वैधानिकता का मोह / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
बहुतेरे माने बैठे हैं कि हमारी शेष लड़ाई वैधानिक ही होगी। अक्टूबरवाली क्रांति के पहले लेनिन ने भी ऐसा ही कहना शुरू किया था। मगर उसकी पैनी दृष्टि ने वास्तविकता को जल्दी ही देखा। आजादी मिलने के बाद , इतिहास साक्षी है , वैधानिकता का मोह सभी देशों में सर पर सवार हुआ और किसान-मजदूर उसी मृगमरीचिका के पीछे मारे गए। वे शासनशक्ति को हथिया न सके। लेनिन ने भी उसी सनातन पक्ष को अपनाना चाहा था। मगर उसकी आँखें जल्द खुलीं। हम समझते हैं वही अंतिम परीक्षा थी। कमानेवाली जनता को शासन की गद्दी पर बिठाने की तमन्नावालों को वह मोह-माया सदा के लिए त्याग देना चाहिए। अधिनायकतंत्र और फासिज्म के उदय के बाद तो विधानवाद के लिए कहीं स्थान रह ही न गया। आजादी की रक्षा के नाम पर भारत में एकतंत्र शासन को भी फीका बना देनेवाला जो अंधा दमन चालू है हमारी आँखें खोलने के लिए वही पर्याप्त है। इधर चुनावों के जो कुछ कटु अनुभव हुए हैं वे चिल्लाकर बताते हैं कि वैधानिकता के दिन लद गए। अधिकारारूढ़ दल गद्दी कायम रखने के लिए कोई भी काम गाँधीजी के नाम पर कर सकता है। वह किसी भी हद तक नीचे जा सकता है। इसलिए चुनावों के द्वारा बहुमत तभी हो सकता है जब क्रांतिकारी ताकतें शत्रुओं की कमर तोड़ दें। शासनचक्र को अछूता रख कर सिर्फ मंत्रियों के बदलने से किसान-मजदूर राज्य कभी कायमन होगा। समस्त शासन चक्र मटियामेट कर नयी सृष्टि बनानी होगी। नहीं तो नये मंत्री उसी चक्र को चलाने में ही फँसेंगे। मार्क्सवाद यही है और उसके सिवाय दूसरा रास्ता नहीं।