वेदों में वनों का संरक्षण / मृदुल कीर्ति
मानव समाज ,राज्य तथा समस्त विश्व के लिए कितना महत्वपूर्ण है इस तथ्य का आभास करना जिसे करोड़ो वर्षों पूर्व ही वैदिक काल में कर लिया गया था। जिसके अनंतर ही ऋषियों ने वन्य सम्पदा का महत्त्व उसकी उपयोगिता और रक्षा के प्रति जागरूक किया। ऋषियों की युगों पूर्व, पूर्वाभास की अपूर्व क्षमता पर एक क्षण को बुद्धि स्तंभित सी रह जाती है। वेदों में वनों का संरक्षण वर्णित होना ऋषियों के सम्यक विवेक और अपूर्व दूर दर्शिता का प्रतीक है। जब कि उस युग में ना ही इतनी जनसँख्या थी और ना ही इतने दूषित मन और विकारी विचार थे ना वनों के कटाव थे। आज तो पाँचों तत्वों को बेच कर सोने से तिजोरी भर जाएँ बस यही लक्ष्य रह गया है।
वैदिक राज्य का राष्ट्र वनों की रक्षा करे , ऐसे निर्देश वेदों में हैं। वन्य सम्पदा के संरक्षण को राष्ट्रीय कर्तव्य मानता है। वस्तुतः किसी भी राष्ट्र के जंगल उसकी बड़ी भारी प्राकृतिक सम्पदा है। राष्ट्र तब ही वृद्धि करेगा जब भौगोलिक, प्राकृतिक एवं मानवीय शक्तियां क्रियात्मक होकर सहयोग करें। ऋग्वेद में राजा द्वारा वनों के संरक्षण की पुष्टि में प्रतिपादित अनेक मन्त्रों में कहा है। ‘सम्राट वनों से सम्बन्ध रखता है , इनके रक्षा और वृद्धि के साथ-साथ वनों की उपयोगिता से लाभ उठा कर राष्ट्र को लाभान्वित करता है। सम्राट वनों का सौंदर्य बनाए और बढाए। सम्राट के सम्यक अनुशासन और प्रजा द्वारा उनके परिशीलन से ही ‘पृथ्वी प्रचुर एवं प्रभूत धन सम्पदा एवं ऐश्वर्य धारण करती है, तब ही राष्ट्र के जंगल भी ऐश्वर्य एवं सम्पदा देते है। प्राकृतिक परिवेश के प्रहरी बनते हैं। वैदिक राष्ट्र का राजा अनंत प्रभाव , प्रभुता और तेज से ही नियमन करता है ‘तेजस्वी सम्राट, जो वनों का विनाश करता है उन्हें तू वैसे खा डालता है, जैसे पशु घास को खाते हैं। अर्थात बिना तेरी आज्ञा के वनों का विनाश करने वाले को राजा दण्डित करता है चाहें वे कितने ही प्रभावशाली क्यों न हों, पर वनों की रक्षा के सन्दर्भ में तुझसे बड़ा कोई नहीं है। वन राष्ट्रीय संपत्ति है और तू राष्ट्र का अध्यक्ष है। सम्राट जंगलों का रक्षक और प्रहरी है और निरंतर सम्बन्ध और संपर्क बनाये रखता है। इंद्र (सम्राट) की आज्ञा से ही व्यवहारी पुरुष कुल्हाड़ी लेकर जंगल में प्रवेश कर सकते है, चाहें वह जलाने के प्रयोजन से लिया गया ईंधन ही क्यों न हो। जंगलों,पर्वतों और औषधियों का पूरा संरक्षण राजा के ही द्वारा होता है।
‘यासां राजा वनस्पतिः ‘–अथर्ववेद ८/७/१६ । प्रजा की औषधियों वन्य सम्पदा और वृक्षों की पूर्ती-आपूर्ती का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजा ही ध्यान रखता है। यह जान कर स्फुरण होती है कि वेदों में वनों और औषधियों के प्रति रक्षात्मक और सृजनात्मक अतिशय जागरूकता आज से अनंत युगों पहले थी। यजुर्वेद का एक दृष्टांत दृष्टव्य है, जिसमें कहा गया है कि ‘ उपभोक्ता केवल उतनी ही औषधि उखाड़े , जितनी प्रयोग में ला सके उतनी लेकर नित्य रोगों को हटता रहे, औषधियों की परंपरा को बढ़ाता रहे। जिससे सब प्राणी रोगों से बच कर सुखी होते रहें उसी जाति और प्रजाति की औषधि को लगावे वरना प्रकृति उसे चोर मानती है। यजुर्वेद १२/९५
इसी एक मन्त्र ने नैतिक बिंदु को छुआ , नैतिक कर्तव्य के प्रति सचेत किया , वन्य सम्पदा को रक्षित किया , कर्तव्य बोध और अन्य के दुःख के प्रति जागरूक किया। कहाँ हैं आज ऐसे कर्तव्य बोध? जैसे धीरे-धीरे सब पतन की ओर जा रहे है।
सामयिक प्रासंगिकता: वनों के कटाव से होने वाले विनाश को प्रखर ज्ञान और अप्रत्याशित दूरदर्शिता से अनुमानित कर लिया था। वही आज घटित भी हो गया है। हम वनों के विनाश का परिणाम भोग रहे है। अभी तो आगे कितना विनाश बाकी भी है। कहाँ वैदिक मंत्रणा है कि जलने वाली लकड़ी भी बिना आज्ञा के नहीं ली जा सकती और कहाँ आज पूरे के पूरे जंगल उजाड़ कर, तिजोरियां भर रहे है। विकास के नाम पर जो विनाश हो रहा है वह किसी से नहीं संभल सकता है। रक्षक ही भक्षक है। वन विभाग के अधिकारी ही वन विनाश के प्रमाणित और सरकारी मान्यता प्राप्त अधिकारी हैं।
जन्म से लेकर मृत्यु तक , पालने से लेकर चिता तक , किसी ना किसी रूप में मानव लकड़ी और वृक्ष से ही जुड़ा है। मानवीय सामाजिक, नैतिक और राष्ट्रीय कर्तव्य बोध सब मिल कर कहते हैं कि वृक्ष का उपकार और अधिक वृक्ष लगा कर ही चुकाया जा सकता है। जिस पेड़ के आम आपने खाए वह किसी ने कभी लगाए , ऐसे ही आप आगामी लोगों के लिए लगा कर ही प्रकृति का ऋण चुका सकते है। होना तो यह चाहिए कि जब आपके घर कोई शिशु जन्म ले उसी दिन पांच वृक्ष लगायें। यह उसका जन्म दिन उपहार आगे फली भूत होगा। शुभ दिन सदा पल्लवित होगा फलदायी होगा। आपको और उस बालक को जरा सोचिये कितना हर्ष होगा जब वृक्ष बड़े होंगें। समय की माँग है कि इस विचार को आन्दोलन का रूप दिया जाए। नर्सिंग होम में जन्म दिन पर वृक्ष लगाने के प्रति प्रेरित और जागरूक किया जाए। अब यदि प्रकृति को बचाना है तो जागना ही होगा
प्राण वायु पल-पल तरु देते, वृक्ष विरल उपकारी है।
बिनु बदले ही उपकार करें , अस कौन पिता महतारी है।