वैन अंकल ओ वैन अंकल / सुरेश कुमार मिश्रा
मुझे स्कूल वैन चलाने से ज़्यादा बच्चों को वैन में चढ़ते, बैठते, शरारत करते और धूम-धड़ाका मचाते देखना अच्छा लगता है। मेरी उम्र पचास पार कर चुकी है। मैं और मेरी पत्नी कहने को तो दो हैं, लेकिन निस्संतान होने के कारण अपने-अपने अकेलेपन में खोए रहते हैं। पत्नी मेरी सेवा में इतनी व्यस्त रहती है कि मानो मैं ही उसकी संतान हूँ। लेकिन है तो एक औरत ही न! उसे भी बच्चों की किलकारी सुनने, देखने का मन करता ही है। मुझे बहुत सारी नौकरियाँ मिलीं। लेकिन स्कूल वैन चलाने का जब अवसर मिला तो उसे मना न कर सका। बच्चों का सुख देखने को जो मिल जाता है! इसी बहाने पत्नी मेरे साथ वैन में चढ़ती और बच्चों को घर से स्कूल और स्कूल से घर उतारती थी। बच्चों का स्कूल और घर आते-जाते हाय, हैलो, टाटा करना मुझे और मेरी पत्नी की ढलती उम्र के लिए किसी संजीविनी बूटी से कम न था। मानो इसी औषधि से हम दोनों जीवन गुजर बसर कर रहे थे।
जब से कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन आरंभ हुआ हम दोनों की दशा बताने लायक नहीं रही। किसे बताएँ क्या बताएँ? बच्चों को देखने का सुख छूटा तो छूटा साथ ही नौकरी भी छूट गयी। अब खाने के लाले पड़ गए थे। इतने वर्षों में पहली बार बेरोजगारी का अभिशाप हमें त्रस्त कर रहा था। खाने-पीने की सामग्री कुछ ऐसे नदारद हो रही थी जैसे मुट्ठी से रेत। जैसे तैसे ज़िन्दगी तो गुजर बसर कर रहे थे, लेकिन बच्चों को न देख पाने का दुख कुछ ज़्यादा ही खाये जा रहा था। घर के सामने पड़ा वैन हमेशा उन बच्चों की याद दिलाता। रह-रहकर तड़पाता। यह बताने का प्रयास करता ज़िन्दगी थमती जा रही है। कानों में अक्सर "वैन अंकल-वैन अंकल" की आवाज़ें गूँजती थीं। उम्र की ढलान पर पड़े हम दोनों को बच्चों की याद जीने नहीं दे रही थी। लॉकडाउन ने बेरोजगारी के साथ-साथ निस्संतान होने का दुख भी अभिशाप में दिया था।
गाढ़ी नींद में लेटे अपने पति को उठाने का प्रयास करती पत्नी, आखिरकार थक-हार गयी। दुनिया के लिए वह बेरोजगार था। था तो वह "वैन अंकल" ही। फिर से "वैन अंकल" कहलाने का सुख न मिलने की निराशा में वह इस दुनिया को अलविदा कह चुका था।