वैदेही की नियति की ओर प्रजातंत्र / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 26 जनवरी 2013
भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी साहब ने फरमाया है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने पर वे उन आयकर अधिकारियों को देख लेंगे, जिन्होंने उनकी कंपनी के हिसाब-किताब जांचने शुरू किए हैं और साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि आयकर विभाग में उनके दल से हमदर्दी रखने वाले लोग भी हैं। इस बयान के सुर मसाला फिल्मों के प्रतिहिंसा वाले पात्रों के संवाद की तरह हैं, परंतु इस बयान में सच्चाई यह है कि आज भारत के हर सरकारी महकमे (जिनमें पुलिस और सेना भी शामिल है) में अनेक अधिकारी ऐसे हैं, जिनके राजनीतिक विचार और राजनीतिक पूर्वग्रह भी मौजूद हैं और प्रशासन निष्पक्ष नहीं है। इसके साथ ही अधिकांश हुक्मरान जातिवाद से पीडि़त हैं तथा प्रकरण में किस धर्म के लोग शामिल हैं, यह बात भी अब उनके फैसलों को प्रभावित करती है। गौरतलब यह है कि अंग्रेजों द्वारा विकसित प्रशासन-तंत्र को ही आजादी के बाद भी कायम रखा गया है। व्यवस्था का पूरा ढांचा वही है, परंतु अंग्रेजों के दौर में जातिवाद, धर्म इत्यादि के प्रभाव नजर नहीं आते थे, वरन उनको प्रशिक्षित ही इस ढंग से किया गया था कि वे कुशल न्यायपूर्ण प्रशासन दें। उन्हें केवल यह हिदायत थी कि ब्रिटिशराज के खिलाफ कोई आवाज न उठे। केवल इस मुद्दे को छोड़कर शेष बातों में उन्हें पूरी आजादी थी। गोयाकि गुलामी के दिनों में प्रशासन स्वतंत्र एवं निष्पक्ष था और भारत की अखंडता की रक्षा भी काफी हद तक इसी व्यवस्था ने की थी। आडवाणी की रथयात्रा और पाकिस्तान प्रेरित बर्बर आतंकवादी हमलों के बाद इस व्यवस्था में कुछ कट्टरता एवं पूर्वग्रह आ गए हैं।
दरअसल अफसर मनुष्य होने के नाते अपनी राजनीतिक विचारधारा रखने का हकदार है, परंतु अपने कार्यों और फैसलों में उसे अपने राजनीतिक विश्वास के बावजूद निष्पक्ष रहना चाहिए। चिंतनीय यह है कि अफसर जिस राजनीतिक दल का हितैषी है, उस दल के पास ही कोई ठोस राजनीतिक आदर्श या विचारधारा नहीं है। आज कांग्रेस का नेता गांधीवादी कांग्रेस या नेहरू के समाजवादी आदर्श में विश्वास रखने वाला नहीं है। ठीक इसी तरह वामपंथी दलों में माक्र्स के सिद्धांत को मानने वाले नहीं हैं और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष वाले हिंदू धर्म के विराट एवं उदात्त स्वरूप से अपरिचित हैं। पांच हजार वर्ष पुरानी सांस्कृतिक विरासत के असल मंतव्य और मूल्यों को भुला दिया गया है। दुर्भाग्यवश आज हिंदुत्व का अर्थ मात्र इस्लाम विरोध की लघुता में सिमट गया है। इसका एक कारण यह भी है कि धार्मिक ग्रंथों के मूलपाठ विस्मृत करके उनकी एक लोकप्रिय अवधारणा सामने आई है। यहां तक कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत में अलग-अलग संस्करण उपलब्ध हैं। एक ही कथा का 'गोरखपुर' संस्करण 'कुंभकोणम' संस्करण से अलग है। बहरहाल, यह हमारा दुर्भाग्य है कि धर्म के उदात्त पक्ष से राजनीति आलोकित नहीं हुई, जैसा कि महात्मा गांधी का विश्वास था, वरन धर्म को ही राजनीतिक महत्वाकांक्षा की सीढ़ी बना लिया गया।
महाभारत में विदुर को महामंत्री का पद दिया गया, उस समय महारानी सत्यवती की यह इच्छा थी कि उम्र में सबसे बड़े धृतराष्ट्र को राजा बनाया जाए और पांडु को सेनापति। सत्यवती अपने वंश के इन तीन भाइयों में एकजुटता चाहती थीं और उन्हें भय था कि जन्मांध धृतराष्ट्र को राज्य कार्य से वंचित रखने पर वह स्वयं या उसके पुत्र विरोध कर सकते हैं, हस्तिनापुर का विभाजन हो सकता है। विदुर सत्यवती की इच्छा जानते थे और उन्होंने महामंत्री पद स्वीकार करने में अपनी अनिच्छा दिखाई कि पद पर आने के बाद वह किसी के पुत्र या किसी के भाई होने से ऊपर उठकर निष्पक्ष रहेंगे। तब भीष्म पितामह की आज्ञा से उन्होंने पद स्वीकार किया और शपथ ग्रहण के पश्चात उन्होंने निष्पक्ष और तर्कसम्मत विचार प्रकट किया कि वह जन्मांध धृतराष्ट्र को राजा बनाए जाने का अनुमोदन नहीं कर सकते। राजकुमार पांडु को ज्येष्ठ पुत्र नहीं होने के बावजूद राजा बनाया जाए। स्पष्ट है कि किसी भी पद को ग्रहण करने के बाद व्यक्ति को निष्पक्ष, तर्कपूर्ण एवं न्यायसंगत काम ही करना चाहिए।
नितिन गडकरी सही कहते हैं कि आज पदासीन लोग निष्पक्ष नहीं हैं और यह भी सही कहते हैं कि भाजपा के लोग भी प्रशासन में हैं। आज जिला और ग्रामीण स्तर पर भी पदासीन लोग अपनी जाति या धर्म वाले का पक्ष ले रहे हैं और यह संकीर्णता भी अन्याय आधारित, असमानता रचने वाली अंधी व्यवस्था का एक कारण है। प्रशासन में निष्पक्षता और न्यायसंगत तत्वों की कमी आ गई है। आज हमारी सबसे बड़ी चिंता देश की अखंडता की रक्षा करने की है। यह चिंता व्यवस्था में मौजूद भ्रष्टाचार से भी अधिक भयावह है। स्वतंत्र विचार-शैल विकसित करने में हम सफल नहीं रहे। राजनीतिक दल राजनीति के आदर्श से प्रेरित नहीं हैं, इसीलिए व्यवस्था में बैठे उनके हमदर्द भी नैतिकता का निर्वाह करने में सफल नहीं हो रहे हैं। आज जगह-जगह आक्रोश तथा आंदोलन हो रहे हैं, परंतु दुर्भाग्यवश इन आंदोलनों को करने वाले समस्या की जड़ पर नहीं, केवल लक्षणों पर प्रहार कर रहे हैं। दिल्ली बर्बरता के युवा विरोध का स्वागत है, परंतु वे कठोर कानून मांग रहे हैं और उस पुरुष विचार प्रणाली का विरोध नहीं कर रहे हैं, जिसमें स्त्री की समानता और स्वतंत्रता खारिज है।
जॉर्ज हीगल का कथन है कि भीड़ द्वारा किए गए आंदोलन तर्क नहीं, मात्र भावना से प्रेरित होते हैं। कुछ अंग्रेजी की पंक्तियों का अनुवाद इस तरह है कि 'हुजूम आगे बढ़ रहा है, उसके पास जोश है, जुनून है परंतु कोई आध्यात्मिक केंद्रीय विचार नहीं, कोई ठोस राजनीतिक आधार नहीं।' हमारा वर्तमान कालखंड ऐसे ही आंदोलनों का है, जो आदर्श के अभाव में केवल अराजकता ही रच पाएंगे। आज की राजनीतिक महाभारत गीताविहीन कुरुक्षेत्र बन गई है और प्रशासन विदुर वंचित तथा प्रजातंत्र वैदेही की तरह निष्कासित होने को है।