वेदों में मोक्ष का स्वरुप / मृदुल कीर्ति
मोक्ष,मुक्ति और निर्वाण की चाहत अर्थात इसके ठीक पीछे किसी बंधन की छटपटाहट भी ध्वनित है। यदि इन शब्दों का अस्तित्व है तो कदाचित इसकी सम्भावना के बीज भी इसी में समाहित है।
कर्मों के तीन प्रारूप संचित,प्रारब्ध और क्रियमाण का कर्म चक्र जाल है। कृत कर्मों का प्रारब्ध—–जो अवश्य ही भोगना ही पड़ता है ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं
ना भुक्तं क्षीयते कर्म जन्म कोटि शतैरपि.
कर्म भोग अनिवार्य है, सर्वज्ञ के विधान में अनिवार्य का निवारण भी नहीं.
क्रियमाण –के प्रति सजगता ही ज्ञानपूर्वक जीने की विधा है क्योंकि प्रत्येक आकर्षक वस्तु एक चेतावनी है. कोई भी इन्द्रिय तुम्हारे सुख को चुरा सकती है, दास बना सकती है. भोग से उपजे संस्कार सदा ही दुःख दायी होते हैं. परिणाम दुःख, तप दुःख और संस्कार दुःख –विवेकी जनों के लिए सब कर्मफल दुःख हेतु ही हैं. जो तपश्चर्या भोग की लालसा से की जाती है उनसे दुःख के साधन ही जुटते हैं. दुःख का स्वरुप कोई भी हो पर उसकी जड़ें चित्त में ही कहीं ना कहीं जमी होती है. इनसे मिलने वाले सुख-दुःख देह के विकार, मन के विकार हैं. तो जन्म -मरण आत्मा के विकार हैं. अविकारी केवल परब्रह्म है. जन्म -मरण दारुण दुःख के स्वरुप हैं. इनसे मुक्त होने की चाह ही मुक्ति की चाह का मूल कारण है.
पुनरपि जन्मं ,पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं,
यह संसारे अति दुस्तारे , कृष्णा तारे पार उतारे.
आदि गुरु शंकराचार्य : जीव , जीवन और जगत जब से अस्तित्व में आये हैं, तब से ही जीव जन्म-मरण के दारुण दुःख से सदा ही बचने का प्रयास करता रहा है. सृष्टि के आरम्भ में वेदों में परमात्मा से प्रार्थित ऋषियों की प्रार्थना —–
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति ।
इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपा: स मा धीर: पाकमत्रा विवेश ।।ऋग्वेद 1.164.21
इस प्रकृतिरूपी वृक्ष पर बैठी हुई संसार में लिप्त मरणधर्मा जीवात्माऍं सुख-दु:ख रूपी फलों को भोगती हुई अपने शब्दों में परमात्मा की स्तुति करती हैं । तब इन लोकों के स्वामी और संरक्षक परमात्मा अज्ञान से युक्त मुझ जीवात्मा में भी विद्यमान हैं ।
यस्मिन्वृक्षे मध्वद: सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधि विश्वे ।
तस्येदाहु: पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्य: पितरं न वेद ।।ऋग्वेद 1.164.22
इस (संसार रूपी) वृक्ष पर प्राण रस का पान करने वाली जीवात्माऍं रहती हैं, जो प्रजा वृद्धि में समर्थ हैं । वृक्ष में उपर मधुर फल भी लगे हुए हैं, जो पिता (परमात्मा) को नहीं जानते, वे इन मधुर मोक्ष रूपी फलों के आनन्द से वंचित रहते हैं ।
“जो पिता (परमात्मा)को नहीं जानते , वे इन मोक्ष रूपी मधुर फलों से वंचित रहते हैं.”
वैदिक ऋषिओं का यह कथन पुष्टि करता है कि मोक्ष सर्वोत्तम आनंद है, जो जीवात्माओं को प्रेय से हटाकर श्रेय की ओर ले जाता है. श्रेयार्थी का जो ढंग है, जीवन को देखने का वह आनंद को उतारने वाला है, प्रेयार्थी का दुःख उतारने वाला है. नचिकेता को कोई प्रलोभन नहीं लुभा सका. सर्वोच्च को पाने का दृढ़ प्रतिज्ञ मन आत्मा के मर्म को जान कर सत्य स्वरुप में निमग्न हो गया. सुख को खोजने वाला मन ही दुःख का निर्माता है. अपेक्षाएं ही पीड़ा का मार्ग हैं।
वेदों में मानव की आंतरिक चेतना को जगाने और सजग रखने के सूत्र, सम्पूर्ण वेदों के कथ्य विषय हैं. जग, जीव ,जीवन,जन्म, मरण और पुनर्जन्म के आंतरिक सूत्र व् मर्म को चेतना में उतारने की विद्या ही वेद हैं. मन की अनंत मांगों से मुक्त होना ही मुक्ति है क्योंकि कामनाएं ही तो बंधन हैं. मोक्ष—–मोह के क्षय की अवस्था है. वही मोह मुक्त और इच्छा मुक्त मन अपने भीतर के अनंत चैतन्य के साथ जब एक्य अनुभव करता है वही——-मोक्ष,मुक्ति ,निर्वाण है.
अतः चित्त की विषयों से अनासक्ति ही मुक्ति है. राग रहित होना ही वैराग्य है. निर्वाण कामनाओं के निवारण से ही है।
द्वन्द मोह विनिर्मुक्ता ७/२८ गीता.
अतः मोक्ष मन की अवस्था है जो स्वयं में घटित करनी होती है. शरीर का यंत्र बिना हम पर कोई छाप छोड़े काम करता रहे, यही सर्वोच्च कर्म प्रणाली है, जीवन प्रणाली है. निष्काम कर्म की उत्कृष्टता मोक्ष तक ले जाती है. अंतस में स्वयं को सर्वज्ञता पूर्वक जानो । ऋषियों ने वेदों में यही मोक्ष का स्वरुप निरूपित किया है. आत्मिक और मानसिक विकास की निरंतरता उत्तरोत्तर विकसित होती हुई मोक्ष तक ही ले जाती है।
यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभं निरतक्षत ।
यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशु: ।। ऋग्वेद 1.164.23
पृथ्वी पर गायत्री छन्द को, अन्तरिक्ष में त्रिष्टुप् छन्द को तथा आकाश में जगती छन्द को स्थापित करने वाले को जो जान लेता है, वह मोक्ष (देवत्व) को प्राप्त कर लेता है । देहिन (आत्मा) शाश्वत है. वह शुद्ध चैतन्य मात्र है. यह नित्य है, यही मूल तत्व है. स्वयं को शुद्ध चैतन्य आत्मा मानकर उसी में स्थित हो जाओ, यही है वैराग्य ,ज्ञान व् मुक्ति का रहस्य. यही चैतन्य ही ब्रह्म है. उपनिषद् कहते हैं—
यस्मिन विज्ञाते सर्व मिदं विज्ञातं भवति । लेकिन देह मरणधर्मा है, पल-पल प्रति निमिष बदलती है और क्रमशः क्षीण होकर क्षय हो जाती हैं।
देह तो बिना क्षीण हुए भी क्षीण हो जाती क्योंकि आयु प्रारब्ध के अनुसार ही मिलती है. मृत्यु का साम्राज्य तो बहुत बड़ा है जो गर्भ में बिना जन्म के भी जीव को ले जाता है. संसार का नित्य वियोग है, परमात्मा का नित्य योग है. जगत के आकर्षणों से आकर्षित जीव मोहपाश में बंधा विवेक हीन होकर ,जगत को अपना मानकर सम्बन्ध बना लेता है. ममता अज्ञान है, समता ज्ञान है. हर सुख हर आसक्ति अंततः दुःख ही है. वे ही समस्त दुखों का कारण है और यही तम है, यही असत्य है, यही मृत्यु है.
असतो मा सद्गमय .
तमसो मा ज्योतिर्गमय .
मृत्योर्मा अमृतं गमय .
बृहदारंयक उपनिषद –१/३/२८
शतपथ ब्राह्मण १४-३-१-३-
अनच्छये तुरगातु जीवमेजद् ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्
जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्त्यो मर्त्येना सयोनि: ।। ऋग्वेद 1.164.30
श्वसन प्रक्रिया द्वारा अस्तित्व में रहने वाला जीव जब शरीर से चला जाता है, तब यह शरीर घर में निश्चल पडा रहता है । मरणशील शरीरों के साथ रहनेवाली आत्मा अविनाशी है, अतएव अविनाशी आत्मा अपनी धारण करने की शक्तियों से सम्पन्न होकर सर्वत्र निर्बाध विचरण करती है
अपाड्.प्राडे्.ति स्वधया गृभीतो अमर्त्यो मर्त्येना सयोनि: ।
ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ।। ऋग्वेद 1.164.38
यह आत्मा अविनाशी होने पर भी मरणधर्मा शरीर के साथ आबद्ध होने से विविध योनियों में जाता है । यह अपनी धारण क्षमता से ही उन शरीरों में आती और शरीरों से पृथक् होती रहती है । ये दोनों शरीर और आत्मा शाश्वत एवं गतिशील होते हुए विपरीत गतियों से युक्त है । लोग इनमें से एक (शरीर) को जानते हैं, पर दूसरे (आत्मा) को नहीं समझते ।
आत्मा का अविनाशी और देह के विनाशी स्वरुप , जगत का स्वरुप, यहाँ जन्म जीवन मरण
पुनर्जन्म और जीव की परम-चरम स्थिति मोक्ष का तात्विक निरूपण ही वेदों का निरूपित विषय है.
वैदिक ज्ञान जीव को मृत्यु का भय हटाकर मृत्यु का बोध कराता है. वेदों का ज्ञान जीना सिखाता है और मरना भी सिखाता है. वस्त्र की तरह देह को त्याग देना परम ज्ञान है. बीज को फल से अलग होना ही है. पकने पर सबसे अलग होना है. किनारा आने पर नाव छोडनी ही पड़ती है. नाव साथ लेकर कोई नहीं चलता. यदि जीवन में किये कर्म मंगलमय हैं तो विसर्जन भी मंगलमय है, अर्थात ईश्वरीय धारा में होगा. अतः वेदों में जीवन की पूर्णता का ईश्वरीय ज्ञान है.
जो मृत्यु के वश हुआ वह भोगी है, मृत्यु जिसके वश हुई वह योगी है.
यदि सृजन सत्य है तो विसर्जन भी सत्य है, ज्ञान सिखाता है कि विसर्जन मंगलमय हो.
आना तो सबका ही साधारण होता है, जाना विशिष्ट हो तो सार्थकता है। तब महाप्रयाण उत्सव बन जाए। उत्सर्ग पूजा बन जाए । वेदों में मोक्ष का यही शाश्वत स्वरुप है, अटल स्वरुप है।
त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।—ऋग्वेद 7.59.12
यजुर्वेद ३/६०
हम सुरभित पुण्य, कीर्ति एवं पुष्टिवर्धक तथा तीन प्रकार से संरक्षण देने वाले त्र्यम्बक भगवान् की उपासना करते हैं । वे रुद्रदेव हमें उर्वारुक (ककडी, खरबूजा) आदि की तरह मृत्युबन्धन से मुक्त करें, किन्तु अमरता (मोक्ष) के सूत्रों से दूर न करे ।
अथ–तत्व से–अस्तित्व से—अपनत्व से—प्रभुत्व से—अमरत्व से होती हुई —ब्रह्मत्व में विराम मिले
हे परब्रह्म परमात्मा !
हे प्रभुवर !
मुझे अस्तित्व, सत्ता, इयत्ता विहीन कर दो. मुझे सब कुछ की नहीं , कुछ नहीं की चाह है.
मैं चली उत्सर्ग लेकर, तुम वहाँ उत्सव मनाओ,
दूर इतने जा चुकेंगें , कहते रहना लौट आओ.
बिंदु कब सिन्धु से मिलकर, लौटकर है आ सकी,
श्वास की सीमा ससीमित , कब असीमित पा सकी।