वे दूसरे / अज्ञेय
हेमन्त कई क्षण तक चुपचाप बालू की ओर देखता रहा। यह नहीं कि उसके मन में शून्य था; यह भी नहीं कि मन की बात कहने को शब्द बिलकुल ही नहीं थे, केवल यही कि बालू पर उसके अपने पैरों की जो छाप पड़ी हुई थी - गीली बालू पर, जो चिकनी पाटी की तरह होती है - उसमें उसके लिए एक आकर्षण था जिसमें निरा कौतूहल नहीं, जिज्ञासा की एक तीखी तात्कालिकता थी। छालियाँ उसके पास तक आकर लौट जाती थीं। क्या कोई बड़ी लहर आकर उस छाप को लील जाएगी। क्या एक ही कई लहरों को आना होगा, जिन लहरों को पैदा करने के लिए समुद्र की पृथ्वी की आन्तरिक हल-चल की, चन्द्र-सूर्य-तारागण के आकर्षण की एक विशेष अन्योय-सम्बद्ध स्थिति को बार-बार आना होगा... क्या उसका एक-एक अनैच्छिक पदचिह्न मिटाने के लिए सारे विश्व-चक्र के एक विशेष आवर्तन की आवश्यकता है?
“कोरा अहंकार!” उसने अपने को झकझोरने के लिए कहा, “कोरा अहंकार! इसलिए नहीं कि बात मूलतः झूठ है, इसलिए कि उसको तूल देना झूठ है। झूठ मूलतः तथ्य का नहीं, आग्रह की दृष्टि का दोष है : झूठ-सच विषयों पर आश्रित सापेक्ष हैं, तथ्य विषयी से परे और निरपेक्ष है।”
और तब उसने अपनी साथिन से कहा, “सुधा, मैं कह नहीं सकता कि मेरे मन में कितनी ग्लानि है और मैं जानता हूँ कि वह वर्षों तक मुझे खाती रहेगी - मुझे लगता है कि अनुपात का यह बोझ मैं सारा जीवन ढोता रहूँगा। लेकिन-” क्षण-भर रुककर उसने सुधा के चेहरे की ओर देखा - “लेकिन मैं नहीं चाहता कि कटुता का बोझ तुम्हें ही ढोना पड़े या कि तुम उसे याद भी रखो। और-”
वह फिर थोड़ी देर चुप हो गया। इसलिए भी कि आगे वह जो कहना चाहता था, उसे झिझक थी, और इसलिए भी वह चाहता था कि ठीक इस स्थल पर सुधा उसकी बात काटकर कुछ कह दे, जिससे उसे कुछ सहारा मिल जाये।
पर सुधा ने कुछ कहा नहीं। वह पिघली भी नहीं। हेमन्त ने यह आशा तो नहीं की थी कि उस पर भी अनुताप का इतना गहरा बोझ होगा कि उसे उदार बना दे, पर इतने की आशा उसने शायद की थी कि सुधा में और नहीं तो करुणा का ही इतना भाव होगा कि उसकी सच्ची भावना को स्वीकार करा दे। पर सुधा ने जल्दी से मुँह फेर लिया-और हेमन्त ने देखा कि उस फिरते हुए मुँह पर मुस्कान दौड़ने वाली है-विजय के गर्व की मुस्कान-मानो कहती हो कि ‘अब जाकर तुम जानोगे, अनुताप की आग में जलोगे तो मुझे शान्ति मिलेगी-तुम, जिसने मुझे सताया-जलाया-’
ऐसी विदा की उसने कल्पना नहीं की थी। उसे सहसा लगा कि वह मूर्ख है, महामूर्ख, क्योंकि जब साथ रहना असम्भव पाकर वे अलग हुए, और इतनी कटुता के बाद तलाक़ हुआ ही, तब और अलग विदा लेना चाहने का क्या मतलब था? क्या यह कलाकार का दम्भ ही नहीं है कि वह पराजय को भी सुध रूप देना चाहे? अन्त का सौन्दर्य उसकी सुचाता में, सुघराई में नहीं है, करुणा में भी नहीं है, वह उसके अपरिहार्य अन्तिमपन और काठिन्य में है... अन्त सुन्दर है क्योंकि वह महान् है, क्योंकि हम उसका कुछ नहीं कर सकते, उसे केवल स्वीकार कर सकते हैं...
किन्तु उसका मन नहीं माना। देखकर भी उसने सुधा की गर्वीली मुस्कान देखनी नहीं चाही। क्योंकि यह तो निरी मृत्यु-पूजा है। अन्त इसलिए महान् है कि हम उसके आगे अशक्त हैं? - नहीं, हमारी स्वीकृति का संयम और साहस उसे महत्ता देता है-
और उसने पूरा साहस बटोर कर अपने मन की बात कह ही डाली, “और अगर तुम मुझे इतना भूल सको-यानी मेरे साथ की कटुता को - दोबारा विवाह की बात तुम्हारे मन में उठे, तो -तो मुझे बड़ी सान्त्वना मिलेगी - मेरा अनुताप तब भी मिटेगा या नहीं यह तो नहीं कह सकता, पर इतना तो मान सकूँगा कि मैं सदा के लिए शाप न बना, कि-”
अब सुधा फिर उसकी ओर मुड़ी। अब उसने अपने को वश में कर लिया था - वह अप्रतिहत मुस्कान उसके चेहरे पर नहीं थी। उसने रूखे स्वर से कहा, “मेरे विवाह की बात सोचने की तुम्हें ज़रूरत नहीं है। हाँ, उससे तुम अपने को अधिक स्वतन्त्र महसूस कर सकोगे, यह तो मैं समझती हूँ।”
हेमन्त थोड़ी देर बोल ही नहीं सका। फिर जब उसने सोचा कि शायद अब सकूँ, तब उसने पाया कि वह चाहता नहीं है। तीन वर्षों की व्यर्थ चेष्टा में, अलग होने की कटुता में और फिर तलाक़ की क़ानूनी कार्रवाई के ग्लानिजनक प्रसंग में वह जितना नहीं टूटा था, उतना इस क्षण में टूट गया। उसने आँखें फिर पैर की उसी छाप पर टिका लीं। एक लहर आकर उस पर हलके हाथ से लिपाई कर गयी थी, गड्ढे कम गहरे हो गये थे पर छाप का आकार स्पष्ट पहचाना जाता था, बल्कि लहर के पीछे हटने के साथ पैर की छाप में भरा हुआ पानी एक ओर को मानो मोरचा तोड़कर बह निकला था, और उधर को बालू में एक नयी लीक पड़ गयी थी। इस छाप को मिटाना ही होगा - लहर को आना ही होगा, यह लीक - यह लीक एक अनावश्यक आकस्मिक घटना है जिसे और एक आकस्मिक घटना अवश्य मिटाएगी, नहीं तो सब ग़लत है, सब व्यवस्था ग़लत है, कार्य-कारणत्व ही धोखा है-और तब दृष्टि एक आधारहीन, कारणहीन, अर्थहीन, विसंगति है - पर वह वैसी हो नहीं सकती-
वह आँखों से उस पैर की छाप को पकड़े रहेगा। उसमें स्वास्थ्य है - उसके सहारे यथार्थ से उसका सम्बन्ध जुड़ा है - उस यथार्थ से जिसमें भावनाएँ अर्थ रखती है; और संयत हैं, नहीं तो यथार्थ तो सब कुछ है जो है - पर ऐसा भी हो सकता है कि भावनाएँ ही एक भूल-भूलैया हो जायें-
उसने फिर कहा, “मैं यहाँ से कटुता की स्मृति भी वापस न लेकर जाऊँगा, यही सोचकर यहाँ आया था। और इसीलिए सागर के किनारे-कि शायद यहाँ अपनी क्षुद्रता उतनी प्यारी न लगे, और-” वह फिर रुक गया, उसके वाक्य की गढन ठीक नहीं थी क्योंकि इसके अर्थ दोनों तरफ़ लग सकते हैं और वह केवल अपनी क्षुद्रता की बात करना चाहता है। इस वक्त आरोप-अभियोग उसमें नहीं है, न होने देना होगा, केवल स्वीकृति... एक और लहर आयी, जिसके उफनते झाग पैर की छाप के बहुत आगे तक छा गये। जब लहर लौटी, और झाग के बुलबुले बैठ गये, तब हेमन्त ने देखा, छाप मिट गयी है। या कि नहीं, उसकी झाई-सी भी दीखती है? नहीं, निश्चय ही वह उसका भ्रम है; और कोई कुछ न देख सकता, वह इसलिए देखता है कि उसे याद है-
‘याद’ है! कितनी धुली हुई मिथ्या छायाओं को हम केवल स्मृति के - स्मरण-भ्रम के! - जोर से सच बनाए रहते हैं! सागर का जो तट मीलों तक फैला है - मीलों क्यों, अगर कोई चीज़ भौतिक यथार्थ से इस छोर से उस छोर तक, इस सीमा से उस तक, इस असीम से उस असीम तक फैली है तो वह सागर का तट है! उसी पर एक अदृश्य पैर की छाप को मैं ‘देख’ रहा हूँ, वह भी इतनी स्पष्टता से कि उससे मेरा जीवन बँध रहा है - क्या यह यथार्थ है? क्या देखना यथार्थ है? क्या-
हेमन्त देखता है-
वे दोनों पहाड़ की चोटी पर खड़े हैं। सामने अत्यन्त सुन्दर दृश्य हैं - छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरी हुई-सी झील जो साँझ के आलोक में ऐसी है मानो रंग-बिरंग और मेघिल आकाश ही जमकर नीचे बैठ गया हो; ऊपर पहली शरद् के मेघ जिन्हें डूबते सूरज की आभा ने रंग दिया है - पीला, लाल, धूमिल, बैंगनी। और ऊपर एक अकेला तारा। लेकिन हेमन्त उस दृश्य में नहीं है। वह सुधा के साथ भी नहीं है। वह कहीं और हो, ऐसा नहीं है, वह सुधा और हेमन्त को इस परिपार्श्व में जैसे बाहर से देख रहा है, वह भी पीछे से - और सोच रहा है कि उन दोनों की पीठ इस झील और आकाश के परदे पर कैसी दीखती होगी? क्या उन पीठों में, उन छायाकृतियों के परस्पर रखाव-झुकाव में, इस बात का कोई संकेत है कि ये दो प्रेमी हैं, या कि पति-पत्नी हैं, विवाह-के सप्ताह-भर बाद ही इस पहाड़ी झील की सैर, एकान्त सैर के लिए आये हैं, इसलिए ‘हनीमूनर’ युगल हैं? वह जानता है कि ऐसा कोई संकेत नहीं है, क्योंकि यह झूठ है। तथ्य सब ठीक हैं - पर आग्रह की चूक है, भावना की चूक है। और निरा तथ्य तब तक सत्य की अभिधा नहीं पाता जब तक उसके साथ रागात्मक सम्बन्ध न हो...
बल्कि वह साथ भी नहीं है। मानो वह अगर हाथ बढ़ाकर सुधा का हाथ पकड़ लेगा तो भी उसे छूएगा नहीं, क्योंकि दोनों एक भावात्मक दूरी की चादर में लिपटे हुए हैं।
सुधा ने धीरे से कहा, “हम यहाँ नहीं होंगे, तब भी वह तारा ऐसा ही चमकेगा। पर जैसे हम आज इसे देख रहे हैं, वैसे और कोई नहीं देखेगा - यह आज इस क्षण का तारा है।”
हेमन्त को थोड़ा-सा अचम्भा हुआ। क्या यह सच है? ऐसे क्षण पर भावुकता क्या ज़रूरी है? जो सच होता तो मौन में वह जब जच नहीं है तो क्या इस बात को भी मौन में भी प्रकट होता, ही न छिपे रहना चाहिए? पर यह वह कह भी कैसे सकता है? लेकिन उसे कुछ कहना है, क्योंकि दूसरा जो उत्तर हो सकता है - कि सुधा का हाथ पकड़कर धीरे से दबा दिया जाता - वह उत्तर भी झूठ है...
उसने कहा, “तारे सबके अलग-अलग होते हैं।” इस वाक्य में चाहे जितना जो अर्थ पढ़ा जा सकता है, अधिक या कम... और अपने मन का सच भी उसने कह दिया है, छिपाया नहीं है...
सुधा ने उसकी ओर देखा। क्या हेमन्त को धोखा ही हुआ कि जब देखा, तब पहचान उस आँखों में नहीं थी, तत्काल बाद आयी - कुछ अचकचाहट के साथ!
सुधा बोली, “क्या सुन्दर में हम सब अपने-अपने अलगाव डुबा नहीं सकते?”
“सकते हैं। अपने-अपने एकान्त का लय-” और रुक गया। लेकिन मन के भीतर कुछ बोला; ‘सुन्दर में लेकिन एक-दूसरे में नहीं, एक-दूसरे में नहीं!’
अपने को लय करने के लिए सागर की विशालता से अच्छा और कौन द्रावक मिल सकता है? कितने लोग सागर-तट पर खड़े-खड़े इयत्ता को उसमें विलीन कर देते होंगे... लेकिन उससे क्या एक-दूसरे के कुछ भी निकट आ सकते होंगे? सागर में डूबकर भी क्या प्रत्येक चट्टान अलग चट्टान नहीं बनी रहती? जो द्रव नहीं होती, द्रव हो नहीं सकती...
और सागर की छाली, पैर की छाप को मिटाने से पहले उसमें छेद करती है, दरार डालती है, नयी लीक बना देती है...
हेमन्त ने फिर देखा :
नदी पर बजरा धीरे-धीरे बहा रहा है, उसके डोलने में, और बाहर लकड़ी पर पड़ती माँझी की दबी हुई पद-चाप से ही मालूम हो रहा है कि वह बह रहा है, क्योंकि जहाँ वह बैठा है, वहाँ चारों ओर के परदे खिंचे हुए हैं, बाहर कुछ नहीं दीख रहा है। कहीं भी कुछ दीख रहा है, ऐसा नहीं है; क्योंकि उसका शरीर एक अन्य शरीर से उलझा-गूँथा हुआ है और उस गुंथन में सुलझाव की, तारतम्य की कुछ ऐसी कमी है कि दृष्टि देनेवाली वासना केवल धुँआ दे रही है, जिससे आँखें कड़ुआ जाती हैं; क्यों नहीं सब-कुछ को दृष्टि से बाहर करके, उस मन्द-मन्द दोलन पर झूलते हुए यह अपर-शरीरत्व का भाव मिटता-क्यों नहीं-
उसने किंचित् बल से सुधा का परे को मुड़ा मुँह अपनी ओर फिराया - कदाचित् उसकी आँखों में आँखें डालकर दोनों इस खाई को पार कर सकें - लेकिन सुधा की आँखें ज़ोर से भिंची हुई थीं - क्यों? वासना अन्धकार माँगती है, शायद, ताकि वह अपनी ज्वालामयी सृष्टि को अपने ढंग से देखे, यथार्थ उसमें बाधा न दे-पर बन्द आँखें - क्या वह ज्योतिःशरीर अन्धी आँखों से ही देखा जाएगा? पर अँधी आँखें पृथक् आँखें हैं, और वासना अगर युत नहीं है तो कुछ नहीं है-
उसने भर्राये स्वर में कहा, “आँखें खोलो-”
वह जान सका कि आँखें खुलने के साथ-साथ सुधा का शरीर सहसा कठोर पड़ गया है, और वह जान सका कि पहचान उन आँखों में नहीं थी; उन आँखों में था-वह, वह दूसरा, और इसीलिए आँखें बन्द थी। बाहर एक धुँए का खोल है जो उसे भी लपेट लेगा, और भीतर एक ज्योतिःशरीर जो-जो कहाँ है? क्या है भी?
और थोड़ी देर के लिए, नाव का दोलना, गति, हवा, साँस, हृदयगति - सब-कुछ रुक गया था, और फिर धीरे-धीरे अनजाने वह वासना की गुंजलक खुल गयी थी-साँप मर गया था - हेमन्त अलग जाकर परदा हटाकर बाहर देखने लगा था। नदी-किनारे के गाँव की मुर्गाबियाँ कगार की छाँह में तैरती हुई, और सुधा अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों की सलवटें ठीक करके पास पड़ी चौकी के फूल सँवारने लगी थीं। हेमन्त का मन आत्मग्लानि से भर गया था - वह जो जानता है उसे क्यों भूल सका; भूल नहीं सका, क्यों उसकी अनदेखी करना चाह सका? सुधा की आँखों में वह दूसरा है, और स्वयं उसकी अपनी-क्या उसकी आँखों में भी एक परछाई नहीं है? और तब तक है तब तक यह उलझन, यह गुंथन उस ज्योतिःशरीर का किरण-जाल नहीं है, केवल साँप की गुंजलक है जिसके दंश में केवल मरण है...
और सुधा ने कहा था, “हेमन्त, तुम मेरी एक इच्छा पूरी करोगे?”
“क्या?”
“मैं... मेरे लिए शराब ला सकोगे? मैं शराब पीना चाहती हूँ।”
मुर्गाबियाँ... कगार के कीचड़ में चोंच फिचफिचाती हुई मुर्ग़ाबियाँ और उनके आस-पास बनते हुए लहरों के वृत्त-जो सागर की लहरों में घुल जाते हैं, और सागर, वह रेत की पैरों की छाप धीरे-धीरे मिटा देता है।
शराब वह लाया था। मूक विद्रोह से भरा हुआ, पर लाया था। दोपहर को वे खाना खाने बैठे थे, और साथ सुधा ने शराब पीनी चाही थी-पी थी। दोपहर को कोई नहीं पीता, खाने के साथ कोई नहीं पीता, कम-से-कम जिन-व्हिस्की-जैसी भभके की शराबें, और उस ढंग से-यह न वे ठीक जानते थे, न वह सोचने की बात थी। क्योंकि वह शराब वातावरण को रंगीनी देने, बातचीत को आलोकित करने के लिए नहीं थी, वह शराब स्वयं अपनी इन्द्रियों को थप्पड़ मारकर सन्न कर देने के लिए थी... हेमन्त देख रहा था; और केवल देखना, वह भी स्त्री को शराब पीते, स्वयं ग्लानि-जनक है, इसलिए साथ पी रहा था। और जब उसने देखा कि सुधा ने बड़े निश्चय-पूर्वक बहुत-सी अपने ग्लास में एक साथ डाल ली है तब मुख्यतः इसलिए कि सुधा और न पी सके, उसने सहसा बोतल उठाकर मुँह को लगा ली थी और सुधा के हाथापायी करते-करते भी सारी पी गया था।
तेज़ शराबों में स्वाद यों भी नहीं होता; और ऐसे पीने में तो और भी नहीं, उसे बड़ी ज़ोर से उबकाई आयी थी, पर उसने किसी तरह उसे दबाकर चार-छह ग्रास खाना खा ही लिया था...
फिर उसकी चेतना भी कुछ मन्द पड़ गयी थी। याद सब-कुछ है, और उसकी प्रत्येक हरकत में एक स्पष्ट प्रेरणा भी काम कर रही थी जिसका उसे ध्यान भी था, पर जैसे उसके भीतर का कोई उच्चतर संचालक हथौड़े की चोट से चित हो,और ऐरे-ग़ैरों की बन आयी हो... उसने उड़कर सब किवाड़-खिड़कियाँ बन्द कर दी थीं, परदे तान दिये थे। थी अभी दोपहर; पर उसे अभी कुछ धुँधला, कुछ नीला-दीखने लगा था, जैसे पानी के नीचे गोता लगाकर आँख खोलने से दीखता है। हवा भी जैसे पानी-जैसी भारी और ठोस हो गयी थी - चलने में उसे ऐसा जान पड़ता था जैसे वह पानी को ठेल-ठेल कर बढ़ा रहा हो... जैसे ठीक प्रतिरोध तो कहीं न हो, लेकिन प्रत्येक अंगक्षेप में अजीब जड़ता आ गयी हो...
इससे आगे उसे ठीक या स्पष्ट याद नहीं। यह नहीं कि स्मृति धुँधली और नीले पानी में से मछलियों की तरह निःशब्द-से, वे दोनों एक-दूसरे के पास आये थे और मछलियाँ पानी में भी बलखाती-सी मानो एक-दूसरे से सटती-सी, पेच देती-सी चली जाती हैं, उसी तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ गये थे... फिर सहसा उसने पाया था कि उन मछलियों के पेच नहीं खुल रहे हैं, कि वह ठिठुरा हुआ साँप जैसे जाग उठा है, और उसकी गुंजलक में दोनों कसे जा रहे हैं, पानी नीला होता जा रहा है, और उनके कपड़े भी मानो मोम-से जान पड़ रहे हैं, या कि हैं ही नहीं, केवल नीले पानी में काँपती उनकी परछाई है, तभी तो उनके हाथों की पकड़ में आते-
और फिर सब नीला-ही-नीला हो गया था, एक द्रव जिसमें वे जड़ होते जा रहे हैं; न उलझे न अलग; गरम पानी में पड़ी हुई मोम की बूँद जो न घुल सकती है, न जम सकती है।
और इसके बाद जो याद है, वह यह कि जब वह चौंककर जागा था और हड़बड़ाकर उठा था कि वमी करने के लिए कम-से-कम यथास्थान पहुँच जाये, तब दिन छिप रहा था। मुँह-हाथ धोकर जब वह सख्त सिर-दर्द लिए कमरे में लौटा था, तब सुधा सोयी पड़ी थी। उसने नींद में, या बीच में जागकर, वहीं पास ही क़ै कर दी थी, पर उसका भी उसे होश नहीं था।
और उसने सब किवाड़-खिड़कियाँ खोली थी; नौकर बाहर मुस्कराया था कि बाबू साहब-दिन-भर किवाड़ बन्द करके सोये रहे, चाय-पानी और ब्यालू की चिन्ता भूलकर - नयी शादी है न...
तब उसने बैठकर सामने-सामने उस दूसरे की बात को फिर से सोचा था और गहरे बैठा लिया था... जब विवाह हुआ था, तब दोनों जानते थे कि दोनों का पहले अन्यत्र लगाव रहा है जो मिटा नहीं है, लेकिन जिसका कोई रास्ता भी नहीं है। एक विवाहित व्यक्ति था, और पति-पत्नी दोनों की सुधा के भी और हेमन्त के भी घने मित्र थे... वह परिवार न टूटे, यह भी सबके ध्यान में था, और विवाह हुआ वह जैसे यह भी एक बात पीछे कहीं पर थी कि सभ्य समाज में अगर ऐसी उलझनें पैदा होती हैं तो सभ्य व्यक्ति उनका सामना भी सभ्य तरीक़ों से कर सकता है; प्यार जहाँ है वहाँ हो, और विवाह... विवाह तो सामाजिक सम्बन्ध है, व्यक्ति के जीवन में यह बाधक हो ही, ऐसा क्यों?
वह अपनी भूल जानता और मानता है - जान गया। और भूल दोनों की थी, इस बात के पीछे उसने आड़ नहीं ली।
वह दूसरा... क्या वह आज भी उस दूसरे की बात कर सकता है? अपनी ओर से, या दूसरी ओर से? हेमन्त ने सागर की ओर देखा; उसकी लहर में उसे बुरूस के फूलों का एक बड़ा लाल-सा गुच्छा दीखा, जो वास्तव में किसी की कबरी में खोंसा हुआ है। कबरी और माथे की रेखा भी उसे दीख गयी, और ग्रीवा की भी; शायद जिसे बोध की स्मृति है वही धुँधला, धुएँ से कड़वा, मैला, एक जड़ता लिये हुए है, जैसे जाड़े में ठिठुरा हुआ साँप। उसे याद है कि कहीं नील-बंकिम भंगिमा, किन्तु चेहरा-वहाँ उसकी दृष्टि रुक गयी। नहीं... वह दूसरी थी-और आज भी वह कैसे कहे कि वह है नहीं केवल थी, यद्यपि वह जानता है कि वह होकर भी हेमन्त के जीवन से सदा के लिए चली गयी है। पर उसको इस झमेले में नहीं लाना होगा, वह अलग ही है। उसने कभी कुछ माँगा... न प्यार, न ब्याह, न वासना... वह देखकर चली गयी जैसे बिजली कौंधकर गिरकर मिट जाती है...
और सुधा? हेमन्त को याद आया, ब्याह के बाद सुधा को उस दूसरे की एक चिट्ठी भी आयी थीं। कई दिन बाद। उसने देखी नहीं थी, कुछ पूछा नहीं था, सुधा को अनमना और अस्थिर देखकर भी नहीं। पर दूसरे-तीसरे दिन सुधा ने ही कहा था, “यह चिट्ठी आयी थी - पढ़ लो।”
और उसमें अनिच्छा स्पष्ट थी। “मैंने कह दिया, मेरा कर्त्तव्य था। तुम इनकार करो पढ़ने से, क्योंकि तुम्हारा भी वह कर्त्तव्य है - तुम्हें मुझ पर विश्वास करना होगा!”
हेमन्त ने चिट्ठी लेते हुए कहा था, “क्या लिखा है?”
“कुछ नहीं-यों ही शुभ कामनाएँ - और अपने इलाक़े का वर्णन-”
हेमन्त ने अनचाहे लक्ष्य किया था कि चिट्ठी लम्बी है। आशीर्वाद छोटे होते हैं... खासकर उसके, जो वह दूसरा व्यक्ति हो... उसकी आँखें चोरी से काग़ज पर फिसलती हुई एक वाक्य पर रुक गयी थीं : “और मैं सोचता हूँ कि तुम शीघ्र ही उसके बच्चे की माँ भी होगी - उस बच्चे की सूरत उस जैसी होगी लेकिन वह तुम्हारी देह,” और जैसे उसने स्वयं चोर को पकड़ लिया हो, ऐेसे चौंककर उसकी दृष्टि हट गयी थी।
क्या वह बहुत बड़ा स्वीकार नहीं है? किन्तु कैसी अद्भुत है, यह बात कि जिसकी आत्मा हम दूसरों को सौंपने को तैयार हैं-क्योंकि उसके ब्याह की बात स्वीकार करते हैं - उसी की देह को सौंपते क्यों हमें इतना क्लेश होता है? ‘दूषित’ या ‘भ्रष्ट’ क्या देह होती है, या मन-आत्मा? या कि देह को हम देख, छू, सकते हैं, बस, इतनी-सी बात है?
उसने कहा था, “ठीक है, मैं पढ़कर क्या करूँगा। तुम उत्तर दे देना।” और उठकर हट गया था...
बुरूंस के गुच्छे-गुच्छे लाल फूल... वह भी क्या ऐसे ही सोचती-कहती? कल्पना का क्या भरोसा, लेकिन हेमन्त जानता है, कभी कुछ कहने का अवसर उसे होता, या कुछ वह कहना चाहती, तो यही कहती, “मैंने अपनी आत्मा तुम्हें दी, इसलिए मेरी देह भी तुम लो-क्योंकि वह आत्मा का खोल है। और उसके बदले कुछ देना कभी मत चाहना, क्योंकि वह मेरे इस उपहार का अपमान है। तुम निरपेक्ष भाव से जब जो दोगे, मैं वर समझकर ले लूँगी...”
यह आदिम, अराजक, व्यक्तिपरक दृष्टिकोण है। लेकिन यही क्या एकमात्र सभ्य दृष्टिकोण नहीं है, जो हमारे सभ्य जीवन के बोझ के नीचे दबा जा रहा है?
“तुम अपने को अधिक स्वतन्त्र महसूस कर सकोगे” ...स्मृति का दंश! ...लेकिन नहीं, मन; इस पर मत अटक, यह व्यर्थ है; अत्यन्त व्यर्थ! हमारा जीवन हमसे हैं, उन दूसरों से नहीं, वे हमारे कितने ही निकट क्यों न हों; और हमारी न चाहने की उदारता में ही हमारी स्वतन्त्रता है। पाने में नहीं, ‘न’ पाने की याद करने में नहीं। पैर की जो छाप सागर-तट की बालू पर बन गयी है, उसे सागर की लहरों में घुस जाने दो, चाहे धीरे-धीरे यों ही, चाहे दरारों में कटकर...
“इसीलिए तुम्हें सागर के किनारे पर मिला, कि शायद अपनी क्षुद्रता यहाँ इतनी प्यारी न लगे-”
और स्मृति? व्यर्थ, व्यर्थ, व्यर्थ! क्षमा की पराजय, जीवन की खोज... जीवन की देन हमें या तो विनयूपर्वक स्वीकार करनी है - जिस दशा में स्मृति बेकार है; विनय चरित्र का एक अंग है और स्मृति केवल मस्तिष्क का एक गुण-या फिर... अगर हम में विनय नहीं है, हमें स्वीकार नहीं है, तो स्मृति एक कीड़ा है। जिसके दंश से फोड़े होते हैं, और हम केवल अपने फोड़े चाहते रहते हैं। फोड़े चाटना क्या सभ्य कर्म है, सागर का विनय मुग्ध नहीं करता, वह स्वास्थ्य-लाभ को प्रेरित करता है-पैरों की छापें मिटाता हुआ...
“सुधा, मैं सच्चे दिल से कहता हूँ - सागर की क़सम खाकर-मेरे मन में कोई कटुता नहीं है। जो कुछ था, या होना चाहता था, उसे जब मिटा दिया तो कटुता क्यों अनिवार्य है? मेरा अपराध का बोध नहीं मिटा, न मिटेगा - पर तुम जाओ तो क्षमा करके जाओ - सागर की तरह; और मैं तो-”
उसकी आवाज़ फिर रुक गयी। तभी एक बड़े ज़ोर की छाली आयी - हेमन्त के पैर की छाप को पार करती हुई; आगे बढ़कर हेमन्त के पैरों को भी लिपट गयी। झाग में खड़े-खड़े उसने बड़ी लम्बी साँस ली और कहा, “सुधा, तुम सुखी रहो!”
सुधा की मुस्कराहट में तीखापन था। उसने पीछे हटते हुए नमस्कार किया और चल पड़ी।
हेमन्त क्षण-भर उसे देखता रहा। फिर उसने पैरों की ओर देखा, वह भगोड़ी छाली लौटती हुई उसके पैरों के तले से थोड़ी-सी बालू काट ले गयी थी, और गीली रेत पर पड़े हुए सब पैरों की छाप बिलकुल मिट गयी थी - और लिपी-पुती एक नयी वेदिका खड़ी हो...
हेमन्त ने लम्बी साँस लीं। फिर जैसे सहसा याद करके देखा; सुधा दूर चली जा रही थी। और अभी तक वह अकेली थी, अब दूर के एक झाऊ के पीछे से एक और व्यक्ति उसके साथ हो लिया और क्षण ही भर बाद क़दम-से-क़दम मिलाकर चलने लगा। हेमन्त ने पहचाना, वही दूसरा...
पर वह चौंका नहीं। ठीक है। पैरों की छाप बिलकुल मिट गयी है। मन-ही-मन उसने सागर को प्रणाम किया है।
इसी तरह पैरों की छाप मिट जाएगी। सबसे पहले उसकी। धीरे-धीरे उन दूसरों की... सागर आदिम, अराजक, व्यक्तिपरक है, और स्वयं संयत है। सभ्य है...
(दिल्ली, सितम्बर 1950)