वृत्त चित्रों की घटती लोकप्रियता का रहस्य? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :31 मार्च 2015
प्रतिवर्ष काठमांडू में 18 नवंबर से 22 नवंबर तक दक्षिण एशिया के देशों के वृत्त चित्रों को दिखाया जाता है और शेष रचनाएं पुरस्कृत होती हैं। यह कार्य 'फिल्म साउथ एशिया' नामक संस्था करती है और इसकी निर्देशक मीतू विगत वर्ष के वृत्तचित्र उत्सव की पुरस्कृत रचनाओं को लेकर इंदौर आईं। यहां सिने विजन ने इन फिल्मों को दिखाने का आयोजन इंदौर विश्वविद्यालय में 27 एवं 28 मार्च की शाम किया। मीतू वर्मा ने बताया कि गोवा में आयोजित अंतरराष्ट्रीय समारोह ने वृत्त चित्र श्रेणी समाप्त कर दी है। मीतू ने कानून की पढ़ाई कर पत्रकारिता की और सत्य के आग्रह के कारण वृत्तचित्र से जुड़ीं। सुखदेव का नेहरू पर बनाया वृत्तचित्र 'एंड माइल्स टू गो बिफोर आई स्लीप' इस श्रेणी में क्लासिक है। डॉ. अपूर्व पुराणिक ने कहा कि जाते हुए बसंत में यह आयोजन हुआ है। गौर करें कि ऋतुओं को कौन नष्ट कर रहा है। विकास की दौड़ में हम बारहमासी ग्रीष्म की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
बहरहाल उद्घाटन वृत्तचित्र या भारत का 'इनवोकिंग जस्टिस'। दीपा धनराज की इस फिल्म में भारत की पहली मुस्लिम महिला जमात के जन्म और संघर्ष की कथा थी। पुरुषों ने अपनी सुविधानुसार सारे धर्मों को परिभाषित किया है और महिला वर्ग का शोषण हर स्तर पर किया जा रहा है। दूसरा वृत्त चित्र बर्मा की पांच युवा लड़कियों के अपने रॉक बैंड बनाने के संघर्ष की कथा थी। एक तरह से दोनों वृत्त चित्रों के बीच एक रिश्ता है। एक दल ने थानों और न्यायालयों के चक्कर काटे तो दूसरे ने प्रतिरोध के लिए अदालत के बदले संगीत का प्रयोग किया। तानाशाह चीन में भी युवा वर्ग गुप्त तलघरों में अपना रॉक बैंड स्थापित करते हैं और वे जाने कैसे गांधीजी को अपनी प्रेरणा मानते हैं। उन्होंने गांधी की तस्वीर में उनके हाथ में गिटार थमा दिया है।
संयोग है कि राकेश मित्तल द्वारा आयोजित वृत्त चित्र देखने के पूर्व मैं कुमार अंबुज की 'पाखी' में प्रकाशित कथा 'स्फटिक' पढ़ रहा था। यह कथा को उनकी कविता 'क्रूढ़ता' का पूरक भी माना जा सकता है। कथा का नायक दिल दहलाने वाले वृत्त चित्र को देखकर इतना भतभीत हो जाता है कि उसे हर व्यक्ति यहां तक परिजन भी हत्यारे लगते हैं। नायक पागलपान की सीमा पर खड़ा है। वृत्त चित्र में एक देश के चुनाव जीता सत्ता पक्ष के एक सहयोगी संस्था में एक गुप्त प्रकोष्ठ की रचना की जाती है, जिसके सदस्य सत्ता के विरोधियों का कत्ल करते हैं। अंतिम भाग में इस गुप्त संगठन का 55 वर्षीय व्यक्ति अपना भव्य भवन दिखाता है जहां संसार की दुर्लभ मूर्तियां व पेंटिंग रखी हैं और वह कातिल सगर्व अपने को कला पारखी कहता है, परिष्कृत कला दृष्टि का गुणगान करते हुए अपने द्वारा किए सैकड़ों कत्ल का विवरण देता है। आत्मा तक कांप जाने वाली बात यह है कि जिस सरलता से वह हत्यारों की बात करता है, उसी स्वर में कलाकृतियों का जिक्र करता है।
यह तानाशाह कातिल का कला प्रेम उसका मुखौटा है। सारांश यह है कि इस वृत्त चित्र का घातक प्रभाव से उभरने के बाद नायक अपनी पत्नी के साथ एक हिल स्टेशन जाता है। शहर में महारानी अमीर व्यक्ति की स्मृति में बनाए संग्रहालय को देखने जाता है। वहां मूर्तियां पेंटिंग अत्यादि उसे वृत्त चित्र की याद दिलाते हैं। वह सुंदर संगमरमर की आकृतियों के बीच घूम रहा है, उधर वृत्त 'एक्ट ऑफ किलिंग' उसके दिमाग में घूम रही है और संयुक्त प्रभाव में वह उन बेशकीमती आकृतियों पर वमन कर देता है। उसकी उल्टी की गंध और गंदगी संग्रहालय की सुंदरता को नष्ट करती है। यह वमन संशित अनअभिव्यक्त क्रोध है- अन्याय।
अत्याचार के सामने बेबसी का आम आदमी लाचार है। खामोश दर्शक है और आंखों के सामने इतिहास व संस्कृति को मनचाहे ढंग से परिभाषित होते देख रहा है। तानाशाह रूप बदलने की कला में माहिर है। वह नर सम्राट है, वह बाबू खत्री का अय्यार है। समाज के आइने में उभरी सैंकड़ों छवियों से कोई नहीं लड़ सकता। यह कुमार अंबुज की श्रेष्ठ कथा है जिसकी प्रेरणा उन्हें एक वृत्त चित्र से मिली, जिसका नाम एक्ट ऑफ किलिंग है, और इसे कुछ लोग 'एक्ट ऑफ मर्सी (दया)' भी कह सकते हैं।