वे उसके पिता नहीं थे / प्रियदर्शन

Gadya Kosh से
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उसके पिता नहीं थे वे, लेकिन पिता सरीखे ही लगते थे। करीब सवा छह फुट का वही कद, जिस पर उन्हें नाज था, चौड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आँखें, घनी मूँछें, निकली हुई नाक, गोल चेहरा, संतों-सी नीचे तक झूलती-सी दाढ़ी। कुरता-धोती उनकी प्रिय पोशाक थी। कुल मिलाकर वे एक बेहद असरदार शख्सियत थे और सारा गाँव उन्हें पहलवान पुकारा करता था। हालाँकि इस संबोधन में वह नागर बौद्धिकता छिप जाती थी, जो गाँव में पैदा होने और जीवन भर रहने के बावजूद उसके पिता की आँखों में पता नहीं, कहाँ से चली आई थी।

उसके गाँव के आसपास तीन पहाड़ थे और वे गाँववालों की जिंदगी का, उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा भी थे। बहुत बचपन में वह अपने पिता को भी किसी पहाड़ की तरह ही देखता था, पास के तीन पहाड़ों की तरह अपने चारों ओर पसरे चौथे पहाड़ की तरह। फर्क सिर्फ इतना था कि गाँव के पास के तीनों पहाड़ों का रंग गहरा काला था और उसके पिता खासे गोरे थे। इसलिए वे कभी-कभी बाहर के आदमी लगते थे। शहर से गाँव में आकर बसे हुए।

यह एक अजीब-सी बात थी, क्योंकि उसके पिता शहर कभी नहीं आए थे। और आगे चलता हुआ जो आदमी उसे अपने पिता की तरह लग रहा था, उसे वह एक बार पिता पुकार ही लेता, मगर उसने सिर्फ इसलिए नहीं पुकारा कि पिता को शहर से बेहद परहेज था। उनको गुजरे हुए हालाँकि पंद्रह साल हो चुके थे, फिर भी शहर से उनके परहेज को उसने अपने भीतर बचाकर रखा था। सिर्फ एक स्मृति की तरह नहीं, बल्कि एक आदत की तरह, जो शहर में इतने साल गुजारने के बाद भी गई नहीं थी। फिर भी उसकी इच्छा हो आई कि वह एक बार इस आदमी से बात करे, जो उसके पिता की तरह दिखता है। इसलिए नहीं कि वह उसके पिता की तरह बात करेगा, बल्कि इसलिए कि बात करके ही उसे उससे अपने पिता की भिन्नता का पूरा एहसास होगा। आगे चलता हुआ एक व्यक्ति अगर आपके पिता जैसा लगे-भले ही वह इस बात से बेखबर हो - वह थोड़ा-सा पिता तो हो ही जाता है। इस अनजाने, बेखबर पितृत्व की अचानक उग आई बेल को काटकर फेंकना होगा। और इसके लिए यह जरूरी है कि इस आदमी से बात की जाए।

बात करने की इस बेचैनी की वजह भी वह समझ रहा था। एक तो उसे यकीन था कि जो दिखने में समान होते हैं, वे बातचीत में अलग हो जाते हैं। जिनकी आँखें, नाक, गोराई या कद-काठी आपस में मिलती हो, उनकी बातें नहीं मिलतीं। उनकी तकलीफें अलग होती हैं, उनकी स्मृतियाँ अलग होती हैं, उनका लहजा अलग होता है, उनकी आवाज अलग होती है। दूसरी वजह इस आवाज से ही फूटती थी। उसके पिता की शानदार शख्शियत में सबसे बेमेल चीज उनकी आवाज ही थी। एक बेहद पतली आवाज, जैसे पहाड़ के नीचे से एक सँकरी-सी नाली बह रही हो। यह एक अच्छी आवाज नहीं थी। जब वे बोलते थे तो लोगों को पहले यकीन नहीं होता था कि वही बोल रहे हैं। लोग इधर-उधर देखने लगते थे, जैसे किसी बादशाह की तरफ से उसका चापलूस दीवान बोल रहा हो। लेकिन बाद में उन्हें एहसास होता कि यह पतली-सी आवाज इसी शानदार गले से निकली है तो पहाड़ उनकी निगाह में कुछ छोटा हो जाता।

अपनी आवाज की इस कमजोरी का एहसास पिता को भी था। इसीलिए वे कम बोलते थे। उन्होंने देर-देर तक मौन रहने का एक अभ्यास-सा साध लिया था। रास्ते में उन्हें देखकर कोई प्रणाम करता तो वे सिर हिलाकर जवाब देते या फिर हाथ जोड़कर प्रणाम लौटा देते। कोई घर आता और उनसे बात करने की कोशिश करता, तब भी वे बहुत देर चुप रहते और मुस्कराते हुए या संजीदगी से बात सुनते रहते। शायद उनके चेहरे की बौद्धिक छुअन इसी चुप्पी की देन थी। वे कम बोलते थे, मगर चाहते थे कि सामने वाले को यह न लगे कि वे उसकी अवहेलना कर रहे हैं। इसलिए उनकी मुस्कराहट बड़ी आत्मीय होती। ऐसे ही अभ्यास से उन्होंने अपनी आँखों में बहुत कुछ समझ लेने का एक भाव विकसित कर लिया था। यह भाव लोगों के मन में उनके प्रति सम्मान का भाव जगाता था। उसे याद नहीं है, मगर लोग बताते हैं कि 1940-41 में जब एक अंग्रेज अफसर जनगणना के सिलसिले में उनके गाँव आया था और गाँव के किसी समझदार आदमी से मिलना चाह रहा था तो गाँववाले सीधे उसे पिता के पास ले गए थे। पिता ने उससे भी कुछ कहा नहीं था, सिर्फ मुस्कराहट और आँखों के चौकन्नेपन के जरिए उससे बात की थी, और हालाँकि उस अंग्रेज अफसर को उन पर कुछ शुबहा-सा हुआ था, मगर उसने उन पर भरोसा करना उचित समझ। वे दूसरी बड़ी जंग के दिन थे और जासूस गाँव में जाकर भी छिपे होते थे।

तो इस आगे चलते हुए आदमी से बात करना जरूरी था। कोई दूसरा भी अपने पिता सरीखा लगे, यह उसे गवारा नहीं था। उसने तय किया कि वह तेज-तेज चलता उनके बराबर पहुँचेगा और उन्हें टोकेगा। लेकिन या कहेगा? बात करने के बहुत-से बहाने हो सकते हैं। वह वक्त ही पूछ सकता है। वक्त नहीं तो रास्ता। इस शहर में वक्त के पीछे लोग जितना भागते हैं उतना ही रास्तों में भी गुम हो जाते हैं।

‘वक्त क्या हो रहा है चाचा जी?’ चाचा जी बोलते-बोलते उसने खुद को कोसा। यह रिश्ता जोड़ने की जरूरत क्या थी। ज्यादा-से-ज्यादा भाई साहब कहके काम चलाया जा सकता था। उसने भाई साहब कहने की ही सोची थी, मगर यह कमबख्त चाचा जी कहाँ से निकल गया। चाचा जी बोलने का तो उसे अभ्यास भी नहीं है। जरूर बूढ़े की उम्र के चलते निकल गया होगा। मगर फिर वह जान गया था कि यह खुद को धोखे में रखने की ही कोशिश है। कई बूढ़ों को वह भाई साहब बोलने की भी जहमत नहीं उठाता था। जरूर यह बूढ़ा कहीं-न-कहीं उसका पिता बन बैठा है, इसीलिए अनजाने में ही उससे यह संबोधन निकल गया।

अनजाने में ही निकले इस संबोधन ने उस बूढ़े को भी चौंकाया था। उसे भी पता चल गया था कि पूछने वाले की दिलचस्पी वक्त में कम, उसमें ज्यादा है। इसलिए उसने वक्त बताने की परवाह नहीं की और पूछा, कहाँ के हो। उसने फिर एक बार खुद को फँसा हुआ महसूस किया। अब या बताए कि वह कहाँ का है। यही सवाल तो उसे न जाने कब से परेशान करता आ रहा है। या उसे खुद भी ठीक-ठीक भरोसा है कि वह कहाँ का है? वक्त पूछने की अपनी हड़बड़ी पर पछताते हुए उसने उन दिनों को याद किया जब वह भरोसे के साथ कह सकता था कि वह कश्मीर का है। मगर अब कैसे कहे। कश्मीर तो उसने पढ़ाई के तुरंत बाद छोड़ दिया था और सिर्फ नातेदारी के ब्याह, मुंडन और मौतों के अवसर पर जाया करता था। वह भी जबसे हालात बिगड़े, छूट गया। मगर यह भी कैसे कहे कि वह दिल्ली का है। दिल्ली में बीस साल से रहते हुए और यहाँ मकान खरीद लेने के बाद भी या वह दिल्ली का हो पाया है? अगर दिल्ली का हो पाता तो या मरने के पंद्रह साल बाद अचानक उसके पिता उसे याद आने लगते? मगर यह एक वाहियात तर्क था। या दिल्लीवाले अपने मरे हुए बाप को याद नहीं करते, भले ही वे कहीं भी पैदा हुए हों? इसके अलावा सरकारी कामकाज के फॉर्म भरते हुए और बड़ी मेहनत से बनवाए हुए और उतने ही जतन से सँभालकर रखे गए मैले-कुचैले राशन कार्ड को या बैंकों से लेकर दूसरे दफ्तरों तक में अपने दिल्ली वाला होने के प्रमाण के तौर पर वह पेश नहीं करता है? या उसका पंद्रह साल का बेटा दिल्ली के बाहर किसी दूसरे शहर को अपना घर बताने की सोच सकता है? घर बाप से बनते हैं या बेटों से?

इतनी देर की चुप्पी बूढ़े को खल सकती थी। इसलिए उसने अपने से जिरह खत्म कर दी और मान लिया कि वह दिल्ली का ही है। दिल्ली का नहीं होता तो वक्त नहीं, रास्ता पूछता। लेकिन जिसे उसने चाचा कहा था, उस बूढ़े‍ को यकीन नहीं था कि वह दिल्ली का है। दिल्लीवाले इतने बदनाम क्यों हो गए हैं? इसलिए उस चाचा जी ने कुरेदा, ‘अब न दिल्ली में रह रहे होंगे, आए तो किसी गाँव से ही होंगे। शक्ल से तो पंजाबी लगते हो।’

उसे सख्त अफसोस हुआ। उसका चेहरा भी उसकी कश्मीरियत का बयान नहीं करता है। या चेहरे भी इतने बदल जाते हैं? वह पंजाबी कब से लगने लगा? कश्मीरियों का चेहरा तो एक बार बनता है तो जीवन भर कश्मीरी ही बना रहता है। फिर इस बूढ़े ने बदमाशी की या? जो भी हो, उसने बताया कि वह कश्मीर का है मगर कई सालों से दिल्ली में है। ‘जब सत्रह साल का था जी तो दिल्ली चला आया था। घर में तंगी थी जी। हालाँकि पिता जी सख्त नाराज हुए थे लेकिन मुझे धुन थी कि बड़े शहर जाकर पैसा कमाना है जी।’ बोलते-बोलते उसे एहसास हो चुका था कि वह चेहरे से नहीं, लहजे से पंजाबी हो चुका है। इस आदमी ने बस एक दुखती रग क्या छुई कि उसे अपने सारे बदलाव नजर आने लगे। इतना जी-जी करने की आदत उसे कैसे पड़ी? पिता की आवाज पतली भले थी मगर लहजे में अपने ढंग की सख्ती थी, जिसे सुनकर अंग्रेज अफसर ने भी समझ लिया था कि उन्हें जी-हुजूरी नहीं आती। मगर पंद्रह साल की नौकरी ने उसके भीतर पुश्तों से पड़ी यह आदत छुड़ा दी।

इसकी भी एक वजह वह समझ सकता था। जिस साल उसे नौकरी मिली थी, उसी साल पिता जी चल बसे थे। संतोष इस बात का था कि उसकी नौकरी की खबर सुनकर गए थे। लेकिन उनके जाते ही उसने खुद को अनाथ महसूस किया। बेहद असुरक्षित, बेहद अकेला और बेहद डरा-डरा। इतना डर उसे उन दिनों भी नहीं लगता था जब उसके पास कोई पक्की नौकरी नहीं रहती थी और उसे यह मालूम नहीं होता था कि शाम को वह खाना क्या और कहाँ खाएगा। या खाएगा भी या नहीं। शायद पिता की मौत के बाद पैदा हुई दीनता ने उसमें इतनी जी-हुजूरी भर दी थी। वह बहुत दिनों तक हर किसी में अपने पिता को तलाशता था और उससे उसी अदब और आत्मीयता से पेश आना चाहता था जैसे अपने पिता से आया करता था। लेकिन दिल्ली में पिता होने की फुरसत किसी के पास नहीं थी। लोग उसके पिता नहीं रह गए, मगर लोगों को बाप की-सी चापलूसी से पुकारने की उसकी आदत बनी रह गई।

मगर, पिता लगने वाले व्यक्ति को यह आदत जितनी नागवार लगी हो, उससे ज्यादा दिलचस्प यह तथ्य लगा कि उसके लड़के के बराबर का यह लड़का इतने बरस दिल्ली में गुजारकर भी दिल्ली वाला नहीं है। नहीं तो घबराहट के साथ नहीं, हेठी के साथ बोलता। पैसे के गुरूर के साथ बोलता, एक बूढ़े आदमी की सवाल पूछने की हिमाकत को एक हिकारत के साथ देखता हुआ बोलता। उसका अपना लड़का भी दिल्ली में था और दिल्ली ने उसे उसका लड़का नहीं रहने दिया था। वह भी पैसे कमाने आया था, उसने कमाए भी, लेकिन दिल्ली ने उसे उतना कमाने की इजाजत नहीं दी जितना वह चाहता होगा या जितने के लिए मेहनत करता होगा। इसलिए वह झल्लाया हुआ रहता था और पिता के किसी भी सवाल का जवाब बंदूक की गोली की तरह देकर किनारे हो जाता था।

‘पिता क्यों मना कर रहे थे दिल्ली आने से?’ इस बार बूढ़े ने मुलायमियत से पूछा। यों का जवाब भी उसके पास नहीं था। वह अपने भीतर टटोलता रहा क्यों का जवाब। पिता शहर को नापसंद करते थे। मगर क्यों? उन्हें कैसे पता चल गया था कि शहर बहुत बड़ी जेलें होते हैं जो ढेर सारी सहूलियतों देते हैं मगर आजादी नहीं देते। वे सब कुछ करने देते हैं, मगर उनका एक हाथ तुम्हारी गरदन पर पड़ा होता है, जरा भी लापरवाही की या शहर के तौर-तरीके भूले कि गरदन गई। या संतों-सी झूलती उनकी दाढ़ी के पीछे वाकई उनके संत होने की सचाई छिपी थी?

‘पता नहीं, लेकिन ठीक मना करते थे। उस वक्त मान जाता तो...’ उसे फिर लगा कि उसने कोई बेतुकी-सी बात कह दी है। मान जाता तो क्या होता। दिल्ली में कौन-सा दुख है। कश्मीर के भी तो अपने दुख होते। ज्यादा-से-ज्यादा कश्मीर कुछ आजादी देता और सुरक्षा का थोड़ा वहम देता। मगर असली सुरक्षा तो दिल्ली देती है। सुरक्षा बड़ी है या आजादी? असुरक्षित आजादी किस काम की? मगर फिर गुलामों की-सी सुरक्षा भी कैसी। खटते और खाते रहने से जीना भी हो जाता है क्या? यह एक पुराना सवाल था जो कई-कई तरह से कई-कई अवसरों पर उसके भीतर आया करता था। अभी इस सवाल के उग आने की या वजह थी? शायद यह बूढ़ा आदमी, जो उसके पिता की तरह लगता था और जो बात अपने पिता के जीवित रहते वह उनके सामने स्वीकार नहीं कर सका, उसे स्वीकार करने की एक बेहद तेज इच्छा उसके भीतर पैदा हो आई थी।

आखिरकार उसने कह ही दिया, ‘आप मेरे पिता की तरह लगते हैं। मतलब सिर्फ उम्र में ही नहीं, देखने में भी।’ उसकी आवाज इतनी आत्मस्वीकृति में ही लड़खड़ाने लगी थी, इसलिए किसी फर्क को चिह्नित करना जरूरी था। ‘बस उनकी आवाज आपसे अलग थी।’

मगर बूढ़े ने शायद यह आखिरी पंक्ति नहीं सुनी। उसकी आवाज जैसी भी हो, पहली बात से ही गुम हो गई थी। अपने जिस लड़के को वह अपने असली लड़के में खोजता-खोजता हार गया था, वह अचानक उससे वक्त पूछता मिल जाएगा और उसे बताएगा कि वह उसके पिता जैसा लगा है, इसकी कल्पना भी नहीं की थी उसने। उसके सवाल भी खत्म हो चुके थे। दरअसल वे उसके सवाल थे भी नहीं। यह वे सवाल थे जो बरसों से उसके भीतर अपने लड़के से पूछने के लिए अटके पड़े थे। वह कई बार उससे पूछना चाहता था कि वह कहाँ का है, कब आया है और क्यों आया है। उसने उसे कभी दिल्ली आने को मना नहीं किया था। शहरों को वह अपने किसी हमशक्ल बूढ़े की-सी नफरत के साथ नहीं देखता था। वह उन्हें नई दुनिया के नुमाइंदों की तरह देखता था, जहाँ गाँवों के छोटे-छोटे वैमनस्य नहीं होंगे, अभाव नहीं होंगे, भूख नहीं होगी, जातियाँ और मजहब नहीं होंगे। ऐसा उसे उन अखबारों और नेताओं ने बताया था जो आजादी के बाद एक सुंदर सुबह का वादा करते थे। शहर ने उसके बेटों को भूखा रखा भी नहीं था। मगर इंसान की तरह नहीं पाला था। किसी ऐसी भेड़ की तरह पाला था जिसकी बलि चढ़नी हो। पंखे बनाने वाली एक मशहूर कंपनी में पंखे रँगने का काम करता उसका बेटा, उसे रोज लगता कि शहर की थोड़ी-थोड़ी बलि चढ़ता है। शहर उसे खा रहा था, इतना तो खा ही चुका था कि अब वह उसका बेटा नहीं रह गया था। पहली बार शहर आने पर उसने जिस उल्लास से उसका स्वागत किया था, वह न जाने कहाँ काफूर हो चुका था। अब उसकी जगह झुँझलाई आँखों का सूनापन था और इन आँखों को वह अपने बेटे की आँखों की तरह नहीं पहचान सका था।

यह दिल्ली का एक चौराहा था, शाम अँधेरे का आँचल पकड़ रही थी, दुकानों की रोशनियाँ आँखों में चुभने लगी थीं, गाड़ियों का धुआँ, शोर और बेतरतीब प्रकाश, सब मिलकर एक खोए हुए बाप और एक भूले हुए बेटे के चेहरों पर इस तरह आ जा रहे थे कि वे इंसान नहीं रह गए थे, रोशनियों से नहाए बुतों में बदल गए थे। मगर जो दौड़ रहे थे, चल रहे थे, भाग रहे थे, गाड़ियाँ चला रहे थे, सामान खरीद रहे थे, मोल-भाव कर रहे थे, भीख दे रहे थे, सिर्फ झुँझला रहे थे या हँस रहे थे, वे लाखों-लाख इंसान इन बुतों के मुकाबले ज्यादा बेजान लग रहे थे। एक-दूसरे को सहसा पहचान लेने के भाव ने उन बुतों को कुछ इस तरह जिंदा कर दिया था कि इनकी गरदन पर पड़ा शहर का हाथ छिटककर कहीं दूर जा गिरा था और वे जिंदा लोगों की तरह इस एहसास के साथ मुस्करा रहे थे कि फिर मिलेंगे और किसी चौराहे पर वक्त या रास्ता पूछते हुए सहसा एक-दूसरे को पहचान लेंगे।