वीसी की सीवी / राजकिशोर
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय अगले महीने की 28 तारीख को पद-मुक्त हो रहे हैं। उस दिन या उसके दो-चार दिन पहले। वहाँ उनका भव्य विदाई समारोह होना निश्चित है। स्वागत और विदाई समारोह झूठी प्रशंसा के प्रचंड ज्वालामुखी होते हैं। इस प्रशंसावली से कुछ व्यक्तियों की छाती फूल जाती है। वह अपने को दुनिया का सब से महत्वपूर्ण व्यक्ति समझने लगते हैं। विभूति बाबू ऐसे नहीं हैं, वह तुरंत ताड़ जाते हैं कि कोई उनकी प्रशंसा या निंदा क्यों कर रहा है? अपने बारे में ऐसी तटस्थता मैंने कम ही देखी है। मार्क करने की बात यह है कि वे अपनी निंदा में भी रस लेते हैं, अक्सर मुसकराते हुए और कभी-कभी हँसते हुए वह बताते हैं कि क या ख उनके बारे में क्या कह रहा था? फिर उसी अंदाज में बताने लगते हैं कि क या ख ने ऐसा क्यों किया होगा? काश, हम सभी में यह खूबी विकसित हो पाती। तब हमारा जीना कितना आसान हो जाता। किसी भी कुलपति का जीवन आसान नहीं होता। यूँ समझिए कि उसे एक छोटी-मोटी सरकार चलानी होती है। जहाँ सरकार होगी, वहाँ विपक्ष भी होगा। विश्वविद्यालय की सरकार भी पाँच वर्ष के लिए होती है। फिराक गोरखपुरी का एक शेर है - 'सुना है जिंदगी है चार दिन की। बहुत होते हैं यारो चार दिन भी।' बहुत से कुलपतियों के बारे में सुना है कि अपने कुछ लक्ष्य पूरे हो जाने के बाद वे अधेड़ बहादुरशाह जफर की तरह वक्त काटने लगते हैं। मुझे विश्वास है कि अपने कार्यकाल के अंतिम दिन भी विभूति बाबू सुबह की सैर पर निकलेंगे, तो जहाँ भी उन्हें कुछ कमी दिखाई देगी जैसे किसी पौधे को पानी नहीं दिया गया है, कहीं गंदगी जमा है, कहीं रास्ते में पत्थर पड़े हुए हैं या किसी साइनबोर्ड में वर्तनी की भूल है तो उसे दूर करने के लिए वह संबंधित व्यक्ति को जरूर चेताएँगे। विभूति बाबू को सफाई और व्यवस्था का एक तरह से एडिक्शन है। मुझे अपने ऑफिस का पहला दिन कभी नहीं भूलेगा। आम तौर पर कोई भी कुलपति यह देखने नहीं आता कि किसी अधिकारी को जो कक्ष आवंटित किया गया है, उसकी हालत कैसी है। उसे अपने को देखने से ही फुरसत नहीं मिलती। हिंदीसमयडॉटकॉम के संपादक के रूप में जब मुझे अपना कमरा - वर्जीनिया वूल्फ का अपना कमरा नहीं - मिला, तब स्वयं विभूति बाबू मेरे साथ आए और जाँच करने लगे कि कहीं कोई खामी तो नहीं है। छत के एक कोने में जाले लगे हुए थे। उनकी निगाह उधर गई तो तुरंत उन्होंने सफाई कर्मचारी को बुलवा कर उसे हटवाया। उनका यही दृष्टिकोण विश्वविद्यालय के कण-कण के प्रति रहा है। शायद ही कोई कुलपति अपने विश्वविद्यालय को उतनी बारीकी से जानता होगा जितना विभूति नारायण राय अपने विश्वविद्यालय को जानते हैं। वह जुनूनी आदमी हैं और जुनूनी आदमियों को प्यार करते हैं। भीतर से हर आदमजाद जटिल होता है। विभूति बाबू भी होंगे, लेकिन यह उनकी अपनी दुनिया है। दूसरों का पाला तो उनकी सरलता से ही पड़ता है। 2010 के जून महीने में एक दिन अचानक उनका फोन आया था कि आप आवासी लेखक के रूप में वर्धा आ जाइए। इतनी सरलता से कोई काम मुझे कभी नहीं मिला था और जमाने की रंगतें देख कर दावा कर सकता हूँ कि न अब कभी मिलेगा। बाद में इसी सरलता से उन्होंने मुझे हिंदी समय के संपादन के लिए चुन लिया। अन्य कइयों के साथ भी उन्होंने ऐसा ही किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह इसकी कीमत वसूल नहीं करते। अपने सभी शुभचिंतकों को, जिन्हें मैंने देखा भी नहीं है पर जो मेरे चरित्र पर हमेशा निगाह रखते हैं, मैं आश्वस्त करना चाहता हूँ कि वर्धा में मैं किसी के हरम में नहीं रहा, न इसके लिए कभी आमंत्रित किया गया। सचमुच, किसी के हरम में कोई पाँव रखता है तो अपनी मर्जी से रखता है। पतन के लिए कोई किसी को बाध्य नहीं कर सकता। वर्धा प्रवास में जिन दिलचस्प व्यक्तियों से मुलाकात हुई, उनमें आलोकधन्वा और रामप्रसाद सक्सेना का स्थान सब से ऊपर है। दोनों में कुछ प्रवृतियाँ कॉमन हैं। दोनों ही से दस मिनट से ज्यादा बात करते रहने के लिए गहरा प्रेम और अपरिमित धैर्य चाहिए। आलोकधन्वा अत्यंत प्रतिभाशाली कवि रहे हैं। वक्ता भी वह गजब के हैं। सक्सेना जी भाषाविज्ञान की बारीकियों के जानकार हैं। वह स्वगत बोलने के आदी हैं। मजाल है कि उनके सामने कोई जी और हाँ के अलावा कुछ और बोल सके। यह विभूति बाबू की विलक्षणता है कि उन्होंने न केवल कविवर को पौने दो साल तक प्रेमपूर्वक झेला, बल्कि भाषाविज्ञानी को एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी, जिसका ठीक से निर्वाह न होने पर भी उसे सादर सहते रहे, लेकिन दोनों ही मामलों में अंततः यही साबित हुआ कि सब्र की भी सीमा होती है। जो जितना सरल होता है, वह उतना ही अधिक उपलब्ध रहता है। जब मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब मुझे वहाँ के वीसी या प्रो. वीसी को देखने का एक भी अवसर नहीं मिला। हम सभी के लिए वह सिर्फ नाम या व्यक्ति थे। वर्धा विश्वविद्यालय में जो व्यक्ति मिलने के लिए सबसे ज्यादा उपलब्ध था, वह स्वयं वीसी थे। वह अफसर थे और जरूरत पड़ने पर अफसरी भी दिखाते थे, पर उनकी अफसरी में यह शामिल नहीं था कि उनसे मिलने के लिए किसी की सिफारिश लगानी पड़े। कोई टोक सकता है कि मैं विभूति नारायण राय की तारीफ पर तारीफ क्यों किए जा रहा हूँ, क्या मुझे उनकी कमियाँ दिखाई नहीं देतीं? निवेदन है कि मैं यहाँ उनकी समीक्षा करने नहीं बैठा हूँ। यह काम चित्रगुप्तों का है। मैं तो वही बातें लिखना चाहता हूँ जो वीसी की सीवी में जोड़ने लायक हैं। हर समाज में ऐसे अनेक व्यक्ति होते हैं जिनकी सीवी का कुछ हिस्सा दूसरों को अवश्य लिखना चाहिए।