वृद्धावस्था की समस्याओं के कारण / सत्य शील अग्रवाल

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सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन

जैसे मानव के प्रयासों से भौतिक परिवर्तन आते हैं, जिन्हें हम विकास अर्थात उन्नति के नाम से जानते हैं, उसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था भी गतिमान रहती है.आवश्यकताओं के अनुरूप सामाजिक परिवर्तन भी आते रहते हैं.वैसे भी परिवर्तन होना प्रकृति का नियम भी है. अतः निरंतर परिवर्तन तो होते रहेंगे और उन्हें स्वीकार कर लेना हमारी मजबूरी भी है, और आवश्यकता भी. युवा वर्ग उस परिवर्तन को शीघ्र अपना लेता है, परन्तु बुजुर्ग अक्सर प्रत्येक परिवर्तन का विरोध करते पाए जाते हैं.

बुजुर्ग व्यक्ति अपने बाल्यकाल एवं यौवनावस्था में प्रचलित परम्पराओं और सामाजिक व्यवस्था को श्रेष्ठ बताते हैं, और उन्हें आदर्श संस्कार का नाम देकर महिमा मंडित करते हैं.अनेक प्रकार के अपराध और कदाचार पहले भी थे, अब भी है और भविष्य में भी रहेंगे.कुछ मापदंड अवश्य बदल जाते हैं. घर के बुजुर्ग प्रत्येक नयी उपलब्धि अथवा सुविधा का विरोध करते देखे जाते हैं.वे उनमे अवगुण ढूंढ कर परेशान होते हैं, और आधुनिकता को कोसते हैं.उदहारण के तौर पर जब टी.वी.घरों में पहुंचे तो उसे बच्चों को बिगाड कर रख देने वाला डिब्बा करार दिया और उससे दूर रहने की हिदायत दी गयी.धीरे धीरे टी.वी. कलर टी.वी. में बदल गए, तो भविष्य में सबको अंधा कर देने वाला इडियट बॉक्स कहा जाने लगा. परन्तु फिर भी ब्लैक एंड व्हाइट और तत्पश्चात कलर टी.वी.घर घर का हिस्सा ही नहीं बल्कि एक आवश्यकता बन गए.क्या अब सभी के आँखों पर चश्में चढ चुके हैं? आज सभी जानते हैं की टी.वी.को कितनी दूर से देखना उचित रहता है और आँखों को नुकसान नहीं होता.और तो और अब घर के बुजुर्ग अपने खाली समय में आस्था, संस्कार जैसे धार्मिक चैनल देख कर टी.वी.को इश्वर का अद्भुत वरदान मानते हैं.कहने का तात्पर्य यह है की आखिर कार बुजुर्गों को भी इसके लाभ दिखाई देने लगे.

इसी प्रकार प्रारंभ में मोटर साईकिल और कारों को मौत का अवतार बताया गया, बिजली के आने को खतरे की घंटी बताया गया, घरों में गैस के चूल्हे आने पर घर में बम के गोले का नाम दिया गया.अर्थात प्रत्येक नए उपकरण का विरोध किया गया, परन्तु सभी वस्तुएँ आज लाभकारी, कल्याणकारी साबित भी हो रही हैं, और वर्तमान समय की आवश्यकता भी बन गयी हैं.

भौतिक परिवर्तनों की भांति सामाजिक परिवर्तन भी समय समय पर आते रहे हैं, और तत्कालीन बुजुर्गो द्वारा उनका विरोध भी होता रहा फिर भी बदलाव आये. जैसे आज भी बुजुर्गों को कहते हुए देखा जा सकता है, क्या जमाना आ गया है, शर्म हया समाप्त हो गयी है, घर की सभी औरतें शादी के मौके पर सड़कों पर नाचती हैं, लड़के लड़कियां बेशर्म होकर वार्तालाप करते हैं, और अनर्गल हरकते करते हैं, नयी पीढ़ी संस्कारहीन हो चुकी है इत्यादि.उपरोक्त सामाजिक बदलावों को स्वीकार न कर पाने के कारण बुजुर्गों के सामने अनेक प्रकार की समस्याएं आती हैं नयी पीढ़ी उनके विरोधी स्वभाव के कारण दूरियां बना लेती है.बुजुर्ग लोग आज के परिवर्तनों को सार्थक रूप में सोच कर अपने को समस्या मुक्त कर सकते है.क्योंकि उनके ज़माने में आने वाले परिवर्तन भी उनके समय के बूढ़े स्वीकार नहीं कर पाते थे और उन्हें भी अपने बुजुर्गों के आक्रोश का सामना करना पड़ता था.आज वही स्थिति तुम्हारे साथ है.अतः जब बदलावों रोका नहीं जा सकता तो उनका विरोध कर अपना भविष्य असहज बनाने से क्या लाभ?

तथाकथित नग्नता, अश्लीलता सिर्फ हमारे मन पर पड़ी परम्पराओं की छाप का प्रभाव है, हमारी सोच सीमित हो गयी है.क्या कभी किसी ने सोचा है इंसान जब पैदा होता है तो क्या कपडे पहन कर पैदा होता है? क्या पैदा होने वाले बच्चे को भी अश्लील कहा जायेगा, यदि नहीं तो क्यों? यह हमारी सोच का फेर है, श्रृष्टि के प्रारंभ में सभी लोग निर्वस्त्र रहते थे, धीरे धीरे विकास के साथ वस्त्रों का आगमन हुआ और वस्त्र धारण करना आवश्यक होता गया, सामाजिकता की निशानी होती गयी, हमारे संस्कार माने जाने लगे.वस्त्र धारण करना जहाँ एक मजबूरी बन गयी, तो दूसरी तरफ अपने शरीर को गर्मी और सर्दी से बचाने के लिए सुविधाजनक भी.जो बाद में फेशन के रूप बदल गया.अब जिस प्रकार से वस्त्र धारण करने का फेशन बना इसी प्रकार से बदलावों के चलते कपडे कम पहनने की प्रवृति ने जन्म लिया. श्लील, अश्लील, हमारी मानसिकता है .मानव द्वारा कम वस्त्र धारण करने का विरोध करने वाले, क्या कभी गाय, भैंस, कुत्ता बिल्ली, बन्दर या अन्य जानवरों को कभी अश्लील कहते हैं, जो कभी वस्त्र धारण नहीं करते.हम उनको देख कर शर्म क्यों अनुभव नहीं करते?हमें उन्हें इसी रूप में देखने की आदत है, क्या उनके बच्चे कभी बिगड़ते देखे गएहैं? जैन धर्म में गुरु और मुनि निर्वस्त्र रहते हैं, नागा बाबा आज भी निर्वस्त्र घुमते हैं, क्योंकि उनकी धार्मिक परंपरा या श्रद्धा निर्वस्त्र रहकर जीवन बिताने की है, उनके इस प्रकार से रहने में कोई अश्लीता नहीं दीखती, उन्हें भी इस प्रकार रहने में कोई शर्म नहीं लगती. अतः प्रत्येक बुजुर्ग को श्लील, अश्लील के चक्कर में न पड़ कर नयी पीढ़ी के साथ संबंधों में मधुरता बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए, यही उनके शेष जीवन के लिए हितकारी है.

बढ़ता भौतिकवाद

पिछले पचास वर्षों में आये जीवन में बदलाव से स्पष्ट दीखता है, आज इंसान कितना भौतिकवादी हो गया है? पचास वर्ष पूर्व एक आम व्यक्ति साईकिल पर चलता था, रेडियो से गाने सुन लेता था, टेलीफोन की घंटी कभी घर में भी बजने का सपने देखता था, पंखे की हवा मिल जाय तो खुशी होती थी, फ्रिज किसी किसी के पास होता था, मकान सिर्फ साधारण ईंटों से बनाये जाते थे, मोटा खाना, मोटा पहनना आदर्श जीवन का परिचायक होता था, उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था. परन्तु आज कलर टी.वी.स्कूटर-कार, फ्रिज, कूलर.ए.सी.मोबाइल आम जीवन की आवश्यकता बन गए हैं.मकान बिना टाईल के नहीं बनते, वस्त्रों की उच्चतम विकसित क्वालिटी सभी की चाहत है, ट्रेन में सफर से संतोष करने वाले हवाई यात्रा करने के इच्छुक रहते हैं.उपरोक्त सब कहने का तात्पर्य है की इंसान ने अपना जीवन स्तर बढ़ा लिया है, उसकी आवश्यकताएँ बढ़ गयी हैं.इन सभी साधनों और सुविधाओं को पाने के लिए अधिक आये के स्रोतों की आवश्यकता होती है.अधिक आमदनी के लिए अधिक समय खर्च कर अधिक श्रम करने की जरूरत हो गयी है.वैश्वीकरण के कारण प्रत्येक क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है, जिस के कारण आज की पीढ़ी के पास न तो अपने परिवार के लिए समय है, न अपने बीबी.बच्चों के लिए .मानसिक तनाव उसकी जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं.यदि वह परम्परागत वातावरण में रहने का प्रयास करता है तो वह अपनी पत्नी और बच्चों की नजरों में अपमानित अनुभव करता है. अतः बुजुर्गों को आज की पीढ़ी की परिस्थितियों को समझ कर उनका सहयोग करना चाहिए, यही उनका बड़प्पन होगा.

यदि मोहल्ले के सभी बुजुर्ग, शहर के सभी प्रौढ़ मिल कर कोई संस्था या संगठन का निर्माण कर लें और आपस में एक दूसरे के सहयोगी बन सकें तो परिवार सम्बन्धी उनकी काफी शिकायतें दूर हो सकती हैं.नए परिवेश में सुख शांति का विकल्प बनाया जा सकता है.संगठित होकर प्रदेश एवं देश की सरकार पर दबाव बना कर अपने पक्ष में योजनाएं बनवाकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है.उसे सुरक्षा और आर्थिक सहयोग देने के लिए बाध्य किया जा सकता है.एक ही आयु वर्ग के व्यक्ति अपने दुःख दर्द आपस में बाँट कर आत्म संतोष प्राप्त कर सकते हैं, मनोरंजन कर सकते हैं, आपस में गप शप कर समय व्यतीत कर सकते हैं, समाज सेवा में अपना सहयोग कर सकते हैं.इस प्रकार से अपनी जीवन संध्या को उपयोगी साबित कर सकते हैं.

पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव

एशियाई देशों में पश्चिमी सभ्यता की नक़ल करने की होड़ सी लग गयी है.खान पान, रहन सहन, सोच-विचार प्रत्येक क्षेत्र में वह पश्चिमी देशों जैसा दिखना चाहता है.आज विकसित देशो की उन्नति से प्रत्येक व्यक्ति प्रभावित है.भारतीय भी अन्य एशियाई देशो की भांति पश्चिमी सभ्यता के प्रशंसक रहे हैं.यह बात ठीक है पश्चिमी देशों ने हमसे कहीं अधिक विकास कर लिया है, उनके पास हमसे कहीं अधिक उच्च तकनीक एवं संसाधन हैं. इसी विकास से उनके सामाजिक स्वरूप बिलकुल भिन्न हो चुके हैं. उन देशों का प्रशासनिक ढांचा भी हमारे देश से प्रथक है. उन मुल्कों में आबादी कोई समस्या नहीं है, अतः प्रति व्यक्ति सम्पन्नता का मूल्य हमसे कहीं अधिक है.वहाँ पर कोई भी बच्चा किशोर अवस्था तक आते आते आत्मनिर्भर हो जाता है. अतः विद्यार्थी जीवन में ही उसकी माता पिता पर निर्भरता समाप्त हो जाती है. जबकि हमारे यहाँ युवाओं को ही रोजगार उपलब्ध नहीं हो पाता, तो किशोर अवस्था में कोई आत्मनिर्भर कैसे हो सकता है. अतः बच्चे की शिक्षा से लेकर रोजगार पाने तक माता पिता को सारा व्यय उठाना होता है.इसी प्रकार माता पिता को वृद्धावस्था में अपनी संतान पर आर्थिक और शारीरिक तौर पर निर्भर रहना पड़ता है.क्योंकि सिर्फ सरकारी नौकरी से सेवा निवृत बुजुर्ग ही पेशन के रूप में भरण पोषण के लिए खर्च पाने के अधिकारी होते हैं.जो बुजुर्गो के समस्त संख्या के ११% हैं.अतः शेष ८९% बुजुर्ग अपने आये स्रोतों या परिजनों पर निर्भर रहते हैं.

अतः कोई युवा पश्चिमी सभ्यता की नक़ल करते हुए अपने माता पिता की उपेक्षा करता है तो निश्चित ही बुजुर्ग के लिए अभिशाप बन जाती है. युवाओं को पश्चिम की नक़ल करने से पूर्व वहाँ की सामाजिक व्यवस्था का भी अध्ययन करना होगा. वहाँ पर परिवार का वजूद ही लगभग समाप्त हो चुका है, क्योंकि वहाँ पर प्रत्येक माता पिता अपने जीवन काल में अनेकों शादियाँ कर चुके होते हैं. अतः संतान को अपने माता या पिता में से एक का तो पता भी नहीं होता और उसका प्यार उसे प्राप्त नहीं हो पाता. किशोरावस्था में ही माता पिता से प्रथक हो जाने के कारण बच्चे को आत्मीयता का अभाव झेलना पड़ता है उसका अपने जनक से, परिवार से कोई लगाव नहीं रहता.ये बच्चे अपने यार दोस्तों में ही अपनापन ढूंढते हैं.दूसरी तरफ बुजुर्गो की जिम्मेदारी सरकार उठाती हैं तो युवा पीढ़ी को उनके भरण पोषण के लिए सोचना नहीं पड़ता. वहाँ की सरकारे उनसे टैक्स वसूल कर प्रौढों की सभी अवश्यकताए पूर्ण करती हैं.कुल मिला कर वहाँ की युवा पीढ़ी को अपने माता पिता के भरण पोषण के लिए चिंतित नहीं रहना पड़ता.परन्तु एशियाई देशों में ऐसा संभव नहीं है इसलिए यहाँ के युवाओं को पश्चिमी देशों का बिना सोचे समझे अनुकरण नहीं करना चाहिए.और यह भी याद रखना होगा, वे भी जब वृद्धावस्था में होंगे तो उन्हें भी अपने बच्चों का सहारा लेना पड़ेगा.जो युवा पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करते हैं उनके परिवार के बुजुर्ग भयंकर कष्टकारी जीवन संध्या व्यतीत करते हैं. हमारे वृद्ध समाज के लिए युवाओं का पश्चिम प्रेम एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है.

चिकित्सा सुविधाओं का महंगा होना

हमारे देश में डाक्टरों की फौज तैयार हो चुकी है. परन्तु जो डाक्टर समाज सेवा का संकल्प लेकर इस व्यवसाय को अपनाते हैं, अपने व्यवसाय से न्याय नहीं कर पाते. वे अपने भौतिक सुखों की चाह में मरीजो से मोटी रकम वसूलते हैं, मोटा कमीशन देने वाली कंपनियों की दवाएं लिखते हैं, अपने कमीशन पाने के लिए मरीज को अनावश्यक टेस्ट लिखते हैं.इस प्रकार से हमारे यहाँ एक गरीब देश होते हुए भी चिकित्सा सेवाएं आम आदमी एवं वृद्धों की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं.किसी भी व्यक्ति को वृद्धावस्था में सर्वाधिक चिकित्सा सेवाओं की आवश्यकता होती है परन्तु सीमित आर्थिक क्षमता और महंगे इलाज के कारण चिकित्सा सेवाओं को प्राप्त करना कठिन हो जाता है.

सरकार द्वारा प्रदत निःशुल्क चिकित्सा सेवाएं, जो की सरकारी अस्पतालों के माध्यम से उपलब्ध होती हैं, लापरवाही, संवेदनहीनता, और भ्रष्टाचार से अभिशप्त हैं.अतः वृद्ध के लिए वहाँ जाकर इलाज कराना स्वयं को नरक में धकेलने के समान सिद्ध होता है. यही कारण है गरीब से गरीब व्यक्ति भी सरकारी अस्पतालों में जाने से कतराता है.

स्वास्थ्य बीमा करने के मामले में अभी हमारा देश बहुत कम जागरूक हो पाया है.वृद्धावस्था में बीमा कराना विशेष लाभकारी साबित नहीं होता, क्योंकि इस उम्र में बीमा करने पर बीमा कंपनियां प्रीमियम की बहुत बड़ी रकम लेती हैं.यदि युवावस्था में ही बीमा कराया जाये तो लाभप्रद हो सकता है.जागरूकता के अभाव में उचित समय पर बीमा न करा पाने का खामियाजा वृद्धावस्था में भुगतना पड़ता है.

सामाजिक सुरक्षा का अभाव

वृद्धों की सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढती जा रही हैं.एक तो हमारी लचर कानूनी व्यवस्था दूसरे परिवार का विखंडन वृद्धावस्था की चुनौती बन गया है.भौतिक आवश्यकताओं के लिए युवा वर्ग को अपने गांव, अथवा शहर से बहुत दूर धनार्जन के लिए जाना पड़ता है. ताकि आधुनिक आवश्यकताओं को प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्द्धा की दौड़ में भाग ले सके और अपने जीवन को संवार सके, और आर्थिक अभावो को न झेलना पड़े .परिवार की बेटियों को परंपरा के अनुसार शादी के पश्चात ससुराल जाना होता है. अतः घर पर सिर्फ बूढ़े माता पिता रह जाते हैं.अब उन्हें अपनी सुरक्षा व्यवस्था अपने स्वास्थ्य की देख भाल के लिए स्वयं ही जूझना पड़ता है.अकेले दंपत्ति अपने घर में ही असुरक्षित हो जाते हैं.अनेको बार बुजुर्ग अपरधियों का निशाना बनते हैं.बुजुर्गो के साथ होने वाली लूटमार-धोखा धड़ी की खबरे अख़बारों की सुर्खियाँ बनती रहती हैं. यद्यपि उम्र के आखिरी पड़ाव पर बुजुर्ग के साथ युवा वर्ग के सान्निध्य की महती आवश्यकता होती है.परन्तु युवा के सुनहरे भविष्य को दाँव पर लगाना भी परिवार एवं बुजुर्गों के हित में नहीं होता. परिवार के बुजुर्ग सदैव अपनी संतान को जीवन की ऊंचाईयों पर देखना चाहते हैं. वे अपनी सुरक्षा को दाँव पर लगा कर भी अपनी संतान के उज्जवल भविष्य के लिए चिंतित रहते हैं.ऐसी स्थिति में उन्हें अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपाय भी स्वयं ही करने होंगे ताकि अवांछनीय तत्व उन पर आंख उठा कर देखने का साहस न कर सके.वे अपना शेष जीवन शांति पूर्वक बिता सकें.बुजुर्गो की सुरक्षा की चिंता भी आधुनिकता की देन है.

विषम परिस्थितियों के शिकार बुजुर्ग

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आवश्यक नहीं होता, उसके जीवन में सब कुछ सामान्य हो.सभी के जीवन में कुछ न कुछ असामान्य होता ही है. परन्तु कभी कभी इतना असामान्य होता है जिस कारण वह समाज में दया का पात्र बन जाता है.वह सबकी सहानुभूति का पात्र बन जाता है. किसी बुजुर्ग का जीवन साथी काफी पहले बिछड गया होता है, (कभी मौत के कारण और कभी सामंजस्य के अभाव में तलाक के कारण), किसी को संतान सुख तो मिलता है पुत्र का अभाव खलता है, किसी को पुत्र तो प्राप्त होता है परन्तु आपकी अपेक्षाओं पर खरा नही उतरता अर्थात उससे विचार नहीं मिलते या वह अपने बुजुर्गों के प्रति संवेदन शील नहीं होता. कभी कभी तो पुत्र योग्य है संवेदन शील है परन्तु किसी हादसे का शिकार हो जाता है या असमय मृत्यु का शिकार हो जाता है.कभी कभी पुत्र पूरी तरह अपने माता पिता के प्रति बफादार है परन्तु आर्थिक रूप से अयोग्य है और अपना जीवन यापन भी स्वयं नहीं कर पाता.तो अपने बुजुर्गो के लिए सहारा कैसे बन सकेगा. यदि किसी का पुत्र मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग है तो आजीवन अपने माता पिता पर निर्भर रहने को मजबूर होता. यदि ऐसी अनेकों असामान्य परिस्थितियां किसी के जीवन का हिस्सा बनती हैं, तो बुढ़ापे को असहज बनाता है. ऐसे व्यक्तियों को बुढ़ापा भी एक चुनौती के रूप में झेलना पड़ता है.

नशीली आदतें

पुरानी चली आ रही नशीली आदतें अर्थात किसी भी प्रकार के नशे का सेवन करना प्रौढावस्था में अभिशाप बन जाती है.नशे की आदतें जब तक ही पूरी की जा सकती हैं जब तक आपके आर्थिक स्रोत जारी हैं. ऐसे बुजुर्गो के लिए जो आर्थिक रूप से अपनी संतान अथवा किसी अन्य परिजन पर निर्भर हैं.उनके लिए अपनी नशे की लतों के लिए धन की व्यवस्था करना संभव नहीं होता. शराब, अफीम, गंजा, तम्बाकू, बीडी, सिगरेट जैसे नशीले पदार्थ, .एक तरफ अनेक प्रकार की बीमारियों को निमंत्रण दे चुके होते हैं, नशा जारी रखने से बीमारी बढती है और आर्थिक विपन्नता का शिकार बनाती है.कोई भी परिजन आपकी न्यूनतम आवश्यकताओं जैसे रोटी, कपडा, मकान की पूर्ती करने की जिम्मेदारी ले सकता है परन्तु आपकी तामसिक आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु धन उपलब्ध नहीं करा सकता. अतः नशे की आदत प्रौढावस्था में समस्या बन कर उभरता है .यदि समय रहते इन आदतों से छुटकारा पा लिया जाय तो तो एक गंभीर समस्या से जीवन संध्या को बचाया जा सकता है.नशे की आदतों को छुड़ाना कोई आसान काम नहीं होता.अतः युवावस्था या अधेडावस्था में ही इन आदतों से बचना चाहिए, यदि कोई गलती से इनकी गिरफ्त में आ जाय तो अपने मनोबल से तथा चिकित्सा द्वारा इस आदत से समय रहते निकल जाना चाहिए, ताकि बुढ़ापा ठीक प्रकार से और सम्मान पूर्वक बिताया जा सके.