वेदांत दर्शन के सिद्धांत / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'
वेदांत दर्शन कुछ विशिष्ट बातों की तर्कसम्मत और ग्राह्य व्याख्या है जिन्हें आप इस दर्शन के सिद्धांत भी कह सकते हैं। वेदान्त बाह्य विविधता के पीछे आतंरिक एकत्व का प्रतिपादन करता है। इस प्रकार इसके दो प्रमुख सिद्धांत हुए-
- सम्पूर्ण विश्व का एकत्व
- धार्मिक विचारों की विविधता का समर्थन
पहले एकत्व के सिद्धांत पर चर्चा करते हैं। मनुष्य दिव्य है तथा जो कुछ भी हम अपने चतुर्दिक देखते हैं, वह उसी दिव्यता से उद्भूत हुआ है। यह दिव्यता यद्यपि बहुतों में अव्यक्त रहती है, तथापि मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नही है| मूलतः सभी समान रूप से दिव्य हैं। मानो एक अनंत समुद्र है और उसमें विश्व की प्रत्येक वस्तु छोटी-छोटी लहरों की भांति हैं। हममें से प्रत्येक, चाहे वह जड़ हो या चेतन, उस अनंत को व्यक्त करने की चेष्टा कर रहा है। इस प्रकार हम सबको वह सत्, चित् तथा आनंद रूपी अनंत समुद्र जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में प्राप्त है। किसी में उस दिव्यता की अभिव्यक्ति कम तो किसी में अधिक है और इसी कारण विभिन्नता का अनुभव होता है। अतः किसी के व्यक्त आधार पर व्यवहार नही करना चाहिए बल्कि उसके आधार पर जिसका वह प्रतिनिधि है। प्रत्येक मनुष्य दिव्यत्व का प्रतिनिधि है इसलिए किसी के बुरे कार्यों हेतु उसकी निंदा करने के बजाये उसमें अन्तर्निहित दिव्यता के जागरण के लिए उसकी सहायता करनी चाहिए।
संसार के किसी भी क्षेत्र में यदि शक्ति का प्रदर्शन होता है तो वह भीतर से ही होता है। जिसे सामान्यतया लोग अन्तःस्फुरण समझते हैं, वस्तुतः वह बहिःस्फुरण है। जाने अनजाने हर जीव इस दिव्यता को व्यक्त का प्रयत्न कर रहा है। जितने भी संघर्ष, बुराईयां, अच्छाईयां या प्रतियोगिताएं दिखाई पड़ती हैं, वो न तो कार्य हैं और न कारण बल्कि वह इस अभिव्यक्ति का प्रयत्न मात्र है। हम जिसे नैतिकता, सदाचार और परोपकार कहते हैं, वह भी इसी एकत्व का द्योतक है। जीवन में कभी ऐसा क्षण भी आता है जब हम स्वयं को किसी के साथ अभिन्न अनुभव करते हैं| उस क्षण हम सारे भेद मिटा देने के लिए व्याकुल हो जाते हैं और उसके दुखों को अपने ऊपर ले लेना चाहते हैं| इस अभिन्नता की भावना को ही प्रेम कहते हैं| हर धर्म यही शिक्षा देता है कि दूसरे को चोट नहीं पहुँचाना चाहिए, सबसे प्रेम करना चाहिए, सबकी मदद करना चाहिए और शत्रुओं को भी क्षमा कर देना चाहिए। यह सब क्या है? यदि कोई पूछे कि मैं क्यों दूसरे से प्रेम करूँ तो इसका क्या उत्तर दिया जा सकता है? यदि किसी की हत्या करने से मेरा लाभ होता है तो मैं क्यों न उसकी हत्या कर दूँ? एक बौद्ध कहेगा कि, जब हम किसी को जीवन दे नहीं सकते तो जीवन लेने का भी अधिकार नहीं है| लेकिन अधिकार क्या होता है? मैं अपनी शक्ति से जो करने में समर्थ हूँ वही मेरा अधिकार है| इसलिए ये कोई युक्ति नहीं हुई| कुछ लोग ये कह सकते हैं कि यह ईश्वर की दृष्टि में पाप है और इसके लिए वह दंड देगा| तो क्या हमारी कोई विचारशक्ति नहीं बची? अब हम दंड के डर से अनिच्छा पूर्वक नियमों का पालन करें? ये भी कोई युक्ति नहीं हुई| भय के वश में अधिक समय तक नहीं रहा जा सकता और इसीलिये हम देखते हैं कि हत्याएं, चोरी और व्यभिचार आदि समाज में व्याप्त हैं, यह जानते हुए भी कि ईश्वर दंड देगा| मनुष्य जिज्ञासु प्रवृत्ति का है और जब तक उसे युक्तियुक्त कारण नहीं मिल जाता, वह अपनी मनमानी करने से नहीं सकुचाता| वेदांत इसका क्या कारण देता है? उसका समाधान ये है- चूँकि समस्त विश्व एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति है इसलिए दूसरों को कष्ट देना स्वयं को कष्ट देने के समान है| यही हमारी नैतिकता का आधार है। जिन्होंने इस सत्य का अनुभव किया है वही सही अर्थों में संसार की सेवा कर पाए हैं और कठिन परिस्थितियों में भी विचलित नही हुए| जो इसे केवल बुद्धि से जानते हैं सामान्यतया तो सबसे प्रेम करते हैं किन्तु कठिन समय में विचलित हो जाते हैं| और जो इसे बुद्धि से भी नहीं जान पाते वो जीवन भर अपने स्वार्थ के लिए कार्य करते हैं| कुछ भी हो, हम जाने या न जानें किन्तु हम सब एक ही हैं| वेदांत इसी एकत्व का दृढ़ता से प्रतिपादन करता है। वह आत्मा की अनन्तता को सिद्ध करके कहता है कि सम्पूर्ण जगत एक ही तत्व की अभिव्यक्ति है और इस एकत्व तक पहुँचना ही जीवन का अभीष्ट है।
अब वेदान्त के दूसरे सिद्धांत पर आते हैं जिसके अनुसार हम लोगों को धार्मिक विचारों की विभिन्नता को स्वीकार करना चाहिए और सभी को एक ही विचारधारा के अंतर्गत लाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। किसी वेदान्ती का कथन है कि,"जिस प्रकार बहुत सी नदियाँ, जिनका उद्गम विभिन्न पर्वतों से होता है, टेढ़ी या सीधी बहकर अंत में समुद्र में ही गिरती हैं, उसी प्रकार ये विभिन्न संप्रदाय तथा धर्म भी सीधे या टेढ़े मार्गों से चलते हुए अंत में तुम्हें ही प्राप्त होते हैं।" सभी रास्ते प्रभु की ओर ही जाते हैं इसलिए धार्मिक संप्रदायों को लेकर विवाद वृथा है।
अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करते समय अद्भुत धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया था। वह स्वयं तो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे किन्तु किसी अन्य को बौद्ध धर्म अपनाने को बाध्य नहीं करते थे। उन्होंने बुद्ध के जनहितकारी संदेशों को भारत ही नहीं अपितु दूसरे देशों तक भी पहुँचाया किन्तु कभी भी वो धर्म को लेकर अतिवादी नहीं बने। उनका मानना था कि, "हर दशा में दूसरे सम्प्रदायों का आदर करना ही चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की उन्नति और दूसरे सम्प्रदायों का उपकार करता है। इसके विपरीत जो दूसरे सम्प्रदायों का अपकार करता है वह अपने सम्प्रदाय की भी जड़ काटता है, क्योंकि जो अपने सम्प्रदाय के समर्थन में, इस विचार से कि मेरे सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करता है, वह ऐसा करके वास्तव में अपने सम्प्रदाय को ही गहरी हानि पहुँचाता है। इसलिए समवाय (परस्पर मेलजोल से रहना) ही अच्छा है| अतः लोग एक-दूसरे के धर्म को ध्यान देकर सुनें और उसकी सेवा करें।" हिंदू धर्म में हमेशा से ये सहिष्णुता रही है।
सही तो है, यह जानकर भी कि जाने-अनजाने हम सब एक ही गंतव्य तक पहुँचने के लिए प्रयत्नशील हैं, हम विचलित क्यों हों? यदि एक संप्रदाय कुछ निरर्थक क्रिया-कलापों में विश्वास रखता है, यदि उसकी धार्मिक अवधारणाएं अधिक तर्कसंगत नहीं हैं और यदि वह अतिशय रूढ़िवादी भी है तो क्या हुआ? धीरे धीरे उसका भी विकास होगा। कोई धर्म आरम्भ से ही उच्च कोटि का नही होता। प्रारंभ में सबमें अंधविश्वास और मिथक होते हैं। इसलिए किसी भी धर्म की निंदा नहीं करनी चाहिए अपितु धर्मों के पारस्परिक चर्चाओं से एक दूसरे की अच्छी बातें ग्रहण करना चाहिए। एक दूसरे को कुसंस्कारों के परिहार में मदद करनी चाहिए। यदि एक मनुष्य दूसरे से मंद है, तो हमें उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए, बस उसे आत्मिक विकास हेतु उत्साहित करना चाहिए।
वेदान्त कहता है कि हमारा उद्देश्य वहाँ पहुँचना है जहाँ हम स्त्री-पुरुष, धर्म, वर्ण, जन्म आदि पर आधारित भेदों को न देखें, केवल उस दिव्यता का अनुभव करें जो मानव का यथार्थ स्वरुप है। जब हमारा हृदय पवित्र हो जाता है और हमारे ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं, केवल तभी हम प्रत्येक मनुष्य की अन्तर्निहित दिव्यता का अनुभव कर सकते हैं और केवल तभी हम कह सकते हैं कि मनुष्यमात्र के प्रति हममें भ्रातृत्व की भावना है। इस अवस्था को ही विश्वबंधुत्व कहते हैं और यहाँ तक पहुँचने वाला व्याक्ति ही सही अर्थों में वेदान्ती है।