वे दीवाने / गणेशशंकर विद्यार्थी

Gadya Kosh से
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अनुत्‍तरदायी? जल्‍दबाज? अधीर, आदर्शवादी? लुटेरे? डाकू? हत्‍यारे? अरे, ओ दुनियादार, तू किस नाम से, किस गाली से विभूषित करना चाहता है? वे मस्‍त हैं। वे दीवाने हैं। वे इस दुनिया के नहीं हैं। वे स्‍वप्‍नलोक की वीथियों में विचरण करते हैं। उनकी दुनिया में शासन की कटुता से, माँ धरित्री का दूध अपेय नहीं बनता। उनकके कल्‍पना-लोक में ऊँच-नीच का, धनी-निर्धन का, हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं हैं। इसी सम भावना का प्रचार करने के लिए वे जीते हैं। इस दुनिया का में उसी आदर्श को स्‍थापित करने के लिए वे मरते हैं। दुनिया के पठित मूर्खों की मंडली उनको गालियाँ देती है, लेकिन वे सत्‍य के प्रचारक गालियों की परवाह करते, तो शायद दुनिया में आज सत्‍य, न्‍याय, स्‍वातंत्र्य और आदर्श के उपासकों के वंश में कोई नामलेवा और पानीदेवा भी न रह जाता। लोक-रूचि अथवा लोक-उक्तियों के अनुसार जो अपना जीवन-यापन करते हैं, वे अपने पड़ोसियों की प्रशंसा के पात्र भले ही बन जायें, पर उनका जीवन औरों के लिए नहीं होता। संसार को जिन्‍होंने ठोकर मारकर आगे बढ़ाया, वे सभी अपने-अपने समय में लांछित हो चुके हैं। दुनिया खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने तथा उपयोग करने की वस्‍तुओं का व्‍यापार करती है। पर, कुछ दीवाने चिल्‍लाते फिरते हैं : 'सरफरोशी की तमन्‍ना अब हमारे दिल में है।' ऐसे कुशल, किंतु औघड़ व्‍यापारी भी कहीं देखे है? अगर एक बार देख लें तो कृतकृत्‍य हो जायें। हाँ, दुनिया में आजकल व्‍यवहार-बुद्धि की बड़ी धूम है। सब कोई अपनी डेढ़ अंगुल की व्‍यवहार-बुद्धि को लिए उचकते फिरते हैं। व्‍यवहार क्‍या चीज है? फूँक-फूँककर कदम रखना, खतरे से सौ कोस दूर रहना और मौका पड़ने पर चापलूसी करना दुनिया की दृष्टि में बुद्धिमत्‍ता है। इसी को लोग चतुरता कहते हैं। सारांश यह कि व्‍यावहारिकता का दूसरा नाम कायरता है। कुछ मतवाले ऐसे हैं, जो इस दुनियादारी से घृणा करते हैं। संसार की दृष्टि में वे अधीर, आदर्शवादी हैं। वे जहाँ जाते हैं अपमानित किये जाते हैं। उनके कार्यों में विकरालता रहती है। हम लोग कभी उन्‍हें ठीक-ठीक नहीं समझ पाते। कारण? बात यह है कि कायर लोग वीरों की कद्र करना नहीं जानते दृष्टिकोण में अंतर होने के कारण उनके कार्यों की महत्‍ता हम दुनियावी लोगों की आँखों में नहीं समा सकती।

भारतवर्ष के राजनीतिज्ञों की खोखली तथा शब्दिक सहानुभूति भी उन वीरों को प्राप्‍त नहीं होती। गालियाँ उन्‍हें जरूर मिल जाती हैं। उनकी सेवाओं की कद्र करना तो दूर, कई धुआँधार राजनीतिज्ञों ने उलटा उन्‍हें देशद्रोही कहा है। माडरेट अखबारों ने तो बाज मौकों पर यहाँ तक लिख मारा है कि 'इन्‍हीं अनुत्‍तरदायी, जल्‍दबाज नौजवानों के देशद्रोह का यह फल है कि भारतवर्ष में दमनकारी कानूनों की सृष्टि हुई है।' उन कायर राजनीतिक-पंडितों का मत है कि 'न इन नवयुवकों की कठोर कार्य-प्रणाली का प्रदर्शन होता और न सरकार बहादुर को कड़ाई से काम लेना पड़ता।' इसलिए मुल्‍क में सरकार-आला की तरफ से जो धाँधली हुई, उसका मूल कारण है कुछ नौजवानों की अधीरता और अनुत्‍तरदायिता। मुल्‍क के लिस सर काटने का प्रतिफल यह मिला कि अन्‍याय, अत्‍याचार और काले कानूनों के निर्माण कराने का पान उन निरपराध वीरात्‍माओं के सर मढ़ा गया। सबसे घृणित लांछन जो इन वीरों पर लगाया गया है, वह यह है कि वे देशद्राही, देश के दुश्‍मन, इसलिए हैं, क्‍योंकि उन्‍होंने काले कानूनों की सृष्टि की है। नरम राजनीतिज्ञों की इस नीचातिनीच भावना को हम किन शब्‍दों में कोसें? भारत के विद्रोही नवयुवक को समाज के काले कानूनों का विधाता कहकर उन्‍हें गाली देना उतना ही दौरात्‍म्‍यपूर्ण है, जितना कि किसी चरित्रवती पतिव्रता स्‍त्री को व्‍यभिचारिणी कहना। राजनीतिक स्‍वतंत्रता की भावना कैसे फैली? सर कटाने वालों ने उसे प्रचारित किया था, 'जी हुजूर' कहने वालों ने नहीं? खाली अखबारों के कालम रँगने से ही क्‍या उस भाव का विस्‍तार हो सकता था? स्‍वयं सर सुरेन्‍द्रनाथ बनर्जी ने अपने जीवन स्‍मृति में प्रकारांतर से यह बात स्‍वीकार कर ली है कि भारत की राजनीतिक और शासन-व्‍यवस्‍था संबंधी प्रगति का श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है, तो वह कुछ स‍रफिरे युवकों को ही दिया जा सकता है। हम सशस्‍त्र क्रांति के उपासक नहीं हैं। हम भी उन पढ़े-लिखे मूर्खों में गिने जाते हैं जो व्‍यावहारिकता को छोड़ना नहीं चाहते, लेकिन हमारे हृदय में आदर और भक्ति है, उन आदर्श पुजारियों के प्रति जो देशकाल के बंधनों को काटकर फेंक देते हैं। उनका काम क्‍या रंग लायेगा, इसकी उन्‍हें चिंता नहीं। वे विद्रोह के पुतले हैं। वे भारतवर्ष की अंतर-अग्नि की चिनगारियाँ हैं। वे इस बात का जबर्दस्‍त प्रमाण हैं कि राजनीतिक असमानता के मैदान में पूर्व, पश्चिम के आगे कभी घुटने न टेकेगा। जो नौजवान मौत के सामने भी खड़े-खड़े मुस्‍कराते रहे हैं, उनका काम है देश को अधिक उन्‍नत और विशाल करना। राजनीतिक दाँव-पेच में पड़कर हमें कम-से-कम इतना तो न भूलना चाहिये कि वर्तमान काल ही सब कुछ नहीं है, भूत और भविष्‍य काल भी कोई वस्‍तु है। जार्ज वाशिंगटन एक विद्रोही था और साथ ही राष्ट्र-निर्माता भी। लेनिन साइबेरिया-निर्वासित कैदी भी था और राष्‍ट्र-निर्माता भी।