वे जरी के फूल / सूर्यबाला
तब राधा मौसी की शादी थी।
और औरतों का कोई ठिकाना नहीं था कि कब वे बरामदे में बिछी दरी पर इकट्ठी हो, ढोल-मजीरे पीट-पीटकर गाने लगेः
किसने गूंथी रे सुहाग भरी चोटी-
बाबा जो लाये हजार भरी मुहरें-
दादी ने गूंथी रे सुहागभरी चोटी-
अम्मा ने गूंथी रे, सुहाग भरी चोटी.
मेरी इंटरमीडिएट की परीक्षा पास थी। सो चारों ओर के धूम-धड़ाके से बहिष्कृत कर मुझे सिर्फ़ चुपचाप अपने कमरे में सिर गाड़कर पढ़ने की सख्त हिदायत दे गयी थी।
हलवाई कचौरियों के लिए अजवाइन मांग रहा होता-
मांगने दो-
शामियाने वाला दरवाजे पर चिल्ला रहा होता-
चिल्लाने दो-
लाल-हरी झडियों के लिए सुतली और कैंची की फरमाइश हो रही होती-
होने दो-
तुमसे मतलब? तुम्हें कैची या सुतली लेकर दौड़ने की ज़रूरत नहीं साहबजादे! हम सब समझते हैं-फर्स्ट डिवीजन न आने पर हम इस तरह के कोई बहाने सुनने को हरगिज तैयार नहीं कि-'क्या करता-राधा मौसी की शादी थी...'
हाँ, राधा मौसी की शादी थी।
कहां-कहाँ के रिश्तेदार जुटे थे! बड़ी-बड़ी इंगुरी बिंदी लगाये चाचियाँ, बुआएँ, गामियां- (नहीं मामी तो एक ही थीं-वह भी चचेरी-सी पर सारी रस्मों पर ये वाले माम-मामी ही सोत्साह जुटे रहते थे) सलवार-कुर्तों में सजी लड़कियाँ और नयी-नयी शादियों वाली घनाघन्न चूड़ियाँ खनकाती जीजियाँ, भाभियाँ तथा उन्हें पहुंचाने आये देवरों, भाइयों का एक अलग ही झुंड था 'नाजुक रिश्तेदारी' वाला। लेकिन मुझे किसी से नमस्ते, सलाम से ज़्यादा बात करने की भी मनाही थी।
सारे समय लड़कियाँ 'हाऽऽ या राम' कह के शरमा-शरमाके भागती थीं-भाभियाँ ठिठोली करतीं थीं और बाकी औरतें जानी-अनजानी रस्मों पर एक-दूसरी को बुला ढोलक लेकर बैठ जाती थीं।
पर सबसे ज़्यादा मजा मुझे तब आता था जब वहीं पर औरतों और लड़कियों के हट जाने पर छोटी-छोटी लड़कियाँ एक तरफ बैठकर ढोलक पीट-पीटकर दो-दो, चार लाइनों में गीतों का सार संक्षिप्त गाने लगतीं। बड़े झुंडों में उन्हें कोई पूछता ही नहीं था। सो वे ऐसे मौकों की ताक में रहती थीं।
शायद समूचे 'भारत का संविधान' मेरे सामने था जिसे रटे बगैर मैं आदर्श नागरिक के कर्तव्यों की ओर नहीं बढ़ सकता था कि छमाछम-छम-छमछम। मैं चौंक गया और इसके पहले कि मैं कुछ समझूं, ठीक मेरी खिड़की के पीछे के गलियारे से छोटी-छोटी लड़कियों के ढोलक पीट-पीटकर गाने की आवाज आने लगी और गाने के साथ-साथ होने वाले छमछम ने मुझे थोड़ी ही देर में खिड़की के पास जा खड़ा होने को मजबूर कर दिया।
वह! क्या नजारा था। छोटी-छोटी आठ-दस लड़कियाँ अपनी धुन में मगन खूब ताल बेताली ढोलक पीटती गाती जा रही थीं-और बीचों-बीच खड़ी एक गुदगुदी-सी लड़की नन्हें-नन्हें हाथ लहरा-लहराके नाचती जा रही थीः
त्ुम किसके रसिया हो, तुम किसके रसिया हो-
हमारी दवा करना-
वह एक लाल फूलदा फ्रांक पहने गुदगुदी-सी लड़की थी। कलाइयों में आठ-आठ, दस-दस चूड़िया, चोटियों में लहराते रिबन और ऊपर से लाल क्लिपें भी खोंस रखी थीं उसने। पैरों में पायल और शादी का अलता तो खैर सभी छोटी लड़कियों ने मजे से पुतवा लिया था।
वह एक बार गाती और बाकी लड़कियाँ दुहरातीं। तब तक वह नाचती रहती। फिर वह फिरकिनी की तरह एक तेज धक्का मारती और एक की गर्दन दोनों और मटका, आंखें झपका आगे की कड़ी जोड़तीः
बागों में आया करना, हमकों बुलाया करना!
झुंड की छोटी लड़कियाँ दुहरातीं-
हाँ, हमको बुलाया करना-हमको बुलाया करना!
और वह एक पूरा चक्कर मार नाचने लगती-
कलियों पर लिटा करके-कलियों पर लिटा करके-
पत्तों से हवा करना-तुम किसके रसिया हो
हमारी दवा करना-
लड़कियाँ इतनी सुधबुध खोकर गा रही थीं और घुंघरू, ढोलक, मजीरे सबकी मिली-जुली आवाज इतनी बेताली और मजेदार लग रही थी कि मैं आदर्श नागरिक के कर्तव्यों की फेहरिस्त भूल खी-खी-खी-खी हंसने लगा।
अचानक जाने कैसे लड़कियों की भी नजर खिड़की से हंसते मुझ पर पड़ गई और अरे यह क्या, सबकी सब ढोलक-मजीरे छोड़-छाड़कर खिल खिलाती हुई भाग गयी बच रही अकेली वह नाच वाली लड़की। उसके पैर के घुंघरू खुल ही नहीं रहे थे इसलिए और शायद अकेली पड़ जाने की वजह से भी वह रूंआसी भी हो रही थी।
मुझे दया आ गई. बाहर निकलकर बोला, 'आओ... मैं खोल देता हूँ।' उसने एक पल को शंकित दृष्टि डाली फिर शायद मेरी सादगी और बड़प्पनी अंदाज से प्रभावित हो पैर आगे बढ़ा दिये। मैंने घुंघरू खोलकर उसे चिढ़ाया भी, चिढ़ाया भी-'वाह! तुम तो बहुत बढ़िया नाच लेती हो... शाब्बाश...' उसका, सारा मलाल घुल गया था। जोर से शरमायी और हंसती हुई भाग गयी।
वह रूक्की थी। थी तो मामी की बहन की लड़की पर मामी से इतनी हिली थी कि उनके साथ राधा मौसी की शादी में भी शरीक होने आ गयी थी। मामी दूसरी औरतों को बतातीं-मेरी बहन को शादी के दस साल बाद बच्चे हुए न। सो साज-संभार, हैफ-हिफाजत ज़रा ज़्यादा ही है। इस रूक्की से बड़े दोनों लड़के हैं। तीनों में बस एक-एक, डेढ़-डेढ़ साल का फरक। मुझे इतना मानती है न, सो भेज दिया, नहीं ंतो सारे दिन बस बच्चों में ही उलझे रहना। साज-संवार तो देख ही रही हो लाड़ो का-दिनभर सजाती संवारती कंघी-चोटी करती रहती है। अरे नाच देखोगी इसका तो दंग रह जाओगी जैसे फिरकिनी। फिर वे भागती हुई रूक्की को मीठी झिड़की देकर बुलाने लगी थीं।
हाँ, मैंने भी देखा था, खूब मजे लेकर फिरकिनी का नाच, पर तब ऐसा कुछ भी नहीं लगा था कि इस देखे गए नाच और गाने का कुछ भी कभी याद आयेगा। यह एक बेहद चलती-सी घटना थी इसलिए आधे घंटे के अंदर ही मैं उस छोटी-सी फिरकनी को भूल, भारत का संविधान और आदर्श नागरिक के कर्तव्य रट चुका था।
आखिर वह सब तोतारटंत काम आया था और आज एक आदर्श नागरिक बना बैठा हूँ। गनीमत हुई कि ये बीवी-बच्चे, नौकरी-टेलीफोन और कुछ अदद मिलने-जुलने वाले मुलाकातियों का हुजूम जुट गया... वरना घर वालों ने तो मेरी तरफ से सारी उम्मीदें छोड़ ही दी थीं। न डाक्टरी, न इंजीनियरी और न कॉमर्स ही-भला यह भी कोई पढ़ाई हुई कि भारतीय इतिहास और संस्कृति लेकर खंडहरों की खाक छानते फिरेंगे। वह तो जाने कैसे, क्या वाहियात-सा नाम है, उत्खनन-विशेषज्ञ बन गये-वरना तो कैरियर का पत्ता कटा ही समझा गया था।
और कैरियर भी कैसा कि मैदानों, घाटियों में महकता, गयी-बीती सदियों वाला... और उपलब्धि? क्या कहने... कभी मिट्टी की अधफूटी सुराही मिल रही है... कभी चौखूटा थोपा हुआ-सा धातु का दीवट, तो कभी खिलौने का काठ का शेर-सैकड़ों साल पहले का समय और घड़ी आंकी जाती है और बैठे-बैठे सोचते हुए खो जाया जाता है-उस दीवार को देखते-देखते। सैकड़ों हजारों साल पहले कभी किन्हीं हाथों ने, अंधेरे कक्ष को उजाला दिया होगा...
या फिर क्या जाने किसी हाथ ने इसे किसी की प्रतीक्षा में देहरी पर रख दिया हो कभी...
या इस दीवट से मिट्टी के छोटे-बड़े असंख्य नन्हें दीप जला बांस की डलियों में रख फूलों से धेरकर, शाम के झुटपुटे में नदी की धारा में बहा दिया हो। जैसे बहुत दूर से आते भूले-भटके राहगीर को राह दिखाने के लिए यह नन्हें दीपोंवाली बांस की डलिया ज़रूरी हो।
हजारों-हजारों साल पहले का एक नन्हा मिट्टी का दीवट कैसे, कब-कब, किस-किस प्रकाश में जला होगा!
नमिता ने आकर कहा है कि स्टोररूम का बल्ब फ्यूज हो गया है और वहीं उसने अपनी ज्यूलरी वाला बॉक्स रखा हुआ है। याद भी दिलाती है कि शाम को मालकानीज के यहाँ रिसेप्शन में जाना है। नमिता की समझदारी और दूरदर्शिता का ठिकाना नहीं। हलके-फुलके आभूषण बेडरूम की अलमारी में रखती है। लेकिन कभी-कभार चाबी भूलकर भी तो बाथरूम में घुसा जा सकता है तो भारी सेट्स, पार्टियों, रिसेप्शनों वाले स्टोररूम के बॉक्स में। अब कौन बार-बार चार मील दूर बैंक के लॉकर में लाने जाये।
यह दूरदर्शिता और समझदारी बच्चों के तौर-तरीकों, हाव-भावों में भी शिलालेख की तरह खुद गयी है संपूर्ण भद्र और शालीन, आधुनिक व्यवहार, न एक इंच इधर, न एक इंच उधर, व्यक्तित्व के हर कोने की पूर्ण तराश... कोई कोना योंही जंगली आदिम घास उग आने के लिए नहीं छोड़ा। पढ़ाई-लिखाई के अलावा समित बैडमिंटन का चैंपियन अदिति टेनिस की गोल्ड मैडलिस्ट।
इसके अलावा नमिता शादी की सालगिरहों पर हमेशा मेरी मन पसंद की सौगातें लाकर, तकिये के नीचे या अलमारी में कपड़ों के बीच रखकर मुझे खुशनुमा, सरप्राइज दिया करती है। फिर भला मैं उसे प्यार क्यों नहीं करूंगा? इतना ख्याल, इतनी देख-रेख, इतनी साज-संभार...
वह खुद भी एक खुशनुमा सरप्राज की तरह ही लगी थी जब मैं उसे पहली बार शादी के ख्याल से पसंद करने भेजा गया था। एकदम अंदर-अंदर खिली-खिली भी और शरमाई-सी भी, चुस्त और करीने से सजी-संवरी भी। मुझे लगा, यह हर तरह से शादी करने योग्य लड़की है। पसंद आ जाने पर हमने साथ-साथ दो-चार सिनेमे देखे, चांदनी रात में बोटिंग, की और शहर के मशहूर चाट की दूकानों पर गोलगप्पे खाये।
उसके बाद खानदानी पंडित जी ने विनाशकारी ग्रहों की दृष्टि बचाकर विवाह की तिथि सुनिश्चित कर दी थी और पंद्रह दिनों पहले घरवालों ने इशारे में समझा दिया कि बस, अब मिलना-जुलना बंद। क्योंकि रिश्तेदार आने शुरू होने वाले हैं।
लेकिन आने वालों में सबसे पहले मामी आयी थीं और मामी के साथ रूक्की-रूक्की? कौन-सी रूक्की? वही दस साल पहले की राधा मौसी की शादीवाली! हाथ लहरा-लहराके नाचने वाली! क्लियों पर सोकर पत्तों से हवा करवाने वाली? लेकिन इस रूक्की में तो उस रूक्की की कोई शिनाख्त ही नहीं! फिर भी पक्का हो जाने पर मैं जोर से हंसा-तो मामी! रूक्की को तुम इतनी पसंद आ गयी कि इसने मां-बाप की पूरी तरह तिलांजलि दे...
सन-सन ऽ न ऽ न ऽ-जैसे समूचा माहौल ही एकदम स्तब्ध हो घुट गया हो... एक विचित्र, बीहड़, मनहूस-सी खामोशी अटक गयी बीचों-बीच... मां, मामी, रूक्की, मैं... और बीच में वही मनहूस प्रसंग पूरी भयावहता से लटका था... रूक्की किसी तरह खुद ही हट गयी-मामी उसके पीछे।
तब माँ ने फुसफुसाकर कहा-तुम्हें लिखा तो था कि मामी के बहन-बहनोई दोनों एक साथ ही रिक्शे और ट्रक के एक्सीडेंट में... हे राम! क्या कह गया तू?
"क्या? कैसे? कब?" मैं अवाक्, आतंकित-सा पूछ बैठा।
" जाने दे-छोड़, शादी-ब्याह के शुभ शगुन में ये बातें। कोई आज की बात है। ढाई-तीन साल होने को आये। दोनों लड़कों को उनकी बुआ ले गयी लड़की के बोझ से हिचकी, सो यह, रूक्की, मामी के पास ही रहती है।
और यह रूक्की हर क्षण छाया-सी सहमी-सहमी मामी के पीछे-पीछे लगी रहती है। ज़रा इधर-उधर हुई भी तो मामी के आवाज लगाते ही 'आयी मौसी' कहती, भागी-भागी आ जाती है। शादी की भीड़-भाड़ में मामी के नहाने के बाद उनकी साड़ियाँ फैलाती, सूखने के बाद लाकर रखती और सिरदर्द होते ही तेल की शीशी और अमृतांजन लेकर बदहवाससी दौड़ पड़ती। बाकी समय सबके बीच कुछ-न-कुछ काम लेकर अपने आपको उलझाये रखती। तीन-चार दिनों के अंदर-अंदर ही सब उसे जान समझ गये थे। इसलिए किसी भी काम के लिए कभी भी रूक्की की पुकार हो सकती थी।
" कौन रूक्की? ज़रा दो कप चाय भिजवाना बेटी...'
"रूक्की! तुम्हारी मौसी कहाँ है? कहो, माँ बुला रही है।"
"रूक्की! ममी पूछती है उनकी थैली किधर रखी है, उसी में भंडार घर की चाभी है, दे दो..."
मां ने भी अपना स्नेह और सहानुभूति जतायी थी, "रूक्की को कुछ दिन मेरे यहाँ छोड़ दो। अब बहू भी आ जायेगी, सब एक उमर, समय के साथ-साथ घूमेंगे-फिरेंगे... सिनेमा देखेंगे। ज़रा मन बहलायेंगे। एक जगह रहते-रहते मन ऊबेगा तो नरेश पहुंचा आयेगा।"
मुझे माँ का प्रस्ताव अच्छा लगा था, बहुत अच्छा। रूक्की की हम उम्रों में हंसते, चुहल करते देखने की कल्पना ही अति सुखद थी। मन-ही-मन निश्चय कर लिया, उसे हम सब मिलकर जी-जान से खुश रखने की कोशिश करेंगे।
लेकिन मामी बोली थीं, " यह जाती ही नहीं। हर घड़ी मेरे पीछे परछाईसी लगी रहती है। एक बार मेरा बुखार बढ़कर एक सौ चार हो गया तो आंखें रो-रोकर लाल टेसू हो गयीं इसकी... जबकि अपने बच्चे हंसते थे यह सोचती है, मौसी को कहीं कुछ हो गया तो इसका...'
यह कहते-कहते मामी की आंखें ही भरभरा आयी थीं।
यार-दोस्तों के बीच बैठ गर्म चाय-कॉफी के साथ ठहाके लग रहे थे। अंदर बरामदे में औरतों की ढोलक ठनक रही थी। अब मामी ने एक लहराती हुई बन्नी का गीत छेड़ा और अब गीत खत्म होने पर बुआ जी ने एक ठस्सेदार गीत वाली गाली गाकर मामी की दूर बैठी माँ को छेड़ दिया... उसके बाद मामी का रसीला गला खांसा और साथ ही रूक्की की पुकार, "कहाँ गयी... चल इधर, तू क्यों नहीं गाती... चल शुरू कर..." और अब रूक्की बिना एक शब्द की आपत्ति या ना-नुकुर किये गा रही है... मामी और दूसरी लड़कियाँ पूरे उत्साह से साथ दे रही हैंः
किसने मंडप छवाये हरियाली बन्नी के-
किसने बिंदिया संवारी हरियाली बन्नी की
बाबा मंडप छवाये हरियाली बन्नी के-
अम्मा बिंदिया संवारे हरियाली बन्नी की...
कि-"अरे... अरे यह क्या रूक्की... रूक्की तो चुपचाप धाराधार रो रही है... चुप बेटी, चुप-चुप, हो जा। लोग क्या कहेंगे। शुभ शगुन के घर में रोते नहीं-क्या करें, गाने में बाबा-अम्मा का नाम आ गया ना..."
ठहाकों के बीच में बुरी तरह छटपटा उठा था। लेकिन सबके बीच से उठकर अंदर नहीं आ सकता था और अगर आ भी जाता तो क्या करता?
आया बहुत देर बाद-और देखा बक्सों वाले कमरे में कुछ और लड़कियों के साथ बैठी रूक्की मेरी दुल्हन के लिए तैयार हो रहे सुर्ख लाल लहंगे में जरी के फूल टांक रही है। चुंदरी में सुनहरी किरणों की झालर भी अभी उसी ने लगाकर रखी थी।
मामी ने पूछा था, "अरे, इतनी जल्दी लग गयी?"
मैंने फौरन बड़े अपनत्व से टोका था, "मुझे लगता है मामी, यह रूक्की ज़रूर हम लोगों को छुपाकर अपने पास कोई जादू की छड़ी लिये रहती है... बस, सिर झुका, मंतर फूंक देती है। , काम खत्म।"
रूक्की हंसती है। मेरी मेहनत सार्थक हो गयी। मामी यों भी मुझे पातीं, तो कहतीं, "अब नौकरी पर जा रहे हो, तो तुम और बहू दोनों देखना, कोई अच्छा खाता-कमाता नेकदिल लड़का..." फिर हिचककर जोड़ती, " लेकिन दान-दहेज का जोर बिलकुल नहीं है मेरे पास। इसके मां-बाप बच्चों के लाड़ में ही लुटाते रहे। आगे की किसी ने सोची ही नहीं और तुम्हारे मामा भी फक्कड़... फिर अपनी बहन की लड़की के लिए... मैं कुछ ज़्यादा कह भी नहीं सकती। जानते हो न!
मैं जल्दी से रूपये-पैसे वाला प्रसंग काटकर हंसता, "अरे लो, मैं लड़के वालों से कह नहीं दूंगा कि वह ऐसी लड़की है कि रात को अगर उसे भूसे की कोठरी में बंद कर दिया जाये तो सुबह तक वह उससे सोने के तार काट दिया करेगी..." मुझे बचपन में सुनायी माँ की वह कहानी सचमुच बहुत पसंद थी जिसमें गरीब सौदागर की बेटी रातभर रोती हुई भूसे की कोठरी में बंद उससे सोने के तार काता करती। पर अब इस कहानी के सबसे बड़ी सार्थकता यही थी कि रूक्की हंस दी थी।
अभिभूत हुए बिना माँ भी नहीं रह पायी थीं। मामी से एक दिन धीमे से कहा था उन्होंने, "तुम्हें एक बार जिकर चलाना था... ऐसी सीता स्वरूप लड़की को तो हम सिर-आंखों पर लेते..."
"कहाँ की बात?" मामी ने टोका था, "तुम्हें तो बिना मोल-भाव के पाचस हजार मिल रहे हैं। अपनी खुशी से लोग दे रहे हैं-सच कहो, क्या छोड़ पातीं..."
मां ने बचाव का रास्ता ढूंढा, "अब मर्दों पर तो अपना वश नहीं... पर मैं तो लड़की पर ही जाती..."
"एक ही बात है। मतलब, हो नहीं सकता था न!"
"कुछ कहा नहीं जा सकता-मुझे तो लगता है रूक्की के नाम पर ये ना न करते..."
मैं शादी करा, दुल्हन विदा कराके घर लौटा तो रिक्शे पर मामी और रूक्की का सामान रखा जा रहा था। वे रात के रिसेप्शन तक भी नहीं रूक सकतीं थीं। नीरा (मामी की लड़की) को इम्तहानों के बीच टायफायड हो गया था।
मामी जल्दी में ही आ बहू के हाथ में रूप्ये थमा, आशीर्वाद देती चली गयी थीं। रूक्की ने मुझे और नमिता को नमस्ते की थी।
जाने क्यों मैं मन-ही-मन अनायास कह उठा था, "तुम आज से दस साल बाद फिर मिलोगी क्या?"
पता नहीं क्यों, ऐसे ही मन में यह हठीला वाक्य कौंध गया था वरना नमिता दुल्हन तो मुझे बहुत पसंद आयी थी, शादी की धूमधाम भी... आश्चर्य! फिर भी मैं आज से दस साल बाद की बात सोच रहा था... जब मैं संभवतः अधेड़ हो जाऊंगा और मुझे रूक्की कहीं भी संयोगवश दिख जायेगी...
तभी तो मुझे लगता है कि यह आदमी नाम का जीव भी बिलकुल किसी सड़क छाप जादू का पिटारा है। खोलते जाओ, कभी उसमें से पंख फड़फड़ाता कबूतर निकलता है, कभी रंग-बिरंगी झालरें-कभी तेलिया मसान की राख तो कभी जादूई शीशा... कभी फनकारता सांप, कभी दो-मुंही बीन...
बहरहाल मुझे लहंगे-चुंदरी में सजी अपनी दुल्हन बेहद खूबसूरत लग रही थी, खासकर लहंगे में टंके जरी के फूल...
व्यस्तताएँ दिलचस्प हों तो ज़िन्दगी पूरी तौर पर दिलचस्प हो जाती है, जैसे मेरी सभ्यताओं, संस्कृतियों की अद्भुत कहानियाँ, इतिहासकारों, भौगोलिकों, भू-विशेषज्ञों से विचार-विमर्श, एक-से-एक दिलचस्प खोजें तथा अनुमान, यहाँ से यहाँ इतना एकड़ तक की जमीन... सतह से इतने फुट नीचे... शाताब्दियों पहले के इतिहास के जीवन की गंध से महकती निशानियाँ...¬ विशेषज्ञों, शोधार्थियों के निर्देशन में फावड़े चल रहे हैं...
सहायक वैद्या का फोन आता है। "अद्भुत-अद्भुत सर, इतिहास का अद्भुत शिला वैभव¬... जल्दी आइए..."
जाकर देखता हूँ... पत्थर पर खुदी बधू का शृंगार करती एक नारी मूर्ति। अचानक मुझे रूक्की याद आ जाती है। अचानक क्या इस तरह की खुदाइयों के बीच वह जब, तब कहीं भी कैसे भी आ बैठती है। सोचता हूँ, कहाँ होगा रूक्की, अब तक अपने पति-परिवार और बच्चों के साथ, उसका दूसरा परिवार भी उसे उतना ही प्यार और ममत्व देता होगा। शादी बहुत अच्छी भी हो सकती है, सामान्य अच्छी भी। अपनी शादी के समय तो मुझे याद है, हर युवा उसे सम्मान और प्रशंसा के भाव से देखता था। मुक्त कंठ से रूक्की की प्रशंसा। मनचले लड़के भी उसके समक्ष विनम्र हो झुक जाते थे।
कैसा होगा रूक्की का पति? युवा छरहरा, नेकदिल, मुझ जैसा? या मुझसे ज़्यादा अच्छा... झूठ क्यों बोलूं? हलकी-सी ईर्ष्या भी कौंधी थी मन में। बच्चे, लड़की, शायद रूक्की जैसा ही हो। कुल मिलाकर रूक्की, उसके पति, परिवार बच्चे घर की एक काल्पनिक तस्वीर दिल-दिमाग में खिंची रखी थी। अच्छा है, ऐसे ही तो जीवन चलता है। रूक्की का जीवन परिवार भी चल रहा होगा न-किसी शहर में, किसी जगह, जाने किसी शहर में...
लेकिन माँ तो मुझे कभी दो लाइन लिख सकती थीं, उसकी शादी के बारे में, पर रिश्ते भी तो सब इतनी तेजी से दूर छिटकते जा रहे हैं... खुद में ही अपने सगे भाई-बहनों से साल-दो सालों पर मिल पाता हूँ। ' चिट्ठी-पत्री तक की फुरसत नहीं मिल पाती। फिर यह वाली रिश्तेदारी तो पहले ही से छिटकी हुई थी। इसीलिए तो मैं भी पत्रों में या ऐसे भी सिकी से नहीं पूछ पाता। यह भी कोई बात हुई कि कभी-कभार की देखी एक लड़की रूक्की के बारे में बाकायदा चिट्ठी लिखकर पूछना-तुरंत-पूरा हजार शक-शुबहे... और न भी हो तो भी मुझे लगता है कि सबकुछ ऐसे ही बहुत सुंदर है। आकार और शब्द देते ही यह घाटी-की-घाटी बेजान हो जायेगी। मेरे इतिहास के कालखंड की घाटी.
और यों ही दिल बीतते चले जा रहे थे कि एक दिन दोपहर बाद नमिता का फोन आया-"राधा मौसी जी आयी हुई हैं, हो सके तो जल्दी आ जाओ..."
नमिता का हुक्म, भागता हुआ जल्दी घर आ गया।
मौसी से मिलना सचमुच बड़ा अच्छा लगा, वही पुराने इतिहास-खंडों की खुदाई की तरह। यानी अब मेरे उपमा, रूपक सब पुरातत्तवमय हो गये हैं।
शाम को चाय के समय एकदम सहज भाव से पूछा था, "वो उरई वाली मामी कहाँ हैं मौसी अब?"
"क्यों? वहीं..." कहाँ जायेंगी वे। अब तो भाई साहब भी साइटिका से बहुत परेशान रहते हैं, करीब-करीब अपंग से ही..."
"अरे... अच्छा... और... वह उनकी बहन की लड़की रूक्की..."
"हां-हाँ रूक्मिनी, वह ीी वहीं उनके घर के पास ही रहती हैं।"
"अच्छा? इतने पास शादी हो गयी उसकी? ..." और तुरंत मेरी कल्पना के पंख लग गये। क्यों न होती इतने पास शादी। लड़की ही ऐसी थी। कोई भी पसंद कर सकता था। फिर पास का लड़का ही उसे क्यों हाथ से जाने देता। लेकिन मौसी खुद चौंकी थीं...
"शादी? शादी कहाँ हुई उसकी?"
"क्या? ... तो फिर..."
"वहीं, उनके घर के पास ही एक कोठरी किराये पर लेकर रहती है। टीचर है न गवर्नमेंट स्कूल में?" फिर नमिता की तरफ मुखातिब होकर बोली, "न मां-बाप, न दान-दहेज... न कोई उतना देखने-ढूंढने वाला ही... लड़की लाख अच्छी हो, किसी-न-किसी जोर पर ही तो हो पाती है शादी। है कि नहीं..."
न्मिता ने समझदार ढंग से हां-हूँ कर दी। ज़्यादा न वह रूक्की को जानती थी, न उसने जानने में दिलचस्पी ही दिखायी।
राधा मौसी चली गयीं तो एक राहत भरी अंगड़ाई लेकर नमिता मुस्करायी थी, "थैंक गॉड! मैं तो डर रही थी, मौसी जी कहीं रूक न जायें... आऽऽज हमारी एनिवर्सरी है न..." फिर एकदम शंकित दृष्टि से मेरी आंखों में झांककर पूछ बैठी थी, "तुम भूल तो नहीं गये?"
"अरे वाह! मैंने जल्दी से अपनी सकपकाहट छुपायी थी," भूल कैसे सकता था भला... मैंने तो यह भी सोच डाला है कि आज हम अपनी एनिवर्सरी कुछ नयी तरह से मनायेंगे..."
"कैसे?" नमिता की आंखें चमकी थीं।
"बताऊँ?" आज तुम अपनी शादी वाला घांघरा और चुनरी पहनोगी..."
"अरे धत्..." पर उसकी आंखें सचमुच प्रसन्नता से चमक उठी थी। फिर मुझे दुबारा याद दिलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी।
और बहुत रात गये नमिता ने जब घांघरा-चुनरी पहनी तो मैं अभिभूत हो देखता ही रह गया, उसमें टंके एक-एक जरी के फूल और सुनहरी किरन को...
रात गहराती जा रही है?
ड्राइंगरूम में अनगढ़सी रह-रहकर फोन की घंटी बजती रहती है।
न्मिता बताती है-फोन खराब है-सुबह से ऐसा ही चल रहा है।
न्हीं, शायद शाम से... मैं मन में सोचता हूं-जब से राधा मौसी गयी हैं। जाने कितने इतिहास संदर्भ खुले पड़े हैं, सपाट धरातल से दिखते मेरे अंदर।
किसी अतीत-खं डमें वही हथेलियाँ लहराती नन्हीं गदबदी-सी रूक्की, नयी-नवेली मामियों, जीजियों वाले गीत पर हावभाव दिखाती नाच रही हैः
बागों में आया करना, हमको बुलाया करना।
कलियों पर लिटा कर के पत्तों से हवा करना॥
दूसरे प्रकोष्ठ में बैठी, दूसरी और नतनयन रूक्की मेरी दुल्हन के लहंगे में सितारे टांक रही है।
और तीसरा प्रकोष्ठ खाली है, पूरी तरह सन्नाटा। इतना कि मैं उस अकेली कोठरी के दरवाजे पर खड़ा होने का साहस नहीं कर सकता।
राधा मौसी कह तो रही थीं-जब तक मामी का वश चला था, रूक्की रही ही। पर बाद में उनके भी तो लड़के बहू, बढ़ता-पनपता परिवार। तो हमेशा के लिए कहीं क्या निभा जा सकता है भला।
सो वह एक तरफ होती चली गयी और धीरे-धीरे समा गयी एक अकेली कोठरी में।
भाई! देश के इतने-इतने तंगहाल बेकार भटकते युवकों में दो के और बढ़ या घट जाने से क्या फर्क पड़ता है? कहाँ रह जाते हैं नाते-रिश्ते, खासकर जब कच्ची-सी उमर से दो अलग-अलग रिश्तेदारों के साथ खाने कपड़े पर जिया जाये।
छोडूं... मैं ही कौन किसी कहानी के नायक की तरह रूक्की के लिए बिना दान-दहेज का राजकुमार-सा वर जुटा सकूंगा।
या फिर एकदम सारी पुरातात्तिवक खुदाइयाँ, व्यस्तताएँ छोड़, उसकी कोठरी के दरवाजे तक ही जाकर खड़ा हो पाऊंगा।
नहीं, यह सब नहीं हो पाता। जीवन बस ऐसे ही चलता है...
लेकिन यह मन भी कितना गहरा तिलस्म है न! हर अनुभूति सिर्फ़ दुःख या सुख ही नहीं देती और कभी-कभी तो दुःख और सुख के बीच का फासला इतना कम हो जाता है कि उन्हें अलग करना भी मुश्किल हो जाता है। जैसे इस समय कि... नमिता मेरी ओर एक सुखद आमंत्रण के साथ बढ़ रही है और मैं उसके घांघरे में टंके जरी के फूलों को भरी-भरी आंखों से देखे जा रहा हूँ। ...