वृद्ध / परंतप मिश्र
आत्मा के शरीर धारण करने से लेकर शरीर त्याग तक के कालखण्ड को किसी जीव का जीवनकाल (जीवन) कहा जा सकता है। जीव की जीवनयात्रा समय की धुरी पर प्राप्त अनुभवों से बौद्धिक परिमाण का निर्धारण करती है, जो अंततः ज्ञान के वृत्त का आकार स्पष्ट करती है। ज्ञान के झरने का निर्मल प्रपात चेतना के अविरल श्रोत से सतत प्रवाहित होता है।
भौतिक शरीर जगत की अवस्थाओं से पुर्णतः मुक्त नहीं हो सकता। व्यतीत होते समय के साथ तादात्म्य स्थापित करते जीव की सहयात्रा आयु के रूप में व्यक्त की जाती है। आयु के प्रथम सोपान बाल्यावस्था से अंतिम सोपान वृद्धावस्था में जीव का लौकिक व्यवहार उपयोगिता के आधार पर अनुभवों से जीवन की सार्थकता कि पुष्टि करता है।
अवचेतन मन के श्यामपट पर स्मृतियों से प्रसूत ज्ञान की चेतना कि लेखनी से बौद्धिक आरोहण की पटकथा का संकलन हुआ करता है। जहाँ पर पूर्व जन्मों के भी अर्जित ज्ञान की पूँजी का संचय किया गया होता है। यह एक सूक्ष्म शरीर के उत्तरोत्तर आरोहण की प्रक्रिया और स्वाभाविक मौलिकता का अबाधित संवहन है।
जहाँ चेतना विकारों से अप्रभावित, घटित घटनाओं से निर्लिप्त होकर अवस्थाओं के अवसरों से मुक्त हुआ करती है, तो वहीं निरन्तरता में नवीनता को आत्मसात करते हुए आसक्ति रहित और अभय युक्त होती है। कारण शरीर के विस्तार की सीमा तय हुआ करती है। उसका नष्ट होना निर्धारित होता है पर उसमें उपस्थित चेतना अजर, अमर एवं अविनाशी है।
शरीरी जगत में आनन्द की प्राप्ति जीवन के परम लक्ष्यों में से एक है। जो क्षणिक अनुभूति देता है, एक अस्थायी अनुभव प्रदान करता है। पर चेतना के आनन्द की प्रतीति-सा अविरल, अबाधित और निरंतरता को प्राप्त नहीं हो पाता है। मात्र काल के वलय में प्रवित्ति के अनुसार आवृत्ति का भान हुआ करता है। चित्त निवृत्ति की अवस्था को प्राप्त होने पर क्षणभंगुरता समाप्त हो जाती है।
शरीर जहाँ वृद्ध हो जाया करता है वहीं चेतना अपने स्वरुप को मानसिक अवस्था से प्रभावित पाती है। चेतना जैसा कि वर्णन किया गया है, कालातीत है, ज्ञान का सतत संरक्षण है, चिर युवा और नवीन है। पर जब हम ग्रहण करना, नूतनता कि स्वीकार्यता और अनुभवों की स्वीकार्यता को रोक देते हैं तब चेतना भी शून्यता कि ओर बढ़ चलती है। उसका विकास, ज्ञान का प्रवाह बाधित होकर वृद्धत्व की अनुभूति करता है परन्तु इसके विपरीत चेतना के प्रकाश से आलोकित वृद्ध स्वयं की उपयोगिता सिद्ध करते हुए युवा अवस्था को जी सकता है।
हमारी मानसिक अवस्था कि स्वीकार्यता निर्धारित करती है कि कोई व्यक्ति शरीर एवं चेतना से वृद्ध है अथवा युवा है। संभावना है कोई शरीर एवम चेतना दोनों से वृद्ध होने का अनुभव कर सकता है, कोई केवल शरीर से वृद्ध हो सकता है पर चेतना से नहीं। वैसे ही कोई वृद्ध शरीर से युवा और चेतना से नवीन हो सकता है तो कोई चेतना से वृद्ध होकर भी युवा हो सकता है। कई बार असाधारण प्रतिभाषाली बालकों को अकालवृद्ध मानते हैं जो उसके प्राप्त एवं संचित ज्ञान से प्रमाणित हुआ करता है अतः भौतिक शरीर भी सचेतन होकर अवस्थानुसार परिवर्तनों से मुक्त हो जाया करती है।
किन्हीं अर्थों में अस्वीकृति, अरुचि एवं अहंकार नवागत सृजनात्मकता का अवरोध करती है। जीर्णशीर्ण शरीर की जरावस्था में भी बाल्यकाल की जिज्ञाषा को गतिमान बनाये रखना ज्ञान की अनवरत शृंखला कि समृद्धि है। आशय यह है कि जहाँ ज्ञान की सरिता का प्रवाह नित नए पथ की खोज, नूतन चिंतन, नये प्रितमान स्थापित करता है अथवा जब जीव नया करना, सीखना, सोचना और स्वीकार करना बंद कर देता है तब भौतिक देह के साथ-साथ उसकी चेतना भी रुग्ण होकर रुके हुए जल की भांति निर्मलता, स्वच्छता से वंचित रह जाती है।
पूर्णतः वृद्ध व्यक्ति भी बाल्यावस्था की सुकुमारता, सहजता, सुगंध और सलोनेपन की शीतल बयार से तन-मन को तरो-ताजा रख सकता है। पर उसके लिए उसे सीखने की कला को जागृत रखना होगा, नए अनुभव हो सकें उसकी गुंजाईश बाक़ी छोडनी होगी। मरुस्थल की रेत में जिज्ञाषा कि नमी चेतना को पल्लवित कर जाती है। सम्भवतः देह की यात्रा किसी पड़ाव पर थक कर ठहर सकती है। पर जीवन के पार भी चेतना कि उमंग उतनी ही तीव्रता से बहती रहेगी। चेतना के निर्बाध झरनों से प्रवाहित जल में जीवन की यात्रायें एक बूँद की अभिव्यक्ति हैं। निःसंदेह एक झरने के लिए बूँद का उतना ही महत्त्व है जितना कि चेतना के प्रवाह में जीवन का। इसीलिए इसमें प्रतिपल गतिशील उल्लास की उर्जा सतत बहती है, उतनी ही उर्जा और आकर्षण के साथ।
अज्ञान जहाँ अवरोध है तो ज्ञान वहीं अबाधित हुआ करता है। नवजात के कोमल भावों में निष्पाप सुकुमारता ज्ञान के माधुर्य से सुशोभित होकर जीवन का अभिनन्दन किया करती है। जागृत रहते हुए किया गये कर्म से अनुभव प्रसूत परिणाम जिज्ञाषा कि ज्योति को पुष्ट करते हैं। ज्ञान के प्रवेश के लिए हर अवस्था में चेतना के कपाट को खोलकर अवसरों का स्वागत करना ही जीवन की उपलब्धि है। इसके विपरीत धारणा में बंधा जीवन ही वृद्धत्व है। चाहे शैशवावस्था ही क्यों न हो। अतः बन्धनों से मुक्त शैशवकाल के आनन्द की अनुभूति जीवन के सफलता को प्रमाणित कर जाती है।
जीवन के मोह में लिप्त जीव अपने पूरे जीवनकाल में भय ग्रस्त रहता है। जबकि किसी जीव के लिए जन्म-मृत्यु एक घटना मात्र है। पर जीवन की दृष्टि से यह एक सुअवसर है चेतना कि अनुभूति के स्तर पर और मृत्यु पुनः जीव की पूर्वावस्था को प्राप्त करने का उपक्रम मात्र है। शरीर की स्थितियाँ जन्म और मृत्यु से परिवर्तित होती हैं। पर आत्मा के स्तर पर प्रभाव नहीं डाल पाती हैं, वहाँ जन्म और मृत्यु एक घटना कि तरह घटित हुआ करती है।
जीवन में आनन्द की वर्षा के लिए चेतना के घनों का निर्माण आवश्यक है। पर जबतक भय की पीड़ा होगी तब तक आनन्द का अनुभव नहीं प्राप्त हो सकता। अतः भय को आत्मबोध से नष्ट करके ही सुखानुभूति हो सकती है। दैनिक क्रियाकलाप जन्य अवसरों से अप्रभावित रहकर सतत चेतना का विस्तार करना ही जागृति है। फिर चाहे आँखे बंद रह जायें कि खुली रहें कोई महत्त्व नहीं रखता है।
भौतिक जगत में माया से आसक्ति का भ्रमजाल निर्मित होता है, जो भय का संवर्धन करता है और इससे मुक्ति का मार्ग प्रायः दुष्कर ज़रूर प्रतीत होता है। पर संभवनाओं की समाप्ति नहीं हो जाती अर्थात यह असम्भव तो बिलकुल नहीं है। भय की भी कई अवस्थाएँ हुआ करती हैं और इस पर विजय प्राप्त करने के कई सोपान भी निर्मित किये जाते रहे हैं। कभी-कभी भय को दूर करने के प्रयास में निर्भयता का प्रदर्शन किया जाता है। पर भय की समाप्ति नहीं होती भय उपस्थित रहता है किसी का आलम्बन लेकर भय से निर्भय होने का प्रयास। भय से मुक्ति नहीं हो सकती वह पूरी निर्भयता आलम्बन पर आरोपित हुआ करती है। जैसे ही आलम्बन हटा भय प्रकट हो जाता है। सारा प्रयास मात्र आत्मसंतुष्टि तक सीमित करके भयग्रस्त जीव अपने आस-पास एक आवरण का निर्माण कर लेता है और भयमुक्त होने का अनुभव करता है। समाज में निर्भय बनने का आचरण करता है।
डर के कारण का अंत करने का प्रयास स्वयं को निर्भय मानने की दिशा में प्रयाण है। पर लक्ष्य इससे भिन्न है। लक्ष्य है अभय होना। जहाँ भय की सीमा ही समाप्त हो जाये। निर्भय व्यक्ति भयमुक्त नहीं भयग्रस्त हुआ करता है। पर वह अपने मन के उपर एक आवरण रख लेता है और भयहीन दिखने का उपक्रम करता है। आवरण के रहते निर्भय होने का भाव भी साथ-साथ चलता है। पर अनावृत्त होकर भयमुक्त हो जाना चेतना के तल पर अभय की स्थिति है। निर्भय भयमुक्त होने के लिए हिंसा का भी सहारा लेता है और अभय अपने भय का समूल नाश करके अहिंसक हो जाता है।
जब भय पुर्णतः समाप्त हो जाता है तो चेतन व अवचेतन मन का भेद भी तिरोहित हो जाता है। ज्ञान के बोध से सूर्य की नवरश्मियों का स्पर्श, निष्कलंक पुष्प की सुवास और जीवन-सरिता से प्रस्फुटित आनन्द की अविनाशी धारा जब प्रवाहित होने लगती है, तब आवरण की आवश्यकता समाप्त हो जाती है और भय इसकी धारा में अपना अस्तित्व खो देता है। यात्रा के इस पडाव पर जीव, चेतना में आनन्द की सतत अनुभूति को प्राप्त होता है।
जहाँ मनीषियों ने ज्ञान के प्रकाश में तपस्या कि धरा पर अंकुरित बीजरुपी आत्मा कि चेतना से सर्वमुक्त हो जाना साध्य माना है, तो वहीं इस परम लक्ष्य की प्राप्ति में भौतिक शरीर की उपयोगिता का एक साधन के रूप में प्रयुक्त होना एक अनिवार्यता माना है। सूक्ष्मशरीर के चेतना का सतत आरोहण, भौतिक जगत में ज्ञान की सीढियों पर सजगता से एक-एक सोपान तय करता स्थूलशरीर लक्ष्य प्राप्ति का आवश्यक अंग है। अतः लौकिक जगत और स्थूलशरीर से होकर ही पारलौकिक सूक्ष्मशरीर का अनुभव किया जाता है। साधन और साध्य दोनों की समान महत्ता में कुछ भी निष्प्रयोजन जैसा नहीं है।
कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ द्वारा राजप्रासाद के त्याग का कारण मृत्यु का भय ही था। निर्भय होने के प्रयास में उन्होंने अनेकानेक विधियों से तपस्या कि परन्तु सफलता न मिल सकी। भय से मुक्ति अथवा मृत्यु का डर समाप्त नहीं कर सके। कठोर तपस्या के कारण जीर्ण हो चुके शरीर में जब स्वांसो के आवागमन की गुंजाईश ख़त्म होने लगी तब उन्हें साधन की अनिवार्यता का बोध हुआ। साधन रुपी शरीर ही ज्ञान के पथ पर अभय होकर चलना सीखा सकता है। अतः उन्होंने सुजाता कि खीर को खाकर प्राण रक्षा कि अंततः अहिंसक होकर अभय को प्राप्त हुए।