वृक्ष की छांह की बटमारी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :08 अप्रैल 2016
क्रिकेट का एक पर्व समाप्त हुआ और दूसरा तमाशा शुरू होने जा रहा है। आईपीएल से खिलाड़ियों को मोटी रकम मिलती है, टेलीविजन प्रसारण महंगे दामों में बिकता है और क्रिकेट मोह के अंधों के इस सावन में सब जगह हरा-हरा ही दिखाई देगा। ऐसे मदहोश मौसम में उस विरोध की आवाज को पागल का प्रलाप ही माना जाएगा, जो किसानों के फसल मौसम में बिजली की कमी की बात करते हुए आईपीएल के रातों में खेले गए मैच में अनगिनत बिजली वॉट्स की हानि का प्रश्न उठाएगा और इस कॉलम में विगत नौ वर्षों से उठाई आवाज इस नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह बेअसर सिद्ध हो रही है। अब संसद में प्रश्न पूछने के लिए धन लेने की बात सामने आ रही है तब किसी कलमनवीस को अपनी कलम बेचकर आवश्यक धन जुटाना चाहिए परंतु आज बाजार में कलम का कोई खरीददार ही नहीं है। सारांश यह कि तमाशा जारी रहेगा जैसा सदियों से जारी है और हम अनंत अनीश्वर दर्शक भूखे पेट पर सब्र की पट्टी बांधकर तालियां बजाते रहेंगे। वॉट दर वॉट बूंद दर बूंद पानी अनंत प्यास की मरूभूमि में लोप हो जाएगा। इसमें तो वह ध्वनि भी नहीं होती, जो गरम तवे पर पड़ी पानी की बूंद से आती है।
आईपीएल तमाशा ग्रीष्म ऋतु में रचा जाता है, क्योंकि अनेक शीतल पेय की कंपनियों से विज्ञापन मिलते हैं। पहले भारत में क्रिकेट ठंड के दिनों में खेला जाता था और ब्रिटेन के समर में धूप से विटामिन पाने के लिए यह खेल रचा जाता था। पानी की तरह धूप भी जीवनदायक है। भूमध्य रेखा के ईर्द-गिर्द बसे देशों में तपते सूर्य के कारण अनगिनत कीटाणु मर जाते हैं अन्यथा हमारी जीवन शैली तो रोग ही उपजाती है। ऊंची आग पर छौंक-बघार में सब्जियोें से विटामिन गायब हो जाते हैं। हम खाने की चीजों के सत्व को मारने के विशेषज्ञ हैं। भूख ने ही हमें बड़े प्यार से पाला है। सपनों के तवे पर सेंकी हुई रोटियां खाकर भी हम डकार लेने में महारत रखते हैं। शोषण करने वाली शक्तियों ने बड़ी कला से महीन बुनावट की है। धागे भीतर धागा, रेशे भीतर रेशा क्या खूब सामाजिक चदरिया बुनी है। आईपीएल तमाशा देश की ऊर्जा लील रहा है और कर्णधार खिलाड़ियों को तमगे देकर आत्म-मुग्ध हो रहे हैं। आईपीएल की अफीम के हम आदी होते जा रहे हैं। टेलीविजन पर यह तमाशा देखते हुए बर्गर पिज्जा खाया जाता है और त्वरित भोज हमारी पूरी जीवनशैली को आहिस्ते-आहिस्ते बदल रहा है। पश्चिम ने हमारे लिए कई मायाजाल रचे हैं और बर्गर-पिज्जा नए मोहपाश हैं। पश्चिम तो बहाना है, हम हमेशा पलायन के लिए तत्पर रहे हैं। रेत में अपना सिर धंसाकर ही हम आते हुए तूफान को नज़रअंदाज करते हैं। इस तमाशे से सबसे बड़ी हानि क्रिकेट के पाठ्यक्रम की हो रही है। आड़े बल्ले से मारे गए शाट्स पर खूब तालियां पड़ती हैं।
हम तो रोजमर्रा के जीवन में भी सीधे बल्ले से खेलना भूल गए हैं। पाठ्यक्रम में वर्णित नियमों को तोड़ना हमें हमेशा भला लगता रहा है। पाठ्यक्रम ध्वस्त करने के अालम में भी कोहली की तरह कुछ विरल खिलाड़ियों ने यह सिद्ध किया है कि कॉपी बुक ढंग से खेले जाकर भी तीव्र गति से रन जुटाए जा सकते हैं। हमारे किवदंती बने कैप्टन मुश्ताक अली ने आईपीएल के जन्म के बहुत पहले उसी शैली में बल्लेबाजी की थी। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि क्रिकेट संगठन की अपनी राजनीति के तहत तब के कलकत्ता (कोलकाता) में खेले जाने वाले मैच में उनका चयन नहीं हुआ और हजारों की संख्या में जुलूस निकल गए, जिनके बैनर पर लिखा था, 'नौ मुश्ताक, नो क्रिकेट।'
ग्रीष्म में क्रिकेट खेले जाने के कारण विज्ञान ने ऐसे पेय बनाए हैं, जिन्हें पीकर खिलाड़ी डिहाइड्रेशन से बचते हैं। खेल-कूद जगत में विज्ञान अत्यंत सहायक सिद्ध हो रहा है। चोटग्रस्त खिलाड़ी को इंजेक्शन देकर दर्द से उस समय के लिए मुक्ति दिलाई जाती है। खेल के मैदान में ठीक तो हो जाती है परंतु खिलाड़ी के उम्रदराज होने पर शरीर के इन अंगों में दर्द की नई लहर चलती है और उस समय आप अपनी गुमनामी के अंधेरों से जूझ रहे होते हैं। स्मृति में बजती तालियों की गिज़ा का रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में नहीं समझा जा सकता। कितने ही नेताओं को तालियों के अभाव ने नैराश्य में धकेला है। कोई आडवाणीजी से उनके दिल का हाल पूछें। उनका लगाया दरख्त ही अब उन्हें छाया नहीं दे रहा है। दरख्त के फल ही हीं उसकी छाया की भी बटमारी हो रही है। कैसे-कैसे अय्यार नित नए मुखौैटों में हम देख रहे हैं।