वेदबुक से फ़ेसबुक तक स्त्री / अशोक कुमार शुक्ला
समीक्षा:डा विजेंद्र प्रताप सिंह
हिंदी में विमर्श शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के ‘डिस्कोर्स’ शब्द के पर्याय के रूप में किया जाता है, जिसका सीधा संबंध संबंधित विषय के सुदीर्घ एवं गंभीर चिंतन से है। विमर्श किसी समस्या अथवा स्थिति पर एकाधिक दृष्टियों से विचार करने की क्रिया को कहा जा सकता है। किसी भी वस्तु, व्यवहार आदि के आकलन में भिन्न-भिन्न दृष्टियों, मानसिकताओं, संस्कारों तथा वैचारिक प्रतिबद्धतताओं की मुख्य भूमिका होती है, क्योंकि एकल भाव से किया गया चिंतन, मनन विमर्श की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। विमर्श में विमर्शकर्ता विषय सामग्री से संबंधित समस्त या एकाधिक या अधिकाधिक पक्षों को समग्रता से समझने एवं समझाने का उपक्रम करते हुए मानवीय संदर्भों में निष्कर्ष पर पहुंचना चाहता है। यह चिंतन और मनन भी देशकाल, वातावरण और परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तित या संवर्धित होता रहता है। समाज परिस्थितियों के अनुरूप चलता है और मान्यताएं स्थिति एवं काल के अनुसार परिवर्तित होती रहती है इसलिए सर्वमान्य या एकमात्र निष्कर्ष कभी भी नहीं दिया जा सकता है। आज जो तथ्य अंतिम सत्य सा प्रतीत हो सकता है वह आने वाले समय में बदल सकता है और वह उस संदर्भ का पुर्नपाठ कहलाता है। जहां तक प्रश्न है स्त्री विमर्श का, आज इसका समावेश साहित्य की प्रत्येक विधा में हो चुका है और समाज के प्रगतिन्मुख होने के क्रम में स्त्री विमर्श के पूर्व निष्कर्षों तथा अवधारणाओं में भी पर्याप्त परिवर्तन परिलक्षित होने लगा है, नारी की परंपरागत छवि में बदलाव आ रहा है। डॉ. पुनीत विसारिया के अग्रलिखित कथन का समर्थन शायद ही कोई न करें-‘‘भारतीय संदर्भ में स्त्री-विमर्श दो विपरीत ध्रुवों पर टिका है। एक ओर परंपरागत भारतीय नारी की छवि है, जो सीता और सावित्री जैसे मिथकों में अपना मूर्त रूप पाती है, जिसे पश्चिम ‘होम मेकर‘ का नाम देता है, तो दूसरी ओर घर परिवार तोड़ने वाली स्वार्थी और कुलटा रूप में विख्यात तथाकथित आधुनिका एवं पाश्चात्य नारी की छवि है जो अक्सर सातवें-आठवें दशक की पुरानी फिल्मों में खलनायिका के रूप में उकेरी जाती है, और जिसे पाश्चात्य शब्दावली में ‘होम ब्रेकर‘ कहा जा सकता है।’इसके अतिरिक्त एक और छबि मैं यहां जोड़ना चाहूंगा बेचारी नारी। नारी का बेचारगी भरा रूप भारतीय समाज के सभी जाति समूहों में लगभग समान पाया जाता है और यदि ये कहा जाए कि जितनी बड़ी जाति उतनी बड़ी नारी की बेचारगी तो बहुत ज़्यादा ग़लत न होगा, क्योंकि दलित समुदायों में स्त्री को ज़्यादा स्वतंत्रता रही है सवर्णों की तुलना में। इसका प्रमुख कारण रहा है कि दलितों की तो समाज में कभी कोई इज़्ज़त मानी ही नहीं गई। जब चाहा देवदासी बना लिया, किसी मठ की रखैल, बहू जुठाई की रस्म के नाम पर गांव के रसूखदार द्वारा जब तक मन चाहा रखा गया या फिर कोई दलित युवती हुई तो जब चाहा जिस सवर्ण ने भी बिना सोचे-समझे उसे अपनी हवस का शिकार बना लिया। लेकिन सवर्णों ने ही स्त्रियों की ज़्यादा दुर्गति की घर की इज़्ज़त का नाम देकर। उसके घर से बाहर निकलने, उठने, बैठने, पठन-पाठन, अध्ययन सभी पर अंकुश लगाया। क्योंकि सवर्ण जानते थे कि जो कुकर्म वे दलितों की स्त्रियों के साथ कर रहे हैं, उनकी स्त्रियों के साथ भी हो सकता है। इसलिए उन्हें इज़्ज़त का तमग़ा पहना दो, वो चुप भी रहेंगी और सिर्फ़ वे ही उसे अपने मनमाने ढंग से अपने उपयोग में ला सकेंगे।
भारत में स्त्रियों की दशा एवं दिशा पर चले आ रहे सुदीर्घ एवं गंभीर चिंतन का प्रतिफल है डॉ. पुनीत बिसारिया कृत ‘वेद बुक से फ़ेस बुक तक स्त्री’ नामक पुस्तक। डॉ. बिसारिया ने सम्पूर्ण पुस्तक का ख़ाका वैदिक काल में स्त्री] उत्तर वैदिक काल में स्त्री] संस्कृत] जैन एवं बौद्ध साहित्य में स्त्री]मध्यकाल में स्त्री] एक आंदोलन वेफ रूप में स्त्री] स्त्री विमर्श का इतिहास] आधुनिक काल में स्त्री] फेसबुक की स्त्री आदि शीर्षकों के तहत तैयार करते हुए अंततः निष्कर्ष प्रदान किया है। वैदिक काल से आधुनिक काल तक के सफ़र में स्त्री विमर्श ने जिन पड़ावों को पार किया, उसका बहुत ही सधा हुआ वर्णन इस पुस्तक में हमें प्राप्त होता है। इस संबंध में पहले भी पर्याप्त सामग्री साहित्यकारों, विमर्शकारों द्वारा समाज को दी जा चुकी है। जहां स्त्रियों की छटपटाहट है, ख़ुद को जानवरों की तरह बेचे जाने का दर्द है, पुरूष की हवस का शिकार होने की चीखें हैं, भ्रूण में घुटी हुई सांसें हैं, मंदिरों की देवदासी, मठों की रखैल, नगरों की नगरबधू है और सर्वत्र कुछ न कर पाने की बेचारगी है। अत: मेरे ध्यानाकर्षण का केंद्र पुस्तक के शीर्षक का आधा हिस्सा “फ़ेस बुक तक स्त्री” ज़्यादा रहा और वही कौहतुलता उत्पन्न करता है, क्योंकि पाठक के रूप में मैं सोचता रहा हूँ कि आख़िर फेसबुक तक आते-आते नारी कहां पहुंच गई जो लेखक को इस पर अपनी लेखनी चलानी पड़ी और अपने कौहतुल को शांत करने के लिए पाठकरूप में स्त्री अभिव्यक्ति के नितांत परिवर्तित या नवीन रूप से साक्षात्कार करता रहा।
सूचना क्रांति के वर्तमान युग में सम्पूर्ण विश्व एक आम आदमी या इस पुस्तक के संदर्भ में कहें तो स्त्रियों की उंगलियों में समा गया है अर्थात कम्प्यूटर के कुंजीपटल या मोबाइल के टच पटल पर थिरकती उंगलियां एक पल में विश्व के किसी भी हिस्से का साक्षात्कार करने में सक्षम हैं। परिवर्तन प्रकृति का सबसे अटल नियम है और समय के चक्र के साथ नित नए परिवर्तन देखेने को मिल ही रहे हैं और जितनी तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं, प्राचीन मान्यताएं एवं परंपराएं उतनी ही तेज़ी से टूट रही हैं। फेसबुक ने स्त्री अभिव्यक्ति को अभूतपूर्व मंच प्रदान किया है, जहां वो उन्मुक्त भाव से अपने मनोभावों को प्रकट कर सकती है। लेखक के अनुसार फ़ेस बुक पर ‘‘मुख्यतः चार प्रकार की स्त्रियां अपना प्रोफ़ाइल बनाती हैं-1. गृहिणियाँ, 2. साहित्यिक विचारधारा से आपूरित तथा सामाजिक कार्यकर्ता, 3. किशोरियाँ, 4. परित्यक्ता, विधवा अथवा प्रोषितपतिकाएँ, 5. कुछ पुरुष स्त्री भेष बनाकर स्त्रियों से बात करते हैं, जिन्हें वास्तव में स्त्री नहीं कहा जा सकता लेकिन ये स्त्री की अस्मिता का दुरुपयोग करते हैं।’ (पृष्ठ सं.सं.216) प्रकार के साथ ही फेसबुक का उपयोग करने वाली स्त्रियों की मानसिक दशा, लेखन श्ौली, लाभ-हानि आदि को लेखक ने विद्वानों के उद्धरणों एवं कथनों से समर्थित करते हुए प्रस्तुत किया है।
स्त्री बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या, स्त्रियों का छला जाना तथा विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक पक्षों पर स्त्रियों की राय तथा प्रतिक्रियाओं के माध्यम से लेखक ने स्त्रियों की संवेदना को बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक रूप में प्रस्तुत करने के पूर्व बिसारिया जी ने भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंड़ों में लगभग सम्पूर्ण भारत के इतिहास को खंगालते हुए उसमें स्त्रियों के योगदान को रेखांकित करते हुए जो आख्यान प्रस्तुत किया है उस दृष्टि से इस पुस्तक को भारत में स्त्रियों का इतिहास शीर्षक दिया जाए तो अतिश्योक्ति या अन्योक्ति न होगी। इस शोधात्मक एवं विवरणात्मक रचना के लिए लेखक पुनीत बिसारिया जी बधाई के पात्र हैं। वेदकाल से वर्तमान काल तक अनेक नवीन विषयों को बहुत ही सधे हुए अंदाज में विवादों को दूर रखते हुए उदघाटित करने वाले का कार्य ‘वेदबुक से फेसबुक तक स्त्री’ के द्वारा स्त्री कल्पना और हकीकत को समस्त सामाजिक परिप्रेक्ष्यों में कलमबद्ध करने का एक बहुत साहसिक एवं समर्पित प्रयास है।