन्दी एवं मैथिली, अंगिका, भोजपुरी आदि इसकी सगी बहनों ने अदम्य जिजीविषा का परिचय दिया है, जैसा यहाँ के लोगों ने बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं, राजनीतिक अव्यवस्था और आर्थिक बदहाली में दिया है। मेधा, श्रम, उपजाऊ जमीन, विपुल संसाधन...सब कुछ होने के बावजूद बिहार का संघर्ष अंतहीन रहा, यहाँ की पीड़ा शमित नहीं हुई, जातिगत रैलियों, नरसंहार से रक्तरंजित बिहार में समता के सुरीले-सपने बेसुरे और बेदम हो गए-यहाँ की भाषा और यहाँ के साहित्य में यह सब ध्वनित होता रहा। सुखद यह कि बाज़ार के दबावों, विज्ञापन की बाध्यताओं जैसी उपभोक्तावाद के अंकुशों को धता बताती, प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करती इन भाषाओं एवं बोलियों ने अपनी सर्जनात्मक शक्ति का ह्रास नहीं होने दिया है। हिन्दी के संदर्भ में देखें, तो समाचारपत्रों, विज्ञापनों की हिन्दी हमारी जातीय स्मृति से कुछ भिन्न अवश्य है, पर वह जीवित है और उत्पादक भी-यह आश्वस्तिकारक है।
उत्तम साहित्य जीवन में अमृत का सिंचन करता है, संजीवनी-शक्ति से समाज को समृद्ध और पुष्ट करता है, भावनाओं का उदात्तीकरण करता है। संवेदनाएँ जितनी उदात्त हो, सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती हैं-साहित्य उतना ही सार्वभौमिक और सर्वकालिक हो जाता है। निश्चय ही बिहारी भाषा में जो साहित्य निर्माण हो रहा है वह महान् है, पाठक की चिंतन धारा को मूर्त रूप देने में सक्षम है और इसका सामाजिक आयाम बहुमुखी और बहुस्तरीय है। फणीश्वर नाथ रेणु की परती परिकथा में कृषीवल जीवन, गरीबी, बदहाली, भूख की तड़प, असंगठित किसान के संत्रास आदि का हृदयस्पर्शी वर्णन है।
नागार्जुन की काव्यभाषा का जीवंत और प्राणवान् लोकपक्ष हो, बेगूसराय के दिनकर हों, शाहाबाद के शिवपूजन सहाय या मुजफ्फरपुर के रामवृक्ष बेनीपुरी हों, इनके सहित्य में वह अमृत तत्त्व है जो व्यक्ति को निराशा के गर्त से निकालकर उम्मीदों की नाव पर सवार कर दे।
"देशी बैना सब जन मिट्ठा" का उद्घोष करने वाले 'मैथिल कोकिल' विद्यापति के बारे में नामवर सिंह ने कहा कि अभी तक गीत के क्षेत्र में विद्यापति के कद के बराबर कोई अन्य नहीं पहुँचा। इसके अलावा सखी-गीत, बिरहा गीत, चक्की-गीत, जोताई, निराई, कटाई, गेहूँ पीसने के गीत, लल्ला को पालने में झुलाने के गीत सबसे बिहार की धरती गुंजायमान रहती है। यही समाज की उपज है, यही लोकवेद है। आवश्यकता इस बात की है कि आमजन इस विपुल साहित्य एवं लोकनिधि से पूर्णतया परिचित हों, श्रेष्ठ समन्वय सेतु बने और आपसी आदान-प्रदान समग्रता में हो।
भाषा यदि विराट् लोक समुदाय की थाती है, तो साहित्य उस थाती का सजग-संरक्षक और प्रहरी।
लोक प्रयोग का विषय बनता है-बहु आयामी लोक साहित्य और लोक साहित्य ही अंततोगत्वा उत्कृष्ट कालजयी सृजनात्मक साहित्य का आधारफलक सिद्ध होता है।
हाँ, विभिन्न जातियों और भाषाई क्षेत्रों में बंटे इस भूभाग की बदनसीबी रही है कि यह औद्योगीकरण की दौड़ में पिछड़ता चला गया। प्रकारान्तर से अस्मिता-बोध में भी बिहारी मन इतना पिछड़ गया कि जब किसी बिहारी को यह कहा जाता है कि "आप तो बिहारी एकदम नहीं लगते" , तो दुःखी होने की जगह वह ख़ुश हो जाता है, अलबत्ता कोई मेडल मिल गया हो। इस विडंबना को ग़ालिब के शेर पर बनी यह पैरोडी व्यंजित कर देती है-
" बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना।
बिहार का होकर भी मयस्सर नहीं बिहारी होना। "
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को आचार-व्यवहार, शारीरिक-स्वास्थ्य, ज्ञान-दीक्षा, आत्मशोधन करना, अपने संस्कारों की समीक्षा-आलोचना करने के योग्य बनना है। लेकिन यह भी तथ्य है कि आरंभ में मातृभाषा में प्राप्त शिक्षा ही शिक्षार्थी की व्यवहारक्षमता, कलाप्रियता आदि अंतर्बाह्य विकास के योग्य बनाना है, जिससे वह समाज के बहुमुखी विकास में अपना योगदान दे सके।
भाषा एक ऐसा बहता नीर है, जो अबोध और अकूल होकर भी सर्वथा अव्यवस्थित अथवा दिशाहीन पथ का अनुसरण नहीं करती, अपितु उसकी अपनी निजी प्रकृति, प्रवृत्ति और मर्यादारेखा होती है। इसके भीतर रहकर भी भाषा कि विकास यात्रा अनेक वीथियों, सरणियों और मार्गों का अनुसरण करती हुई, अविराम-गति से प्रवाहमयी रहकर अपने समूचे परिवेश को आप्लावित और रससिक्त करती रहती है।
भाषा अपने सहज-रूप में अपने समाज को जोड़ती है, धारण करती है। वह अपने समाज के हर प्रकार के जीवन स्तर को धारण करती है और अभिव्यक्त भी। इसका सीधा-सादा मतलब है कि भाषा समाज से किसी भी रूप में अलग नहीं है। भाषा में समय-समय पर जो बदलाव या विकास होते हैं वह मनुष्यों के चिंतन का ही प्रतिफल होते हैं।
भारत में बहुभाषिकता का सहारा लेकर हम उसमें क्षेत्रीयता का रंग भर देते हैं। इतिहास साक्षी है कि क्षेत्रीय-अस्मिता को क्षेत्रीय भाषाई-अस्मिता के साथ जोड़ कर भाषाई प्रांतों की स्थापना कि गई। लेकिन, बिहार से कभी ऐसी कोई आवाज़ नहीं आई, यह बिहार की विपुल और उदार भाषिक संस्कृति है। यहाँ भाषाई तनाव और विद्वेष की संकल्पना उद्भिद तक नहीं होती, बिहार ने ऐसे किसी भी विचार को सदा ही नकारा है।
यहाँ की हिन्दी पर अमानक होने का मिथ्या आरोप लगता रहा है। हमें समझना होगा कि यह बिहारी जाति की प्रामाणिकता और सामाजिक अस्मिता कि भाषा है। अंतिम बात यह कि भाषा का प्रमाणीकरण लोक प्रयोग से होता है, केवल कोश ग्रंथों या व्याकरण शास्त्र के सिद्धांतों के वाचन-पुनर्वाचन से नहीं।