वीरांगना / मनीषा कुलश्रेष्ठ
उसे देख कर एक दृश्य नहीं‚ महज अतीत नहीं‚ एक खुश्बू या एक माहौल ही नहीं… वह पूरा कालखण्ड पुर्नजीवित हो उठा था। न जाने कितने दृश्य‚ कितनी खुश्बूएं‚ कितने माहौल एक साथ धड़कने लगे थे। मैं एक वयस्क पुरुष से अचानक एक असमंजस से भरा किशोर बन उस कालखण्ड में पहुंच गया था जब ज़िन्दगी कुछ समझ नहीं आती थी‚ पर ज़िन्दगी लगती बड़ी खूबसूरत थी और रहस्यमयी भी। यह जो सामने है‚ उस कालखण्ड का मुख्य पात्र नहीं है‚ यह महज एक हिस्सा भर है उसका। वह कालखण्ड पूरा का पूरा जिसके होने से था यह उसका एक छोटा सा भाग है। वह कालखण्ड बस जिसे केन्द्र बना कर‚ जिसके बारे में सोचते‚ जिसके हिसाब से चलते फिरते बीता वो अब भी अदृश्य है वक्त की परतों में‚ यह तो एक छोटा सा सुराग है उस खोये हुए का… शायद कुछ पता मिले …
संयोग ही था कि एक दोस्त के भाई की बारात में इस कम जाने हुए छोटे से शहर में वह मिल गया। उसीने पीछे से कंधे पर हाथ रखा …”मोन्टू “बहुत चौंका था‚ यह नाम तो मैं खुद बिसरा चुका था। कॉलेज में आने के बाद से ही तो घर में सबको मैं ने सख्त हिदायत दे दी थी कि अब इस नाम से न पुकारा जाये मुझे। अच्छा खासा नाम है‚ ' शान्तनु '। इस भूले हुए सम्बोधन ने हल्की सी दस्तक दी अतीत के बन्द गलियारों में आकर। धक्क रह गये दिल को संभाल और आश्चर्य के भाव लपेट मैं पीछे मुड़ा … ज़रा नहीं बदला है यह …उतना ही पतला दुबला छोटा सा। घुंघराले बाल‚ सांवला सा रंग।
'शोकी'
“पहचान लिया?”
“हाँ‚ कितने सालों पहले … पर तू यहाँ कैसे?”
“मेरा ही शहर है‚ यहीं बिज़नेस करता हूँ।”
“बिज़नेस”
“हाँ‚ तू आया तो था‚ मेरी शादी में‚ मेरी वाइफ यहीं की है। स्वर्गीय ससुर जी का बिज़नेस संभालता हूँ।”
“हाँऽऽआं‚ याद आया…।”इस याद आने में कोई हम दोनों ही के बीच तैर गया।
शायद शोकी की ही शादी थी‚ जहाँ यह 'कोई' आखिरी बार मुझसे यह कहने आया था कि…
“कितना और पढ़ोगे?”
“क्या तुम्हें जलन हो रही है ?”
“हाँ मैं ने तुम्हारी तरह पढ़ना चाहा था।”
“तो शादी क्यों करली?”ह्य यही एक बात थी जिससे मैं बहुत आहत हुआ था।
“कर ली? मैं ने क्या खुद कर ली या …”बुरी तरह आंखें और मन भर कर वह चली गई थी।
शोकी उस मेरे हरे भरे अतीत के और मेरे बीच की कड़ी‚ शोकी याने अशोक नीलाजंना का चचेरा भाई और मेरा दोस्त।
जब उस कस्बे में पापा की पोस्टिंग हुई थी‚ मम्मी‚ भैया सब झल्लाए थे। मुख्य कस्बे से बहुत दूर थे इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड और कॉलोनी दोनों। स्कूल के नाम पर बस दो स्कूल एक गल्र्स सैकेण्ड्री स्कूल एक बॉयज़ सीनीयर सैकेण्ड्री स्कूल … कॉलेज नदारद भैया को तो यूं भी बाहर ही रहना था हॉस्टल में। मम्मी को भी कस्बे से क्या लेना था? जिसे लेना देना था वो मैं था और मुझे कोई खास प्रॉब्लम नहीं थी। एक सातवीं कक्षा के बच्चे को करना ही क्या होता है… स्कूल कैसा भी हो ठीक है सरकारी स्कूल है तो क्या? थोड़ा दूर था स्कूल पापा का चपरासी साईकिल पर छोड़ने आया करता था। स्कूल बुरा न था… कैम्पस बड़ा सा था… पूरा खुला अहाता पूरा कॉलेज का माहौल‚ कोई पीरियड न पढ़ना हो तो किसी भी पिछले गेट से बाहर हो जाओ… बाहर ढेरों ढेर गलियों से निकल कर कस्बे का बाज़ार… थोड़ा आगे जाओ तो बस स्टेण्ड‚ फिर एकमात्र पिक्चर हॉल… फिर रेल्व स्टेशन और कस्बा खत्म
पहले दिन जब मैं ने इन्टरवेल में टिफिन खोला और मम्मी के बनाये परांठे और सेम आलू की सूखी सब्जी खाने लगा। इस पर सारे लड़के हंसने लगे। तभी अशोक पास आया था —
“तुम नये हो?”
“हाँ‚ आय एम शान्तनु।”
फिर एक ठहाका उछला था।”स्साला‚ अंग्रेजी झाड़ता है।
“मेरा नाम अशोक है। यहाँ‚ आधी छुट्टी में सब बच्चे घर चले जाते हैं। आस पास ही हैं न।”
“पर मेरा घर तो बहुत दूर है।”
इसी स्कूल में इस कस्बे के सारे सरकारी अधिकारियों के बच्चे पढ़ते थे जिनसे धीरे धीरे एकाध गेट टू गेदर के बाद मैं सम्पर्क में आ गया था। वे सब इन कस्बाई लड़के लड.िकयों को हेय समझते थे और अलग ग्रुप बना कर रहते थे। हालांकि हमारी कॉलोनी के कई बच्चे वहाँ पढ़ते थे और टिफिन ले जाते थे। पर अगले दिन मम्मी के लाख कहने पर भी मैं टिफिन नहीं ले गया।
उस दिन शोकी मुझे अपने घर ले गया।वह जैन था‚ उसके पिता व्यवसायी थे और मम्मी गल्र्स स्कूल में टीचर। उसका घर क्या था एक हवेली ही थी‚ जिसमें उसके चाचा ताऊओं के परिवार भी रहते थे। उस दिन अशोक के घर ही खाना खाया‚ फिर कस्बे का बाज़ार घूमते हुए… सातवें पीरियड में स्कूल पहुंचे थे हम। अब मैं टिफिन ले भी जाता तो शोकी के घर खाता।
एक दिन छुट्टी के बाद शोकी मेरे साथ रुका हुआ था… कि पापा का चपरासी आदिल मुझे लेने नहीं पहुंचा था। स्कूल के आगे वाले हिस्से के आगे मुसलमानों का बड़ा मोहल्ला था आदिल वहीं रुक जाता था… वहाँ उसकी ससुराल थी। शोकी और मैं नीम के पेड़ के नीचे खड़े थे कि तभी एक लड़की साईकिल पर से उतरी … सफेद सलवार कुर्ता और सफेद रिब्बन्स में बांधी झूला चोटी। सलोना‚ सुन्दर चेहरा।
“ऐ … अशोक… आज काकी स्कूल से आकर‚ मेहता मैडम के घर जायेगी। तू खाना हमारी रसोई में खा लेना। बबली को भी साथ ले आना।”
कह कर वह आगे बढ़ गई। हमारे स्कूल की दूसरी शिफ्ट शुरु होने वाली थी।
“ये कौन है?”
“मेरी बहन‚ बड़े पापा की लड़की। नीली…नीलाजंना दीदी यहाँ साईंस लेकर टैन्थ क्लास में पढ़ती है।” “यहाँ लड़कियाँ भी पढ़ती हैं?”
“हाँ दो – तीन‚ जो साईंस लेती हैं। गल्र्स स्कूल में तो आर्टस ही है न। एक अपने एस।डी।एम ।साहब की लड़की अनिला दीदी। एक मेरी दीदी। एक शहला दीदी। तीनों साथ पढ़ती थीं आठवीं तक‚ फिर अनिला दीदी के साथ नीली दीदी और शहला दीदी ने लड़ झगड़ कर साईंस लिया और हमारे स्कूल में आ गई।”
बड़ी वीरांगना सी लगी‚ उसकी नीली दीदी। उसने मुझसे निक्कर पहने छोकरे को भले ही देखा तक न हो‚ पर उस कस्बाई वीरांगना में कुछ ऐसा था कि मैं ने घर जाकर मम्मी को बताया कि हमारे स्कूल में तीन लड़कियां भी पढ़ती हैं‚ क्यों पढ़ती हैं यह भी बताया।
सातवीं पास करते करते पूरे कस्बे को मैं और लगभग पूरा कस्बा मुझे जान गया था‚ एक्स। सी। एन। साहब का बच्चा। लड़कों पर भी फर्स्ट आकर धाक जमा ली थी। सबसे ज़्यादा खुशी तब हुई जब आठवीं में आ गया और पता चला कि अब मेरी शिफ्ट दोपहर वाली हो गई है। नीलांजना तब प्रेयर करवाया करती थी… और मैं आंखें ज़रा खोल सबसे पीछे खड़ा होकर उसे देखता। शोकी को प्रेरित करता कि उसकी बातें बताये। वही बातें कि सबसे बड़े पापा बहुत गुस्सैल हैं… कैसे नीली दीदी ने उनसे लोहा लिया और साईन्स लेकर लड़कों के स्कूल में एडमिशन लिया‚ शोकी की मम्मी जो टीचर हैं‚ ने घूंघट के पीछे से नीली का पक्ष में दलीलें दीं अपने जेठ से पहली बार बोली थीं वे‚ तब उन्होंने कहा…
“बींदणी… अब कहने सुनने को क्या बाकि है जब तू और छोटा ही मेरी बेटी को बिगाड़ने पर तुले हो।”
फिर एस।डी।एम। साहब खुद अनिला दीदी के साथ आये और बड़े पापा को समझाया कि अब समय बदल रहा है‚ वे खुद भी तो अपनी बेटी को भेज रहे हैं। पर जब पूरी नाईन्थ क्लास में वह फसर््ट आई तो …बड़े पापा खुश हो गये थे। फिर कस्बे भर में उस तेज़ तर्रार मगर शालीन लड़की की ओर कोई आंख उठा कर देखने की हिम्मत नहीं कर सकता है।
“पता है अनिला दीदी का नाम तो स्कूल के पीछे की दीवार पर किसी ने ट्वैल्थ के एक लड़के के साथ जोड़ कर लिख दिया था।”
मैं ने देखा दूसरी शिफ्ट में सीनीयर लड़के लड़के न लग कर पूरे मुच्छड़ आदमी लगते थे। नीलाजंना और उसकी दोनों सहेलियां… इन्टरवेल में घर नहीं जाते वहीं छत पर बैठ कर खाना खाया करते थे। एक बार शोकी के साथ मैं सीढ़ियाँ चढ़ कर गया तो … सीढ़ियों में सुना…
“हाय नीली… अग्रवाल सर ने फाईल लेते लेते बस छू ही लिया था।”
“तू भी पागल है अनिला‚ मैं तो उनके लैब में आने से पहले ही उनकी टेबल पर रख देती हूँ।”
“मैं भी ऐसा करती हूँ‚ फिर भी वे बुला लेते हैं। ”यह शहला थी” पर मैं दो फुट दूर खड़ी होती हूँ।”
“कल रिप्रोडक्टिव सिस्टम पढ़ाएंगे…तू आयेगी‚ शहला ?” अनिला ने शैतानी से पूछा।
“न्न्ना मैं नहीं आने वाली। हाय वो चैप्टर घर पर ही पढ़ लेंगे।”
“पागल हो तुम दोनों… चैप्टर है‚ उसे साईन्स की तरह पढ़ो।” नीलांजना ने तर्क दिया “ऐ‚ अशोक…सीढ़ियों में क्या कर रहे हो?”
“दीदी…हम वो … न वो ये छत देखने आये थे।”तीनों हंस पड़ी थीं।
“ये गोलू मोलू कौन है?”
“मेरा दोस्त। शान्तनु।”
“ये तो मोन्टू है।भारद्वाज अंकल का बेटा।”अनिला ने कहा।
मुझे बहुत शर्म आई‚ और 'गोल मोलू' कह कर छोटा समझने पर आपत्ति हुई। 'चल न यार।' कहकर मैं सीढ़ियां उतर गया।पीछे से अनिला का स्वर गूंजा।
“यार‚ इसका भाई इन्जीनियरिंग में पढ़ता है। क्या हैण्डसम है।”
नीलाजंना और शहला तो सफेद युनीफार्म में सलवार कुर्ता पहनती थीं‚ अनिला स्कर्ट वह भी महज घुटनों तक।
मैं नीलाजंना से ठीक से तब मिला जब शोकी के साथ अपना छूटा हुआ होमवर्क करने सनडे को उसके घर पहुंचा। वो हवेली मुझे भा गई। कस्बे के किसी कोने पर खड़े हो जाओ वह दिखती थी। सबसे नीचे गाय भैसों का बाड़ा… कुछ गोदाम‚ फिर दूसरी मंजिल पर रिहायिश‚ घर के नौकरों की‚ तीसरी मंजिल पर शोकी के बड़े पापा…का हिस्सा आधे में और आधे में शोकी के पिता का‚ उसके ऊपर दोनों चाचा। रविवार की उस दोपहर में‚ नीचे गौशाला के पार उस पक्के हिस्से में हर उम्र के इतने बच्चे इकट्ठे हो गये थे कि हम खूब खेले‚ आई स्पाईस‚ कबड्डी और गिल्ली डंडा भी वहीं सीखा। यहाँ नौकर मालिक सबके बच्चे थे। कोई भेद नहीं। बल्कि लाला जो गौशाला संभालने वाले जगन काका का बेटा था वो हर खेल में उस्ताद था‚ मैं उससे खूब प्रभावित हो गया था।
आईस्पाईस खेलते में जिस अंधेरी सीढ़ी में मैं छिपा था … वहाँ से मुड़ते ही नीलांजना का कमरा था‚उसने उस छोटे छोटे झरोखों वाली कोठरी को एकान्त में पढ़ने का बहाना बना कर हल्के नीले परदों से अपना कमरा बना लिया था। मैं सांस रोके उसे वहीं छिपे छिपे देख रहा था‚ वह कुछ पढ़ रही थी लेटे लेटे। छरहरा शरीर जिसमें बदलाव दृष्टिगोचर थे। गीले बाल खुले थे‚ लम्बे लहरदार। सलोने चेहरे पर झरोखे की जालियों से जबरन घुस आए धूप के टुकड़े अटखेलियां कर रहे थे।
अचानक न जाने क्या हुआ कि मेरी बांह उसके हाथों में थी और वह गुस्से से पूछ रही थी… क्या कर रहे हो यहाँ? बड़ी मुश्किल से हकलाते हुए मैं ने बताया कि हम छुपन छुपाई खेल रहे हैं। सब बच्चों को पता चल गया कि मैं जो पिछले आधे घण्टे से नहीं मिल रहा था… यहाँ हूँ। छिÁ क्या फायदा हुआ ज़्यादा मोहरी की बैलबॉटमनुमा पैन्ट पहन कर बिना तेल लगाये बाल संवार कर यहाँ आने का? कैसे बच्चे की तरह पकड़ लिया गया।
खाना हमने नीलांजना के घर ही खाया‚ शोकी का पूरा परिवार वहीं आमन्त्रित था। ज़मीन पर पटले बिछा कर मैं घर के पुरुषों के साथ खाने बैठा था। घर की लड़कियाँ परस रही थीं‚ नीला मेरे पास आते आते शैतानी से मुस्कुरा देती। मुझसे ठीक से खाया ही नहीं गया।
घर जाकर मैं यही सोचता रहा था कि स्कूल – घर दोनों में नीलांजना मुझसे बच्चे सा व्यवहार क्यों करती है? मैं अब बड़ा हो गया हूँ‚ मम्मी कहती हैं कि आवाज़ बदल रही है। और वह खुद कौन बहुत बड़ी है‚ दसवीं का तो इम्तहान दे रही है। न जाने क्यों मुझे यकीन होने लगा था कि वह बहुत मायने रखती है मेरे लिये और … शायद यही कहीं वह फिल्मों वाला प्यार तो नहीं? कहीं मन में गुदगुदी होती।
बाद के दिनों में नीलांजना शोकी के साथ हमारे घर आने जाने लगी थी। मम्मी को अच्छा लगता था उसका आना। वे भी कहा करतीं‚”इस छोटे से टाउन में नीलाजंना जैसी प्यारी‚ इन्टैलीजेन्ट और सुघड़ लड़की का होना आश्चर्य है।”उसी साल नीलांजना ने दसवीं कक्षा में मैरिट में चौथा स्थान पाया था। हम सब को गर्व हुआ था उस पर। मैं और अधिक प्रभावित था। गरमियों की छुट्टियां बस खत्म होने को थीं। एक दोपहर हम अशोक के घर पर कैरम खेल रहे थे। तभी नीलाजंना ने बुला कर कहा था‚
“मोन्टू मेरा कमरा देखोगे?”
“हँ उसमें देखने का क्या है। मोन्टू तू ये गेम खत्म कर।”अशोक चिढ़ गया।
मगर मैं सम्मोहित सा वहीं खेल छोड़ कर सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर आ गया था। छोटा सा साफ सुथरा तरतीब से जमा कमरा… ज़मीन पर ही सोने के लिये बहुत नीचे तख्त पर गद्दा था‚ उस पर दो गाव तकिये और पास ही पढ़ने का डेस्क। किताबें और ढेर सी किताबें…
“तुम्हें पढ़ने के अलावा क्या शौक है नीलांजना?”
“पढ़ना कोर्स की किताबों के बाद मैगज़ीन्स‚ उसके बाद कोर्स की किताबें…पढ़ना ही।”
“बोरिंग।”
“क्यों? क्योंकि तुम्हारे लिये वह आसानी से उपलब्ध है। मैं ने पढ़ने के लिये लड़ाई की है आगे भी करनी होगी। क्योंकि ट्वैल्थ के बाद इस गांव में है ही क्या? और बाहर भेजेगा कौन? बनियों की लड़कियां इस गांव में प्राईवेट बी ए कर लें वही बहुत है। यहाँ की जाने कितनी अपनी जाति की और कितनी दूसरी जातियों की लड़कियों को जानती हूँ‚ ट्वैल्थ में फस्र्ट आकर भी आगे कुछ नहीं कर पातीं।”शायद मैं पहला व्यक्ति होऊंगा जिस पर वह अपनी भड़ास निकाल रही थी।
“नीलाजंना”मैं हतप्रभ था‚ उसकी परिस्थितयों से दुख और जुनून से हमदर्दी हो रही थी।
“क्या नीलाजंना – नीलाजंना करते हो मोन्टू…शोकी जीजी कहता है मुझे।”
“मैं नहीं कह सकता?”
“क्यों?”
“दीदी कैसे कह दूं? दोस्त लगती हो तुम।”
“हे भगवान मोन्टू क्या बहुत पिक्चर देखते हो। हां शोकी कह रहा था कि तुम एक्ज़ाम में भी मम्मी पापा के साथ पिक्चर देख आते हो।”
“आप अब मुझे मोन्टू मत कहा करिये‚ शान्तनु नाम है मेरा।”
मैं आप और तुम की उलझन में फंस जाता और वह मुस्कुराती रहती।
फिर अगले ही दिन हम कुछ लोग मिलकर पिक्चर देखने गये थे… दरअसल गयी तो नीलाजंना‚ अनिला‚ शहला थीं…उनके साथ शोकी को एस्कॉर्ट बना के भेजा जा रहा था तो साथ मैं भी हो लिया। 'मुकद्दर का सिकन्दर'
न जाने कितनी भूलभुलैय्या गलियों से होकर पहुंचने वाले उस बाबा आदम के ज़माने के और मुस्लिम बहुल कस्बे के एकमात्र पिक्चर हॉल में लेडीज़ बॉलकनी अलग थी। उसमें पर्दा लगा रहता था जो पिक्चर शुरु होने के साथ खुलता था और इन्टरवेल में बन्द होकर फिर खुलता था। वहाँ ढेरों बुरके वालियां भरी रहती थीं। हमें छोटे लड़के जान बड़ी लड़कियों के भाई समझ लेडीज़ में बैठने की परमिशन मिल गई थी। मुझे बड़ा अजीब लग रहा था। पर शोकी आदी था‚ वह अपनी चाची ताईयों के साथ इस लेडीज़ में बैठ कर खूब पिक्चरें देख चुका था। वह ज़माना ही पिक्चरों का था। लोगों का इकलौता मनोरंजन। और उस कस्बे में पिक्चर देखने का चलन कुछ ज़्यादा ही था।
मैं नीलाजंना के पास ही बैठा था‚ अपने किशोर मन की हलचलों के साथ। जब जब अमिताभ बच्चन राखी को मेमसाहब बोलता कुछ होने लगता था। अन्त में तो बड़ी मुश्किल से नाक दबा कर सुबकी दबाई थी पर नीला को पता चल गया था… हंस कर धीरे से पूछा था…”ए रो रहे हो क्या?”
मैं ने तरह तरह से जताया था नीला को उस दो साल के दौरान कि नीलाजंना मैं तुम्हारा दोस्त हूँ। और चाहो तो बड़े होकर मेरे प्यार में पड़ सकती हो। बस ज़रा सा इंतज़ार करो… बड़ा होकर मैं तुम्हारी सब समस्याओं का हल निकाल दूंगा। तुम पढ़ोगी बाहर रह कर‚ मेडिकल में जाना चाहती हो न… मैं मदद करुंगा। मैं लड़ लूंगा बड़े पापा जी से। वह हंसती थी खूब खिलखिला कर। एक बार उसके जन्मदिन पर बहुत हिम्मत करके थोड़ा रोमेन्टिक सा बर्थडे कार्ड भैया के सामान में से चुराया और उसके टेबल पर एक बर्थडे कार्ड रख दिया था‚ जब वह लैब में अकेली टाईट्रेशन की प्रेक्टिस कर रही थी। नीचे नाम ही नहीं लिखा डर के मारे। वह बहुत दिन उलझी थी‚ उसने अशोक से शिकायत भी की थी कि ' न जाने किसने…' मुझे लगता है अशोक समझ गया था। गांव के से उन लड़कों में तब तक यह चलन आया नहीं था… वह बार बार यह जताता रहा था कि यह काम यहां के लोकल लड़के का नहीं…
दो साल यूं ही बीत गये थे। मैं दसवीं में आ गया था और नीलांजना बारहवीं में। हम और अच्छे दोस्त बन चुके थे। हल्की मूंछे आने का मेरा बेसब्र इंतज़ार अब लगभग खत्म हो चला था। नीलांजना की समस्याएं अब ज़्यादा साफ थीं मेरे सामने। वह अपने प्रति मेरे पागलपन भरे आकर्षण पर हंसने की अब कभी कभी हल्की मुस्कुराहट देती थी। कई बार मैं जानबूझ कर कैमेस्ट्री लैब में अपने पे्रक्टिकल के बाद भी देर तक रुक जाता था और नीलांजना की क्लास के आने का इंतज़ार करता। सब कुछ बहुत ही आकर्षक था‚ नशीला था। पढ़ाई में जोश था… नीला को प्रभावित करने के लिये आखिर मुझे भी मैरिट में आना था। और सबको मुझसे उम्मीदें थीं। अगर ऐसा होता तो उसी छोटे कस्बे के उसी बॉयज़ सीनयर सैकेण्ड्री स्कूल का मैं पांचवा छात्र होता। उस स्कूल में कुछ खास बात थी‚ हमारे टीचर्स बहुत समर्पित अध्यापक थे। चाहे फिज़ीक्स के पाण्डे सर हों या कैमेस्ट्री की सुशीला मैडम या बायोलोजी के डेरकी सर… पढ़ना बोझिल नहीं लगा। उस पर नीलांजना को केन्द्र बना चलता मेरा अवचेतन अब भी हम तीनों पूरा बाज़ार पार कर गलियां घूम घाम कर अशोक के घर जाया करते थे‚ टिफिन खाने।
बस यहीं आकर वक्त की डोर को छिटकना था। पापा का ट्रान्सफर हो गया और तुरन्त हमें जाना पड़ा। मैं मैरिट में आठवां स्थान लाया‚ अखबार में उस बड़े शहर के नामी स्कूल का नाम आया पर मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने उस कस्बे तक गया‚ शोकी के घर ठहरा सब टीचर्स को धन्यवाद दिया।
मेरी उम्मीद के विपरीत नीलांजना पी। एम। टी। की तैयारी करने की जगह बी। कॉम। प्राईवेट का फार्म भर रही थी।
“नहीं नीला…तुमने बात नहीं की?”
“की थी … थप्पड़ भी खाया। बहुत ज़िद भी की… अनशन भी किया … इस बार अशोक ने भी बहस की बड़े पापा से। पाण्डे सर ने आकर घर पर बात की… कि मत कराओ कोचिंग बाहर भेज कर यहीं रह कर हम पढ़ा देंगे पर पी एम टी तो देने दो।”
बहुत उदास थी नीलाजंना। मैं क्या करता आखिर?
“मोन्टू तू तो देना पी। एम। टी।"
“हाँ‚ दूंगा।”हालांकि मेरी रुचि आई। आई। टी। देने की थी… पर नीलाजंना का आग्रह और आई।आई।टी। लायक तैयारी की कमी की वजह से मैं ने पी। एम। टी। देना ही ठीक समझा। मेरा मोह छूटा नहीं उस कस्बे से‚ एक बार फिर पापा उसी कस्बे के पास के शहर में ट्रान्सफर होकर आए थे तब मैं पी। एम। टी। की तैयारी कर रहा था अजमेर रह कर। पी। एम। टी। देकर एक दिन के लिये मैं फिर वहाँ लौटा — नीलांजना का बी। कॉम। फाईनल इयर चल रहा था। अशोक ने भी मेडिकल की जगह कॉमर्स को चुना था।”यार करना तो बिज़नेस ही है।”का तर्क देकर।
उस दिन शाम के धुंधलके में हवेली की छत पर गवाक्षों की पड़ती टेढ़ी मेढ़ी छाया के नीचे मैं ने पहली बार खुल कर उसे कहा था —
“नीलांजना‚ क्या अब भी नहीं जान सकी कि…मैं दीदी क्यों नहीं कह सका तुम्हें?”
“पागल हो शान्तनु तुम।”
“टालो मत”
“तो क्या कहूं इस बेवकूफी पर। आकर्षण था तुम्हारा।”
“था?”
तब उसकी आंखें आश्चर्य से फैल गई थीं। मैं ने कस कर उसका हाथ पकड़ लिया था।
“था? ये जो मैं यहाँ लौट लौट कर आता हूँ… वह 'था' कैसे हो गया… आकर्षण था‚ है और हमेशा रहेगा। मेरा बस चलता तो सबसे झगड़ कर अपने घर ले जाता फिर हम साथ साथ पी। एम। टी। देते।”
उसकी आंखें भर आईं थीं। मैं ने कस कर अपनी आकार लेती देह के सान्निध्य में उस पूर्ण युवति को भर लिया था। और स्वयं को पूर्ण पुरुष महसूस कर उसे क्षणिक सहारा देकर गर्वान्वित था। पर यह गर्व व्यर्थ था। क्षीण था। यह वह भी जानती थी।
जिससे उसे सामना करना था‚ वह कस्बाई समाज का रूढ़िवादी जड़ हिस्सा था। जिसमें लड़कियों की पढ़ाई की सीमा प्राईवेट बी।ए। पर जाकर खत्म हो जाती थी। नीलांजना ने फिर भी एम। कॉम। किया। मेरा सलेक्शन मैडिकल में हो चुका था। एक बार अशोक के हॉस्टल आने पर उसीसे पता चला था कि एम। कॉम। का रिज़ल्ट आने से पहले ही उसकी शादी उस कस्बे के पास ही एक और छोटे कस्बे के रूढ़िवादी व्यापारी परिवार में हो गई है। लड़का स्वयं कुछ नहीं करता। दसवीं पास है। पिता की अथाह सम्पत्ति और इस हवेली जैसी ही एक और हवेली की कैद है … जिसमें नीलांजना स्थानान्तरित कर दी गई है।
यहाँ क्या ज़्यादातर भारतीय कस्बों‚ गांवों की लड़कियों का यही हश्र होता है। एक कैद से निकल कर दूसरी कैद…। अब जाकर बदलाव आया है शहरों में कि लड़कियां अकेले बाहर जाकर पढ़ाई और नौकरी बखूबी करती हैं‚ शादी को प्राथमिकता अपने कैरियर के बाद ही देती हैं‚ माता पिता भी स्वयं को नहीं थोपते उन पर लेकिन पता नहीं कि कस्बों में आज क्या होता है। पर शहरों में बढ़ते गल्र्स हॉस्टल यही संकेत देते हैं कि कस्बों‚ गांवों की लड़कियों में भी बदलाव आया है‚ जो ज़रा पढ़ने में अच्छी होती हैं ज़रूर आगे आती हैं। नीलाजंना तुम्हें देर से जन्म लेना था।
अशोक की शादी में उससे मिला था‚ भारी ज़री के लहंगा चुन्नी में‚ एक बच्ची को गोद में लिये नीलांजना के इस रूप से तादात्म्य नहीं बिठा पा रहा था मैं। नाराज़ था मैं। पर किससे उसी से जो इस व्यव्स्था का शिकार था? इस समाज से? उस हठीले पिता से? न जाने किस से … पर उसी से झगड़ पड़ा था मैं जो बुरी तरह आहत था।
“जल्दी पड़ी थी तुम्हें?”
“मुझे”
“विरोध…?”
“… किया था। मन किया था आत्महत्या कर लूं।”
“हार मान ली तुम जैसी लड़की ने?”
“क्या करती शान्तनु? भाग जाती? कहाँ ? तुम नहीं समझोगे। बड़े होते और मुझे संभालने लायक होते तो ज़रूर तुम्हारे पास आ जाती”
आगे क्या कहता मैं? काँप कर रह गया था‚ उसकी आंखों के आहत भाव से। उसकी बच्ची अचानक गोद में बंधे बंधे रो पड़ी थी और वह भी भारी पलकें ले कर मुड़ गई थी। अपने आप पर गुस्सा आया कि मैं भी क्या बात ले बैठा था। उसके बाद वह सब इतनी अजनबा लगा कि अशोक के रिसेप्शन तक नहीं रुक सका था मैं।
आज सब कुछ बदल गया है। पर मेरा मन अब भी उसके बारे में जानने को उत्सुक है।
“नीलाजंना… …”अशोक और मैं शादी की रौनकें छोड़ कर हॉटल की लॉबी में आ जाते हैं।
मैं सिगरेट सुलगाता हूँ। वह कहता है…
“डॉक्टर होकर सिगरेट…?”
“हाँ‚ याऽर‚ डॉक्टर हूँ‚ शायद इसीलिये… इतनी व्यस्तता है इस क्षेत्र में तनाव भी कम नहीं।”
“शादी?”
“की ना याऽर मेरी ही बैचमेट है। हम दोनों ही भागे फिरते हैं। एक बेटा है‚ बोर्डिंग में पढ़ता है।” “तू नीलांजना के लिये पूछ रहा था न…?”
“…”
“वह हारी नहीं मोन्टू… आज वह एक सफल चार्टेड एकाउन्टेन्ट है।
“कैसे?”सुखद आश्चर्य में डूब कर पूछा था मैं ने।
“बस्स‚ बेटी के ज़रा बड़े होने के बाद वह अपने पति को ज़िद करके भोपाल ले गई थी… जहाँ उनका बिज़नेस की एक ब्रान्च थी। वहाँ जाकर सी ए किया और बस सारी राहें अपने आप खुल गईं। उस जैसी टेलेन्टेड लड़की हार कैसे मान लेती? एक बार मायके आने पर मिली थी और कहा था कि कभी शान्तनु से मिलो तो कहना नीलांजना ने हार नहीं मानी‚ रास्ता बना ही लिया।”
“सच”दिल से खुश था मैं‚ एक मलाल सा जो वर्षों अवचेतन में रहता आया था अचानक मिट गया। “पर अब ससुराल वाले नाराज़ हैं।”
“हाँ अशोक‚ पर किस किस को खुश किया जा सकता है स्वयं को आहत करते रह कर भी? फिर भी सब खुश नहीं हो पाते”मैं ने ठण्डी सांस ली।
“यह बात पते की कही तूने। नीलाजंना का नम्बर ले ले कभी फोन पर ही बात कर लेना।”
हाँ उस जीती हुई लड़की को बधाई देने का मेरा बहुत मन है आज… आज ही होटल लौट कर उससे बात करुंगा। खुली हवा अच्छी लग रही थी और न जाने क्या सोच कर सिगरेट बुझा दी मैं ने।