वैदेशिक उक्ति्याँ और उपसंहार / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती
अब हमारा वक्तव्य यहीं पर संपूर्ण होता है। हमको केवल कुछ अंग्रेजी ग्रन्थ लेखकों (प्राय: वैदेशिक) की उन सम्मतियों को उद्धृत कर देना है, जो उन्होंने इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के विषय में प्रकाशित की है। यद्यपि यह काम हम अपने वक्तव्य की पुष्टि के लिए नहीं करते हैं, क्योंकि इस विषय में तो सभी कुछ दिखला चुके हैं और अंग्रेजों की सम्मतियों को इस विषय में हम प्रमाण मानते भी नहीं, कारण कि उनको हमारे हिंदू समाज के आंतरिक भावों या हमारे रस्म-रिवाजों का पूर्णत: परिचय ही क्या हैं कि वे लोग यथार्थत: उनकी आलोचना निष्पक्षपात भाव से कर सकें? उन्होंने तो जो कुछ सुना, लिख दिया। उसमें भी निज के सिद्धांत को ही सिद्ध करने का यत्न करते हैं कि वर्णव्यवस्था कोई वस्तु है ही नहीं इत्यादि। तथापि जिन बाबुओं की जिज्ञासा रूप पिपासा केवल उन्हीं की उक्ति रूप जल से शांत होती है - जो उन्हीं की उक्ति रूप स्वाती नक्षत्र के बूँद के प्यासे चातक है - उनके ही संतोष के लिए हमारा यह यत्न है। सूत्र रूप से यहाँ इतना समझ लेना चाहिए कि सभी वैदेशिकों की सम्मतियाँ अयाचक दलीय ब्राह्मणों के अनुकूल ही है। यदि किसी ने केवल एकाध बात कुछ-कुछ विपरीत लिखने का साहस डरते-डरते किया भी है, तो दूसरे ने उसको युक्तियुक्त प्रमाणों से खंडित कर दिया है, जैसा कि प्रसंगवश संभव होगा तो आगे विदित ही होगा और पाठक लोग यत्न करने से - सबकी सम्मतियों को स्वयं जानने का प्रयत्न करने से-अन्यत्र भी देख सकते हैं। सर. एच. इलियट साहब की सप्लीमेंटल ग्लासरी (Sir. Elliot’s Supplemetal Glossary) नामक अंग्रेजी पुस्तक के अनुसार आगरा जिले के वर्णन में सन 1865 ई. की युक्त प्रांत की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट के प्रथम खण्ड के 65 वें पृष्ठ में इस तरह लिखा है :
(1) Kankubj Proper There are five divisions of the Kankoobj Brahmans,
(2) Sunadh given in the margin. The first two appear in
(3) Surwaria great force in this district, but of the others I
(4) Jijhotia have discovered no traces and their true
(5) Bhoimhar country lies to the east of the Ganges.
(1) प्रधान कान्यकुब्ज कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पाँच भेद हैं, जो इस
(2) सनाढ्य पृष्ठ के किनारे पर लिखे हुए हैं। उनमें से
(3) सरवरिया प्रथम दो तो इस जिले में अधिकतर पाए
(4) जिझौतिया जाते हैं, परंतु अन्य तीनों का यहाँ पतान
(5) भूमिहार मिला। उनके निवास स्थान गंगा के पूर्व के देश हैं।
उसी पुस्तक के 91वें पृष्ठ में इटावा जिले के विवरण में लिखा है कि :
The Kankubj, with whom we are chiefly connected in these provinces, contains five sub families-(1) Sunoreea or Sunadh; (2) Canojeea; (3) Jijhotea; (4) Bhoomihar; (5) Surwaria, These do intermarry.
अर्थ यह है कि 'कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में, जिनसे हमको इन प्रांतों में विशेष सम्बन्ध है, पाँच छोटे-छोटे वंश या दल हैं - (1) सनोरिया या सनाढ्य (2) कनौजिया (3) जिझौतिया (4) भुइंहार, और (5) सरवरिया ये पाँचों परस्पर विवाह करते ही है।
आगे चल कर उसी पुस्तक के 117 और 118 पृष्ठों में मिर्जापुर के वर्णन में लिखा है कि :
Gautams have sprung up from Misra Brahmans, In this tehseel daree there are no other castes except Gautams residing in Talooqa Majhava. The Gautams were originally Surwaria Misras, the most of whom with a view to show their pomp and splendour on being ilaqadars, commenced smoking hookkah, and consequently rest of their brethren discontinued eating and drinking with them. These Gautams, being thus excommunicated, commenced marriages with Bhoinhars who settled in the easern districts, and since then this tribe is increasing. As these Gautamas sprang up from Misras, who had their gotra or family title, Gautam, they became known by that appellation.
There are several subdivision among the Bhoimhars. They are the descendants of Ujach Brahmans. In other countries the Ujach Brahmans are called Chitpawan and by other different denominations. The Brahmins have gotras, which they have assumed from Rishees, from whom they have sprung up; for instance Gautambuns. Who are said to be offspring of Kithoo Misra, who descended from Gautam Ujach Brahmins, Kripacharya family. There is no distinction between them and the other Brahmins, besides this that the fromers carry arms and have a military life, and cons equently they have assumed the title of ‘Singh’and have forsaken eating with other Brahmins. Owing to their title of ‘Singh’ being celebrated, their original titles of Misra, Pande, Upadhia &c. have fallen into disuse. Still up to this day in some places they are known by their old titles.
अर्थात ‘गौतम लोग मिश्र ब्राह्मणों के वंशज है। इस तहसील (मिर्जापुर) में गौतमों को छोड़ कर, जो मझवा तालुका में रहते हैं, दूसरी जातियाँ नहीं हैं। गौतम लोग सरवरिया ब्राह्मण थे, परंतु तालुकादार होने पर उनमें से बहुतों ने अपनी बड़ाई और प्रतिष्ठा दिखलाने के लिए तंबाकू पीना प्रारंभ कर दिया, जिससे उनके शेष भाइयों ने उनके साथ खान-पान छोड़ दिया। ये लोग इस प्रकार अलग हो कर भूमिहारों के साथ विवाह आदि करने लग गए जो पूर्व जिलों में रहते थे। उसी समय से ये लोग बढ़ते जा रहे हैं चूँकि ये गौतम उन मिश्र ब्राह्मणों के वंशज है जिनका गोत्र गौतम था इसलिए ये लोग गौतम कहलाने लगे। भूमिहार लोगों के बहुत से छोटे-छोटे दल हैं। ये लोग अयाचक ब्राह्मणों के वंशज हैं। अन्य देशों में अयाचक ब्राह्मण चितपावन एवं अन्य नामों से पुकारे जाते हैं। ब्राह्मणों के गोत्र हुआ करते हैं, जो उन ऋषियों के सूचक होते हैं जिनसे वे लोग पैदा हुए हैं जैसे, गौतम वंश कित्थू मिश्र के वंशज हैं, जो कृपाचार्य के वंश के गौतम ऋषि नामक अयाचक ब्राह्मण के वंशज थे। इन भूमिहार ब्राह्मणों और अन्य ब्राह्मणों के बीच कोई भेद नहीं हैं, सिवाय इसके कि भूमिहार ब्राह्मण अस्त्र-शस्त्र ग्रहण करते और वीरों (योद्धाओं) का-सा जीवन बिताते हैं और इसलिए उन्हें 'सिंह' की पदवी मिल गई है और अन्य (याचक) ब्राह्मणों के साथ खाना-पीना भूल गए हैं। और इसी 'सिंह' की पदवी के प्रसिद्ध हो जाने से उनकी पुरानी मिश्र, पांडे और उपाध्याय इत्यादि पदवियों का प्रयोग नहीं होता। तथापि अब तक बहुत से स्थानों में वे लोग उन्हीं पुरानी मिश्र आदि पदवियोंवाले पाए जाते हैं।’
उसी पुस्तक के मिर्जापुर के केरा नामक तहसील का हाल यों लिखा है :
The Brahmins are said to be the aborigines of Kankuj, from where a portion of them imigrated in to Surwar and several other places. Among them there two sects, Shut-Karma and Tri-Karma. They procure their livelihood by priesthood; agriculture and other occupations in this pergannah.
तात्पर्य यह है कि ‘ब्राह्मण लोग कन्नौज के प्रथम निवासी बतलाए जाते हैं, जहाँ से ये लोग सरवार तथा अन्य देशों में फैले हैं। ब्राह्मणों के दो भेद हैं - (1) षट्कर्मा और (2) त्रिकर्मा। इस परगने में रहनेवाले इन लोगों में से कोई-कोई पुरोहिती से जीविका करते हैं और कोई खेती तथा अन्य पेशों से’।
सन 1909 ई. के आजमगढ़ के गजेटियर के 85, 86 और 87 पृष्ठों में लिखा है कि:
Next on the list come Bhumihars, who at the last census numbered 55669 parsons, or 4. 24 percent of the Hindus. They are to be found in all Tahsils, but nearly half of the total number in Sagri, and nearly one half of the reminder are in Deogaon. According to their own tribal traditions. When Paras Ram destroyed the Kshatris, the soil was given to the Brahmans, who in taking possession of land assumed the title of Bhumihars. Their Brahman and Rajput neighbours generally insinuate that they are of mixed Brahman and Rajput breed, but there is no evidence in particular to support this view. Some Bhumihars describe them selves as Brahmans and some as Rajputs. In popular estimation they share something of the sanctity ottaching to a Brahman,while on the other their subdivisions are often hand the same as those of the well known Rajput clans. All the Bhumihars of Azamgarh claim to be of Brahman stock.
अर्थ यह है कि ‘राजपूतों के बाद भूमिहारों की संख्या हैं, जो गत मनुष्य गणना में 55669, या सब हिंदुओं में से 4.24 फी सैकड़े थे। वे लोग सभी तहसीलों में पाए जाते हैं, परंतु लगभग आधे केवल सगरी में और शेष के आधे देवगाँव में पाए जाते हैं। उनकी जाति के विषय में ऐसा प्रसिद्ध हैं कि जब परशुराम ने क्षत्रियों का नाश किया तो उनकी भूमि ब्राह्मणों को दी गई और वे ही ब्राह्मण भूमि के मालिक होने से भूमिहार कहलाने लगे। उनके ब्राह्मण और राजपूत पड़ोसी छिप कर चुपके से यह इशारा करते हैं कि ये लोग ब्राह्मण और राजपूत के मेल से उत्पन्न हुए हैं। परंतु उन लोगों के इस कहने में कोई खास प्रमाण नहीं हैं। कुछ भूमिहार ब्राह्मण हैं और कुछ राजपूत भी भूमिहार है। जन साधारण की दृष्टि में भूमिहार लोग बहुत सी बातों में वैसे ही पवित्र समझे जाते हैं जैसे (अन्य) ब्राह्मण। लेकिन उनके बहुत से छोटे-छोटे दलों के नाम ऐसे हैं जो राजपूतों के भी है। आजमगढ़ के सभी भूमिहार अपने को ब्राह्मण बतलाते हैं’।
राजपूतों के भी भूमिहार नाम पड़ने का कारण और भूमिहार ब्राह्मण तथा राजपूतों के बहुत से नामों के एक होने का पूर्ण विवरण लिखा जा चुका है। इसी ब्राह्मण और राजपूतों के पूर्वोक्त इशारे के खण्डन से मिस्टर 'रीड' वगैरह ने जो यही इशारा लिखा है, उसका भी खण्डन गजेटियर ने ही कर दिया। साथ ही गजेटियर के इस कथन से कि ‘ये लोग जन साधारण की दृष्टि में ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझे जाते हैं।’ और मिस्टर 'ओल्डहम के भी इस कथन से कि ‘In popular estimation they share something of the sacredness which attaches to Brahmins’ अर्थात ‘बहुत सी बातों में सब लोगों की दृष्टि में ये लोग ऐसे पवित्र समझे जाते हैं जैसे ब्राह्मण लोग।’ मिस्टर रीड का वह कथन भी स्वयमेव खंडित हो गया, जो उन्होंने लिखा है कि लोग इन्हें क्षत्रिय समझते हैं।
गाजीपुर के गजेटियर के 42वें पृष्ठ में लिखा है कि : “In popular estimation they share in something of the sacredness that attaches to the Bhramins, and they like genuine Brahmans, were exempted from capital punishment by the old law of the Benares Province.”
अर्थात ‘जनसाधारण इनको बहुत बातों में ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझते हैं और सूबा बनारस के पुराने कानून के मुताबिक जैसे ब्राह्मणों को फाँसी की सजा न मिलती थी, वैसे ही इन्हें (भूमिहारों को) भी न मिलती थी’।
जरासंधवाली किंवदंती का खण्डन मिस्टर कुक ने अपनी पुस्तक (The Tribes and Castes of U.P. and Oudh) में इस प्रकार किया है कि : “The theory that they are a mixed race, derived from a congeries of low caste people accidentally brought togethere, is disapproved by the high and uniform type of physiognomy and personal appearance which prevails among them etc.
इसका पूरा अर्थ इसी प्रकरण में प्रथम ही दिखला चुके हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी की कार्यवाही की जाँच के लिए जो सिलेक्ट कमिटी बैठी थी, उसकी जो पाँचवीं रिपोर्ट बंगाल प्रेसिडेन्सी के विषय में प्रकाशित हो कर सन 1812 ई. में लंडन में छपी है, उसके प्रथम भाग के 511 से 513 पृष्ठों तक ऐसा लिखा हुआ है :
SUBAH BEHAR (First Circar Behar) : 3. Ten perganas zamindary of Meterjet Singh. Brahman, residing at Tekari. 5. Two perganraszamindary of Jaswant Singh ete. Brahmans, composed of Arenzil and Musaodih. 8. Two pergannas Pilich and Malda, the former held by Nandoo Singh Brahmin in zamindary. 9. Two pergannas Sauret and Bellia, in zamindary, chiefly to Howlass Chowdhery and Anagir Singh Brahmans. 11. One perganna Gyaspur to Sheo Prasad Singh, Brahmin, with other lessor zamindars. 16. One parganna of Baykoonthpur to Kesari Singh Brahmin.
SIX CIRCAR HAJIPUR. 37. One parganna Havellee to Hardan Singh etc. Brahmins in zamindary. 38. One Perganna Saraisa to Suchit Singh Brahman. 50. Two pergannas Rutty and Gursand principally in zamindary to pertap singh Brahmin, 51. Five pergannas Moulky etc. Herlal etc. Brah mins, and usually united with the pergannas of Ballia etc. belonging to Mongeer.
SEVEN CIRCAR SARAN. 53. 15 pergannas Gowah etc. of which 13 to Gopal Narayan etc. five brothers, 2 Callynpur and Sipah to Raja Fateh Naryan Singh of Brahman caste.
इसका अनुवाद यह है कि ‘सूबा बिहार (प्रथम सरकार बिहार) - (3) 10 परगनों की जमींदारी मित्राजीत सिंह की थी, जो टिकारी के निवासी ब्राह्मण थे। (5) अरंजील और मुसाऊ डीह इन दो परगनों के जमींदार जसवंत सिंह वगैरह ब्राह्मण थे। (8) पिलिछ और मालदा इन दो परगनों में से पिलिछ के जमींदार नंदू सिंह ब्राह्मण थे। (9) सौरत और बलिया ये दो परगने खास कर हुलास चौधरी और आनागिर सिंह नामक ब्राह्मणों की जमींदारी थी। (11) ग्यासपुर परगने की जमींदारी शिवप्रसाद सिंह ब्राह्मण की थी और उसमें छोटे-छोटे जमींदार भी शरीक थे। (16) बैकुंठपुर परगना केसरी सिंह ब्राह्मण की जमींदारी थी। (छह सरकार हाजीपुर)-(37) परगना हवेली हरदान सिंह ब्राह्मण का था। (38) सरैसा परगना सूचित सिंह नामक ब्राह्मण का था। (50) रत्ती और गुरसंद ये दो परगने प्रधान तया प्रताप सिंह ब्राह्मण की जमींदारी में थे। (51) मुलकी इत्यादि पाँच परगनों के जमींदार हरलाल वगैरह ब्राह्मण थे। और ये परगने मामूली तौर पर मुंगेर के बलिया वगैरह परगनों में मिले हुए थे। (सात सरकार सारन)-(53) 15 परगने गोवा वगैरह में से 13 गोपालनारायण इत्यादि पाँच भाइयों के थे और कल्याणपुर और सिपाह ये दो परगने राजा फतेहनारायण सिंह के थे, जिनकी ब्राह्मण जाति थी।’
जो 'गोल्डन बुक ऑफ इंडिया' (The Golden book of India ) नामक अंग्रेजी पुस्तक 'सर रापर लेथब्रिज के. सी. आई. ई. (By Sir Ropper Lethbridge K.C.I.E.) द्वारा विशेष आज्ञा से लिखी गई और भारत सम्राज्ञी महारानी श्री विक्टोरिया को 1893 में समर्पित है (Dedicated to Her Gracious Majesty, Victoria, Queen Empress of India, 1893) उसमें लिखा है कि :
Page 66. Benares— His Highness Sir Prabhu Narayan Singh K.C.I.E. Maharaja Bahadur. The family are Brahmans of the Bhumihar class, and their traditions go back to the year 1000 when a Brahman ascetic of Utaria, a village near Benares forestood the succession of his posterity to the dominions then governed by Hindu Rajas.
Page 67. Bettiah-Maharaja Sir Hirendra Kishore singh K.C.I.E. Maharaja Bahadur belongs to Jaitheria Brahmans (Hindu family descended from Gangeshwar Deo, who settled at Jaither in Saran, Bengal, about 1244 A.D.).
Page 174. Hathua-Maharaja Sir Krishna Pratap Sahi Bahadur K.C.I.E. Maharaja Bahadur belongs to a Begochhia Brahman family.
Page 493, Raja Shambhu Narayan belongs to Gautam clan of Bhumihar Brahmans.
इसका अर्थ यह है कि ‘पृष्ठ 66 में लिखा है कि हिज हाईनेस सर प्रभु नारायण सिंह के.सी.आई.ई. महाराज बहादुर बनारस का वंश ब्राह्मणों में भूमिहार ब्राह्मण दलवाले ब्राह्मणों से है। इनके विषय में यही प्रसिद्ध है कि 1000 वर्ष पूर्व बनारस के पास उतरिया गाँव में एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने उस समय के हिंदू राजा के राज पर अपने वंशजों का राज्य चलाया।
67वें पृष्ठ में लिखते हैं कि महाराज सर हीरेंद्र किशोरसिंह के.सी.आई.ई. महाराज बहादुर बेतिया, जैथरिया ब्राह्मण वंश के हैं। यह वंश गंगेश्वरदेव से चला, जो बंगाल के सारन (छपरा) जिले के जैथर गाँव में 1244 ई. में रहते थे।
174वें पृष्ठ में हैं कि महाराज सर कृष्णप्रताप साही बहादुर के.सी.आई.ई. महाराज बहादुर हथुवा बगौछिया ब्राह्मण वंश के हैं।
और 493वें पृष्ठ में है कि राजा शंभूनारायण सिंह (औसानगंज) भूमिहार ब्राह्मणों के गौतम वंश के हैं।
डॉ. विलियम ओल्डहैंम (William Oldham B.C.S.LL.D.) ने स्व पुस्तक (North Western Provinces Historical and Statistical Memoir of the Ghazipur District) के प्रथम भाग के 43वें पृष्ठ में लिखा है कि : “Bhumihars, both by themselves and by ethnologists, are belived to be the descendants of Brahmins, who on becoming cultivators and landholders gave up their priestly functions. In popular estimation they share in something of the sacredness which attached to the Brahmins, and by the old law of the Benares Province, they like the genuine Brahmins, were exempted from capital punishment; but family priests or spritual guides are never chosen from among them by men of their own race nor by other Hindus.”
अर्थ यह है कि ‘भूमिहार लोग अपने आप और वंश परम्परा के जाननेवालों द्वारा भी उन ब्राह्मणों में से माने जाते हैं, जिन्होंने कृषक और जमींदार होने पर पुरोहिती छोड़ दी। जन साधारण की दृष्टि में बहुत से अंशों में ये लोग अन्य ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझे जाते हैं और इन्हीं की तरह इन लोगों को भी बनारस प्रांत के पुराने कानून के अनुसार प्राणदंड (फाँसी) की सजा नहीं मिलती थी, (क्योंकि हिंदू धर्म में ब्राह्मणों को फाँसी देना वर्जित हैं)। लेकिन ये लोग न तो अपने ही समाज के पुरोहित और गुरु होते हैं और न अन्य हिंदुओं के ही।’ डॉ. ओल्डहैंम के बहुत से अंशों में 'अन्य ब्राह्मणों की तरह पवित्र माना जाना' लिखने का तात्पर्य अन्त के वाक्यों से स्फुट हैं। अर्थात ये लोग गुरु या पुरोहित नहीं होते, इसीलिए सब अंशों में अन्य ब्राह्मणों की तरह पूजा कैसे हो सकती है?’
56वें पृष्ठ में लिखा है कि : “A Bhumihar family of Pande Brahmins settled at Byreah in Doab pergannah, have for generations past been the Tehseeldars or land agents of the Domaraon faimly.”
अर्थात ‘पांडे कहलानेवाले ब्राह्मणों में से एक भूमिहार ब्राह्मण वंश, जो बलिया जिले के दोआब परगने के बैरिया गाँव में प्रथम से ही आ कर बसा है, बहुत पीढ़ियों से डुमराँव राज्य का तहसीलदार होता चला आया है।’
68वें पृष्ठ में लिखा है कि : “The family of the Benares Rajahs belong to a clan of Goutum Bhumihar Brahmans, land holders of the pergannah Kuswar, which lies a few miles to the west of Benares. They trace their descent from a Brahmin Kitthoo Misra etc.”
अर्थात ‘बनारस के राजाओं का वंश गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं। जो काशी से चंद मील दूर पश्चिम तरफ के कुसवार परगने के जमींदार हैं। ये लोग अपनी उत्पत्ति कित्थू मिश्र नामक एक ब्राह्मण से बतलाते हैं इत्यादि।’
फिर उसी पुस्तक के द्वितीय खण्ड के 43वें पृष्ठ में उक्त साहब बहादुर ने लिखा है कि :
The Hindu land-owing tribes of Benares are either Bhumihars, secular Brahmans, of Rajputs.
अर्थात ‘बनारस जिले के मुख्य जमींदार या तो भूमिहार यानी दुनिया भी का ब्राह्मण हैं (यहाँ दुनिया भी का का अर्थ याचकों या पुरोहितों से भिन्न हैं, क्योंकि वे लोग पुरोहितों को हिंदू धर्मानुसार पारलौकिक समझते हैं), या राजपूत।’
बाबू नीलमणिदास रायबहादुर, सदरआला, मुजफ्फरपुर के 1897 ई. के फैसले की जो अपील राजकुमार श्री गिरिजा नन्दन सिंह जी ने महारानी जानकी कुंवरि के विरुद्ध की थी, उसके फैसले के 107वें पृष्ठ में इस तरह लिखा है कि :
Maharajadhiraj Rajendra Kishore Sinha Bahadur, son of Maharaj Nawal Kishore Sinha Bahadur, proprietor of Nimak-Saeer Mahal out of Sarcar Champaran inhabitant of Kasaba Betteah, pergannah Majhwa Jaitharia Brahman by caste, a zamindar by profession.
अर्थात ‘महाराजा राजेंद्र किशोर सिंह बहादुर महाराजा नवल किशोर सिंह बहादुर के पुत्र और निमक सायर महाल के मालिक हैं, जो चंपारन सरकार से बाहर हैं। ये मझवा परगने के कसवा बेतिया में रहते हैं। इनकी जाति जैथरिया ब्राह्मण और पेशा जमींदारी हैं।’
इसी प्रकार बेतिया के समीपवर्ती मधुवन के मुकदमे के सन 1907 के फैसले की अपील के फैसले 1078वें पृष्ठ में लिखा कि :
“This statement of Sir W.B. Hudson is fully borne out by the acknowledgement of Sir Ropper Lethbridge in the introduction to his compilation, called the Golden Book of India, in para 67 of which work we find Maharaja Sir Harindra Kishore Sinha described as Jaithria Brahman, descended from Gangeshwar Deo the ancestor of Raja Ugrasen Sinha.”
अर्थ यह है कि ‘सर डब्ल्यू. बी. हडसन का यह कथन सर रापर लेथब्रिज के कथन से अच्छी तरह प्रमाणित हो जाता है, क्योंकि उन्होंने अपनी पुस्तक 'गोल्डन बुक ऑफ इंडिया' की भूमिका के 67वें पैरा में लिखा है कि महाराज हरींद्र किशोर सिंह जैथरिया ब्राह्मण 'गंगेश्वर देव के वंशज हैं, जो राजा उग्रसेन सिंह के पूर्वज थे।’
गाजीपुर के इस्तिमरारी बंदोबस्त की रिपोर्ट, सन 1880-85 ई. के 27वें और 63वें पृष्ठों में 'विलियम इरविन, (William Irvin) साहब कलेक्टर ने लिखा है कि: “Raja Shambhu Narayan Singh is Bhumihar Brahman, Gauri Shankar Prasad Sinha and Harishankar Prasad Sinha are great grand sons of Deokinandan Sinha, Brahman of the Allahabad district.”
अर्थात ‘राजा शम्भूनारायण सिंह भूमिहार ब्राह्मण हैं। गौरीशंकर प्रसाद सिंह और हरिशंकर प्रसाद सिंह ये दोनों देवकीनन्दन सिंह नामक प्रयाग जिले के एक ब्राह्मण के प्रपौत्र हैं।’
सन 1891 ई. की भारतवर्षीय मनुष्य गणना के विवरण के 191वें और 203वें पृष्ठों में लिखा गया है कि :
“The Babhan is a caste, confined, according to the returns, to Behar, but the Bhumihars of the adjacent territory of the N.W.P. should, no doubt, be added. It is an offshoot of a community of fairly pure Arya blood, descended from some of the early settlers of Hindustan.
“In the Brahmans caste, returned as such, we have every sort and grades of sub-divisions, In the Punjab there is the Mohial, whose aim is military service, like Pande of the Gangotri basis in Hindustan, The cultivating classes of Orissa are both turned Mastans but this title is shared by other castes of cultivating Brahmans in Upper India. Some of the last perform the whole cycle of operations connected with tillage. Whilst others draw the line at holding the plough, and employ their serfs on that task. There is a considerable number of Brahmans engaged as family and village priest, but the majority have taken to secular Pursuits and been divided accordingly.
“In Hindustan the number of Brahman cultivators is very large, and on the West Coast of, both in Malabar and along the Kankan, this caste in various district communities is prominent amongst the land holders. In the Deccan, again the Brahmans almost monopolise the occupations barring trade, that require reading and writing.”
अर्थ यह है कि ‘बाभन एक जाति हैं जो सरकारी विवरण के अनुसार बिहार में पाई जाती है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि समीप के युक्त प्रदेशवाले भूमिहार भी इसी में शामिल हैं। ये लोग उन शुद्ध आर्य वंशजों के एक दल है, जो भारतवर्ष के प्रथम के कुछ निवासियों के वंश में थे। ब्राह्मण जाति में, जिसे मनुष्य गणना में ब्राह्मण जाति नाम से लिखा है, हर प्रकार और दर्जे के छोटे-छोटे दल पाए जाते हैं। पंजाब में महियाल लोग हैं जिनका मुख्य उद्देश्य युद्ध सेवा हैं जैसे कि भारतवर्ष के गंगोत्री स्थान के मूल में रहनेवाले पांडे लोग हुआ करते हैं। दक्षिण गुजरात की कृषक जाति जो देसाई कहलाती है और उसी तरह के उड़ीसा निवासी ये दोनों मस्तान लिखे जाते हैं। लेकिन यह पदवी उत्तर भारत की अन्य कृषक ब्राह्मण जातियों की भी है। उत्तर भारत के बहुत ब्राह्मण कृषि संबंधी सभी कार्य करते हैं, परंतु कुछ लोग हल जोतना अच्छा या उचित न समझ उसके लिए हलवाहे नौकर रखते हैं। कुछ ऐसे ब्राह्मण हैं जो खानदानों या गाँवों की पुरोहिती किया करते हैं, परंतु अधिकांश दुनिया भी का कामों लग गए हैं और इसी से पृथक भी हो गए हैं ओल्डहैंम साहब ने भी भूमिहार ब्राह्मणों को दुनिया भी लिखा है और ऐसा करने से इतर ब्राह्मणों से अलग बताया है, जैसा कि दिखला चुके हैं)। हिंदुस्तान में खेती करनेवाले ब्राह्मणों की संख्या बहुत हैं और कोंकण तथा मालाबार के पश्चिमी किनारे पर यह जाति जिले के भिन्न-भिन्न समाजों में सबसे बड़ी भूम्यधिकारिणी है। दक्षिण में भी जो काम वाणिज्य के सिवाय है और जिनमें पढ़ने-लिखनेवाले की आवश्यकता हैं, उनको ब्राह्मणों ने संपूर्ण अधिकार में कर लिया है।
'सर हेनरी एम. इलियट' (Sir Henry M.Elliot K.C.B.) की जो 'सप्लीमेंट ग्लसारी ऑफ इंययन टर्म्स' (Supplementae Glossary of Indian Terms) नामक पुस्तक है और उस पर जो टिप्पणी 'जान बीम्स' (John Beams M.R.A.S.) ने की है, उसके प्रथम भाग के 21वें पृष्ठ में यों लिखा है :
By Elliot - Bhumihar. A tribe of Hindus to be found in great number in Gorakhpur. Azemgarh and the province of Benares. The Maharaja of Benares is of this caste. They call themselves some times Brahmans and sometimes Thakurs. They were originally Brahmans of Sarawaria stock; but from having, as they say received the pergannah of Kaswar form Raja Banar and become addicted, to, agricultural, Pursuits, and cultivators of land (भुई) they last their rank of Brahmans, though they frequently receive marks of respect due only to that priviledged class. Others say when Parasaram destroyed all the Kshatriyas, he introduced Brahmans to occupy their place, and hence they became proprietors of land. It will be observed that several of these are subdivisions of the Sarawaria Brahmans, and those whose origin is distinguished, by new names have all same titles connecting them with the Sarawaria stock. Thus the Sakarwas are Misras, the Donwars Tewari and so on.
By Beames - From that day they ranked as an inferior caste of Brahmans. They are a fine manly race with the delicate Aryan type of feature in full perfection.
Page 85. Domtikar, one of the Subdivisions of Sarawaria Brahman.
Page 116. The Jaganbansi Kanaujia Brahmans of Kora are said to have received the Chandrahat of that Purgannah from Birsingh Deo, a Gautam chieftain.
Page 141. Jaganbansi, a tribe of Brahmans who hold zamindari possessions in pergannah Kora, zillah Fatehpur.
Page 146. Of Brahmans there ten well known sub-divisions of which five are Gaur and five Dravida. Of the five Gaurs, Kanaujia is one and also is considered the most numerous as it extends from the Sivalik Hills to the Narbada, and the Bay of Bengal. The sub-divisions of the Kanaujia are five; Kanaujia proper, Sarwaria, Sanadhya or Sanaudha, Jijhoutia and Bhumihar.
Page 149. The Sarwarias including the Bhumihars touch the Kanaujias one the East.
Page 150 In the census of N.W.P. in 1865, the Brahmans of the Province are thus classified and numerated :-
Kanaujia ... ... ... ... ...
Sarwaria ... ... ... ... ...
Sanadhya ... ... ... ... ...
Jijhautia ... ... ... ... ...
Bhumihar 52199, Gorakhpur, Benares.
अर्थ यह है ‘इलियट साहब भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में लिखते हैं कि यह एक हिंदू जाति है, जो बहुत संख्या में गोरखपुर, आजमगढ़ और बनारस के प्रांतों में पाई जाती है। महाराज बनारस इसी जाति के हैं। ये लोग अपने को कभी ब्राह्मण कहा करते हैं और कभी ठाकुर¹। ये लोग प्रथम सरवरिया ब्राह्मण थे। परंतु राजा बनार के कुसवार परगना पाने और खेती करने तथा भूमि संबंधी काम करने से, जैसा कि वे लोग कहते हैं, उन लोगों ने अपने ब्राह्मण दर्जे को खो दिया। जोकि अभी तक अकसर उन लोगों को वे ही प्रतिष्ठाएँ मिला करती है जो अन्य ब्राह्मणों को मिलती है। अन्य लोगों का यह कहना है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों का नाश किया तो ब्राह्मणों को ही उनकी जगह नियत किया। इसलिए ये लोग भूमि के मालिक बन गए। यह भी देखा जाता है कि इन लोगों (भूमिहार ब्राह्मणों) के बहुत से छोटे-छोटे दल वे ही हैं, जो सरवरिया ब्राह्मणों के हैं और जिनके मूल का पता उनके नवीन नामों से लगता है, उन लोगों की पदवियाँ सबकी-सब वे ही हैं जो उनको सरवरिया ब्राह्मणों में मिला देती हैं। जैसे सकरवार मिश्र कहलाते हैं और दोनवार तिवारी इत्यादि।
मिस्टर इलियट के पूर्वोक्त कथन 'खेती करने से इन लोगों ने अपने ब्राह्मण दर्जे को खो दिया' का तात्पर्य मिस्टर बीम्स ऐसा लिखते हैं कि 'उस समय से ये लोग ब्राह्मणों में मध्यम समझे जाने लगे इत्यादि।2 ये लोग उत्तम मनुष्य जाति के हैं और इनके शरीर की संपूर्ण बनावट ठीक और बहुत ही सुंदर एवं आर्यों की ही हैं।'
85 वें पृष्ठ में इलियट साहब ने लिखा है कि दुमटिकार लोग सरवरिया ब्राह्मणों के एक भेद हैं। (इससे स्पष्ट है कि दुमटिकार ही नाम ठीक है, दुमटकार या डोमकटार कहना भूल है, जैसा कि प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं)।
116वें और 141वें पृष्ठों में जगदवंशी या जगद्वंशी ब्राह्मणों को लिखते हैं कि ये लोग ब्राह्मणों की एक जातिवाले हैं, जो फतहपुर जिले के कोड़ा परगने के जमींदार हैं। जो जगद्वंशी कनौजिया ब्राह्मण कोडा में रहते हैं, उन्हें उस परगने का चंद्रहाट स्थान एक गौतमवंशी क्षत्रिय वीर सिंह देव द्वारा प्राप्त हुआ है।
146वें पृष्ठ में लिखा है कि ब्राह्मणों के प्रसिद्ध दस भेद हैं, जिनमें से पाँच द्राविड़ और पाँच गौड़ हैं। पाँच गौड़ों में कनौजिया भी एक भेद हैं। ये लोग सबसे अधिक है; क्योंकि सिवालिक पर्वत से नर्मदा और बंगाल की खाड़ी तक फैले हुए हैं। कनौजियों के पाँच भेद हैं - (1) खास कनौजिया, (2) सरवरिया, (3) सनाढ्य या सनौढा, (4) जिझौतिया, और (5) भूमिहार।
149-पृष्ठ में है कि 'भूमिहारों को अपने में लेते हुए सरवरिया लोग पूर्व में कनौजियों से मिल जाते हैं।
150-पृष्ठ में लिखा है कि युक्त प्रांत की 1865 ई. की मनुष्यगणना में इस
¹ अन्य ब्राह्मण भी ठाकुर कहे जाते हैं, जैसा कि दिखला चुके हैं और चूँकि जमींदार हैं, इसलिए ठाकुर कहलाते हैं, क्योंकि उसका अर्थ जमींदार हैं।
2 परंतु खेती करने से ब्राह्मण माध्यम नहीं हो सकता है, यह अच्छी तरह प्रमाणित किया जा चुका हैं।
प्रांत के ब्राह्मणों के विभाग और उनकी संख्या यों हैं :
कनौजिया ... ... ... ... ... ... ...
सरवरिया ... ... ... ... ... ... ...
सनाढ्य ... ... ... ... ... ... ...
जिझौतिया ... ... ... ... .... ... ...
भूमिहार ...52199 ... गोरखपुर और बनारस।
मिस्टर शेरिंग (Rev. M.A. Sherring M.A.,LL.B.) ने जाति विवरण (Tribes and Castes) नामक पुस्तक में इस तरह लिखा है :
Part I. Page 9, 10. Great important distinctions subsist between the various tribes of Brahmans. Some are given to learning some to agriculture, some to politics and some to trades. The Maharastra Brahman is very different being from the Bengali, while the Kanaujia differs from both.
Only those Brahmans that perform all these six duties are reckoned perfectly orthodox. Some perform three of them, namely, the first, third and fifth and omit the other three; yet they suffer in rank in consequence. Hence Brahmans are divided into two kinds, the Shat-karmas and the Tri-karmas or those who perform the six duties and those who perform the three only. The Bhumihar Brahmans, for instance are Tri-karmas, and merely pay heed to three duties.
Page 23. The Bhumihars, of whom many though not all belong to the Sarjupariya division, are a large and influential body in all that province.
अर्थ यह है कि 'प्रथम भाग, 9 और 10 पृष्ठ-ब्राह्मणों की बहुत सी जातियों में बड़े-बड़े और प्रसिद्ध भेद हैं। कोई केवल पढ़ता ही हैं, कोई केवल खेती, कोई राजनीति और कोई वाणिज्य में लगा रहता है। महाराष्ट्री ब्राह्मण बंगाली ब्राह्मणों से बिलकुल भिन्न हैं और कनौजिया दोनों से भिन्न है।
केवल वे ही ब्राह्मण, जो षट्कर्म करते हैं कट्टर समझे जाते हैं।
बहुत से ब्राह्मण षट्कर्मों में प्रथम, तृतीय और पंचम (अध्ययन, यज्ञ और दान) तीन ही करते हैं शेष तीन छोड़ देते हैं। इसीलिए उनका दर्जा कुछ नीचा समझा जाता है। इस प्रकार ब्राह्मणों के दो भेद है, षट्कर्मा और त्रिकर्मा। अर्थात एक तो वे जो छह कर्मों को करते हैं और दूसरे वे जो केवल तीन ही करते हैं। दृष्टांत के लिए भूमिहार ब्राह्मणों को ले सकते हैं, जो केवल तीन ही कर्मों पर ध्यान देते हैं।
23वाँ पृष्ठ - भूमिहार लोग जिनमें सब नहीं तो अधिकांश सर्यूपारी ब्राह्मण हैं, इस प्रांत-भर में बहुसंख्यक और प्रभावशाली है।
आगे चल कर मिस्टर शेरिंग ने ब्राह्मणों के निरूपण प्रकरण में ही पंचगौड़ों में से सर्यूपारियों के निरूपण प्रसंग में ही जिझौतिया, सारस्वत एवं गौड़ों से प्रथम ही भूमिहार ब्राह्मणों का निरूपण करते हुए 39वें और 40वें पृष्ठ में ऐसा लिखा है :
BHUMIHAR BRAHMANS - These Brahmans belong chiefly, though not exclusively, to the Sarwaria branch of the Kanaujia tribe. They are found in large numbers in the city of Benares, and in the district and province of the same name, and even as far as the northern part of Behar. Some doubt has been thrown on the purity of their blood of as Brahmans. It has been said that they are Kshatriya Brahmans : or partly Rajputs and partly of other castes; or are a race of bastard Brahmans. I have been unable to obtain any trustworthy evidence for such assertion. Nevertheless there is no question that they do not occupy a high rank and position among the Brahmanical races. The reasons for this I conceive to be three-fold :
(1) The Bhumihars are addicted to agriculture, a pursuit considered to be beneath the dignity of pure or orthodox Brahman. The word is Partly derved from Bhuin or Bhumi ‘land’.
(2) They have accepted and adopted in their chief families the secular title of Raja, Maharaja, and so forth distinctions which high Brahmans altogether eschew. Hence, such Bhumihars have in a sense degraded from their position of Brahmans to that of Rajputs, whose honoric title of Singh they commonly affix to their names. The Maharaja of Benares, who is the acknowledge head of the Bhumihar Brahmans in that City, is styled Maharaja Ishwaree Narain Singh. The title is borne by all the members, near and remote of the Maharaja’s family.
(3) The Bhumihars only perform or half of the Prescribed Brahmanical duties. They give alms, but do not receive them; they offer sacrifices to their idols, but do not perform the duties and offices of priest hood; they read the sacred writings, but do not teach them.
Sir Henry Elliot says - “we perhaps have some inications of the true origin of Bhumihars in the name of Gargabhumi and Vatsabhumi, who are mentioned in the Harvansa as Kshatriya Brahmans, descendants of Kasiya princes, name of Bhumi and residence at Kasi (Benares), are much in favour of this view. Moreover, there are to this day Garga and Vatsa Gots or Gotras, amongst the Sarwaria Brahmans.”
It is quite true, as before remarked, that this tribe is numerous in Benares and its neighbourhood, though not as descendants of Kasiya princes. The Maharaja of Benares is undoubtedly a Bhumihar; but his family dates only from the first-half of the Preceeding century. There is no evidence to show that in olden times princes of Benares were ever Bhumihars.
By the people of the country of other castes, among whom they dwell, they are called indiscriminatly Bhumihars, Gautams and Thakurs. The term Brahman, is not, I believe applied to them in common conversations as it is to other Brahmans; but this is no valid argument against their right to the title. The Bhumihars call themselve Brahmans: have the Gotras titles and family names of Brahmans: practise, for the most part, the usages of Brahmans, and in default of proper evidence to the country, must be regarded as Bhrahmans. While the Gautams of Benares are called Bhumihars they are so simply from the accident of the Bumihars there mostly belonging to the Gautam Gotra. There are other Gotras of Bhumihars besides the Gautam. Moreover although the Bhumihars are chiefly united whith the Sarwaria branch of the Kankubja tribe of Brahmans, yet some of them are allied to the Kanaujia Brahmans Proper. For instance, the Babus of Chainpur in the Chaprah district are Bhumihars of the latter sub-tribe. The name of their clan is Ekasariya; of their Gotra Prasar; of their title Dikshit.
In face of the peculiar Brahmanical terminology and nomenclature in use among the Bhumihars, who differ 'in toto coelo' from those employed by all other coates, of their Brahmanical habits and costoms, of their claim to be regarded as Brahmans, the statement of Mr. Campbell in his recent work on the ethnology of India (page 66). that “there seems to be no doubt that this class is formed by an intermixture of Brahmans with some other inferior caste,” is untenable. He assigns no reason for such an observation further than that, “they live in strong and pugnatious brotherhoods, and are in character much more like Rajpoots than Brahmins.” The opinion of Mr. Beams, in his edition of Sir H. Elliot’s Supplemental Glossary on the physical charcterstics of the Bhumihars, is true and worth recording. “They are fine manly race, with the delicate Aryan type of feature in perfection, yet.” headds, “their character is bold and overbearing and decidedly inclined to be turbulent,” a strong expression, which it would not be easy to substantiate or justify. The most important of these clans in Benares is the Bipra branch of the Gautam Gotra of the Misra rank, to which belongs the Maharaja of Benares together with the noble families connected with him, and the family of the Late Raja Sirdeo Narayan Singh and of his son Raja Shambhu Narain Singh.
It is of the Kauthumiya Sakha, or branch, of Brahmans, following the ritual of the Sama. Veda it has three Parvars (distinguished by the number of knots in the Brahmanical card) the Gautam, Angiras and Authathiya. The clan intermarries with the Bhumihars, of the Madhyandina Sakha, or branch of Brahmans, observing the ritual of the Yajur-Veda. It is traditionally allied to the Sarjupari Brahmans of the Village of Madhubani, beyond the Gogra who, strange to say, are Shat-karmas that is perform the six duties enjoined on Brahmans. This relationship seems to show that the Bhumihars, Brahmans, who now observe only three of the Brahmanical obligations, were once orthodox and observed the entire six.
इसका मर्मानुवाद यह है :- ‘भूमिहार ब्राह्मण - ये ब्राह्मण यद्यपि सब नहीं, तथापि अधिकांश कनौजिया ब्राह्मणों के सरवरिया दलवाले ब्राह्मणों में है। ये लोग बहुसंख्यक बनारस शहर, बनारस जिला और बनारस प्रांत में और बिहार के उत्तर भाग तक पाए जाते हैं। इनके शुद्ध ब्राह्मण वंशज होने में कुछ संदेह किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ये लोग क्षत्रिय अथवा राजपूत ब्राह्मण है, राजपूत तथा अन्य जातियों के मेल से हुए हैं, अथवा दोगले ब्राह्मण हैं। परंतु मैं इस कथन में कोई विश्वास योग्य प्रमाण पाने में असमर्थ हूँ। तथापि इस बात में तो कुछ कहना ही नहीं कि ब्राह्मण जातियों में इनका दर्जा ऊँचा नहीं माना जाता। मेरी समझ में इसके तीन ही कारण है :- (1) भूमिहार लोग कृषि किया करते हैं, जो सच्चे (कट्टर) ब्राह्मणों का धर्म नहीं माना जाता है। भूमिहार शब्द भी इसी भुइं या भूमि शब्द से बना है। (2) उनके बड़े-बड़े वंशों में राजा, महाराजा इत्यादि पदवियों का स्वीकार और प्रयोग होता है, जिससे कट्टर ब्राह्मण बिलकुल ही घृणा करते हैं। इसीलिए लोगों ने यह मतलब लगा लिया है कि भूमिहार लोग ब्राह्मण दर्जे से हट कर राजपूत दर्जे को प्राप्त हो गए हैं और उनकी पदवियों को बहुधा अपने नामों के पीछे लगाया करते हैं। महाराजा बनारस, जो बनारस के भूमिहार ब्राह्मणों के माननीय नेता है, महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह कहलाते हैं। महाराजा के वंश के निकट या दूर के सभी लोग 'सिंह' कहलाते हैं। (3) भूमिहार लोग ब्राह्मणों के षट्कर्मों में से तीन ही करते हैं, अर्थात वे लोग दान देते हैं, परंतु लेते नहीं; यज्ञ करते हैं, परंतु करवाते नहीं, और पवित्र ग्रन्थों को पढ़ते हैं, परंतु पढ़ाते नहीं¹ सर हेनरी इलियट ने कहा है कि ‘भूमिहार लोगों के वास्तविक मूल का कुछ पता संभवत: हमें गर्गभूमि और वत्सभूमि इन नामों से चलता है, जो हरिवंश (पुराण) में क्षत्रिय ब्राह्मण और काशी के राजाओं के वंशज लिखे गए हैं। उनका भूमि नाम और काशी (बनारस) के पास निवास भी इस अनुमान के अनुकूल है। इसके अतिरिक्त सर्यूपारी ब्राह्मणों में आज तक गर्ग और वत्सगोत्र भी पाए जाते हैं।
जैसा कि प्रथम कह चुके हैं, उससे यह बात तो ठीक हैं कि ये लोग बनारस और उसके आस-पास में बहुत पाए जाते हैं। परंतु प्राचीन काशी के राजाओं के वंशज नहीं कहलाते। यद्यपि महाराज बनारस भूमिहार हैं इसमें संदेह नहीं हैं, परंतु इनका वंश केवल गत शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही यहाँ पर सिद्ध होता है। इसमें कोई प्रमाण नहीं हैं कि प्राचीन समय में भी काशी के राजे भूमिहार ही थे। इस देश की अन्य जातियों के लोग, जिनके मध्य में ये लोग रहा करते हैं, इन्हें अज्ञानवश कभी भूमिहार, कभी गौतम और कभी ठाकुर कहा करते हैं। मेरा विश्वास है कि साधारण बातचीत में इनके नाम के साथ ब्राह्मण शब्द नहीं लगाया जाता है। परंतु इन्हें ब्राह्मण मानने के विपरीत यह कोई सच्चा प्रमाण नहीं है। क्योंकि भूमिहार लोग अपने को ब्राह्मण कहते, ब्राह्मणों के ही गोत्र, उनकी ही पदवियों और वंशनाम रखते और अधिकांश ब्राह्मणों की ही रस्म-रिवाजों को करते हैं। इसलिए इनके विपक्ष में कोई उचित प्रमाण न होने के कारण इन्हें अवश्य ही ब्राह्मण समझना चाहिए।
बनारस के गौतम लोग भूमिहार कहलाते हैं। यह बात इस कारण से हैं कि वहाँ भूमिहार लोग अधिकांश गौतम गोत्री ही हैं। गौतम गोत्र के अतिरिक्त भी भूमिहार ब्राह्मणों में गोत्र पाए जाते हैं। इसके सिवाय गोकि विशेषत: भूमिहार ब्राह्मण सरवरिया ब्राह्मणों से ही मिले हुए हैं, तथापि बहुत से भूमिहार ब्राह्मण खास कनौजिया ब्राह्मण भी हैं। जैसे, चैनपुर के भूमिहार बाबुआन कनौजिया ब्राह्मण हैं। वे लोग एकसरिया
¹ ये तीन कारण, जिनसे लोग भूमिहार ब्राह्मणों को हीन समझने का भ्रम करते हैं, प्रथम ही खंडित किए जा चुके हैं और यह प्रमाणित किया जा चुका हैं कि कृषि ब्राह्मणों का प्रधान कर्म हैं और राय, सिंह इत्यादि पदवियाँ भी क्षत्रिय या ब्राह्मण विशेष की न हो कर उन सभी की है जो इसके योग्य थे या हैं इसीलिए ब्राह्मणों और अन्य जातियों में भी आज तक पाई जाती है। और वस्तुत: ब्राह्मण त्रिकर्मा ही होते हैं, न कि षट्कर्मा होना उनका धर्म है, यह भी सिद्ध हो चुका है। यज्ञ करा या पढ़ा कर के केवल द्रव्यार्जन करना अनावश्यक हैं, जिसे भूमिहार ब्राह्मण नहीं करते। परंतु उपकार के लिए या धर्मार्थ पढ़ाने आदि से उन्हें इनकार नहीं है। परंतु मिस्टर शेरिंग ने तो अन्य लोगों की धारणा मात्र बतलाई है, न कि अपनी राय। अब तो सब करते हैं।
कहलाते हैं और उनका गोत्र पराशर और पदवी दीक्षित है।
जो अन्य जाति के लोगों में बिलकुल ही नहीं पाए जाते, ऐसे जो केवल ब्राह्मण संबंधी संकेत और नाम इन भूमिहार ब्राह्मणों में पाए जाते हैं, उनके मुकाबिले में, इन लोगों को ब्राह्मण संबंधी रस्म-रिवाजों और स्वभाव के मुकाबिले में और इन लोगों के ब्राह्मण होने के दावे के भी मुकाबिले में मिस्टर कैंपबेल की वह उक्ति तुच्छ या अनादरणीय है, जो उनके हाल के भारतीय जाति विवरण संबंधी ग्रन्थ के 66वें पृष्ठ में है कि ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह जाति ब्राह्मण और कुछ नीच जातियों के मेल से बनी है।’ क्योंकि वे अपने इस कथन की पुष्टि में इससे अधिक प्रमाण नहीं देते कि ‘ये लोग मजबूत और लड़ाके पड़ोसियों में रहा करते और चाल-ढाल में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों से अधिक मिलते हैं।’¹
सर हेनरी इलियट की सप्लीमेंटल ग्लासरी में जो मिस्टर बीम्स की सम्मति भूमिहार लोगों की शारीरिक रचना के विषय में है वह सत्य और उल्लेख योग्य हैं अर्थात वे कहते हैं कि ‘ये लोग बहुत ही सुंदर मनुष्य जाति के हैं और इनकी शरीर रचना पूर्णतया सुंदर और आर्यों की शारीरिक बनावट जैसी है।’ परंतु इनका यह कथन कि ‘ये लोग साहसी और झटपट उबल पड़नेवाले, एवं नि:स्संदेह झगड़ालू होते हैं, बहुत ही सख्त (कड़ा) है, जिसको प्रमाणित करना जरा टेढ़ी खीर है।
भूमिहार ब्राह्मणों में सबसे प्रसिद्ध बनारस में गौतम गोत्र और मिश्र पदवीवाली विप्र शाखा है, जिसमें महाराज बनारस अपने संबंधी बड़े-बड़े वंशों के साथ सम्मिलित है और भूतपूर्व राजा सर देवनारायण सिंह और उनके पुत्र राजा शंभूनारायण सिंह का वंश भी उसी में शामिल हैं। ब्राह्मणों की कौथुमी शाखा ही इनकी शाखा और सामवेद ही वेद है। इन लोगों के तीन प्रवर गौतम, अंगरिस और औतथ्य है, जिनकी सूचना के लिए यज्ञोपवीत में तीन ग्रन्थियाँ दी जाती है। ये लोग यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखावाले भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह करते हैं और इनके विषय की कथा ऐसी है जिसमें इन लोगों का सम्बन्ध सर्यूपार के मधुबनी ग्राम के सर्यूपारी ब्राह्मणों से सिद्ध होता है। जिनके विषय में यह कहते आश्चर्य होता है कि वे लोग षट्कर्मा ब्राह्मण हैं। इस सम्बन्ध से यह भी पता चलता हैं कि ‘भूमिहार ब्राह्मण, जो केवल तीन ही कर्म करते हैं, प्रथम कट्टर और षट्कर्मा ब्राह्मण ही थे।’
शेरिंग साहब ने पूर्वोक्त ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड के 189वें और 229वें पृष्ठों में लिखा है कि : The truth is that the word Bhumihar applies to Rajputs as well as to Brahmans. A similarity of nature, however, amounting even to an exact correspondence, is frequently found subsisting between Brah
¹ इन बातों का खण्डन उनके पूर्वोक्त रस्म-रिवाजों इत्यादि से ही हो गया, जो केवल ब्राह्मणों में ही पाए जाते हैं और जमींदारी करने के कारण मजबूती वगैरह की जरूरत मजबूर हो कर ही पड़ती है। अतएव मिस्टर शेरिंग इस विषय में कैंपबेल का अनादर करते हैं।
mans and Rajputs. Both races have their Gautams, their Bhumihars, their Kinwars and likewise; have the same Gotras, thereby professing to be descended from the same Rishis or sages of primitive Hinduism.
अर्थात ‘सत्य बात तो यह है कि भूमिहार शब्द का प्रयोग राजपूत और ब्राह्मण दोनों जातियों में किया जाता है। राजपूतों और ब्राह्मणों के स्वभाव की भी समानता पाई जाती है, जो ठीक-ठीक मिल जाती है। दोनों में गौतम, भूमिहार, किनवार आदि भेद और बहुत से एक ही गोत्र पाए जाते हैं, जिससे यह कहा जाता है कि वे लोग एक ही ऋषि के वंशज है।’
श्रीयुत योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य एम.ए.डी.एल. की सम्मति भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में दी जा चुकी है। यहाँ पर केवल उनके कथन के उस अवशिष्ट अंश को लिखते हैं, जिसमें उन्होंने मिस्टर रिजले तथा अन्य लोगों के मिथ्या आक्षेपों का युक्तियों द्वारा खण्डन किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'हिंदू कास्ट्स एंड सेक्ट्स' के 109वें-113वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा है :
The Bhumihar Brahmans of Behar and Benares—There are various legends regarding the origin of the caste. The Bhumihar Brahmans themselves claim to be true Brahmans, descended from the rulers whom Parsuram set up in the place of the Kshatriya kings slain by him. The Brahmans and the Kshatriyas of the country look down upon them and insinuate that they are of a mixed breed, the offspring of Brahman men and Kshatriya women. It is even said that the class was formed by the promotion of low caste men under the orders of a minister to a Raja, who wanted a very large number of Brahmans to celebrate a religious ceremony; but for whom his minister could not procure the required number of true Brahmans. But the legendry theory is strongly contradicted by the Aryan physiognomy of the Bhumihars, who in respect of personal appearance are in no way inferior to the Brahmans or the Rajputs. One of the most important points of difference between the Bhumihar Brahmans and the majority of the ordinary Brahmans is, that while the latter are divided into only those Exogamous classes called Gotras, the former have among them, like Rajputs, a two-fold division based upon both Gotra and tribe. From this circumstance Mr. Risley has been laid to conclude that the Bhumihar Brahmans are an offshoot of the Rajputs and not true Brahmans. But as there are similar tribal divisions among the Maithila Brahmans of Tirhut and the Saraswat Brahmans of the Punjab, it might, on the same ground, be said that the Saraswats and the Maithlas are offshoots of the Rajputs.
In theory that Bhumihar Brahmans are an offshoot of the Rajputs, involves the utterly unfounded assumption that any of the military clans could have reason to be ashamed of their caste-status. The ‘royal race’ had very good reason to be proud of such surnames as Sinha, Roy and Thakur, and it seems very unlikely that any of their clans could, at any time, be so foolish as to club together for the purpose of assuming the Brahmanic surnames of Dobe, Tewari, Chobe and Upadhyay. On the theory that the Bhumihar Brahmans are an offshoot of the Rajputs, the clans that now profess to be Bhumihar Rajputs, are residents that have stuck to their original status, and have never aspired to a higher one. But on this supposition it would be difficult to find any reason for the distinctions between Bhumihar Rajput and the ordinary Rajputs.
The usual surnames of the Bhumihar Brahmans are the same as those of the other Brahmans of northern India. Being a fighting caste, a few of them have the Rajput surnames.
अर्थ यह है 'बिहार और बनारस के भूमिहार ब्राह्मण-इस जाति की उत्पत्ति के विषय में बहुत सी किंवदंतियाँ हैं। भूमिहार ब्राह्मण स्वयं अपने आपको पक्के ब्राह्मण कहते हैं और उन ब्राह्मणों के वंशज बतलाते हैं, जिन्हें परशुराम जी ने क्षत्रियों को मार कर उनकी जगह पर स्थापित किया था। इस देश के ब्राह्मण और क्षत्रिय उनको हीन दृष्टि से देखते और चुपके से इशारा करते हैं कि वे लोग ब्राह्मण पुरुष और क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। यह भी कहा जाता है कि यह जाति उन नीच जातियों के पुरुषों से बनी है जो किसी राजा के मन्त्री की आज्ञा से ब्राह्मण बना दिए गए। क्योंकि उस राजा ने किसी धार्मिक कार्य के करने के लिए बहुसंख्यक ब्राह्मणों के लाए जाने की इच्छा प्रकट की थी; परंतु वह मन्त्री उतने ब्राह्मण न पा सका। परंतु ये सब किंवदंतियाँ भूमिहार ब्राह्मणों की शारीरिक रचना से ही अच्छी तरह खंडित हो जाती है। क्योंकि देह की बनावट में वे लोग ब्राह्मणों या क्षत्रियों से किसी प्रकार न्यून नहीं है। बहुत से साधारण ब्राह्मणों और भूमिहार ब्राह्मणों में भेद होने के प्रसिद्ध कारणों में से एक यह भी है कि साधारण ब्राह्मणों का विभाग गोत्रों के ही अनुसार होता है, परंतु राजपूतों की तरह भूमिहार ब्राह्मणों में भी गोत्र और अवांतर जाति दोनों के अनुसार विभाग होता है। इसी को देख कर मिस्टर रिजले ने यह नतीजा निकाला है कि भूमिहार ब्राह्मण राजपूतों के वंशज हैं, न कि सच्चे ब्राह्मण। परंतु अवान्तर जाति के अनुसार तिरहुत के मैथिल ब्राह्मणों और पंजाब के सारस्वत ब्राह्मणों में भी ऐसे ही विभाग पाए जाते हैं। अत: इसी पूर्वोक्त कारण से मैथिल और सारस्वत ब्राह्मण भी राजपूतों के वंशज सिद्ध हो सकते हैं¹
भूमिहार ब्राह्मण राजपूतों के वंशज हैं, इस कल्पना के मानने में यह भी बिलकुल ही निर्मूल कल्पना माननी होगी कि कोई भी जाति युद्ध विशारद बनने में अपने जातीय दर्जे के सम्मुख (विचार से) लजा सकती थी (क्योंकि उसे राजपूत बन जाना पड़ता)। राजपूत जातियाँ अपनी सिंह, राय और ठाकुर आदि पदवियों का बड़ा अभिमान रखती थीं। इससे यह कल्पना एकदम असंभव जान पड़ती है कि उनमें से कोई भी जातियाँ ऐसी मूर्ख हो गई, जिससे वे एक दल में इसलिए पृथक हो गईं कि उनको ब्राह्मणों को दूबे, तिवारी, चौबे और उपाध्याय इत्यादि पदवियाँ मिलें। भूमिहार ब्राह्मणों को राजपूत वंशज मानने में यह भी बात माननी होगी कि जो राजपूत अपने को भूमिहार कहते हैं वे अपनी प्राचीन ही दशा में पुराने बाशिन्दों की तरह पड़े हुए हैं और ऊँचे दर्जे की कभी इच्छा नहीं करते। साथ ही, उनके और साधारण राजपूतों के बीच कोई भी अन्तर मालूम करना इसी कल्पना के कारण कठिन हो जावेगा।
भूमिहार ब्राह्मणों की पदवियाँ विशेष कर वे ही हैं जो उत्तर भारत के अन्य ब्राह्मणों की। परंतु वीर जाति होने के कारण उनमें से कुछ लोगों ने राजपूतों की पदवियों को भी स्वीकार कर लिया है।
मुजफ्फरपुर के गजेटियर में मिस्टर एल.एस.एस. ने लिखा है कि :
These traditions are not recognized by the Babhans themselves, who claim to be true Brahmans. According to their own account, they are pure Brahmans and have been recognized as such from the rest of the Brahmans only in having taken to cultivation and given up the principal functions of Brahmans connected with priestcraft, viz officiating as priests in religious ceremonies, teaching the Vedas, and receiving alm; and they therefore call themselves Bhumihar Brahmans. They claims that, even at the present day Maithil Brahmans, who secede from their own community, are admitted among them on condition that they give up priestly occupations, and they contend that many of their ceremonies are performed in the same manners and styles and with the same Mantras as those of the Brahmans.
अर्थात ‘बाभन इन किंवदन्तियों को स्वयं नहीं मानते और अपने सच्चे ब्राह्मण होने का दावा रखते हैं। उनके कथनानुसार वे लोग सच्चे ब्राह्मण हैं और अनादि काल से सच्चे ब्राह्मण
¹ वस्तुत: तो सभी ब्राह्मणों में दोनों प्रकार के विभाग पाए जाते हैं, क्योंकि खैरी के ओझा और पिंडी के तिवारी ये विभाग तो गोत्र के अनुसार नहीं हैं और न दुमटिकार इत्यादि ही।
माने जाते हैं। उनका कहना हैं कि अन्य ब्राह्मणों से उनका भेद इसलिए है कि वे खेती करते हैं और पुरोहिती संबंधी प्रधान कर्मों को बिलकुल नहीं करते। अर्थात न पुरोहिती करते, न वेदों को पढ़ाते और न दान लेते हैं और इसी से भूमिहार ब्राह्मण कहलाते हैं। उनका दावा है कि आज तक भी जो मैथिल ब्राह्मण अपने समाज से अलग होना चाहता है वह हमारे समाज में इस शर्त पर मिला लिया जाता है कि वह फिर पुरोहिती नहीं करेगा। वे लोग यह भी कहते हैं कि हमारे बहुत से कर्म उसी रीति से और उन्हीं मंत्रों द्वारा किए जाते हैं, जैसे अन्य ब्राह्मणों के।’
The Right Hon’ble Sir Richard Temple, Bart, M.P., G.C.S.I.E.,D C. L. .LL. D., F.R.S. Governor of Bombay, Lieutenant Governor of Bengal and Finance Minister to India Government.(राइट आनरेब्ल सर रिचर्ड टेंपुल, बार्ट ने जो बंबई के गवर्नर, बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर और भारत सरकार के अर्थ सचिव थे), अपनी पुस्तक 'सन 1880 ई., का भारत वर्ष' (India in 1880) के 111वें और 117 वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा है :
Higher in the scale are those Brahmans who follow secular pursuits, apart from their brethern of the priestly orders. Their influence in landed concerns is comparatively slight in Northern India, but is considerable in Eastern, western and Central India and almost dominant in many parts of the country.
The priestly classes are still numerous through out the Empire. The Hindu priest-hood includes only those Brahmans who follow religious calling, and not those who are engaged in secular pursuits, though a certain sanctity is attached to them.
अर्थात ‘प्रतिष्ठा की दृष्टि से वे ही ब्राह्मण बड़े माने जाते हैं जो दुनियाबी कार्य (व्यापार और कृषि आदि) करते हैं और अपने पुरोहित भाइयों से पृथक है। यद्यपि उनकी जमींदारी उत्तर भारत में कुछ कम है, तथापि पूर्व, पश्चिम और मध्यभारत में अच्छी है और देश के बहुत से भागों में तो बहुत ही प्रबल या अधिक है।
पुरोहिती करनेवाले भी ताहम बहुत हैं और ब्रिटिश राज्य-भर में फैले हुए हैं। हिंदू पुरोहित वे ही ब्राह्मण लोग कहलाते हैं जो केवल धार्मिक काम किया करते हैं, न कि वे लोग भी, जो दुनियाबी काम करते हैं, जो कि बहुत अंशों में वे भी पवित्र समझे जाते हैं।
विन्सेंट ए. स्मिथ एम.ए. (Vincent A. Smith M.A.) ने 'भारत का प्रारंभिक इतिहास' (Early History of India) के 374वें पृष्ठ में लिखा है कि :
Occasionally a Raja might be a Brahman by caste, but the Brahman’s natural place at court was that of minister rather than that of king. Chandra Gupta Mourya Presumably was considered to be a Kshatriya, his minister Chanakya certainly was Brahman.
अर्थ यह है कि ‘कभी-कभी ब्राह्मण भी राजा हुआ करते थे। परंतु ब्राह्मणों का राजदरबार में स्वाभाविक कार्य राजा के कार्य की अपेक्षा मन्त्री का अधिक हुआ करता था। संभवत: चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय समझा जाता था, परंतु उसका मन्त्री चाणक्य तो अवश्य ही ब्राह्मण था।’
'मीडोज टेलर' (Meadows Taylor) ने अपने 'भारत वर्ष के इतिहास' (A Student Manual of the History of India) के 24, 47 और 54वें पृष्ठों पर क्रमश: ऐसा लिखा है :
Brahmans who follow the profession of the priesthool only, frequently hold themselves superior to, and distinct from others, who are soldiers or merchants, or who have taken themselves to any secular callings for a livelihood. Hence an immense variety of Brahmanical cases have been created, which, though in general terms they have not affected the peculiar sanctity and exclusiveness of their original foundation, haveyet broken the unity of their order, and reduced its power.
The power of the Brahman priest-hood in all spiritual matters was very great and they were esteemed holy, as yet they had not adopted secular employments and lived apart as professions of religion.
At Kanauj, in Oudh, under the hills of Nepal another great Hindu Dynasty sprang up, or at least materially increased in power during the period under notice. Their Princes did not join the Boodhist movement, they were exclusively Hindus and perhaps Brahmans.
It is least certain that they protected vast numbers of Brahmans during their persecution by the Boodhists; for one of the most numerous of the Northern Brahmanicl sects is termed Kanaujia. Grants of land were made to them and they became farmers, as many continue to be. The Kanaujia Brahmans are not esteemed as of the purest rank by others; the seldom hold priestly offices, and many of them enter the military service. They are perhaps, the finest physical race in India and of true Aryan type.
अर्थात ‘जो ब्राह्मण केवल पुरोहिती करते हैं, वे प्राय: अपने को उन ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और अलग समझते हैं जो योद्धा या व्यापार करनेवाले होते हैं। अथवा जो जीविका के लिए कोई भी दुनियाबी कार्य करते हैं इसी से ब्राह्मणों में बहुत से जाति-भेद हो गए हैं, जिनसे गो साधारण तौर पर उनकी पवित्रता नहीं नष्ट हुई हैं और न उनकी जड़ ही बिगड़ने पाई हैं, तथापि उनकी एकता नष्ट हो गई और शक्ति घट गई है।
सभी पारलौकिक कार्यों में पुरोहित का दर्जा बहुत बड़ा था एवं वे लोग पवित्र समझे जाते थे। और चूँकि अभी तक वे लोग दुनिया भी का काम न करते थे, अत: केवल पृथक रूप से पुरोहिती या धार्मिक कार्य ही में लगे रहते थे।
अवध प्रांत की नेपाली पर्वतों की तराई में कनौज में एक दूसरा बड़ा भारी हिंदू वंश उत्पन्न हुआ, अथवा कम से कम उस समय शक्ति संपन्न हुआ। उस वंश के राजे बुद्धधर्म को नहीं मानते थे और वे लोग बिलकुल ही हिंदू और संभवत: ब्राह्मण थे। कम से कम यह तो निश्चित ही हैं कि उन्होंने बहुसंख्यक ब्राह्मणों को बौद्धों द्वारा सताए जाने से बचाया। क्योंकि उत्तर भारत के ब्राह्मणों के बड़े-बड़े दलों में से एक दल कनौजिया भी है। उन लोगों को भूमि दी गई और वे लोग कृषक हो गए, जैसा कि बहुत से अब तक वैसे ही पाए जाते हैं। दूसरे लोग कनौजिया ब्राह्मणों को अति उत्तम या सच्चे दर्जे के नहीं मानते। वे लोग मुश्किल से पुरोहिती करते हैं, और बहुतेरे उनमें से युद्ध का काम करते हैं। संभवत: वे लोग शारीरिक बनावट में सबसे अच्छे और सच्चे आर्यों के सदृश होते हैं।’
आनरेब्ल माउंट स्टुअर्ट एल्फिन्स्टन (Mount Stuart Elephinston) ने अपनी 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया' (History of India) के 111वें पृष्ठ में लिखा है कि : “A strict Brahmin performing his full ceremonies, would still be occupied for not less than four hours in the day. But even a Brahman, if engaged in worldly affairs, may perform all his religious duties within half an hour. Of the eighty four Gurus (or spiritual chiefs) of the sect of Ramanuja, for instance, seventy nine were secular Brahmins.”
अर्थ यह है कि ‘कट्टर ब्राह्मण अपने धार्मिक कार्यों के करने में अब भी प्रतिदिन चार घंटे से कम न लगा रहेगा। लेकिन तो भी जो ब्राह्मण सांसारिक कार्यों में लगा रहता है वह आधा घंटे में ही अपने धार्मिक कार्यों को कर डालता हैं। दृष्टांत के लिए रामानुज सम्प्रदाय के 84 गुरुओं में से 79 केवल दुनियाबी (सांसारिक) ब्राह्मण थे, अर्थात पुरोहित दल के न थे।’
हिंदुस्तान के 'इम्पीरियल गजेटियर' (The Imperial Gazetteer of India), जो आक्सफोर्ड-क्लेरेंडन प्रेस (Oxford Clarendon Press) में छपा हैं, के द्वितीय भाग के 315वें पृष्ठ में इस प्रकार लिखा है :
The eleventh and tweilveth centuries were the Golden age of the new civilization. That civilization was founded partly on the theocracy; partly on military despotism. The Brahmans were divine by birth. They sometimes degind to hold the highest offices of state, but their special business was the pursuits of literature, science and philosophy; and the Rajput courts vied with each other in the patronage of learning, Brahmans of low rank were the spiritual guides (purohits) of the people and even they condescended to act as the priest of the more respectable and popular deities.
अर्थ यह है कि ‘ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियाँ (सदियाँ) नवीन सभ्यता के सत्ययुग थीं। वह सभ्यता कुछ तो दैविक शक्ति और कुछ नवीन सैनिक अत्याचार पर निर्भर थी। ब्राह्मण जन्म से ही देवता माने जाते थे। वे लोग कभी-कभी राज्य के सबसे ऊँचे दर्जे पर भी रहते थे, लेकिन उनका प्रधान काम साहित्य, विज्ञान और दर्शनों का पढ़ना था। विद्या की अभिभावकता या प्रभुत्व के लिए राजपूत दरबार परस्पर चढ़ा-बढ़ी किया करते थे। हीन दर्जे के ब्राह्मण ही लोगों के पुरोहित हुआ करते और प्रसिद्ध-प्रसिद्ध सर्वप्रिय देवताओं के पुजारी भी हुआ करते थे।’
बस, अब हम वैदेशिक विद्वानों या अंग्रेजी लेखकों के बहुत से वचन लिख कर ग्रन्थ विस्तार करना उचित नहीं समझते। पाठकों को इतने ही से पता चल गया होगा कि उन लोगों की सम्मतियाँ इन ब्राह्मणों के विषय में किनती अनुकूल हैं और यह भी पता लग गया होगा कि यह अयाचक ब्राह्मण समाज के विषय में जो कुछ मिथ्या आक्षेप इस देश या अन्य देश के लोगों ने किए हैं, उनका खण्डन भी उन्हीं लोगों ने कर के इस बात में 'मियाँ की जूती और मियाँ का ही सिर' वाली कहावत चरितार्थ कर दी है, जिसके लिए अब पृथक यत्न करने की आवश्यकता ही न रह गई। साथ ही, यह भी विदित हो गया कि इस देश के कोई-कोई बाबू लोग जो किसी अंग्रेजी विद्वान के लेख के एक अंश को ले कर इस ब्राह्मण समाज पर आक्षेप कर बैठते हैं वे कितनी भूल करते हैं क्योंकि ऐसे कोई भी आक्षेप नहीं हैं जिनका खण्डन उसी अंग्रेज विद्वान या अन्य विद्वानों ने न किया हो। अत: ऐसे साहसियों को अब इस ग्रन्थांजन से अपने ज्ञानचक्षु को निर्मल कर लेना और करने का उद्योग करना चाहिए, जिससे भविष्य में ऐसा ही साहस करने से पश्चाताप और निंदा का भागी न होना पड़े। अन्त के वाक्यों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि पुरोहिती करना हीन ब्राह्मणों का ही काम है और था, न कि श्रेष्ठ और प्रतिष्ठितों का, जैसा कि सभी लोग समझते थे और समझते हैं।
अब सभी विद्वन्मंडली से बद्धांजलि यही प्रार्थना है कि जो कुछ बातें इस द्वितीय 'कंटकोद्धार' नामक परिच्छेद में किसी के वाक्यों के खण्डन-मण्डन रूप से कही गई है। उनका निष्पक्षपात भाव से परिशीलन कर हंसवत नीर-क्षीर का विवेक करें और साथ ही यह भी ध्यान रखें कि ये बातें उन विपरीत लेखकों या अन्य समाज पर आपेक्ष दृष्टि से नहीं लिखी गई है, किंतु केवल अपने पक्ष की परिपुष्टि के लिए। जैसा कि मीमांसा भाष्कार श्री शबर स्वामी ने कहा है कि 'नहि निंदा निंद्य' 'निन्दयितु' प्र्रवत्ताते, किंतु 'निंदितादितरत्प्रशंसयितुम्'। अर्थात किसी की निंदा ग्रन्थों में इसलिए नहीं की जाती है कि वह वास्तव में निंद्य समझा जावे। किंतु निंदित वस्तु से भिन्न वस्तु की प्रशंसा के लिए निंदा हुआ करती है'। इसलिए इसे आक्षेप समझ कर व्यर्थ किसी को दुखी न होना चाहिए। क्योंकि किसी का दिल नाहक ही दुखाना हमें इष्ट नहीं हैं। और यदि कहीं आपातत: आक्षेप प्रतीत हो तो वह प्रसंगवश दूसरे लोगों की राय ही होगी, न कि हमारा स्वतन्त्र लेख होगा।
उपसंहार में उस विश्व व्यापक अन्तर्यामी से यही प्रार्थना हैं कि वह अपनी नैसर्गिक अनुकंपा सलिल से लोगों की बुद्धि के कालुष्य का संक्षालन कर दे, जिससे लोग स्वाभाविक रागद्वेष रहित हो और परस्पर भातृभाव की अभिवृद्धि करें। साथ ही, लकीर के झूठे फकीर न हो तथ्यातथ्य का विचार करें, निष्पक्षपातभाव का आदर करना सीखें, हमारे इस केवल परोपकारार्थ परिश्रम से लाभ उठाने का यत्न करें और लाभ उठावें। और इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों को भी ऐसी सुबुद्धि और जागृति को प्रदान करे कि ये लोग अपने वास्तविक पवित्र और सर्वोत्तम ब्राह्मण स्वरूप को पहचान कर उसके कर्मों में यत्नशील हो, कल्पित बाह्य आक्षेपों का मर्दन कर निर्द्वंद्व बनें और अपने आंतरिक छिद्रों को ऐसा दूर करें कि उनका निशान भी न रहने पावे। जिससे इस प्रकार बाह्य कंटक और आंतरिक छिद्रों के हटा देने से स्थायी गुणवान हो इस लोक और परलोक में देववत पूजित और प्रतिष्ठित हो।
इतिश्री ब्रह्मर्षिवंशविस्तरे कण्टकोद्धारो नाम द्वितीयं प्रकरणम्।