वीरान / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

Gadya Kosh से
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जया को आज महिला दिवस समारोह की रिपोर्टिंग में जाना है। पिछले दस सालों से वह इसी क्षेत्र में है, यहाँ एक आंटी के घर पेयिंग गेस्ट बनकर रह रही है। पापा मम्मी की आज्ञा है कि अकेली लड़की को घर लेकर नहीं रहना है। वैसे आंटी स्नेह और देखभाल में मम्मी से कम नहीं। रोज़ सुबह का नाश्ता और रात का खाना जया आंटी के संग करती है। उनकी छत्र-छाया में वह अपने को परिपूर्ण मानती है। इधर अकेलेपन की पीड़ा से गुज़र रही आंटी का चेहरा तो ऐसे खिल जाता है जैसे सूखे पत्ते में पानी का संचार या तपती धूप में गंगा विहार। बेचारी अपने सुखमय जीवन के प्रेत के साथ ही तो इस घर में घूमती फिरती रहती है। विधवा आंटी के कहने को तो बेटा बहू है, पर दोनो जॉब में हैं। अक्सर खाना-पीना, सैर-सपाटा बाहर ही होता है बस सोने के लिए दोनो घर आते है। पिछले पाँच वर्षो में उसने कभी भी बेटा बहू को आंटी के पास बैठते या बोलते नहीं देखा है। हाँ, आंटी ज़रूर बेचैन रहतीं है उनकी सुख सुविधायों की व्यवस्था में।

आज सुप्रभात के साथ ही जया ने आंटी से कहा मैं सेमिनार में जा रहीं हूँ, आप चलोगी क्या? आंटी खिल उठी। धन्यवाद बेटी तुमने मुहे इस लायक समझा, जबसे ये गाएँ है मैं कहीं बाहर नहीं ग़ई. मैं अभी तैयार होकर आती हूँ। फुदक्ति आंटी पंद्रह मिनिट में ही उसके साथ गाड़ी में बैठ गई. स्नेहवश या कृतज्ञता से आंटी की आँखों से अनवरत अश्रुपात होता देख जया विह्वल हो आंटी से लिपट जाती है-"बस आंटी मैं भी आपकी बेटी हूँ। हाँ काई जन्मों की-तभी तो मुझे सुख देने आई हो" आंटी हस पड़ी।

सभागार में जया आंटी को नियत स्थान पर बैठाकर अपने काम में व्यस्त हो गई. वर्तमान सन्दर्भ में नारी की कुंठा, तनाव, अपेक्षा, उपेक्षा, कर्तव्यशीलता और त्याग पर बड़ी-बड़ी बाते कही गई. धर्मशास्त्र को कठोर बताया गया जहाँ पति की पूजा को धर्म और हर हाल में निभाने की प्रवृति की मोक्ष बताया गया। अब पूजा के लिए पति को भी तो देव बनना परेगा? अगर वह वरदान के बदले श्राप देता है तो पूजा का अर्थ ही अनर्थ है। ज़िंदा लाश बनने से अच्छा नरक भोगना है। जब भोगना ही नारी की नियती है तो सज़ा भी सम्मान से भोगेगे, क़ैद में क्यों? सारी बातों का निचोड़ जया की समझ में यहीं था।

सहसा शांत बैठी आंटी पर जया की नज़र गई. वह माइक लेकर वहाँ पहुची-"आंटी अपनको कुछ कहना हैं?" आंटी ने बोलना शुरू किया-" हम जग में सृष्टि सर्जन के लिए आएँ है। कुरूप को सुंदर कैसे बनाया जाए यह हुमारा लक्ष्य होना चाहिए. कांटो में उलझकर अपना समय व्यर्थ गवाने की अपेक्षा हमे शांत और न्यायोचित जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए. सम्मान केवल माँगने से नहीं मिलता। शांति हमारा संस्कार है, हम अपनी समस्याओं को सहज रूप में भी रख सकते है और ज़रूरत परने पर अपना मार्ग भी बदल सकते है। हमे हमेशा वहीं बनना चाहिए जो हम बनना चाहते है नाकी वह जो दूसरे हमे बनाना चाहते है। यहाँ अपनी बात कहने के लिए मैं एक कहानी रखती हूँ-संत सुकरात की पत्नी क्रोध में आकर बहुत-सी ऐसी बातें कहती थी जो उससे नहीं बोलना चाहिए. एक दिन एक शिष्य ने कहा, प्रभु माता आपके योग्य नहीं। सुकरात हसकर बोले-नहीं, वह ठोकर मारकर मुझे देखती है मैं पक्का हूँ अथवा कच्चा यानी मेरी सहनशक्ति कहाँ तक है। मेरा गुण इसके कारण ही निखार रहा है। अगर मैं प्रतिवाद करता तो महात्मा कैसे बनता। उलझने से समस्याएँ गहरी होती है और समय का अपव्य होता है। वर्तमान में ही निर्माण का अमृत बीज है। अवसर देखकर स्वस्थ विचारों के खाद पानी से उसे फलने फूलने का अवसर देना चाहिए.

तो बहनो यदि हम खुद पर विश्वास रखे तो एक सुखद समाज की रचना में सक्षम हो सकते है। एक शून्य एक विराम में भी जब हम परिपूर्ण होंगे तभी किसी सहारे का मोखताज नहीं होगे और अपने सुखमय जीवन की छाया में औरों के सुख का विस्तार कर पाएँगे। " हॉल तालियों से गूँज उठा। सभी विस्मित होकर आंटी की ओर देख रहे थे। किसी को अनुमान भी नहीं था कि साधारण-सी दिखने वाली महिला आज के समारोह में गोल्ड मेडल ले जाएगी।