वैद्यजी / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी
इधर तो कई महीने से मैं बड़े संयम से रहने लगा हूँ। केवल दो बोतल व्हिस्की अब प्रतिदिन पीता हूँ। सवेरे चाय के साथ अण्डे भी केवल चार ही खाता हूँ। इसी प्रकार और भी भोजन में कमी कर दी है। फिर भी मुझे मलेरिया हो ही गया। भारतवर्ष का सबसे बड़ा शस्त्र मलेरिया है। सुनता हूँ, यहाँ क्षय रोग भी बहुत होता है। मेरी राय में तो मलेरिया तथा क्षय की सेना इतनी बली है कि भारतवासियों को किसी बैरी से लड़ने के लिये और किसी अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता ही नहीं है। इसी के द्वारा सब पर विजयी हो सकते हैं।
बीस दिन मैं सैनिक अस्पताल में पड़ा रहा। खूब कुनैन खायी। अब ज्वर तो नहीं आता, किन्तु दुर्बलता वैसी ही बनी हुई है। कई दवाइयाँ खायीं, किन्तु शरीर में जो स्वास्थ्य की पहले उमंग थी, वह कहाँ चली गयी, पता नहीं। काम में जी नहीं लगता। छः महीने की छुट्टी की अर्जी मैंने दी है। मेडिकल बोर्ड जाँच करनेवाला है। यदि छुट्टी मिल गयी तो मैं इंग्लैंड जाकर अपना स्वास्थ्य ठीक करूँगा।
मैं सब तैयारी कर रहा था। एक दिन मेरे मित्र पंडितजी आये। उन्होंने काशी या कलकत्ते जाकर किसी वैद्य को दिखाने के लिये कहा। वैद्य लोग देशी डाक्टर होते हैं। वह किसी कॉलेज में नहीं पढ़ते। आज से सात-आठ सौ साल पहले कुछ पुस्तकें लिखी गयी हैं, उन्हीं को पढ़कर वह चिकित्सा करते हैं। मुझे पंडितजी की बातें उपन्यास-सी लगीं। किन्तु उन्होंने बड़ी गम्भीरता से हमें बताया।
मैंने कहा कि दवा तो उनकी नहीं कर सकता, किन्तु कुछ भारत के सम्बन्ध में जानकारी ही बढ़ेगी, इस विचार से काशी ही जाने का निश्चय किया। कलकत्ता दूर भी था और केवल इतनी-सी बात के लिये मैं इतना व्यय करना बेकार समझता था।
पंडितजी ने जिसका पता बताया था वह मैंने गाइड को बताया। सुना कि वह काशी के बड़े विख्यात चिकित्सक हैं। गाइड के साथ चला। सड़क पर टैक्सी छोड़कर गली में जाना पड़ा। भारत के चिकित्सक लोग ऐसी जगह रहते हैं जहाँ हवा और प्रकाश भी कठिनाई से पहुँच सकें। शायद इसलिये कि उनकी दवाइयाँ खराब न हो जायें। राह में प्रत्येक दूसरे पग पर गोबर तथा कूड़ा मिलता था और रास्ता ऐसा जान पड़ता था कि नवम्बर मास में उत्तरी ध्रुव की यात्रा कर रहा हूँ; सूर्य की किरणें वहाँ आने से डरती थीं।
वैद्यजी के घर पर पहुँचा। वैद्यजी का घर बहुत बड़ा था। भारतीय ढंग से बना था। बहुत बड़ी चौकी थी। उस पर गद्दा था। उस पर उजली चाँदनी बिछी थी। चाँदनी पर मोटे-मोटे तकिये रखे हुए थे। उसी के सहारे वैद्यजी बैठे थे। वैद्यजी के बाल जर्मन क्राप की भाँति कटे थे। बड़ी मूँछें थीं। चौकी के सामने कुर्सियाँ रखी थीं। एक ओर एक आदमी सामने आँगन में बैठा एक बड़े से खरल में कुछ घास, कुछ पत्तियाँ और कुछ लकड़ी के टुकड़े बड़े जोरों से कूट रहा था, जिसके कण हवा में चारों ओर उड़ रहे थे। बैठते ही मुझे धड़ाधड़ पन्द्रह-सोलह छींक आयीं। मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। एक कुर्सी पर गाइड बैठ गया। वैद्यजी को मैंने अपने ढंग से प्रणाम किया, उन्होंने सिर झुका कर उसका उत्तर दिया।
नौ बजे दिन के समय मैं वहाँ पहुँचा। कई और रोगी बैठे थे। मैंने सोचा कि यह लोग चले जायें तो विस्तार से बातचीत करूँ। एक रोगी की वह नाड़ी देख रहे थे कि इतने में एक सज्जन ने आकर कहा - 'कल चावल का भाव एक पाव कम हो गया।' इस पर वैद्यजी ने चावल की खेती का वर्णन किया। भारत में कहाँ-कहाँ चावल होता है, कौन-कौन चावल खाने में कैसा होता है। आज से बीस साल पहले चावल का भाव क्या था। बीस मिनट उसमें लगे। इसे पश्चात् इस रोगी के सम्बन्ध में उन्होंने कितनी ही बातें बतायीं। फिर उसके लिये दवा लिखी।
दूसरे रोगी की बारी आयी। उसके रोग के सम्बन्ध में पूछ-ताछ हो रही थी कि घर में से एक नौकर आया। उनके घर की जो छत बन रही थी, उसके सम्बन्ध में कुछ कहा। अब घर बनाने की बात छिड़ गयी। इस पर भी वैद्यजी का ज्ञान बड़ा विस्तृत था। काशी के अनेक महलों का विवरण और वास्तुकला पर व्याख्यान होता रहा। पहले कैसे-कैसे मसाले होते थे। जब से ब्रिटिश लोग राज करने लगे, तब से घर भी कमजोर बनने लगे। इस बार घर बनाने के सम्बन्ध में आध घण्टे तक बातें होती रहीं। अब ग्यारह बजने को आये। मैं बहुत घबड़ा रहा था। यदि यही हाल रहा तो सन्ध्या तक मेरी बारी आयेगी।
किन्तु मैं आ चुका था। बैठा-बैठा वैद्यजी की बातें और उनके पास बैठे और लोगों की बातें भी सुनता रहा। यह लोग वैद्यजी की प्रशंसा करते जाते थे और जो कुछ वह कहते थे, उसका अनुमोदन तथा समर्थन भी कर रहे थे। बीच-बीच में पान का दौर चल रहा था। कभी-कभी आने वालों को भी वह पान अपने हाथों से दे दिया करते थे।
एक बजे के लगभग मेरी ओर वैद्यजी ने निगाह उठायी। मैं हिन्दी तो अच्छी तरह जानता था। मैंने उनसे अपना हाल कहना आरम्भ किया। उन्होंने थोड़ा ही सुना होगा कि नाड़ी के लिये हाथ माँगा। पहले बायाँ हाथ फिर दायाँ हाथ। उन्होंने पाँच-पाँच मिनट तक देखा फिर मेरे रोगों के सम्बन्ध में बताने लगे। बीच-बीच में संस्कृत में कुछ पढ़ते जाते थे या तो वह दिखाना चाहते थे कि मेरी स्मरणशक्ति बहुत तेज है या कोई मन्त्र पढ़ते जाते थे जिससे मैं अच्छा हो जाऊँ। किन्तु उन्होंने अर्थ भी बताना आरम्भ किया। सम्भवतः उन्होंने समझा कि मैं वैद्यक सीखने आया हूँ - और रोग के सम्बन्ध में लेक्चर देने लगे।
भारतीय वैद्य लोग न थर्मामीटर लगाते हैं न स्टेथस्कोप। नाड़ी की गति से ही वह शरीर के भीतर का हाल बताते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है। देखकर उन्होंने बताया कि ज्वर आपके भीतर है और वायु का भी विकार है। मैंने कहा कि मैंने तो बहुत कुनैन खायी है। डाक्टरों का कहना है कि ज्वर नहीं है। वैद्यजी ने कहा कि डाक्टरों का ज्वर तो केवल थर्मामीटर में रहता है। वह शरीर के भीतर का हाल नहीं जान सकते। डाक्टरों के ज्ञान पर उन्होंने आध घण्टे तक भाषण दिया, जिससे पता चला कि पाँच साल तक मेडिकल कॉलेज में यह लोग केवल तमाशा करते रहे।
मैं तो प्रायः सुनता ही रहा। मैंने केवल एक ही बात कही कि यह लोग मनुष्य के शरीर को चीर-फाड़कर अध्ययन करते हैं, जिसमें मानव शरीर के सम्बन्ध में उनका ज्ञान अधिक ठीक जान पड़ता है। वैद्यजी मुस्कराकर बोले - 'हाँ, मुर्दे का शरीर चीर कर देखते हैं। जिससे यह भले पता लग जाये कि कौन अवयव कहाँ पर है, किन्तु इसका उन्हें क्या पता है कि सजीव स्थिति में वह कैसे काम करते हैं।' फिर उन्होंने कुछ वायु के सम्बन्ध में भी बताया, जो मेरी समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने कहा कि तीन वायु होती हैं। वह किसी प्रकार से घूमती है। कैसे भोजन पचाती है। उन्होंने कहा कि डॉक्टरों को क्या पता है कि बहत्तर करोड़ से ऊपर धमनियाँ और उसकी शाखायें होती हैं, जिनमें वायु चक्कर करती है। मुर्दे के शरीर में इसका क्या पता लगेगा?
मैंने कहा - 'मुझे तो निरोग होने से मतलब है। मुझे वैद्यक पढ़ना है नहीं।' उन्होंने कहा कि यदि आपको विश्वास हो तो मैं चिकित्सा हाथ में ले सकता हूँ, नहीं तो नहीं। मुझे उनकी बातों से साहस हुआ। मैंने कहा कि मेरे देश में तो वैद्य नहीं हैं। इतने डॉक्टर हैं, रोगी क्या अच्छे नहीं होते? वहाँ से यहाँ अधिक रोग हैं। वैद्यजी ने कहा कि डॉक्टर लोग चीर-फाड़ अच्छा कर सकते हैं, किन्तु असाध्य रोगों की चिकित्सा नहीं कर सकते। मैंने इंजेक्शन और ग्लैंड (गिलटियों) द्वारा चिकित्सा के सम्बन्ध में उनसे कहा। उन्होंने कहा कि यह सब राक्षसी चिकित्सा है। आपने इंजेक्शन निकाला है तो हम लोगों ने बहुत पहले हीरे का, सोने का, पारे का भस्म निकाला है। एक खुराक में ही चमत्कार दिखा देता है। किन्तु लोग पैसा नहीं देना चाहते। मेरे पास दस हजार रुपये तोले की हीरे की भस्म है। उन्होंने कहा कि हमारे वैद्यों के देवता धन्वंतरि दवा की पोटली लिये जा रहे थे और एक पोटली कुएँ में गिर गयी। अभी तक उस कुएँ का पानी औषधिपूर्ण है। आज भी पीकर लोग अच्छे हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि मेरे पास ऐसी दवा है कि मरनेवाले को अदरख के रस में घिसकर पिला दीजिये तो उठ बैठे। क्षय रोगवाले को दिया जाये तो अवश्य अच्छा हो जाये किन्तु कौन लेगा।
मैंने कहा कि मुझे विवाद तो करना नहीं है। अच्छा होना है। उन्होंने कहा - 'दो रुपये खुराक दवा होगी। पन्द्रह दिन के लिये ले जाइये।' मैंने दस-दस के तीन नोट उनके हवाले किये और वहाँ से दो बजे होटल की ओर चला।
समय की गिनती वैद्यों के यहाँ नहीं होती, केवल रुपयों की होती है। जिसके पास और कोई काम न हो, वह तो इनके द्वारा चिकित्सा खूब करा सकता है। मैंने सुना, चार घण्टे वैद्यजी पूजा करते हैं। चलने लगा तो वैद्यजी ने कहा कि रविवार, मंगलवार और शनिवार को न आइयेगा। पूर्णमासी और अमावस्या को भी नहीं। मैं प्रत्यक्ष रूप से तो इनकी दवा नहीं कर सकता था। क्योंकि सैनिक डॉक्टर के सिवाय और किसी की दवा हम लोग नहीं कर सकते। चोरी-चोरी मैं आया था और चोरी-चोरी इनकी दवा आरम्भ की। देखिये क्या परिणाम होता है। शराब और अण्डा वैद्य जी ने बन्द कर दिया।