वे क्यों रोएँ / कुबेर
अजय साहब अपना सामान ट्रक में भर कर चले गए। कब गए किसी को पता नहीं चला। न कहीं कोई हलचल हुई और न ही कहीं कोई चर्चा।
विभाग के सबसे बड़े अधिकारी थे तो क्या हुआ, आदमी नहीं थे क्या? या इस कालोनी के लोग आदमी नहीं है? यहाँ उनका रहना, न रहना बराबर था। कौन जानता था उसे यहाँ? चौबीसों घंटे गले में अधिकारी की तख्ती लटकाये घूमते रहत थे; क्या मतलब? किसी से मिलने-जुलने की बात तो दूर, दुआ-सलाम से भी कोई मतलब नहीं। अरे! पता भी तो चले कि हम समाज में, सभ्य समाज में रह रहे हैं।
जैसा पति वैसी ही पत्नी और वैसे ही बच्चे। ऐसे अकड़ू और घमंडी परिवार के जाने का भला किसे गम होगा?
पर अब उसकी जगह पर आने वाले विकास साहब के बारे में सुनकर लोगों को अजय साहब की महत्ता का पता चला है। कहने लगे हैं, ’वही ठीक थे। यदि किसी का भला नहीं किया तो किसी का बुरा भी तो नहीं किया। किसी को कोई नुकसान तो नहीं पहुँचाया। हमेशा काम से काम रखा। उनकी ओर सेे बेफिक्री तो थी कम से कम।’
विकास साहब के बारे में सुनकर यहाँ सब का ब्लडप्रेसर बढ़ा हुआ है। बेफिक्री गायब हो गई है। चिंता बढ़ गई है और लोग चिंतन की अवस्था में चले गए हैं।
चिंता का विषय यह नहीं है, कि वे बड़े रिश्वतखोर अधिकारी हैं, रहें! अपनी बला से। रिश्वत के मामले में कौन यहाँ दूध का धुला है? चिंता का प्रमुख कारण तो उनका तलाकशुदा होना, कँुवारों की तरह रहना, लुच्चाईपन और चरित्रहीनता है। लोग कहते हैं कि उनके शब्दकोश में औरतों के बारे में केवल एक ही शब्द है, औरत। माँ, बहन, बेटी अथवा विवाहिता, विधवा, जवान, प्रौढ़ा या वृद्धा जैसे शब्द है ही नहीं। छी, कितना चरित्रहीन होगा साला। तलाक का कारण भी तो उनकी इसी चरित्रहीनता को बताया जाता है। आज के जमाने में भला कौन पत्नी चरित्रहीन पति को बर्दाश्त करेगी? बेचारी के पास तलाक के अलावा और कोई रास्त बचा ही नहीं होगा।
संभ्रांत लोगों की इस कालोनी में साले इसी लुच्चे को आना था?
हर आस्तिक, जिसका अवतारवाद पर भरोसा होता है; का मानना होता है कि ईश्वर हमेशा अपने साथियों के साथ अवतरित होते हैं। उनके अवतार के पहले सारी भूमिकाएँ बननी शुरू हो जाती है। सारे शुभ लक्षण, प्रगट होने की होड़ में शामिल हो जाते है।
चाहे उल्टा होता हो, पर शैतान के मामले में भी ऐसा ही होता होगा। वरना विकास साहब नाम का शैतान इस कालोनी में अभी अवतरित ही नहीं हुए हैं और सारे बुरे लक्षण, क्यों प्रगट होने लगते?
मुसीबत छप्पर फाड़ कर आती है। विकास साहब नाम की मुसीबत अभी आये ही नहीं हैं और कालोनी में छप्परों का फटना शुरू हो गया है; लोगों पर मुसीबतांे के पहाड़ टूटने लगे हैं। पहली मुसीबत रहमकर साहब के छप्पर को फाड़कर दनदनाते हुए घुँसी है; ट्रांसफर के रूप में।
रहमकर साहब छोटे बाबू के रूप में नियुक्त हुए थे, और अब बाबुओं के बाबू हैं। कई साहब आये और गये, पर वे पिछले पच्चीस साल से जमे हुए हैं। उनका कभी ट्रांसफर न हुआ हो ऐसी बात नहीं है, कभी-कभी तो वे खुद ही कहीं आस-पास सुविधाजनक जगह देखकर अपना ट्रांसफर करवा लेते हैं ताकि सनद रहे, और फिर रुकवा भी लेते है।
ट्रांसफर के मौसम में ट्रांसफर रस का वे जमकर आनंद लेते है। इस रस के सामने सारे रस फीके हैं। खेल, व्यापार, व्यवहार, सब एक साथ हो जाता है; सेहत तो बनता ही बनता है, धाक भी जम जाता है। आधुनिक शब्दकोश में सेहत बनने का अर्थ, माली हालत और रुतबा में एकाएक बढ़ौतरी होना, होता है।
नीचे से ऊपर तक उनकी गोंटियाँ फिट है। पर इस बार वे बुरे फँसे हैं। उनकी सारी गोंटियाँ अनफिट हो गई हैं। सारे दाँव-पेंच निस्तेज हो गए हैं। अब की बार किसी को उन पर तरस भी तो नहीं आ रहा है। लगता है, जानी ही पड़ेगा। शहर में उनके दसियों प्रकार के कारोबार चल रहे हैं। पत्नी एन. जी. ओ. चलाती हैं। लड़कियाँ कॉलेज में पढ़ रही हैं। जमे-जमाये सारे काम को छोड़कर अब इतने रिमोट में जाकर कोई रहे भी तो कैसे?
रहमकर साहब के ट्रंसफर से कॉलोनी का हर व्यक्ति दुखी है। कोई नहीं चाहता कि वे चले जायें। उनका ट्रांसफर रुकवाने के लिये सब ने अपने-अपने टोटके आजमाए, पर सब के टोटके बेकार चले गए।
नीतिखोर साहब अभी जवान हैं और बांध और नहर बनाने वाले विभाग में एस. ई. है। उनके लिये सस्पैंड होना मामूली बात है। सात साल की नौकरी में सरकारी राशि में हेराफेरी के आरोप में वे तीन बार सस्पैंड हो चुके हैं। तीनों बार उनके ऊपर जाँच आयोग बैठाई गई। तीनों बार वे बेदाग साबित हुए और हर बार नये मान-सम्मान और अधिक ठसक के साथ उनकी निर्दोष वापसी हुई है। कॉलोनी में सबसे अधिक ठसन इन्हीं की है। पूरी तरह वातानुकूलित बंगले में रहते है। मंहगी कार में घूमते है। दो-दो फार्महाऊस हैं। अंदर की बातों के हिसाब से और न जाने क्या-क्या होंगे। पर कुछ भी काम नहीं आया। इस बार बात आगे बढ़ गई है। अब तो नौकरी बचाने के लाले पड़ गए हैं। जेल भी जाना पड़ सकता है। चेहरे की रंगत उड़ी हुई है।
अब मिसेज नीतिखोर के बारे में ज्याद कुछ बताने की क्या जरूरत? बस इतना जान लीजिये कि पति के विभाग के ही सबसे बड़े अधिकारी की बेटी हैं वे। बचपन से ही, उनका हर शौक ऊँचा है। आधुनिक और खुले विचारों की महिला हैं। खुलकर जीती हैं, खुलकर खेलती हैं, खुलकर खाती हैं। विस्तृत रकबे वाले शरीर से ही पता चलता है कि वे खाते-पीते घर की हैं। शरीर के लटकने वाले सारे अंग लटक चुके हैं। पाँच साल से दाम्पत्य जीवन जी रही हैं पर माँ बनने की स्थिति को बराबर टालती आ रहीे हैं। बकौल उनके; जल्दबाजी में बच्चा पैदा करके वे अपने फिगर को बिगाड़ना नहीं चाहती हैं। पर चर्चा है, कि शादी के पहले ही अप्राकृतिक गर्भस्खलन के कारण गर्भाशय को स्खलित होने की आदत पड़ गई है और अब वह गर्भधारण करने से इन्कार कर रही है। इलाज चल रहा है, पर डॉ. जवाब दे चुके हैं।
कुछ भी हो, इस कालोनी की महिला मंडल की वे लीडर हैं और महिला मंडल की सारी गतिविधियाँ वे ही संचालित करती हैं।
हमेशा बनारसी और कोसे की साड़ियाँ पहनने वाली, आयातित सौदर्य प्रसाधनों का उपयोग करने वाली, हर समय चहकने-मटकने वाली और आधुनिक विचारों वाली यह उत्तरआधुनिक महिला, पति के ऊपर आए संकट की ओर से बेफिक्री का, ऊपर से चाहे जितना भी दिखावा कर रही हो, लेकिन अंदर की बात तो यह है कि आजकल इनकी भी रंगत उड़ी हुई है, चमक गायब है।
कॉलोनी में और लोगों पर भी मुसीबतें आई हुई हैं पर इन दोनों की मुसीबतों के सामने वे सब बड़े मामूली हैं।
बड़ी मुसीबत तो स्वयं विकास साहब ही हैं। विकास साहब का शासकीय आवास रहमकर साहब और नीतिखोर साहब के बंगलों के बीच में ही पड़ता है। मुसीबतों के पहाड़ भी इन्हीं दोनों पर अधिक टूटे हैं। दोनों के ही परिवार में जवान बीवी-बच्चे हैं। और साले इस लुच्चे को इन्हीं दोनों परिवारों के बीच में रहना है।
कॉलोनी पर अए इस मुसीबत से निपटने के लिए, भविष्य की रणनीति तय करना जरूरी है। कॉलोनी के मर्द अपने ढंग से रणनीति बनाने में लगे हुए हैं, और महिलायें अपने ढंग से। मुद्दे पर विचार विमर्श हेतु मिसेज नीतिखोर के बंगले पर इस कॉलोनी की महिला मंडल की आपात बैठक बुलाई गई है।
मिसेज रहमकर कब की आ चुकी हैं। हेमा, रेखा, जया और सुषमा मेडम भी समय पर पहुँच गई है। अन्य सदस्य महिलाएँ भी आ चुकी हैं। नहीं आई हैं तो मिसेज आरती। वैसे भी मिसेज आरती बैठकों में कम ही आती हैं। आती भी हैं तो अक्सर चुप ही रहती हैं। ऐसे बैठकों से उनकी विरक्ति के पीछे कारण हैं। पति की ऊपरी कमाई की बदौलत स्वर्गसुख भोग रही कालोनी की इन आत्म-प्रसंशक और अतिआभिजात्य महिलाओं के बीच उनकी अपनी अभावजन्य आत्महीनता उसे मुखर नहीं होने देता। उन्हें पता है कि उसे कोई तवज्जो नहीं मिलता। इन बातों से पहले उन्हें काफी दुख होता था। परंतु पति की दलीलें उन्हें जब से समझ में आने लगी हैं, उनकी पीड़ा कम होने लगी हैं।
इस बाबत मिस्टर आरती कहते हैं, ’भ्रष्ट आचरण द्वारा जनता और शासन को लूटकर धन कमाने वालों को जब अपने किये पर शर्मिंदगी नहीं होती है, तो हमारे पास शर्मिंदा होने का तो कोई भी कारण नहीं है।’ शहर के सुप्रसिद्ध स्कूल के वे माने हुए प्राचार्य हैं और यहाँ उनकी अपनी हैसियत है। कर्तव्यनिर्वहन की उनकी आत्मप्रेरित भावना और अनुशासन हमेशा इस शहर में असंदिग्ध और चर्चित रहा है।
बैठक का माहौल आज अपेक्षाकृत शांत है। सब के ऊपर गंभीरता का मोटा लबादा चढ़ा हुआ है, पर किसी के बनाव-श्रृँगार में कहीं भी, रŸाी भर की कोई कमी नहीं है। आज भी मिसेज नीतिखोर सब पर भारी पड़ रही हैं। सबके मुँह में खुजली है। निंदा रस की उबकाई सबको आ रही है, पर मातमी माहौल में कोई डांडिया कैसे करे? मिसेज आरती का, उनकी अनुपस्थिति मंें मखौल उड़ाकर हँसा भी तो नहीं जा सकता।
खिड़की में लगे, दिन और रात के हिसाब से अपनी पारदर्शिता की दिशा बदलने वाले काँच के बाहर, सड़क पर, मिसेज आरती को पैदल आते हुए देखकर अंदर बैठी हुई महिलाओं में कानाफूसी का दौर शुरू हो गया। कुछ तो मुँह को हथेलियों से ढंक कर हँसने भी लगी। हेमा ने कहा - “पैदल चलने का ठाठ तो देखो।”
रेखा ने बात पूरी की - “जैसे शाही बघ्घी पर ब्रिटेन की महारानी आ रही हो।”
मिसेज नीतिखोर भी चुप नहीं रह सकी, कहा - “उनकी ऐतिहासिक साड़ी को तो देखो।”
जया ने कहा - “पुरातात्विक महत्व की धरोहरों पर किसे गर्व नहीं होगा?”
फिर सभी समवेत स्वर में हँस पड़ी।
मिसेज आरती ने जब कमरे में प्रवेश किया, पुनः सबके चेहरों पर अवसादी मुखौटे चढ़ चुके थे।
बैठक में पूरे समय तक विकास साहब ही छाये रहे। मिसेज नीतिखोर ने यह रहस्योद्घाटन कर सबको चौंका दिया कि विकास साहब की पहुँच काफी ऊपर तक है, चाहें तो वे हम सबकी समस्या सुलझा सकते हैं। इसके बाद चाय-नाश्ते के अलावा और कोई विशेष बातें नहीं हो सकी और बैठक बेनतीजा खतम हो गया।
विकास साहब को आये अब सप्ताह भर से अधिक हो गया है। लोग अब उसके प्रति बनाये अपनी पूर्व की अवधारणाओं को संशोधित करने में लग गए हैं। देखने में वे जितने सुदर्शन है, व्यवहार में भी उतने ही शिष्ट और शालीन हैं। छोटे-बड़े, सबसे प्यार से मिलते हैं। पद और प्रतिष्ठा का उनमें जरा भी अहम नहीं है। महिलाओं की ओर तो कभी आँख उठाकर देखते भी नहीं हैं।
लेकिन कॉलोनी की महिलाओं का शंकालु मन इतनी जल्दी अपनी राय बदलने के पक्ष में नहीं है। अभी भी वे अपने-अपने घर के खिड़कियों-झरोखों से परदे की आड़ ले लेकर चोर निगाहों से आते-जाते उनकी गतिविधियों का बराबर निरीक्षण करती रहती हैं।
विकास साहब जानते हैं; कॉलोनी के लोगों के मन में उनके चरित्र के प्रति किस तरह की अवधारणा है; और यह भी जानते हैं कि कॉलोनी के हर घर की खिड़कियों-झरोखों से उन पर निगाहें रखी जा रही है। अपने अनुभवों के आधार पर स्वप्रतिपादित इस सिद्धांत पर कि, ’किसी चरित्रहीन महिला के प्रति पुरुषों के मन में जो भाव होता है, वैसा ही भाव चरित्रहीन पुरुष के प्रति महिलाओं के भी मन में होता है,’ पर उन्हें पक्का विश्वास है।
उस दिन नीतिखोर साहब के बंगले पर विकास साहब के स्वागत में भव्य डिनर पार्टी का आयोजन किया गया। पार्टी में व्यवस्था और कार्यपालिका से संबंधित कई बड़े सितारों की जमघट रही। नीतिखोर साहब एक बार फिर सारे आरोपों से मुक्त हो गये थे।
इस दिन से विकास साहब नीतिखोर साहब के घर के सदस्य की तरह हो गये हैं। मिसेज नीतिखोर, विकास साहब के गुण गा-गाकर अघाती नहीं हैं।
नीतिखोर साहब अब अपने पुराने ढर्रे पर फिर लौट आये हैं। अपनी बहाली पर किये गये खर्चे की भरपाई के लिये अब वे रात-दिन एक किये हुए हैं। अक्सर दौरे पर रहते हैं।
विकास साहब अब हेमा, रेखा, जया और सुषमा मेम साहबों के घर भी अक्सर चाय के लिये आमंत्रित होने लगे हैं।
रहमकर साहब का ट्रांसफर नहीं रुक पाया है, पर उन्हें अब कोई चिंता नहीं है, अपनी मर्जी के मालिक हैं। विकास साहब की मेहरबानी की बरसात उस पर भी शुरू हो गई है। पत्नी की एन. जी. ओ. खूब फल-फूल रहा है। रहमकर साहब अब अपना सारा ध्यान और सारा समय, इसी पर केन्द्रित किये हुए हैं। विकास साहब का संरक्षण पाकर वे घर-परिवार से बेफिक्र हो गए हैं और दोनों हाथों से पैसा बटोरने में लगे हुए हैं। विकास साहब का गुणगान करते अब वे भी नहीं अघाते हैं।
विकास साहब अब इनके भी घर के सदस्य की तरह हो गये हैं।
कॉलोनी के अधिकतर लोगों की समस्याएँ विकास साहब ने बड़ी आसानी से हल कर दिया है।
एक साल बीत गया। नीतिखोर और रहमकर दोनों अब कुछ तनाव में रहने लगे हैं। विकास साहब के चेहरे से उन्हें अब घिन होने लगी है। सामना होने पर सिर जरूर झुकाते हैं, पर पीछे मुड़कर पचास गालियाँ भी बकते हैं।
एक दिन विकास साहब ट्रक में अपना सामान लाद कर चले गये। पता चला कि उनका ट्रांसफर हो गया है। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। मिसेज नीतिखोर और मिसेज रहमकर को तो विश्वास ही नहीं हुआ। पर बात सही थी, समाचार सुनकर उन लोगों का दिल बुरी तरह बैठ गया। मिसेज नीतिखोर से उस दिन खाना भी नहीं खाया गया। उसकी उदासी का आलम यह है कि सप्ताह भर तक सौंदर्य प्रसाधनों को उन्होंने छुआ भी नहीं।
यही हालत मिसेज रहमकर की भी है। लेकिन सबसे बुरी दशा उनकी दोनों बेटियों की है, जो इन दिनों कॉलेज में पढ़ रही हैं। वे न ढंग से खाती-पीती हैं और न कॉलेज जाती हैं। खुद को कमरे में बंद करके दिन-रात आँसू बहाती रहती हैं।
विकास साहब के ट्रांसफर की बातें यद्यपि यहाँ किसी को पता नहीं थी, परंतु वहाँ पर, जहाँ वे जा रहे थे, पँद्रह दिन पहले ही उनके आगमन की बातें ठीक उसी तरह प्रचारित हो गई थी जैसे एक साल पहले यहाँ पर हुई थी।