वैदिक धर्म / प्रेमपाल शर्मा
राजधानी का प्रथम वातानुकूलित कक्ष। वे तीन, एक मैं। मैं बड़ौदा से चढ़ा था, वे मुम्बई से आ रहे थे—दिल्ली के लिए।
भगवा वस्त्र, ॠषि-मुनियों जैसे। ओजस्वी, चमचमाते महाबलिष्ठ शरीर। भव्य दाढ़ी। ललाट पर शुद्ध चंदन, जिसकी महक उस केबिन में भी व्याप्त थी।
वे चार और भी थे। बराबर के केबिन में। खाने के समय सभी एक स्थान पर आ गये। खाना उनके साथ था। ‘हम बाहर का नहीं खाते।‘
तरह-तरह के पकवान। मसाले, अचार, दही, मिठाइयाँ। चारों तरफ ताजा कटे हरे-हरे केले के पत्ते फैल गये। सबने प्रेम से खाया। चमचमाती आँखें और चमकने लगीं।
“आओ, अब पेप्सी पीते हैं।” समापन होते ही एक ने कहा।
खट-खट पेप्सी खुल गयीं। डकारें भी आयीं। तरह-तरह की भारी आवाजों में।
मेरी उत्सुकता अंतिम छोर तक पहुँच गयी थी। उन्हें निहारते-निहारते।
“आप रेल से ही क्यों चलते हैं? हवाई जहाज भी हैं। अब तो हवाई जहाज का किराया और भी कम हो गया है।”
“हमारे पंथ में, शास्त्रों में लिखा है कि हमारा जमीन से सम्पर्क नहीं कटना चाहिए और यह रेलगाड़ी या बस से ही सम्भव है, हवाई जहाज से नहीं।”
उनके स्वर स्पष्टता और आत्मविश्वास से भरे थे।
ये सभी दक्षिण के किसी धार्मिक पीठ के पीठासीन गुरू थे जो दिल्ली में एक सम्मेलन में जा रहे थे—‘21वीं सदी में वैदिक धर्म।'