वीडियो गेम्स की भयावह लत / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 जनवरी 2019
कोरिया में एक पति-पत्नी वीडियो गेम्स खेलने में इतने मगन थे कि उनके बच्चे की चीख वे नहीं सुन पाए और बच्चा बाथ टब में डूब गया। एक किशोर ने अपने माता-पिता को गोली मार दी, क्योंकि वे उसके वीडियो गेम्स खेलने का विरोध करते थे। एक 'फोर्टनाइट' नामक नशीला वीडियो गेम है, जिसके लतियल को खाने-पीने की सुध भी नहीं रहती। यह दीवानापन लैला के लिए मजनू के इश्क से भी अधिक भावना की तीव्रता लिए हुए हैं। अब मनोविज्ञान के क्षेत्र में इस वीडियो रोग के इलाज के लिए विचार मंथन चल रहा है। वर्तमान समय में माता-पिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने परिवार के किशोर अवस्था वाले सदस्य पर निगरानी रखने की है कि कहीं वह अधिक समय तक मोबाइल और कम्प्यूटर से चिपका नहीं रहे। स्तनपान करने वाला शिशु चार या पांच वर्ष का होने पर भी स्तनपान करना चाहता है। माताएं स्तन पर कुनैन का लेप लगाती हैं ताकि बालक स्तनपान से मुक्त हो सके। विशेषज्ञ भी ऐसी ही कोई कड़वी कुनैन खोज रहे हैं कि व्यक्ति ऑनलाइन वीडियो गेम खेलना छोड़ दे।
टेक्नोलॉजी जीवन को सुविधाजनक बनाते हुए नई समस्याओं को भी जन्म देती है। परिवार के जीवन को इतना मनोरंजक बनाना चाहिए ताकि वीडियो गेम्स की ओर झुकाव घट सके। आज के परिवार में तो हर सदस्य स्वयं को तन्हा पाता है और कोई न कोई शगल खोजता है। संवादहीनता परिवारों में दीमक की तरह घुसपैठ कर रही है। हम सब अपने-अपने अजनबी होते जा रहे हैं। आज पृथ्वी से मंगल ग्रह की दूरी उतनी नहीं है, जितनी एक ही परिवार के दो सदस्यों के बीच की है। याद आती है ऋषिकेश मुखर्जी की राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म 'बावर्ची', जिसमें परिवार के सदस्यों के बीच ऐसी ही दूरियां दिखाई गईं थी। पांचवें दशक में अल्बर्ट कामू के उपन्यास 'स्ट्रैंजर' में उन्होंने संवेदनाहीन मनुष्य का आकल्पन प्रस्तुत किया था। बंगाल के उपन्यासकार मनोज बसु 'विविर' नामक उपन्यास में भी संवेदनाहीन पात्र को प्रस्तुत किया था परंतु वर्तमान की संवादहीनता से त्रस्त व्यक्ति के सामने बड़ी चुनौती खड़ी है। मोबाइल और कम्प्यूटर पर खेले जाने वाले खेल का नशा भयावह है। वह मनुष्य को वैकल्पिक दुनिया का नागरिक बनाता है, जहां आधार कार्ड नहीं देखा जाता वरन आधारहीनता को सद्गुण की तरह महिमामंडित किया जाता है।
संजीव कुमार और जया भादुड़ी अभिनीत गुलजार की फिल्म 'कोशिश' में गूंगे-बहरे पति-पत्नी के बीच संवाद की कोई समस्या ही नहीं है। वे बिना कुछ कहे एक-दूसरे को समझते हैं। प्रेम के सेतु पर चलने वाले हमराही हैं वे दोनों। कहा जाता है कि इस फिल्म की प्रेरणा गुलजार को जापान में बनी 'हैप्पीनेस फॉर अस अलोन' से प्राप्त हुई थी। याद आता है गुरुदत्त की 'प्यासा' का गीत 'जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गई'। सचिनदेव बर्मन ने भी इस गीत में कम से कम वाद्ययंत्रों का उपयोग किया था।
वीडियो और कम्प्यूटर पर खेले जाने वाले खेल की लत छुड़ाए नहीं छूटती। संभवत: स्वयं को ग़ाफिल रखने के लिए यह किया जाता है। भीतर का सन्नाटा हमें खाए जा रहा है। यह कैसा बियाबान है कि घर से दरोदीवार पर कोई सब्ज़ नज़र नहीं आता। सारी फिसलन मनुष्य के भीतर ही सिमट आई है। इस फिसलन पर गिरते-उठते ही हम 'विकास' कर रहे हैं। यह संभव है कि असमानता और अन्याय आधारित समाज से त्रस्त व्यक्ति आभासी संसार में जाना चाहता है। वह देखता है कि इस संसार के प्राणी स्वतंत्र हैं और उन्हें किसी रिंग मास्टर के कोड़े पर नाचना नहीं पड़ता। फंतासी में रम जाना मनुष्य का मौलिक अधिकार है। केवल यथार्थ की सतह पर जीवन जिया नहीं जा सकता। फंतासी मनुष्य की आदिम आवश्यकता रही है, जिस कारण अरेबियन नाइट्स, हातिमताई, किस्सा तोता-मैना, देवकीनंदन खत्री रचित 'चंद्रकांता' इत्यादि लिखी गईं।
जीवन में संतुलन बनाए रखना ही एकमात्र मार्ग है। किसी भी वस्तु का अत्यधिक सेवन हानिकारक होता है। हर आयु समूह को संतुलन बनाए रखना चाहिए। लतियल बच्चों को संतुलन का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। जैसे भोजन की थाली में चटनी भी परोसी जाती है। चटनी को दाल-रोटी की मात्रा के समान नहीं ग्रहण किया जाता। भोजन में सलाद और अचार का भी महत्व है। किसी भी क्षेत्र में किसी तरह की अधिकता नहीं की जानी चाहिए।