वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति / भारतेंदु हरिश्चंद्र
प्रहसन
नांदी
दोहा - बहु बकरा बलि हित कटैं, जाके। बिना प्रमान।
सो हरि की माया करै, सब जग को कल्यान ।।
सूत्रधार और नटी आती हैं,
सूत्रधार : अहा हा! आज की संध्या की कैसी शोभा है। सब दिशा ऐसा लाल हो रही है, मानो किसी ने बलिदान किया है और पशु के रक्त से पृथ्वी लाल हो गई है।
नटी : कहिए आज भी कोई लीला कीजिएगा?
सूत्रधार : बलिहारी! अच्छी याद दिखाई, हाँ जो लोग मांसलीला करते हैं उनकी लीला करैंगे।
ख्नेपथ्य में, अरे शैलूषाधम! तू मेरी लीला क्या करैगा। चल भाग जा, नहीं तो तुझे भी खा जायेंगे।
दोनो संभय, अरे हमारी बात गृध्रराज ने सुन ली, अब भागना चाहिए नहीं तो बड़ा अनर्थ करैगा।
दोनो जाते हैं,
इति प्रस्तावना
प्रथम अंक
स्थान रक्त से रंगा हुआ राजभवन
नेपथ्य में, बढ़े जाइयो! कोटिन लवा बटेर के नाशक, वेद धर्म प्रकाशक, मंत्र से शुद्ध करके बकरा खाने वाले, दूसरे के माँस से अपना माँस बढ़ाने वाले, सहित सकल समाज श्री गृध्रराज महाराजाधिराज!
गृध्रराज, चोबदार, पुरोहित और मंत्री आते हैं,
राजा : बैठकर, आज की मछली कैसी स्वादिष्ट बनी थी।
पुरोहित : सत्य है। मानो अमृत में डुबोई थी और ऐसा कहा भी है-
केचित् बदन्त्यमृतमस्ति सुरालयेषु केचित् वदन्ति वनिताधरपल्लवेषु। ब्रूमो वयं सकलशास्त्रविचारदक्षाः जंबीरनीरपरिपूरितमत्स्यखण्डे ।।
राजा : क्या तुम ब्राह्मण होकर ऐसा कहते हो? ऐं तुम साक्षात् ऋषि के वंश में होकर ऐसा कहते हो!
पुरोहित : हाँ हाँ! हम कहते हैं और वेद, शास्त्र, पुराण, तंत्र सब कहते हैं। ”जीवो जीवस्य जीवनम्“
राजा : ठीक है इसमें कुछ संदेह नहीं है।
पुरोहित : संदेह होता तो शास्त्र में क्यों लिखा जाता। हाँ, बिना देवी अथवा भैरव के समर्पण किए कुछ होता हो तो हो भी।
मंत्री : सो भी क्यों होने लगा भागवत में लिखा है।
”लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जन्तोर्नहि तत्र चोदना।“
पुरोहित : सच है और देवी पूजा नित्य करना इसमें कुछ सन्देह नहीं है, और जब देवी की पूजा भई तो माँस भक्षण आ ही गया। बलि बिना पूजा होगी नहीं और जब बलि दिया तब उसका प्रसाद अवश्य ही लेना चाहिए। अजी भागवत में बलि देना लिखा है, जो वैष्णवों का परम पुरुषार्थ है।
‘धूपोपहारबलिभिस्सर्वकामवरेश्वरीं’
मंत्री : और ‘पंचपंचनखा भक्ष्याः’ यह सब वाक्य बराबर से शास्त्रों में कहते ही आते हैं।
पुरोहित : हाँ हाँ, जी, इसमें भी कुछ पूछना है अभी साक्षात् मनु जी कहते हैं-
‘न मांस भक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने’
और जो मनुजी ने लिखा है कि-
‘स्वमांसं परमांसेन यो बर्द्धयितुमिच्छति’
सो वही लिखते हैं।
‘अनभ्यच्र्य पितृन् देवान्’
इससे जो खाली मांस भक्षण करते हैं उनको दोष है। महाभारत में लिखा है कि ब्राह्मण गोमाँस खा गये पर पितरों को समर्पित था इससे उन्हें कुछ भी पाप न हुआ।
मंत्री : जो सच पूछो तो दोष कुछ भी नहीं है चाहे पूजा करके खाओ चाहे वैसे खाओ।
पुरोहित : हाँ जी यह सब मिथ्या एक प्रपंच है, खूब मजे में माँस कचर-कचर के खाना और चैन करना। एक दिन तो आखिर मरना ही है, किस जीवन के वास्ते शरीर का व्यर्थ वैष्णवों की तरह क्लेश देना, इससे क्या होता है।
राजा : तो कल हम बड़ी पूजा करैंगे एक लाख बकरा और बहुत से पक्षी मँगवा रखना।
चोबदार : जो आज्ञा।
पुरोहित : उठकर के नाचने लगा, अहा-हा! बड़ा आनंद भया, कल खूब पेट भरैगा।
ख्राग कान्हरा ताल चर्चरी,
धन्य वे लोग जो माँस खाते।
मच्छ बकरा लवा समक हरना चिड़ा भेड़ इत्यादि नित चाभ जाते ।।
प्रथम भोजन बहुरि होई पूजा सुनित अतिही सुखमा भरे दिवस जाते।
स्वर्ग को वास यह लोक में है तिन्हैं नित्य एहि रीति दिन जे बिताते ।।
नेपथ्य में वैतालिक,
राग सोरठ।
सुनिए चित्त धरि यह बात।
बिना भक्षण माँस के सब व्यर्थ जीवन जात।
जिन न खायो मच्छ जिन नहिं कियो मदिरा पान।
कछु कियो नहिं तिन जगत मैं यह सु निहचै जान ।।
जिन न चूम्यौ अधर सुंदर और गोल कपोल।
जिन न परस्यौ कुंभ कुच नहिं लखी नासा लोल ।।
एकहू निसि जिन न कीना भोग नहिं रस लीन।
जानिए निहचै ते पशु हैं तिन कछू नहिं कीन ।।
दोहा: एहि असार संसार में, चार वस्तु है सार।
जूआ मदिरा माँस अरु, नारी संग बिहार ।।
क्योंकि-
”माँस एव परो धर्मो मांस एव परा गतिः।
मांस एव परो योगी मांस एव परं तपः ।।“
हे परम प्रचण्ड भुजदण्ड के बल से अनेक पाखण्ड के खष्ड को खण्डन करने वाले, नित्य एक अजापुत्र के भक्षण की सामथ्र्य आप में बढ़ती जाय और अस्थि माला धारण करने वाले शिवजी आप का कल्याण करैं आप बिना ऐसी पूजा और कौन करे। आकर बैठता है,
पुरोहित : वाह वाह! सच है सच है।
नेपथ्य में,
पतीहीना तु या नारी पत्नीहीनस्तु नः पुमान्।
उभाभ्यां षण्डरण्डाभ्यान्न दोषो मनुरब्रबीत ।।
सब चकित होकर,
ऐसा मालूम होता है कि कोई पुनर्विवाह का स्थापन करने वाला बंगाली आता है।
बड़ी धोती पहिने बंगाली आता है,
बंगाली : अक्षर जिसके सब बे मेल, शब्द सब बे अर्थ न छंद वृत्ति, न कुछ, ऐसे भी मंत्र जिसके मुँह से निकलने से सब काय्र्यों के सिद्ध करने वाले हैं ऐसी भवानी और उनके उपदेष्टा शिवजी इस स्वतंत्र राजा का कल्याण करैं।
राजा दण्डवत् करके बैठता है,
राजा : क्यों जी भट्टाचार्य जी पुनर्विवाह करना या नहीं।
बंगाली : पुनर्विवाह का करना क्या! पुनर्विवाह अवश्य करना। सब शास्त्र को यही आज्ञा है, और पुनर्विवाह के न होने से बड़ा लोकसान होता है, धर्म का नाश होता है, ललनागन पुंश्चली हो जाती है जो विचार कर देखिए तो विधवागन का विवाह कर देना उनको नरक से निकाल लेना है और शास्त्र की भी आज्ञा है।
”नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।।
ब्राह्मणों ब्राह्मणों गच्छेद्यती गच्छेत्तपस्विनी।
अस्त्री को विधवां, गच्छेन्न दोषो मनुरब्रवीत् ।।“
राजा : यह वचन कहाँ का है?
बंगाली : यह वचन श्रीपराशर भगवान् का है जो इस युग के धर्मवक्ता हैं।
यथा - ‘कलौ पाराशरी स्मृतिः’
राजा : क्यों पुरोहित जी, आप इसमें क्या कहते हैं?
पुरोहित : कितने साधारण धर्म ऐसे हैं कि जिनके न करने से कुछ पाप नहीं होता, जैसा-”मध्याद्दे भोजनं कुर्यात्“ तो इसमें न करने से कुछ पाप नहीं है, वरन व्रत करने से पुण्य होता है। इसी तरह पुनर्विवाह भी है इसके करने से कुछ पाप नहीं होता और जो न करै तो पुण्य होता है। इसमें प्रमाण श्रीपाराशरीय स्मृति में-
"मृते भर्तरि या नारी ब्रह्मचय्र्यव्रते स्थिता।
सा नारी लभते स्वर्गं यावच्चंद्रदिवाकरौ ।।"
इस वचन से, और भी बहुत जगह शास्त्र में आज्ञा है, सो जो विधवा विवाह करती हैं उनको पाप तो नहीं होता पर जो नहीं करतीं उनको पुण्य अवश्य होता है, और व्यभिचारिणी होने का जो कहो सो तो विवाह होने पर भी जिस को व्यभिचार करना होगा सो करै ही गी जो आप ने पूछा वह हमारे समझ में तो यों आता है परन्तु सच पूछिए तो स्त्री तो जो चाहे सो करै इन को तो दोष ही नहीं है-
‘न स्त्री जारेण दुष्यति’। ‘स्त्रीमुखं तु सदा शुचि’।
‘स्त्रियस्समस्ताः सकला जगत्सु’। ‘व्यभिचारादृतौ शुद्धिः’।
इनके हेतु तो कोई विधि निषेध है ही नहीं जो चाहैं करैं, चाहै जितना विवाह करैं, यह तो केवल एक बखेड़ा मात्र है।
सब एक मुख होकर, सत्य है, वाह वे क्यों न हो यथार्थ है।
चोबदार : सन्ध्या भई महाराज!
राजा : सभा समाप्त करो।
इति प्रथमांक
द्वितीय अंक
स्थान पूजाघर।
राजा, मंत्री, पुरोहित और उक्त भट्टाचाय्र्य आते हंै और अपने-अपने स्थान पर बैठते हैं।,
चोबदार : आकर, श्रीमच्छंकराचाय्र्यमतानुयायी कोई वेदांती आया है।
राजा : आदरपूर्वक ले आओ।
विदूषक आया,
विदूषक : हे भगवान् इस बकवादी राजा का नित्य कल्याण हो जिससे हमारा नित्य पेट भरता है। हे ब्राह्मण लोगो! तुम्हारे मुख में सरस्वती हंस सहित वास करै और उसकी पूंछ मुख में न अटवै। हे पुरोहित नित्य देवी के सामने मराया करो और प्रसाद खाया करो।
बीच में चूतर फेर-कर बैठ गया,
राजा : अरे मूर्ख फिर के बैठ।
विदूषक : ब्राह्मण को मूर्ख कहते हो फिर हम नहीं जानते जो कुछ तुम्हें दंड मिलै, हाँ!
राजा : चल मुझ उद्दंड को कौन दंड देने वाला है।
विदूषक : हाँ फिर मालूम होगा।
ख्वेदांती आए,
राजा : बैठिए।
वेदांती : अद्वैतमत के प्रकाश करने वाले भगवान् शंकराचार्य इस मायाकल्पित मिथ्या संसार से तुझको मुक्त करैं।
विदूषक : क्यों वेदांती जी, आप माँस खाते हैं कि नहीं?
वेदांती : तुमको इससे कुछ प्रयोजन है?
विदूषक : नहीं, कुछ प्रयोजन तो नहीं है। हमने इस वास्ते पूछा कि आप वेदांती अर्थात् बिना दाँत के हैं सो आप भक्षण कैसे करते होंगे।
ख्वेदांती टेढ़ी दृष्टि से देखकर चुप रह गया। सब लोग हँस पड़े,
विदूषक : बंगाली से, तुम क्या देखते हो? तुम्हें तो चैन है। बंगाली मात्र मच्छ भोजन करते हैं।
बंगाली : हम तो बंगालियों में वैष्णव हैं। नित्यानंद महाप्रभु के संप्रदाय में हैं और मांसभक्षण कदापि नहीं करते और मच्छ तो कुछ माँसभक्षण में नहीं।
वेदांती : इसमें प्रमाण क्या?
बंगाली : इसमें यह प्रमाण कि मत्स्य की उत्पत्ति वीर्य और रज से नहीं है। इनकी उत्पत्ति जल से है। इस हेतु जो फलादिक भक्ष्य हैं तो ये भी भक्ष्य हैं।
पुरोहित : साधु-सधु! क्यों न हो। सत्य है।
वेदांती : क्या तुम वैष्णव बनते हो? किस संप्रदाय के वैष्णव हो?
बंगाली : हम नित्यानंद महाप्रभु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय में हैं और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीकृष्ण ही हैं, इसमें प्रमाण श्रीभागवत में-
कृष्णवर्णं त्विषाऽकृष्णं सांगोपांगास्त्रपार्षदैः।
यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति ह्यणुमेधसा ।।
वेदांती : वैष्णवों के आचाय्र्य तो चार हैं। तो तुम इन चारों से विलक्षण कहाँ से आए?
अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः।
राजा : जाने दो, इस कोरी बकवाद का क्या फल है?
ख्नेपथ्य में,
उमासहायं परमेश्वरं विभुं त्रिलोचनं नीलकंठं दयालुम्।
पुनः, गोविन्द नारायण माधवेति।
पुरोहित : कोई वैष्णव और शैव आते हैं।
राजा : चोबदार, जा करके अन्दर से ले आओ। ख्चोबदार बाहर गया, वैष्णव और शैव को लेकर फिर आया,
ख्राजा ने उठकर दोनों को बैठाया,
दोनों-शंख कपाल लिए कर मैं, कर दूसरे चक्र त्रिशूल सुधारे।
माल बनी मणि अस्थि की कंठ मैं, तेज दसो दिसि माँझ पसारे ।।
राधिका पारवती दिसि बाम, सबैं जगनाशन पालनवारे।
चंदन भस्म को लेप किए हरि ईश, हरैं सब दुःख तुम्हारे ।।
बंगाली : महाराज, शैव और वैष्णव ये दोनों मत वेद के बाहर हैं।
सर्वे शाक्त द्विजाः प्रोक्ता न शैवा न च वैष्णवाः।
आदिदेवीमुपासन्ते गायत्रीं वेदमातरम् ।।
तथा : तस्मन्माहेश्वरी प्रजा।
इस युग का शास्त्र तंत्र है।
कृते श्रुत्युक्तमार्गाश्च त्रेतायां स्मृतिभाषिताः।
द्वापरे वै पुराणोक्ताः कलावागमसंभवाः ।।
और कंठी रुद्राक्ष तुलसी की माला तिलक यह सब अप्रमाण है।
शैव : मुंह सम्हाल के बोला करो, इस श्लोक का अर्थ सुनो, सर्वे शाक्ता द्विजाः प्रोक्ताः परंतु, शैवा वैष्णवा न शाक्ताः प्रोक्ताः। जो केवल गायत्री की उपासना करते हैं वे शाक्त हैं। ‘पुराणे हरिणा प्रोक्तौ मार्गो द्वौ शैववैष्णवौ’। और वेदों करके वेद्य शिव ही हैं।
बंगाली : भवव्रतधारा ये च ये च तान्समनुव्रताः।
पाखण्डिनश्च ते सव्र्वे सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ।।
इस वाक्य में क्या कहते हैं?
शैव : इस वाक्य में ठीक कहते हैं। इसके आगे वाले वाक्यों से इसको मिलाओ। यह दोनों तांत्रिकों ही के वास्ते लिखते हैं। वह शैव कैसे कि-
‘नष्टशौचा मूढ़धियो जटा भस्मास्थिधारिणः।
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ।।’
तो जहाँ दैव सुरा और आसव यही है अर्थात् तांत्रिक शैव, कुछ हम लोग शुद्ध शैव नहीं।
राजा : भला वैष्णव और शैव माँस खाते हैं कि नहीं?
शैव : महाराज, वैष्णव तो नहीं खाते और शैवों को भी न खाना चाहिए परंतु अब के नष्ट बुद्धि शैव खाते हैं।
पुरोहित : महाराज, वैष्णवों का मत तो जैनमत की एक शाखा है और महाराज दयानंद स्वामी ने इन सबका खूब खण्डन किया है, पर वह तो देवी की मूर्ति भी तोड़ने को कहते हैं। यह नहीं हो सकता क्योंकि फिर बलिदान किसके सामने होगा?
ख्नेपथ्य में, नारायण
राजा : कोई साधु आता है।
ख्धूर्तशिरोमणि गंडकीदास का प्रवेश,
राजा : आइए गंडकीदास जी।
पुरोहित : गंडकीदासजी हमारे बडे़ मित्र हैं। यह और वैष्णवों की तरह जंजाल में नहीं फँसे हैं। यह आनंद से संसार का सुख भोग करते हैं।
गंडकीदास : ख्धीरे से पुरोहित से, अजी, इस सभा में हमारी प्रतिष्ठा मत बिगाड़ो। वह तो एकांत की बात है।
पुरोहित : वाह जी, इसमें चोरी की कौन बात है?
गंडकी : ख्धीरे से, यहाँ वह वैष्णव और शैव बैठे हैं।
पुरोहित : वैष्णव तुम्हारा क्या कर लेगा! क्या किसी की डर पड़ी है?
विदूषक : महाराज, गंडकीदास जी का नाम तो रंडादासजी होता तो अच्छा होता।
राजा : क्यों?
विदूषक : यह तो रंडा ही के दास हैं।
आशङ्खचक्रातबाहुदण्डा गृहे समालिगितघालरण्डाः।
अथच-भण्डा भविष्यन्ति कलौ प्रचण्डाः।
रण्डामण्डलमण्डनेषु पटवो धूर्ताः कलौ वैष्णवाः।
शैव, वैष्णव और वेदांती: अब हम लोग आज्ञा लेते हैं। इस सभा में रहने का हमारा धर्म नहीं।
विदूषक : दंडवत्, दंडवत् जाइए भी किसी तरह।
सब जाते हैं,
विदूषक : महाराज, अच्छा हुआ यह सब चले गए। अब आप भी चलें। पूजा का समय हुआ।
राजा : ठीक है।
जवनिका गिरती है,
तृतीय अंक
स्थान- राजपथ
पुरोहित गले में माला पहिने टीका दिए बोतल लिए उन्मत्त सा आता है,
पुरोहित : ख्घूमकर, वाह भगवान करै ऐसी पूजा नित्य हो, अहा! राजा धन्य है कि ऐसा धर्मनिष्ठ है, आज तो मेरा घर माँस मदिरा से भर गया। अहा! और आज की पूजा की कैसी शोभा थी, एक ओर ब्राह्मणों का वेद पढ़ना, दूसरी ओर बलिदान वालों का कूद-कूदकर बकरा काटना ‘वाचं ते शुंधामि’, तीसरी ओर बकरों का तड़पना और चिल्लाना, चैथी ओर मदिरा के घड़ों की शोभा और बीच में होम का कुंड, उसमें माँस का चटचटाकर जलना अैर उसमें से चिर्राहिन की सुगंध का निकलना, वैसा ही लोहू का चारों ओर फैलना और मदिरा की छलक, तथा ब्राह्मणों का मद्य पीकर पागल होना, चारों ओर घी और चरबी का बहना, मानो इस मंत्र की पुकार सत्य होती थी।
‘घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः’
अहा! वैसी ही कुमारियों की पूजा-
‘इमं ते उपस्थं मधुना सृजामि प्रजापतेर्मुखमेतद्द्वितीयं तस्या योनिं परिपश्यंति घीराः।’
अहा हा! कुछ कहने की बात नहीं है। सब बातें उपस्थित थीं।
‘मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः’
ऐसे ही मदिरा की नदी बहती थी। कुछ ठहर कर, जो कुछ हो मेरा तो कल्याण हो गया, अब इस धर्म के आगे तो सब धर्म तुच्छ हैं और जो मांस न खाय वह तो हिन्दू नहीं जैन है। वेद में सब स्थानों पर बलि देना लिखा है। ऐसा कौन सा यज्ञ है जो बिना बलिदान का है और ऐसा कौन देवता है जो मांस बिना ही प्रसन्न हो जाता है, और जाने दीजिए इस काल में ऐसा कौन है जो मांस नहीं खाता? क्या छिपा के क्या खुले खुले, अँगोछे में मांस और पोथी के चोंगे में मद्य छिपाई जाती है। उसमें जिन हिंदुओं ने थोड़ी भी अंगरेजी पढ़ी है वा जिनके घर में मुसलमानी स्त्री है उनकी तो कुछ बात ही नहीं, आजाद है। ख्सिर पकड़ कर, हैं माथा क्यों घूमता है? अरे मदिरा ने तो जोर किया। उठकर गाता है,।
जोर किया जोर किया जोर किया रे, आज तो मैंने नशा जोरे किया रे।
साँझहि से हम पीने बैठे पीते पीते भोर किया रे ।। आज तो मैंने.
ख्गिरता पड़ता नाचता है,
रामरस पीओ रे भाई, जो पीए सो अमर होय जाई
चैके भीतर मुरदा पाकैं जवेलै नहाय कै ऐसेन जनम जर जाई ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे जो बकरी पत्ती खात है ताकि काढ़ी खाल।
अरे जो नर बकरी खात है तिनको कौन हवाल ।।
रामरस पीओ रे भाई
यह माया हरि की कलवारिन मद पियाय राखा बौराई।
एक पड़ा भुइँया में लोटै दूसर कहै चोखी दे माई ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे चढ़ी है सो चढ़ी नहिं उतरन को नाम।
भर रही खुमारी तब क्या रे किसी से है काम ।।
रामरस पीओ रे भाई
मीन काट जल धोइए खाए अधिक पियास।
अरे तुलसीप्रीत सराहिए मुए मीत की आस ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे मीन पीन पाठीन पुराना भरि भरि भार कंहारन आना।
महिष खाइ करि मदिरा पाना अरे गरजा रे कुंभकरन बलवाना ।।
रामरस पीओ रे भाई
ऐसा है कोई हरिजन मोदी तन की तपन बुझावैगा।
पूरन प्याला पिये हरी का फेर जनम नहिं पावैगा ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे भक्तों ने रसोईं की तो मरजाद ही खोई।
कलिए की जगह पकने लगी रामतरोई रे ।।
रामरस पीओ रे भाई
भगतजी गदहा क्यों न भयो।
जब से छोड़ो माँस-मछरिया सत्यानाश भयो ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे एकादशी के मछली खाई।
अरे कबौं मरे बैवुं$ठै जाई ।।
रामरस पीओ रे भाई
अरे तिल भर मछरी खाइबो कोटि गऊ को दान।
ते नर सीधे जात है सुरपुर बैठि बिमान ।।
रामरस पीओ रे भाई
कंठी तोड़ो माला तोड़ो गंगा देहु बहाई।
अरे मदिरा पीयो खाइ कै मछरी बकरा जाहु चबाई ।।
रामरस पीओ रे भाई
ऐसी गाढ़ी पीजिए ज्यौं मोरी की कीच।
घर के जाने मर गए आप नशे के बीच ।।
रामरस पीओ रे भाई
नाचता नाचता गिर के अचेत हो जाता है,
ख्मतवाले बने हुए राजा और मंत्री आते हैं,
राजा : मंत्री, पुरोहित जी बेसुध पड़े हैं।
मंत्री : महाराज, पुरोहित जी आनंद में हैं। ऐसे ही लोगों को मोक्ष मिलता है।
राजा : सच है। कहा भी है-
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा पतित्वा धरणीतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा नरो मुक्तिमवाप्नुयात् ।।
मंत्री : महाराज, संसार के सार मदिरा और माँस ही हैं।
‘मकाराः पझ् दुल्र्लभाः।’
राजा : इसमें क्या संदेह।
वेद वेद सबही कहैं, भेद न पायो कोय।
बिन मदिरा के पान सो, मुक्ति कहो क्यों होय ।।
मंत्री : महाराज, ईश्वर ने बकरा इसी हेतु बनाया ही है, नहीं और बकरा बनाने का काम क्या था? बकरे केवल यज्ञार्थ बने हैं और मद्य पानार्थ।
राजा : यज्ञो वै विष्णुः, यज्ञेन यज्ञमयजंति देवाः, ज्ञाद्भवति पज्र्जन्यः, इत्यादि श्रुतिस्मृति में यज्ञ की कैसी स्तुति की है और ”जीवो जीवस्य जीवन“ जीव इसी के हेतु हैं क्योंकि-”माँस भात को छोड़िकै का नर खैहैं घास?“
मंत्री : और फिर महाराज, यदि पाप होता भी हो तो मूर्खों को होता होगा। जो वेदांती अपनी आत्मा में रमण करने वाले ब्रह्मस्वरूप ज्ञानी हैं उनको क्यों होने लगा? कहा है न-
यावद्धतोस्मि हंतास्मीत्यात्मानं मन्यतेऽस्वदृक्।
तावदेवाभिमानज्ञो बाध्यबाधकतामियात् ।।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिताः ।।
नैनं छिदंति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।।
अच्छेद्योयामदह्योयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।।
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
इससे हमारे आप से ज्ञानियों को तो कोई बंधन ही नहीं है। और सुनिए, मदिरा को अब लोग कमेटी करके उठाना चाहते हैं वाह बे वाह!
राजा : छिः अजी मद्यपान गीता में लिखा है ”मद्याजी माँ नमस्कुरु।“
मंत्री : और फिर इस संसार में माँस और मद्य से बढ़कर कोई वस्तु है भी तो नहीं।
राजा : अहा! मदिरा की समता कौन करेगा जिसके हेतु लोग अपना धर्म छोड़ देते हैं। देखो-
मदिरा ही के पान हित, हिंदू धर्महि छोड़ि।
बहुत लोग ब्राह्मो बनत, निज कुल सों मुख मोड़ि ।।
ब्रांडी को अरु ब्राह्म को, पहिलो अक्षर एक।
तासों ब्राह्मो धर्म में, यामें दोस न नेक ।।
मंत्री : महाराज, ब्राह्मो को कौन कहे हम लोग तो वैदिक धर्म मानकर सौत्रमणि यज्ञ करके मदिरा पी सकते हैं।
राजा : सच है, देखो न-
मदिरा को तो अंत अरु आदि राम को नाम।
तासों तामैं दोष कछू नहिं यह बुद्धि ललाम ।।
तिष्ठ तिष्ठ क्षण मद्य हम पियैं न जब लौं नीच।
यह कहि देवी क्रोंध सों हत्यौ शंुभ रन बीच ।।
मद पी विधि जग को करत, पालत हरि करि पान।
मद्यहि पी के नाश सब करत शंभु भगवान ।।
विष्णु वारुनी, पोर्ट पुरुषोत्तम मद्य मुरारि।
शांपिन शिव, गौड़ी गिरिश, ब्रांडी ब्रह्म विचारि ।।
मंत्री : और फिर महाराज, ऐसा कौन है जो मद्य नहीं पीता, इससे तो हमीं लोग न अच्छे जो विधिपूर्वक वेद की रीति से पान करते हैं और यों छिपके इस समय में कौन नहीं करता।
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य अरु सैयद सेख पठान।
दै बताई मोहि कौन जो करत न मदिरा पान ।।
पियत भट्ट के ठट्ट अरु गुजरातिन के वृंद।
गौतम पियत अनंद सों पियत अग्र के नंद ।।
ब्राह्मण सब छिपि छिपि पियत जामैं जानि न जाय।
पोथी के चोंगान भरि बोतल बगल छिपाय ।।
वैष्णव लोग कहावही कंठी मुद्रा धारि।
छिपि छिपि कैं मदिरा पियहिं, यह जिय मांझि विचारि ।।
होटल में मदिरा पियैं, चोट लगे नहिं लाज।
लोट लए ठाढ़े रत टोटल देवै काज ।।
राजा राजकुमार मिलि बाबू लीने संग।
बार-बधुन लै बाग में पीअत भरे उमंग ।।
राजा : सच है, इसमें क्या संदेह है?
मंत्री : महाराज, मेरा सिर घूमता है और ऐसी इच्छा होती है कि कुछ नाचूं और गाऊं,
राजा : ठीक है मैं भी नाचूं-गाऊंगा, तुम प्रारंभ करो।
मंत्री उठकर राजा का हाथ पकड़कर गिरता-पड़ता नाचता और गाता है,
पीले अवधू के मतवाले प्याला प्रेम हरी रस का रे।
तननुं तननुं तननुं में गाने का है चसका रे ।।
निनि धध पप मम गग गिरि सासा भरले सुर अपने बस का रे।
धिधिकट धिधिकट धिधिकट धाधा बजे मृदंग थाप कस कारे ।।
तीले अवधू के.।
भट्टी नहिं सिल लोढ़ा नहीं घोरधार।
पलकन की फेरन में चढ़त धुआंधार ।।
पीले अवधू के.।
कलवारिन मदमाती काम कलोल।
भरि भरि देत पियलवा महा ठठोल ।।
पीले अवधू के.।
अरी गुलाबी गाल को लिए गुलाबी हाथ।
मोहि दिखाव मद की झलक छलक पियालो साथ ।।
पीले अवधू के.।
बहार आई है भर दे बादए गुलगूँ से पैमाना।
रहै लाखों बरस साकी तेरा आबाद मैखाना ।।
सम्हल बैठो अरे मस्तो जरा हुशियार हो जाओ।
कि साकी हाथ में मै का लिए पैमाना आता है ।।
उड़ाता खाक सिर पर झूमता मस्ताना आता है।
पीले अवधू के.-अहाँ अहाँ अहाँ ।।
यह अठरंग है लोग चतुरंग ही गाते हैं।
न जाय न जाय मो सों मदवा भरीलो न जाय
तब फिर कहाँ से-
ड्रिंक डीप आॅर टेस्ट नाॅट द पीयरियन स्प्रिंग
क्तपदा कममच वत जंेजम दवज जीम चपमतपंदेचतपदहण्
पीले अवधू के मतवाले प्याला प्रेम हरा रस का रे।
एक दूसरे के सिर पर धौल मारकर ताल देकर नाचते हैं। फिर एक पुरोहित का सिर पकड़ता है दूसरा पैर और उसको लेकर नाचते हैं,
जवनिका गिरती है।
चतुर्थ अंक
स्थान-यमपुरी
यमराज बैठे हैं, और चित्रगुप्त पास खड़े हैं,
(चार दूत राजा, पुरोहित, मंत्री, गंडकीदास, शैव और वैष्णव को पकड़ कर लाते हैं)
1 दूत : ख्राजा के सिर में धौल मारकर, चल बे चल, अब यहाँ तेरा राज नहीं है कि छत्र-चंवर होगा, फूल से पैर रखता है, चल भगवान् यम के सामने और अपने पाप का फल भुगत, बहुत कूद-कूद के हिंसा की और मदिरा पी, सौ सोनार की न एक लोहार की।
ख्दो धौल और लगाता है,
2 दूत : पुरोहित को घसीटकर, चलिए पुरोहित जी, दक्षिणा लीजिये, वहाँ आपने चक्र-पूजन किया था, यहाँ चक्र में आप मे चलिए, देखिए बलिदान का कैसा बदला लिया जाता है।
3 दूत : मंत्री की नाक पकड़कर, चल बे चल, राज के प्रबन्ध के दिन गये, जूती खाने के दिन आये, चल अपने किये का फल ले।
4 दूत : ख्गंडकीदास का कान पकड़कर झोंका देकर, चल रे पाखंडी चल, यहाँ लंबा टीका काम न आवेगा। देख वह सामने पाखंडियों का मार्ग देखने वाले सर्प मुंह खोले बैठे हैं।
सब यमराज के सामने जाते हैं,
यम. : वैष्णव और शैव से, आप लोग यहाँ आकर मेरे पास बैठिए।
वै. और शै. : जो आज्ञा। यमराज के पास बैठ जाते हैं,
यम : चित्रगुप्त देखो तो इस राजा ने कौन-कौन कर्म किये हैं।
चित्र. : बही देखकर, महाराज, सुनिये, यह राजा जन्म से पाप में रत रहा, इसने धर्म को अधर्म माना और अधर्म को धर्म माना जो जी चाहा किया और उसकी व्यवस्था पण्डितों से ले ली, लाखों जीव का इसने नाश किया और हजारों घड़े मदिरा के पी गया पर आड़ सर्वदा धर्म की रखी, अहिंसा, सत्य, शौच, दया, शांति और तप आदि सच्चे धर्म इसने एक न किये, जो कुछ किया वह केवल वितंडा कर्म-जाल किया, जिसमें मांस भक्षण और मदिरा पीने को मिलै, और परमेश्वर-प्रीत्यर्थ इसने एक कौड़ी भी नहीं व्यय की, जो कुछ व्यय किया सब नाम और प्रतिष्ठा पाने के हेतु।
यम : प्रतिष्ठा कैसी, धर्म और प्रतिष्ठा से क्या सम्बन्ध?
चित्र. : महाराज सरकार अंगरेज के राज्य में जो उन लोगों के चित्तानुसार उदारता करता है उसको ”स्टार आफ इंडिया“ की पदवी मिलती है।
यम. : अच्छा! तो बड़ा ही नीच है, क्या हुआ मैं तो उपस्थित ही हूँ।
”अंतःप्रच्छन्न पापानां शास्ता वैवस्वतो यमः“
भला पुरोहित के कर्म तो सुनाओ।
चित्र. : महाराज यह शुद्ध नास्तिक है, केवल दंभ से यज्ञोपवीत पहने है, यह तो इसी श्लोक के अनुरूप है-
अंतः शाक्ता बहिःशैवाः सभामध्ये च वैष्णवाः।
नानारूपधराः कौला विचरन्ति महीतले ।।
इसने शुद्ध चित्त से ईश्वर पर कभी विश्वास नहीं किया, जो-जो पक्ष राजा ने उठाये उसका समर्थन करता रहा और टके-टके पर धर्म छोड़ कर इसने मनमानी व्यवस्था दी। दक्षिणा मात्र दे दीजिए फिर जो कहिए उसी में पंडितजी की सम्मति है, केवल इधर-उधर कमंडलाचार करते इसका जन्म बीता और राजा के संग से माँस-मद्य का भी बहुत सेवन किया, सैकड़ों जीव अपने हाथ से वध कर डाले।
यम. : अरे यह तो बड़ा दुष्ट है, क्या हुआ मुझसे काम पड़ा है, यह बचा जी तो ऐसे ठीक होंगे जैसा चाहिए। अब तुम मंत्री जी के चरित्र कहो।
चित्र. : महाराज, मंत्रीजी की कुछ न पूछिए। इसने कभी स्वामी का भला नहीं किया, केवल चुटकी बजाकर हां में हां मिलाया, मुंह पर स्तुति पीछे निंदा, अपना घर बनाने से काम, स्वामी चाहे चूल्हे में पड़े, घूस लेते जनम बीता, मांस और मद्य के बिना इसने न और धर्म जाने न कर्म जाने-यह मंत्री की व्यवस्था है, प्रजा पर कर लगाने में तो पहले सम्मति दी पर प्रजा के सुख का उपाय एक भी न किया।
यम. : भला ये श्रीगंडकीदासजी आये हैं इनका पवित्र चरित्र पढ़ो कि सुनकर कृतार्थ हों, देखने में तो बड़े लम्बे-लम्बे तिलक दिये हैं।
चित्र. : महाराज ये गुरु लोग हैं, इनके चरित्र कुछ न पूछिये, केवल दंभार्थ इनका तिलक मुद्रा और केवल ठगने के अर्थ इनकी पूजा, कभी भक्ति से मूर्ति को दंडवत् न किया होगा पर मंदिर में जो स्त्रियाँ आईं उनको सर्वदा तकते रहे; महाराज, इन्होंने अनेकों को कृतार्थ किया है और समय तो मैं श्रीरामचंद्रजी का श्रीकृष्ण का दास हूँ पर जब स्त्री सामने आवे तो उससे कहेंगे मैं राम तुम जानकी, मैं कृष्ण तुम गोपी और स्त्रियाँ भी ऐसी मूर्ख कि फिर इन लोगों के पास जाती हैं, हा! महाराज, ऐसे पापी धर्मवंचकों को आप किस नरक में भेजियेगा।
ख्नेपथ्य में बड़ा कलकल होता है,
यम. : कोई दूत जाकर देखो यह क्या उपद्रव है।
1 दूत : जो आज्ञा। ख्बाहर जाकर फिर आता है, महाराज, संयमनीपुरी की प्रजा बड़ी दुखी है, पुकार करती है कि ऐसे आज कौन पापी नरक में आए हैं जिनके अंग के वायु से हम लोगों का सिर घूमा जाता है और अंग जलता है। इनको तो महाराज शीघ्र ही नरक में भेजें नहीं तो हम लोगों के प्राण निकल जायंगे!
यम : सच है, ये ऐसे ही पापी हैं, अभी मैं इनका दंड करता हूँ, कह दो घबड़ायंे न।
1 दूत : जो आज्ञा। ख्बाहर जाकर फिर आता है,
यम : ख्राजा से, तुझ पर जो दोष ठहराए गए हैं बोल उनका क्या उत्तर देता है।
राजा : हाथ जोड़कर, महाराज, मैंने तो अपने जान सब धर्म ही किया कोई पाप नहीं किया, जो मांस खाया वह देवता-पितर को चढ़ाकर खाया और देखिए महाभारत में लिखा है कि ब्राह्मणों ने भूख के मारे गोवध करके खा लिया पर श्राद्ध कर लिया था इससे कुछ नहीं हुआ।
यम. : कुछ नहीं हुआ, लगें इसको कोड़े।
2 दूत : जो आज्ञा। कोड़े मारता है,
राजा : हाथ से बचा-बचाकर, हाय-हाय, दुहाई-दुहाई, सुन लीजिए-
सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालंजरे गिरौ।
चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे ।।
तेपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः।
प्रस्थिता दीर्घमध्वानं यूयं किमवसीदथ ।।
यह वाक्य लोग श्राद्ध के पहिले श्राद्ध शुद्ध होने को पढ़ते हैं फिर मैंने क्या पाप किया। अब देखिए, अंगरेजों के राज्य में इतनी गोहिंसा होती है सब हिंदू बीफ खाते हैं उन्हें आप नहीं दंड देते और हाय हमसे धार्मिक की यह दशा, दुहाई वेदों की दुहाई धर्म शास्त्र की, दुहाई व्यासजी की, हाय रे, मैं इनके भरोसे मारा गया।
यम. : बस चुप रहो, कोई है? यह अंधतामिस्र नामक नरक में जायगा। अभी इसको अलग रखो।
1 दूत : जो आज्ञा महाराज। पकड़-खींचकर एक ओर खड़ा करता है,
यम. : पुरोहित से, बोल बे ब्राह्मणधम! तू अपने अपराधों का क्या उत्तर देता है।
पुरो. : हाथ जोड़कर, महाराज, मैं क्या उत्तर दूंगा, वेद-पुराण सब उत्तर देते हैं।
यम. : लगें कोड़े, दुष्ट वेद-पुराण का नाम लेता है।
2 दूत : जो आज्ञा। कोड़े मारता है,
पुरो. : दुहाई-दुहाई, मेरी बात तो सुन लीजिए। यदि मांस खाना बुरा है तो दूध क्यों पीते हैं, दूध भी तो मांस ही है और अन्न क्यों खाते हैं अन्न में भी तो जीव हैं और वैसे ही सुरापान बुरा है तो वेद में सोमपान क्यों लिखा है और महाराज, मैंने तो जो बकरे खाए वह जगदंबा के सामने बलि देकर खाए, अपने हेतु कभी हत्या नहीं की और न अपने राजा साहब की भाँति मृगया की। दुहाई, ब्राह्मण व्यर्थ पीसा जाता है। और महाराज, मैं अपनी गवाही के हेतु बाबू राजेंद्रलाल के दोनों लेख देता हूँ, उन्होंने वाक्य और दलीलों से सिद्ध कर दिया है कि मांस की कौन कहे गोमांस खाना और मद्य पीना कोई दोष नहीं, आगे के हिंदू सब खाते-पीते थे। आप चाहिए एशियाटिक सोसाइटी का जर्नल मंगा के देख लीजिए।
यम. : बस चुप, दुष्ट! जगदंगा कहता है और फिर उसी के सामने उसी जगत् के बकरे को अर्थात् उसके पुत्र ही को बलि देता है। अरे दुुष्ट, अपनी अंबा कह, जगदंबा क्यों कहता है, क्या बकरा जगत् के बाहर है? चांडाल सिंह को बलि नहीं देता-‘अजापुत्रं बलिं दद्याद्दैवोदुर्बलघातकः’ कोई है? इसको सूचीमुख नामक नरक में डालो। दुष्ट कहीं का, वेद-पुराण का नाम लेता है। मांस-मदिरा खाना-पीना है तो यों ही खाने में किसने रोका है धर्म को बीच में क्यों डालता है, बाँधो।
2 दूत : जो आज्ञा महाराज। बाँध कर एक ओर खड़ा करता है,।
यम. : मंत्री से, बोल बे, तू अपने अपराधों का क्या उत्तर देता है?
मंत्री : आप ही आप, मैं क्या उत्तर दूँ, यहाँ तो सब बात बेरंग है। इन भयावनी मूर्तियों को देखकर प्राण सूखे जाते हैं उत्तर क्या दूं। हाय-हाय, इनके ऐसे बड़े-बडे दाँत हैं कि मुझे तो एक ही कवर कर जायंगे।
यम. : बोल जल्दी।
3 दूत : एक कोड़ा मारकर, बोलता है कि नहीं।
मंत्री : हाथ जोड़कर, महाराज, अभी सोचकर उत्तर देता हूँ। कुछ सोचकर, चित्रगुप्त से, आप मुझे एक बेर राज्य पर भेज दीजिए, मैंने जितना धन बड़ी-बड़ी कठिनाई और बड़े-बड़े अधर्म से एकत्र किया है सब आपको भेंट करूंगा और मैं निरपराधी कुटुंबी हूँ मुझे छोड़ दीजिये।
चित्र : क्रोध से, अरे दुष्ट, यह भी क्या मृत्युलोक की कचहरी है कि तू हमें घूस देता है और क्या हम लोग वहाँ के न्यायकत्र्ताओं की भांति जंगल से पकड़ कर आए हैं कि तुम दुष्टों के व्यवहार नहीं जानते। जहाँ तू आया है और जो गति तेरी है वही घूस लेने वालों की भी होगी।
यम. : क्रो ध से, क्या यह दुष्ट द्रव्य दिखाता है? भला रे दुष्ट! कोई है इसको पकड़कर कुंभीपाक में डालो।
3 दूत : जो आज्ञा महाराज। पकड़कर खींचता है,।
यम. : अब आप बोलिए बाबाजी, आप अपने पापों का क्या उत्तर देते हैं?
गंडकी. : मैं क्या उत्तर दूँगा। पाप पुण्य जो करता है, ईश्वर करता है इसमें मनुष्य का क्या दोष है?
ईश्वरः सर्व भूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सव्र्वभूतानि यंत्ररूढ़ानि मायया ।।
मैं तो आज तक सव्र्वदा अच्छा ही करता रहा।
यम. : कोई है? लगें कोड़े दुष्ट को, अब ईश्वर फल भी भुगतैगा। हाय हाय, ये दुष्ट दूसरों की स्त्रियों को माँ और बेटी कहते हैं और लंबा लंबा टीका लगाकर लागों को ठगते हैं।
4 दूत : महाराज यह किस नरक में जायगा! कोड़े मारता है।,
गंडकी : हाय-हाय दुहाई, अरे कंठी-टीका कुछ काम न आया। अरे कोई नहीं है जो इस समय बचावै।
यम. : यह दुष्ट रौरव नरक में जायगा जहाँ इसको ऐसे ही अनेक धर्मवंचक मिलेंगे। ले जाओ सबको।
ख्चारों दूत चारों को पकड़कर घसीटते और मारते हैं और चारों चिल्लाते हैं,
चारों : अरे ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।’
हाय रे ‘अग्निष्टोमे पशुमालभेत्।’
अरे बाप रे ”सौत्रमण्यां सुरां पिबेत्।“
भैया रे ”श्रोत्रं ते शुंधामि।“
यही कहकर चिल्लाते हैं और दूत लोग उसको घसीटकर मारते-मारते ले जाते हैं,
यम. : शैव और वैष्णव से, आप लोगों की अकृत्रिम भक्ति से ईश्वर ने आपको कैलास और बैकुंठ वास की आज्ञा दी है सो आ लोग जाइए और अपने सुकृत का फल भोगिए। आप लोगों ने इस धर्म वंचकों की दशा तो देखी ही है, देखिए पापियों की यह गति होती है और आप से सुकृतियों को ईश्वर प्रसन्न होकर सामीप्य मुक्ति देता है, सो लीजिए, आप लोगों को परम पद मिला। बधाई है, कहिए इससे भी विशेष कोई आपका हित हो तो मैं पूर्ण करूं।
शै. और वै. : हाथ जोड़कर, भगवन् इससे बढ़कर और हम लोगों का क्या हित होगा। तथापि यह नाटकाचाय्र्य भरतऋषि का वाक्य सफल हो।
निज स्वारथ को धरम-दूर या जग सों होई।
ईश्वर पद मैं भक्ति करैं छल बिनु सब कोई ।।
खल के विष-बैनन सों मत सज्जन दुख पावैं।
छुटै राजकर मेघ समय पै जल बरसावैं ।।
कजरी ठुमरिन सों मोड़ि मुख सत कविता सब कोइ कहैं।
यह कवि बानी बुध-बदन में रवि ससि लौं प्रगटित रहै ।।
सब जाते हैं,
-जवनिका गिरती है।-
इति चतुर्थो।
समाप्तं प्रहसनं।