वीराने का कोतवाल / चन्दन पाण्डेय

Gadya Kosh से
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चोरी के पारंपरिक तरीके जानलेवा और नुकसानदेह हो चुके थे। सेंध लगाने वाले स्मृतियों से अलग कहीं भी सेंध खोद पाने में अक्षम हो चले थे। पॉकेटमार असबाब कम, बेकाबू भीड़ की सेवा अधिक पाते थे। जहरखुरानी के रंचमात्र शिकार मजदूर बचे थे जो चाह कर भी इतनी धन दौलत बचा ही नही पाते थे कि जहरखुरानों का जीवन यापन हो। दूसरे, चोरी की नई चौसठ कलाएँ इतनी सशक्त थी कि ये पुराने चोर अपने शागिर्द ढूँढने में अकथ मुश्किल से दो-चार हो रहे थे।

धीरे धीरे चोर ठप्प पड़ने लगे। किसी ने साईकिल पंचर लगाने की दुकान लगा ली, कोई सब्जीमंडी में कुली लग गया। जिसने अंडे का ठेला लगाना शुरु किया आज उसके पास खपरैल का ही है पर अपना घर है। उसकी बेटी रूपा कक्षा चार की छात्रा है और उड़िया बोलती है। कारण कि उसकी माँ उड़ीसा से है।

यह नगर परिचय के पहाड़े पर टिका हुआ था। मसल के तौर पर ‘अ’ को ‘ब’ बखूबी जानते हैं और ‘ब’ से जो ‘स’ का नाता है वह बेहद ढीला ढाला है। पर इसी नाते ‘स’ को यह भरोसा है और गुमान भी कि वह ‘अ’ को जानता है। ‘अ’ चूँकि ओहदेदार है, तो वो किसी को जानने की जहमत नहीं उठाता।

एक झूठे समय की बात कि ‘द’ का कोई कीमती सामान गुम हो गया था। और यहीं स्पष्ट कर दूँ कि उन्हें वह सामान मिला नहीं पर ‘द’ ने कोशिशें बहुत की। सामान नहीं मिला पर इस पूरी प्रक्रिया में ‘द’ को जो अभिमान हुआ कि क्या कहिए। उनका सीना हरवक्त इतना फूला रहने लगा था, जितना कि सेना में भर्ती के इच्छुक रंगरूट मौके पर भी नहीं फुला पाते। हुआ यह कि नगर के सभी आला नामों ने इनकी पैरवी कोतवाल से की। इसमें भी मध्यमार्गी बहुत काम आए। ‘घ’ इन्हें ‘च’ के पास ले गया। ‘च’ ‘ण’ के पास ले जा रहा था पर रास्ते में ‘थ’ मिल गया।

उसी फलते फूलते जमाने की बात है कि झूठ से आबाद कोई नगर था। वहाँ एक कोतवाल रहते थे। उनकी एक कोतवालिन भी थी। अपूर्व सुंदरी।

उनके अरूप रूप का अमल यह था कि नवयौवनाएँ उन्हें जहर देकर मार देना चाहती थीं। क्या जवान, क्या बूढ़े और क्या कोंपल की फूट से बाहर निकल रहे किशोर, सब के सब भारती ऊर्फ कनकलता के दिव्य रूप के परस पाते ही निढाल और मलिन हो जाते थे। उनका साहस जबाव दे जाता। उन्हें घर तक पहुँचाने की कवायद भारी होती थी।

हुआ यह भी था वक्ष भार से जरा झुकी उनकी आकृति निहार कर कइयों ने जीने की इच्छा ही छोड़ दी थी। मसलन, इनके होने के आभास मात्र से लोग मृत्यु के दर्शन की चर्चा छेड़ देते। कमर के नीचे के आयतन से वो पानी पर मंथर बहती हुई नाव दीख पड़ती थी। जानने वाले जानते थे कि मल्लाह खुद कोतवाल है जिसने नाव पानी पर छोड़ रखी है। जबकि पानी अपनी धार की शुष्क और तीव्र चोट से नाव पर गहरे निशान बना रहा है, इसका पता अभी न मल्लाह को था ना ही जीने की इच्छा छोड़ चुके आशिकों को। और यह भी कि कनक का झुकना स्तनों के भार से नहीं, चंचलायमान स्मृतियों की ‘मूवी’ से था।

चूँकि जमाने पर ही अँधेरा छा रहा था इसलिए आकृति स्पष्ट नहीं हुई कि वह न्यायाधीश था या पत्रकार या फिर कमनिगाही का मरीज राजनीतिज्ञ, पर इन्हीं किन्हीं साथी से मिलकर कनकलता लौट रही थीं। सब्जी मंडी का भीड़ भड़क्का देख कर मैडम ने गाड़ीवान को रोका। खुद, उतर आईं। मंडी में इससे पहले इतनी खूबसूरत और नाजुक कोई चीज नहीं आई थी, सो क्या खरीददार और क्या विक्रेता, सब के सब काम ठप्प कर बैठ गए। यहाँ होना यह था कि मैडम कुछ खरीद फरोख्त करतीं और कितनों के सीने से दिल निकाल वहीं के वहीं मरोड़ कर चल देतीं। पर यह नहीं हुआ।

शाश्वत से लगते सन्नाटे में मैडम की निगाह अपनी उँगली पर गई - बाएँ हाथ की बड़े बड़े पोरों वाली लंबी और पतली उँगली से अँगूठी गायब थी। जिसने जाना, वे अपनी ही जगह पर बुत बन गया। शहर कोतवाल की बीवी के अँगूठी उनके हाथ से गायब! मैडम ने तुरत फुरत अपना मोबाईल फोन निकाला और साहब को फोन लगा दिया।

यह खबर और इससे उपजा भय धुँए की तरह शहर पर पसर गया। कोतवाल ने सभी थाने और पुलिस चौकी पर फोन घुमा दिया। शहर के दरोगाओं के लिए आज इम्तिहान था। अबोला कर्फ्यू अगर कुछ होता है तो वही शहर पर छा रहा था। मैडम अपनी लरज सँभालते हुए घर आईं। आईं और बिखर गईं।

कोतवाल ने तमाम तरीके से मनाने की कोशिशें की। अँगूठी तो अँगूठी, सुनारों को ही घर पर बुला लिया। वे मूँगा, मोती, हीरे और सोने की खदान तक साथ में लाए पर कोतवालिन के सलोने मुखड़े पर लालिमा गर्दिश की तरह फैली हुई थी, वह जा ही नहीं रही थी। सबका कहना यही था कि शहर कोतवाल की बीवी जिस शहर में सुरक्षित नहीं, वहाँ की आम अमरूद जनता जाए तो कहाँ जाए। ऐन उसी पल सभी थानेदारों के फोन आने शुरू हुए : कुल चालीस चोर पकड़े गए हैं।

इन चालीस में इक्कीस वे थे जिन पर वस्तु चोरी के आरोप फ्रेम की तरह मढ़े हुए थे। साईकिल पंचर लगाने वाला, सब्जी मंडी का कुली, अंडे बेचने वाला सभी के सभी शामिल थे। ग्यारह जनों की शक्लें पिछली पीढ़ी के नामी चोरों से मिलती थीं। बाकी बचे आठ लोगों पर उनके जमानों में दिल चुराने का आरोप लगा था, इसलिए उन्हें भी बुला लिया गया था।

कोतवाल ने शहर में जो आदेश दिए हों पर घर में पत्नी का चेहरा उससे देखा नहीं जा रहा था। उसने कोतवालिन को ओढ़कर मनाया, बिछा कर मनाया, आड़ी तिरछी सारी कलाएँ आजमा लीं पर कोतवालिन का मलिन चेहरा उनके पूरे व्यतित्व को लेकर लाईलाज डूबे जा रहा था। पर हुआ यह कि एक खबर ने कोतवाल के चेहरे पर रौनकें बिखेर दीं।

पहर दो पहर बाद की बात है। थक कर चूर, सभी थानेदारों ने मिलकर यह खबर दी : चालीस के चालीस, सभी चोरों ने अपना अपना गुनाह कबूल लिया है। कोतवाल ने कहा : ‘गुड’ ‘वेलडन’, वे अँगूठियाँ कब तक लौटा रहे हैं? इस तरह थानेदारों ने सभी चोरों को एक दिन की मुहलत दी और अगले दिन कोतवालिन के पैरों पर एक एक तोले वाली सोने की चालीस अँगूठियाँ पड़ी हुई थीं। सबकी नक्काशी हू ब हू वैसी ही थी जैसी मैडम की खोई अँगूठी। किसी में न एक सूत कम की बनावट, ना एक सूत अधिक का खिंचाव।

मैडम की उदासी चालीस तोले सोने के साथ गई या समय के साथ, ठीक ठीक नहीं बताया जा सकता। जो हो सकता था, वही हुआ और वह यह कि चालीस अँगूठियाँ एक साथ पहनना कहाँ संभव था। इस खातिर सुनार बुलाए गए। उन सबने मिलकर चालीस अँगूठियों को गलाकर, नए नुकूश वाला एक करधन बना डाला।

करधन के लिए कोतवालिन ने अपनी सुडौल कमर का माप एक हरे धागे पर लिया था। पहले गुलाबी धागे के सहारे माप लिया जा रहा था पर धागे और शरीर के उस बेचैन हिस्से के रंग इस तरह यक्साँ थे कि धागा उनके शरीर में गुम - बहुत गुम हो जा रहा था। अगर करधनी की कहानी बतानी न होती तो मैं उस धागे का किस्सा जरूर बताता जो कनकलता के शरीर का स्पर्श अपने में सँजोए था और जिसे छूते ही सुनार की हड्डियों में छुपा ज्वर बाहर निकल आता।

करधन तैयार हुआ और यह खबर सुगंध की तरह उड़ी कि वैसी करधनी नगर के इतिहास में नहीं बनी थी। सारा शहर करधनी देखने के लिए बावला हुआ जा रहा था। करधन की सुघढ़ नक्काशी को लेकर जो सूचनाएँ या अफवाहें आ रही थीं उनमें से तीनों की तीनों का एक दूसरे से कोई मेल न था। राजनीतिज्ञ और विचारक खेमे से खबर यह उड़ी थी कि करधन की एक सौ आठ लड़ियों में समूची राम कथा पिरोई हुई है। दूसरी तरफ, पत्रकार और बुद्धिजीवी खेमे की आवाज में सुना यह जा रहा था कि करधन की बारीक झालरें प्राचीन गुफाओं की याद दिला रही हैं। कारीगर ने कमाल कर दिखाया है।

इनसे अलग न्यायाधीश और न्यायविद के खेमे का सुर था। उनके अनुसार, हो न हो, लड़ियों की कुल संख्या उतनी ही है जितनी संविधान में मौजूद, इधर उधर बहती हुई, धाराएँ। उन झालरों पर जो चित्र हैं वे हरेक धारा को नीति कथा में बदल कर दिखाते हैं। यह जनता के लिए सीखने और नैतिक होते जाने का भला मार्ग प्रशस्त करता है। न्यायाधीश का जो कुछ अनुभव था वह धूसर रोशनी का दिया था।

तीनों की नींद हवा हो चुकी थी। कोतवालिन के मन में क्या था इसे तो कोई थाह नहीं पाया पर ये लोग कोतवालिन से बेइंतिहा इश्क रखते थे। तीनों ने तीन अलग अलग मौको पर और तीन अलग अलग रोशनियों में इस करधन को देखा था पर तीनों के मन में समान उत्पात मचा था।