वे दिन जो कभी ढले नहीं / श्याम बिहारी श्यामल

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रात तन्हाई की छत पर कटती रही
चांद अपने झरोखे से झांकता रहा

यह दो पंक्तियों का काव्यांश लगभग तीन दशक पहले मेरे मनोमस्तिष्क पर ऐसा छपा कि आज तक जस का तस अंकित है। यह है पलामू के सुकवि हरिवंश प्रभात के एक गीत का आरंभिक अंश। अब ठीक-ठीक स्मरण नहीं कि इसे कहीं मुद्रित रूप में पढ़ा था या स्वयं कवि ने संग-साथ चलते- फिरते हुए कभी यों ही कभी सुना दिया था! स्वयं का लिखना चाहे जैसा बनता आया हो, पढ़ने के बारे में इतना तो दावा किया जा सकता है कि अखबारी नौकरी की ध्वस्त दिनचर्या में जब कभी भी कुछ चुनने का मौका मिला है, भरसक श्रेष्ठ और अत्यावश्यक ही उठाता रहा हूं। इस दौरान कितना-कुछ दिमाग पर चढ़ा, इसका हिसाब नहीं।

आलम तो यह कि असंख्य काव्यांश ही नहीं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के कई लेखों और प्रेमचंद-जयशंकर प्रसाद सरीखे अपने महान पुरखे-पुरनियों के अनेक गद्यांश तक मुझे आज भी पैरेग्राफ के पैरेग्राफ कंठाग्र हैं! इसीलिए आज सोचते हुए चकित हूं कि हरिवंश प्रभात का यह काव्यांश स्मृति-पृष्ठ क्यों- कैसे ऐसा ठोस मुद्रित हुआ कि इसकी स्याही में आज भी वही मौलिक चमक कायम है! मानना ही पड़ेगा कि इसमें वह तत्व अवश्य विद्यमान है जो प्रज्वलित काव्यानुभूति की रचना करता है! इसे छोटी जगह की बाड़ेबंदी और रोजी- रोटी की मार से उत्पन्न विफलता का ही एक जीवंत उदाहरण कहेंगे कि ऐसी पंक्तियां लिखने की क्षमता रखना वाला यह कवि उस फलक तक नहीं पहुंच सका जहां उसे पहुंचना चाहिए था। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज हिन्दी साहित्य में कविता या गीत का जो मानचित्र उपलब्ध है उसमें हरिवंश प्रभात का मुकाम कोई शायद ही खोज पाये!

यहां यह कहना भी जरूरी है कि यह वस्तुतः कवि की नहीं बल्कि हमारे उस समय-समाज की सीमा है जहां किसी ऐसे कवि को अपनी रचना-क्षमता के संपूर्ण प्रयोग की गुंजाइश ही नहीं मिल पा रही, जो व्यक्तिगत तौर पर किसी बड़े पद या हैसियत वाला न हो। हरिवंश प्रभात चूंकि एक प्राइमरी टीचर रहे और कवि-स्वभाव के कारण अपनी जिम्मेवारी को अधिकतम ईमानदारी के साथ निभाने वालों में से एक, लिहाजा पूरे सेवा-काल के दौरान पलामू के सुदूर ग्रामीण अंचलों से लेकर पहले अपने पैतृक गांव कोयल-पार के पूर्वडीहा और बाद में डाल्टेनगंज के हमीदगंज मोहल्ले की रिफ्यूजी कॉलोनी तक की अथक दौड़ लगाते और अनवरत धूल फांकते रह गये। यद्यपि इन पंक्तियों के लेखक को दुर्भाग्यवश उनके पिछले तीन दशक के दौरान के रचना-प्रयासों की विधिवत् जानकारी नहीं है किंतु यह तो प्रकट ही है कि या तो हरिवंश प्रभात अपनी रचना-क्षमता का संपूर्ण प्रयोग नहीं कर सके या छोटी जगह का दंश झेलते हुए ही उस ख्याति से वंचित रहे जो उन्हें मिलनी चाहिए थी।

जबसे यह सूचना मिली है कि पलामू में कुछ लोग उनके व्यक्तित्व-कृतित्व को रेखांकित करने के लिए कोई ग्रंथ छपाना चाहते हैं और इसमें मुझसे भी कुछ रचनात्मक योगदान की अपेक्षा की जा रही है, जितना ही प्रसन्न हूं उससे कहीं अधिक परेशान कि उन पर लिखना कहां से शुरू करूं, क्या-क्या लिखूं! मेरे पास उनसे संपर्क के कुछ ही सालों की किंतु ढेरों स्मृतियां हैं! सबसे पहली बात तो यही कि जिन दिनों मेरे मन में साहित्य-प्रेम के मेघ-खंड तैयार हो रहे थे, मैं हरिवंश प्रभात के साथ परिचित हो गया था। माध्यम बना था मेरा अतिशय पत्राचार का स्वभाव। आज जबकि एसएमएस और मेल से किसी को संदेश भेजना चुटकी बजाते ही संभव हो गया है और यह संस्मरण ही उस ब्लॉग पर लिखा जा रहा है जिसे ‘पोस्ट’ का एक क्लिक दबाते ही सेकेंडों में दुनिया भर में पढ़ा जा सकेगा ; बिल्कुल समकालीन पीढ़ी के लोगों के लिए उस बेचैनी को ठीक-ठीक समझना आसान नहीं होगा कि गहरी जिज्ञासा और गहन साहित्यिक प्रेम के तहत अपने प्रिय रचनाकारों को पत्र लिखने वाले किसी नौसिखुए के लिए पत्रोत्तर का प्रतीक्षा करना कितना यातनापूर्ण होता था! तो, प्रतिदिन साहित्यकारों को कम से कम आधा दर्जन पोस्टकार्ड लिखना और बेचैनी के साथ राह ताकते हुए डाकिये से इतने ही प्राप्त कर परम प्रसन्न हो जाने की दिनचर्या! पत्राचार भी ऐसे बड़े-बड़ों से, जो यदि सचमुच कहीं साक्षात दिख जायें तो उनके सामने शायद ही जुबान खुल पाये! संपर्क के लिए जिन्हें पत्रों से दस्तक देता था उनमें हरिवंशराय बच्चन, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, आरसी प्रसाद सिंह, अमृत राय, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’, विष्णु प्रभाकर, विमल मित्र, भीष्म साहनी, गुलाम रब्बानी ताबां आदि-आदि जैसे बड़े-बड़े नाम शामिल थे। अपने शहर के बहुप्रतिष्ठित 'अभ्युदय हिन्दी साहित्य समाज पुस्तकालय' का सदस्य बन गया था। यहां कुछ पढ़ाकू दोस्‍त बने जिनमें से चेहरे तो कई के अब भी आंखों के सामने घूम रहे हैं किंतु नाम एक ही ध्‍यान में आ रहा है सुरेंद्र कुमार मिश्र। यह कॉलेज में सहपाठी भी रहे और फिलहाल दिल्‍ली में उच्‍च और सर्वोच्‍च न्‍यायलय में वकालत करते हैं। स्‍मृतियों में सुरेंद्र का वह किशोर या युवा चेहरा ही अब भी कायम है। वह विद्यार्थी परिषद से जुड़ा था और हमेशा खादी का कुर्ता-पायजामा झाड़े रहता। हमीदगंज में पत्‍थर मिल के पास मंदिर के निकट ही उसका निवास था। लगभग तीन दशकों से भेंट तो नहीं हो सकी किंतु हाल ही सुरेंद्र ने कहीं से मेरा संपर्क नंबर खोज कर मोबाइल फोन पर बात की है इस जुमले के साथ ' देखो मैंने तुम्‍हें इतने दिनों बाद डिस्‍कवर कर ही लिया'। उन‍ि दि‍नों मेरे लिए सुरेंद्र का तकयाकलामी संबोधन होता 'कवि'। हमलोग पुस्‍तकालय से नियमित पुस्‍तकें लेने वालों में थे। पुस्तकालय वालों से लड़-झगड़ कर मैं रोज चार-पांच पुस्तकें उठा लाता। दूसरे दिन वापस कर फिर इतने ही ले लेता। पहले तो कर्मियों ने संदेह किया कि मैं यों ही पुस्तकें लेता-देता हूं किंतु बाद में जब वे प्रश्न आदि पूछकर आश्वस्त हो गये कि मुझे समझ में चाहे जितनी आती हों किंतु किताबें पढ़ तो पूरा ही जाता हूं, वे जमा जमानत-राशि की सीमा की परवाह छोड़कर उसके मुकाबले तिगुने-चौगुने मूल्य की महंगी-महंगी किताबें भी स्वयं खोज-खोज कर देने लगे। पुस्‍तकालय के सभी कर्मियों के चेहरे अब भी आंखों के सामने घूम रहे हैं किंतु नाम एक ही याद आ रहा है- 'लाला जी'। बुजुर्ग व्‍यक्ति। कौन किताब किस कमरे में कहां किस आलमारी में है, यह सब उन्‍हें जैसे एकदम याद हो। लाला जी जेलहाता में 'जगत कुटीर' के पास रहते थे।.. एक बार हमें पता चला कि पुस्‍तकालय कर्मियों को वेतन समय पर नहीं मिलता तो हमने अखबार में समाचार छाप दिया। अच्‍छा-खासा बावेला मचा लेकिन अंतत: कर्मियों को फायदा ही हुआ।..

तो, उसी पुस्तकालय में पहली बार दिखी अपने शहर के एक कवि की किताब। नाम था ‘बढ़ते चरण’, कवि हरिवंश प्रभात! आलमारियों में सजी दिल्ली के राजकमल-राजपाल जैसे प्रकाशकों की सुंदर-स्वस्थ पुस्तकों के मुकाबले बहुत दीन-हीन प्रोडक्शन, किंतु मेरे लिए यही जबरदस्त खुशी की बात कि यह अपनी ही धरती के रचनाकार की कृति है, जिनसे संपर्क साधा जा सकता है! हालांकि किताब नियमानुसार पुस्तकालय को उन्हीं दिनों वापस हो चुकी और जहां तक याद है फिर दुबारा हाथ में नहीं आ सकी किंतु आज भी मेरी आंखों के सामने उसका ढांचा-भूगोल घूम रहा है। हल्के गुलाबी रंग के खसखसिया गत्ते का पतला कवर, तन्वंगी-सी पुस्तिका। समर्पण-वाक्य तो याद नहीं किंतु यह बात स्मृति में है कि संभवतः कवि ने भटके लोगों को राह दिखाने वाली लालटेन को अपनी कृति अर्पित की थी। कवर के अंतिम पार्श्व-पृष्ठ पर कवि का चित्र, परिचय और “ ग्राम: कोल्हुआ खूर्द, पूर्वडीहा, पलामू “ पता। तो, रात भर में बांच गया और सुबह पोस्टकार्ड रोज की तरह पोस्टऑफिस जाकर स्वयं पोस्टबॉक्स में डाल आया।

चमत्कार तब हुआ जब तीन-चार दिनों बाद ही कवि दरवाजे पर हाजिर! यह पहला पत्र था जिसकी प्रतीक्षा में एक दिन भी चिंता नहीं झेलनी पड़ी और पत्रोत्तर रूप में स्वयं कवि सामने! कांख में दबा चमड़े का कागज से ठसा हैंडबैग, मोहल्ले में स्थित म्युनिसपल द्वारा संचालित नावाटोली स्कूल के किसी भी गुरु जी जैसा ही साधारण-सा पहनावा-व्यक्तित्व और चेहरे पर परिचित- सी मुस्कान। अपने दरवाजे पर खड़े हरिवंश प्रभात का वह चेहरा आज भी मेरी आंखों के सामने स्थिर है! उनके हाथ में मेरा लिखा वह पोस्टकार्ड भी था जिसमें दर्ज पते के आधार पर वह नावाटोली के ‘श्रीद्वारिकापुरी’ नामक साधारण-से घर तक पहुंचे थे। पहली ही बार अपना लिखा ऐसा पत्र देख रहा था जो अपने गंतव्य तक पहुंच चुका हो! पता नहीं क्यों, इसे देखकर लज्जा- सी महसूस होने लगी। उनके साथ तत्काल निकलना और बातें करते हुए छहमुहान तक जाना-घूमना अब भी स्मरण में है। बाद में पता चला कि मजदूर -नेता सत्यपाल वर्मा के साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पलामू दर्पण’ में डा.चंद्रेश्वर कर्ण ने एक समीक्षा लिखी है जिसका शीर्षक है ‘बढ़ते चरण को रोको’! डा. कर्ण से तब कोई खास परिचय तो था नहीं, बस इतना भर पता था कि वह पलामू के सबसे बड़े महाविद्यालय जीएलए कॉलेज के प्राध्यापक हैं, किंतु इससे अब उनके बारे में एक डरावनी-सी छवि बन गई! नयों को भी डंडे से हांकने वाले किसी खूंखार-से आचार्य!

हरिवंश प्रभात ने उन दिनों कुछ ऐसी किताबें लिखी थी जो छोटी कक्षाओं के बच्चों को व्याकरण और भाषा-ज्ञान देने के लिए तैयार की गयी थीं और स्कूलों में लगती-चलती थीं। ऐसी अनेक किताबें खूब व्यवस्थित ढंग से लिखने-चलाने वाले विपिन बिहारी सिंह से उनकी लगभग अघोषित जंग चलती थी। वह पलामू के सुदूर पांकी प्रखंड के ढूब गांव के प्राइमरी स्कूल में पदस्थापित थे। वहीं के प्रतिष्ठित कांग्रेसी नेता बाबू भानुप्रताप सिंह के यहां रहते थे। सप्ताह की समाप्ति पर शनिवार को डाल्टनगंज आते और कुछ लोगों से मिल-जुलकर अंधेरा होने से पहले कोयल नदी की छिछली धाराएं हेलकर बालू का विस्तार धांगते हुए पूर्वडीहा की चढ़ाई चढ़ जाते जो हमीदगंज के सामने साफ-साफ दिखाई पड़ती रहती। अक्सर शनिवार को मैं उनकी प्रतीक्षा कभी छहमुहान तो कभी कनीराम स्कूल के पास खड़ा होकर भीड़ के हर चेहरे को खंगालता हुआ किया करता। उनके साथ खाई गई जलेबियों और बतियाते हुए ली गईं चाय की चुस्कियों का स्वाद अब भी जेहन में जिंदा है!

हिन्‍दी में लघुकथा लेखन की जब बयार चली तो इसमें प्रमुख आलोचक की भूमिका निभाने वाले डा. व्रजकिशोर पाठक से रोज शाम में उनके रेड़मा स्थित आवास में जाकर मिलने और घंटों साहित्य-चर्चा का सिलसिला बहुत दिनों तक शनिवार को हरिवंश प्रभात के कारण ही टूटता रहा। डा.चंद्रेश्वर कर्ण, कृष्णानंद कृष्ण, सत्यनारायण नाटे, विनयरंजन ‘वीनू’, दधिबल सिंह, संजय सहाय आदि ढेरों लोग थे जो लघुकथा लेखन में शामिल हो गये थे। कथाकार बलराम ने उन्हीं दिनों होसंगाबाद के एक सम्मेलन में लघुकथा के मुकाबले ‘लघु कहानी’ का एक नया नारा दिया था। रांची के समीक्षक डा. बालेंदुशेखर तिवारी ने इस सुर में सुर मिलाकर विवाद को हवा दी थी। इस पर डाल्टेनगंज में तीखी प्रतिक्रिया हुई।

डा.चंद्रेश्वर कर्ण ( संदर्भवश एक जानकारी : डा. कर्ण की रचनावली हाल ही अंतिका प्रकाशन से आई है जबकि झारखंड के विनोबा भावे विश्‍वविद्यालय से कुछ वर्ष पहले अवकाश ग्रहण करने वाले वह फिलहाल स्‍मृति-लोप की बीमारी से पीडि़त हो हजारीबाग में परिजनों के साथ रह रहे हैं / अपडेट : 18 मई 2012 ) की प्रेरणा से जेलहाता के दुर्गा प्रेस में एक संगोष्ठी हुई जिसमें उनके साथ ही डा.जगदीश्वर प्रसाद, और डा. व्रज किशोर पाठक ने गरमागरम पर्चे प्रस्तुत किये। लघुकथा की अवधारणा के विकल्प के तौर में पर ‘लघु कहानी’ को पेश करने पर बलराम के खिलाफ डा. कर्ण ने अपने आलेख में काफी रोष दर्ज कराया और इस कार्रवाई को ‘डाकुओं के आत्म समर्पण’ की संज्ञा दी थी। नई विधा के शास्त्रीय पक्ष की पड़ताल करने वाले डा.पाठक के आलेख का शीर्षक तब हमें गजब का लगा था- ‘लघुकथा का शरीर-विज्ञान और इसकी प्रसव-गाथा’!

इसी आयोजन की अगली कड़ी के रूप में कृष्णानंद कृष्ण ने बाद में अपनी पत्रिका ‘पुनः’ का लघुकथा विशेषांक निकाला। इसमें उक्त तीनों आलेख शामिल किये गये जो बहुचर्चित हुए और बाद में लघुकथा विधा के दावे को मजबूती देने वाले साबित हुए। कहना चाहिए कि इसी के बाद लघु कहानी वाली बहस सदा के लिए लगभग दफन ही होकर रह गयी। ‘पुनः’ के विशेषांक में देश भर के रचनाकारों के साथ ही हम सबकी लघुकथाएं शामिल हुई थीं। इसे उसी दौरान किताब की जिल्द में ‘लघुकथा: सर्जना और मूल्यांकन’ नाम से जारी किया गया। इसमें मेरी ‘हराम का खाना’ शीर्षक लघुकथा शामिल हुई जो मेरे द्वारा प्रेषित मूल पाठ से काफी अलग किंतु बेशक अपेक्षाकृत काफी उन्नत रूप में प्रस्तुत हुई थी। यह रचना बाद में सत्यनारायण नाटे के साथ प्रकाशित मेरे साझा संग्रह ‘लघुकथाएं अंजुरी भर’ में छपी और आज भी इंटरनेट पर ‘लघुकथा डॉट कॉम’ पर संचयन श्रृंखला में शामिल मेरी लघुकथाओं में शामिल है। तो, पुनः के विशेषांक के लिए आई रचनाओं में से अधिकांश का डा. कर्ण ने लगभग पुनर्लेखन किया था। यह जानकारी पाते ही उनकी वह छवि मन में उलट गई जो हरिवंश प्रभात की किताब की समीक्षा से बनी थी। बाद में उन्हें मैंने अपनी दो लघुकथाएं दिखाई जिनमें से एक का शीर्षक ‘सुलगते लोग’ था, जबकि दूसरी का शायद ‘सही लड़ाई’। इसके उपरांत तो मैं और विनयरंजन ‘वीनू’ उनके खास स्नेहभाजनों में ही शामिल हो गये। डा. कर्ण पैदल ही शहर छानते थे और हर छोटे-बड़े लेखक को सक्रिय बनाये रहते। उन्होंने अंग्रेजी विषय से ताल्लुक रखने वाले डा.नगेंद्रनाथ शरण से लेकर प्रो.सुभाषचंद्र मिश्र तक को हिन्दी साहित्य से जोडा़ तथा लघुकथा-लेखन में शामिल कर लिया था।

बाबू शिवशंकर सिंह ‘छोटानागपुर भूमि’ साप्ताहिक अखबार निकालते थे। वह समय ऐसे ही छोटे अखबारों का था। जेलहाता में सड़क पर ही उनका घर लेखकों-पत्रकारों का हंगामेदार अड्डा था। उनके यहां जुटने वालों में चंद्रेश्‍वर कर्ण से लेकर भोजपुरी के चर्चित कथाकार कृणानंद कृष्‍ण, इन्‍दुभुषण ( मूल निवासी पटना के निकट कहीं के किंतु सरकारी नौकरी के सिलसिले में पलामू में थे। उन्‍होंने हिन्‍दी के शीर्षस्‍थ कथाकार फणीश्‍वरनाथ रेणु से संबंधित चुनावी दौर का एक संस्‍मरण लिखा था जो 'सारिका' में छपा था ), फैसल अनुराग, महात्‍मा ( व्‍यंग्‍यकार), सि‍द्धेश्‍वरनाथ ओंकार, सत्‍यनारायण नाटे आदि जैसे लेखक-पत्रकारों के अलावा पूर्व विधायक समाजवादी मोहन सिंह, साम्‍यवादी चिन्‍तक-नेता नन्‍दलाल सिंह, उस समय के प्रखर युवा कांग्रेसी नेता हृदयानंद मिश्र, दुर्गा प्रेस वाले समाजवादी दीवाने मिश्रा जी ( नाम स्‍मरण नहीं आ रहा ) और एक विचित्र आध्‍यात्मिक-वैचारि‍क पात्र फोटू बाबू आदि जैसे-जैसे लोग भी होते। सक्रियता के क्षेत्र या सिद्धांत-प्रभाग चाहे जितना परस्‍पर विपरीत, लेकिन सभी बहस-विचार करने वाले। जाहिरन ऐसे सारे लोगों में एक बात जो आम थी वह थी वैचारिक आकुलता।

गोकुल वसंत ‘छोटानागपुर भूमि’ के जबकि मैं मोतीलाल साहू द्वारा सत्यनारायण प्रेस से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पलामू दर्शन’ का संपादक था। रचनात्मक प्रस्तुति को लेकर कुछ दिनों तक दोनों पत्रों में अघोषित तनातनी भी चली। हरिवंश प्रभात का गोकुल वसंत से पुराना याराना था। रचना देने की बात आयी तो उन्होंने ‘छोटानागपुर भूमि’ को चुना। हरिवंश प्रभात ने गोकुल वसंत को ‘ठक् ठक् ठक्’ शीर्षक लघुकथा दी जो ‘छोटानागपुर भूमि’ में तीन अंकों में प्रकाशित और चर्चित हुई। उसी दौरान मैंने ‘पलामू दर्शन’ का लघुकथा विशेषांक निकाला जो तत्कालीन अविभाजित बिहार में किसी भी साप्ताहिक समाचार पत्र द्वारा लघुकथा पर केंद्रित पहले विशेषांक के रूप में चर्चित रहा। इसमें कुछेक स्थानीय के अलावा डा.शंकर पुणतांबेकर, जगदीश कश्यप, विक्रम सोनी आदि की लधुकथाएं भी शामिल की गई थीं।

विशाल कद-काठी वाले बाबू शिवशंकर सिंह राजनीति में समाजवादियों और साहित्‍य में डा. कर्ण की टोली के साथ रहते। हमेशा खादी की झक कुर्ता-धोती और मुंह में पान। सन् 1967 के कुख्‍यात अकाल के दौरान अज्ञेय के नेतृत्‍व में फणीवरनाथ रेणु आदि जैसे पत्रकारों की टीम जब संतप्‍त पलामू-भूमि का मुआयना करने आई थी, तो सूचना-सहयोग देने वालों में शिवशंकर बाबू अग्रणी थे। बहरहाल, उनका स्‍वभाव कुछ ऐसा कि बात-बात में अपने धीमे स्‍वर में मिर्ची जैसी टिप्पणी किया करते। कुछ लोग तो हमेशा उनके निशाने पर रहते जबकि ऐसा कोई न था जो कभी न कभी उनके तीर से घायल न हो चुका हो। इसके बावजूद सबको यह पता था कि मन से वह ऐसे हर व्यक्ति की खास चिंता करते और बिना बताये-जताये मदद करते रहते जो लिखने-पढ़ने से जुड़ा होता। रोज जुटने वाले दर्जनाधिक लोग वहां घंटों गाज-फेन छोड़ते और बाबूसाहब की चाय पीकर ही देरशाम उठते।

उन्‍होंने हरिवंश प्रभात के लिए ‘ठक् ठक् ठक्’ नाम रख लिया था। मुझे देखते ही पूछते- कहां हैं ‘ठक् ठक् ठक्’ जी? हरिवंश प्रभात निर्मल हंसी के साथ अपने बारे में की जाने वाली टिप्पणियों को पचा जाते। कविवर सिद्धेवर नाथ ओंकार से मेरी खास निकटता थी। वह आग-मार्का कविताएं लिखने के लिए जाने जाते। किसी भी गोष्ठी में वह कविता पढ़ना शुरू करते तो हंगामा खड़ा हो जाता। कभी ‘परंपरावाद’ तो कभी ‘ब्राह्मणवाद’ को लक्षित व्यंग्य के कारण। वह धर्म-अध्यात्म आदि जैसे विषयों के प्रति भी स्पष्टतः नकारात्मक भाव रखते। यह सब हरिवंश प्रभात को बहुत नागवार गुजरता। उन्होंने ओंकार के लिए ’रावण’ नाम तय कर रखा था। इसके बावजूद दोनों के मिलने -जुलने के व्यवहार में कभी कोई तल्खी नहीं दिखी।

पलामू में हम पत्रकारों के अगुआ रामेश्‍वरम् उन्‍मुक्‍त किंतु निष्‍कलुष बोल-व्‍यवहार के थे। जब जो सोचते बेसाख्‍ता बोल जाते। इस स्‍वभाव के कारण वह अक्‍सर अपने ही मित्र-प्रशंसकों के बीच अक्‍सर विवाद का विषय बन जाते। कभी इस, तो कभी उस से अबोला। इसकी खूब चर्चा चल निकलती। शिवाजी मैदान से लेकर जेलहाता और कचहरी तक। लेकिन, ऐसे समय दोनों पक्षों ही नहीं प्राय: पूरे लेखक-पत्रकार समाज को यह पता होता कि यह संवाद-शून्‍य दौर लम्‍बा खिंचने वाला नहीं। कारण रामेश्‍वरम् का स्‍वभाव। वह अबोला छेड़ तो देते किंतु झेल नहीं पाते। कभी दो-चार दिन भी नहीं बीतता तो कभी महीने दो महीने भी निकल जाता लेकिन प्राय: हर बार वही दूसरे पक्ष की पीठ पर हाथ रख देते ( या यदि अमुक व्‍यक्ति वरिष्‍ठ हुआ तो हाथ पकड़ लेते ) और लगभग यही वाक्‍य कहते, “...जे होलई से भूल जा ...अरे, हमनीं के एक दूसरा के बिन काम चले वाला हई...”। संबंधों का प्रेम-प्रवाह कोयल-औरंगा ( पलामू की पमुख नदियां ) की मीठी धाराओं की तरह बहने लग जाता। रामेवरम् को हरिवंश प्रभात अपना गुरु मानते। जब कभी हमलोग उनसे रामेश्‍वरम् को लेकर ज़रा भी कुछ प्रतिकूल बोलते, वह बिगड़ जाते। साफ कहते, “ हमारे गुरु हैं रामेश्‍वरम् जी... उन्‍होंने हमें पढ़ाया है... मैं यह सब नहीं सुनूंगा...”। रामेश्‍वरम् जी हृदय-मन से कवि थे किंतु साठ के दशक में अपने आरम्भिक दौर में ही उन्‍होंने सघन साहित्यिक-प्रयास चलाए, बाद में लेखन को लेकर वह लगातार योजनाएं बनाते रहे। वह उसी दौरान पलामू से छपे वहां के रचनाकारों के दो संग्रहों ( कविता संग्रह ' मोर के पंख मोर के पांव' और कहानी-संग्रह का नाम संभवत: 'आकृतियां उभरती हुई ) में से किसी में शामिल भी किए गए थे। बाद में उनके रचनाकार पर पत्रकार हावी हो गया। पलामू को लेकर उन्‍होंने इतनी सारी सूचनाएं जमा कर रखी थी कि तब के इंटरनेट-विहीन युग में वह आज की शब्‍दावली में कहें तो पलामू के संदर्भ में तो 'गूगल सर्च इंजन' जैसे ही बन चुके थे। मोटे-मोटे रजिस्‍टर में सूचनाएं। उन्‍होंने ही वह बंधुआ मुक्ति अभियान भी चलाया था जिससे स्‍वामी अग्निवेश और कैलाश सत्‍यार्थी आदि जुड़ गए थे। वह वस्‍तुत: स्‍वयं में एक संस्‍थान जैसे बन चुके थे। इस रूप में उनकी ख्‍याति देश भर के लिखने-पढ़ने वालों में थी। कोई भी पत्रकार या साहित्‍यकार पलामू आता तो उसकी जेब में रामेश्‍वरम् जी का नाम-पता अवश्‍य होता। वह ऐसे लोगों को अपने यहां ठहराने और मदद करने में जान तक लड़ा देते। बांग्‍ला की विख्‍यात रचनाकार महाश्‍वेता देवी तो उनकी कुछ इस कदर प्रशंसक बनी कि उन्‍हें नायक बनाकर “भूख” उपन्‍यास ही रच डाला। अस्‍सी दशक में महाश्‍वेता ने रामेवश्‍रम् पर उस समय की प्रमुख समाचार पत्रिका 'रविवार' में लेख भी लिखा था।

महेंद्र उपाध्याय, विजय रंजन और हीरानन्‍द पाठक आदि जैसे रचनाकार कुछ बाद में मैदान में आये। पत्रकारों में गोकुल वसंत और शंभु चौरसिया के साथ हमारी तिकड़ी थी। सुरेन्‍द्र सिंह रुबी से मेरी निकटता थी किंतु वह और उनके भी वरि‍ष्‍ठों में महेन्‍द्र त्रिपाठी व देवव्रत आदि हमेशा अग्रज कोटि में रहे। जनार्दन द्विवेदी दीन नौकरी से अवकाश-ग्रहण के बाद पत्रकारिता में आए थे। खादी की कुर्ता-धोती और गांधी टोपी। श्रद्धा-भाव उत्‍पन्‍न करने वाले बुजुर्ग, किंतु अखबारी से लेकर लेखन स्‍तरों तक, उनकी सक्रियता देखते बनती। गनौरी ठाकुर पलामू के पत्रकारों में आयु में सबसे बड़े थे। गोकुल और शंभु के साथ हमारी तिकड़ी 1988 के पहले कई वर्षों तक निभी। ओमप्रकाश अमरेन्‍द्र के साथ बाद में 'राष्‍ट्रीय नवीन मेल' में तो कुछ महीने संग-साथ रहा, लेकिन आलोक पुतुल ( इंटरनेट जगत में आज की विख्‍यात वेबपत्रिका 'रविवार' के संपादक ), विष्‍णु गुप्‍त और विनय कुमार शर्मा आदि के साथ पलामू-भूमि पर पत्रकारी संगत ज्‍़यादा सम्‍भव नहीं हुई है। वैसे, संजय कुमार सहाय के साथ खबरिया अभियान खूब चला है। पलामू की इप्‍टा टीम ने पूरे बिहार में खास पहचान बना ली थी जिसका श्रेय उपेन्‍द्र मिश्र, प्रेम प्रकाश, विनय कुमार शर्मा और संजय सिंह आदि को जाता है। जमशेदपुर में अंग्रेजी अखबार के पत्रकार इलियास की जब हत्‍या हुई थी उस दौरान हुए आंदोलन में इस टीम की सलाह पर मैंने नाटक 'कलम के दुश्‍मन हाय-हाय' लिखा था जिसका लगातार मंचन होता रहा। रांची में डा. बालेन्‍दु शेखर तिवारी के संयोजन में जो 'लघुकथा उत्‍सव' हुआ था, उसमें पहुंची पलामू इप्‍टा की टीम ने मेरी कुछ लघुकथाओं का जीवंत मंचन किया था। प्रख्‍यात व्‍यंग्‍यकार डा. शंकर पुणतांबेकर ने एक लघुकथा का मंचन देख डबडबाई आंखों से मंच पर पहुंच कलाकार प्रेम प्रकाश को अंकवार में भरकर शाबाशी दी थी।

मैं 1988 में पलामू से नि‍कलकर नौकरी करने धनबाद आ गया। मेरे पलामू छोड़ने पर महेंद्र उपाध्याय ने एक मार्मिक पत्र भेजा था जिसे यादकर आज भी अपनी धरती से अलग होने का दर्द दुगना हो जाता है, लेकिन वही रोजी-रोटी की विवशता! इसके बाद जब-जब पलामू जाना हुआ है, पुराने लोगों को खोज-खोजकर मिलने का प्रयास चलता रहता है। कुछ साल पहले तो महेंद्र उपाध्याय को लेकर हरिवंश प्रभात के गांव भी चला गया था किंतु उस दिन वहां वह पहुंचे ही न थे। लौटना पड़ा।