वृंदावनलाल वर्मा / परिचय
जीवन
प्रेम और इतिहास को पुर्नसृजित करता साधक वृंदावनलाल वर्मा !
हिन्दी साहित्य के ‘वाल्टर स्कौट’ कहे जाने वाले श्री वृंदावनलाल वर्मा का जन्म 9 जनवरी 1889 को मऊरानीपुर के ठेठ रूढिवादी कायस्थ परिवार में हुआ था। विक्टोरिया कालेज ग्वालियर से स्नातक तक की पढाई करने के लिये ये आगरा आये और आगरा कालेज से कानून की पढाई पूरी करने के बाद बुन्देलखंड (झांसी) में वकालत करने लगे। इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये उन्नीस साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बद्व का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति ऊदल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था।
ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी।
इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि गद्य रचनायें लिखी हैं साथ ही कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
इनकी प्रमुख रचनायंें इस प्रकार हैंः-
प्रमुख ऐतिहासिक उपन्यासः-गढ़ कुन्द(1927), विराट की पद्मिनी(1930), मुसाहिबजू(1943), झांसी की रानी(1946), कचनार(1947), माधवजी सिंन्धिया(1949), टूटे कांटे(1949), मृगनयनी(1950), भुवन विक्रम(1954), अहिल्या बाई(1955),
प्रमुख सामाजिक उपन्यासः- संगम(1928), लगान(1929), प्र्र्र्र्रत्यघात(1929), कुण्डली चक्र(1932), प्रेम की भेनी(1939), कभी न कभी(1945), आचल मेरा कोई(1947), राखी की लाज(1947), सोना(1947), अमर बेल(1952),
प्रमुख नाटकः- झांसी की रानी(उपन्यास पर आधारित), हंस मयूर(1950), बांस की फांस(1950), पीले हाथ(1950), पुर्व की ओर(1951), केवट(1951), नीलकंठ(1951), मंगल सूत्र(1952), बीरबल(1953),ललित विक्रम(1953), इनके द्वारा लिखी गयी लघु कहानियां भी सात संस्करणों में प्रकाशित हुयी हैं जिनमें से कलाकर का दर्द(1943), और श्रंघात सृंघात(1955), विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
इनकी आत्म कथा ‘अपनी कहानी’ भी पाठकों द्वारा अत्यधिक सराही गयी है। हांलांकि इनकी ख्याति ऐतिहासिक गद्य लेखक के रूप में रही है परन्तु इनके नाटकोें में कई स्थानों पर कविता के अंश भी अंकित हुये है जिन्हें 1958 में डॉ0 रामविलास शर्मा के संपादन में प्रकाशित ‘समालोचक’ में सम्मिलित किया गया है।
इनके उत्कृष्ट साहित्यिक कार्य के लिये आगरा विश्वविद्यालय तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इन्हे क्रमशः ‘साहित्य वाचस्पति’ तथा ‘मानद डॉक्ट्रेट’ की उपाधि से विभूषित किया एवं भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से भी अलंकृत किया गया। भारत सरकार ने इनके उपन्यास ‘झांसी की रानी’ को पुरूस्कृत भी किया है।
अंतरराष्ट्रीय जगत में इनके लेखन कार्य को सराहा गया है जिसके लिये इन्हे ‘सोवियत लैन्ड नेहरू पुरूस्कार’ प्राप्त हुआ है। सन् 1969 में इन्होने भौतिक संसार से विदा अवश्य ले ली परन्तु अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेम ओर इतिहास को पुर्नसृजित करने वाले इस यक्ष साधक को हिन्दी पाठक रह रह कर याद करते रहते हैं तभी तो इनकी मृत्यु के 28 वर्षो के बाद इनके सम्मान में भारत सरकार ने दिनांक 9 जनवरी 1997 को एक डाक टिकट जारी किया।
इनके द्वारा लिखित सामाजिक उपन्यास ‘संगम’ और ‘लगान’ पर आधारित हिन्दी फिल्में भी बनी है जो अन्य कई भाषाओं में अनुदित हुयी हैं।
आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला