वैश्विक हिन्दी हाइकु का उत्कृष्ट संकलन: स्वर्ण-शिखर / शिवजी श्रीवास्तव
हिन्दी हाइकु अब केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के अनेक देशों में लोकप्रिय हो रहा है। विविध देशों के अनेक साहित्यकार हिन्दी हाइकु-लेखन को नवीन ऊँचाइयाँ प्रदान कर रहे हैं। वस्तुतःहिंदी हाइकु को वैश्विक धरातल पर प्रतिष्ठित करने में श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' एवं डॉ.हरदीप कौर सन्धु द्वारा सम्पादित हिन्दी हाइकु वर्डप्रेस डॉट कॉम वेब की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसने 2010 से अनवरत हिन्दी हाइकु प्रकाशित करके इतिहास रचा। इन्हीं दोनों साहित्यकारों के कुशल सम्पादन में स्वर्ण-शिखर नाम का हाइकु संग्रह प्रकाशित हुआ है, जिसमें वैश्विक धरातल पर प्रतिष्ठित चालीस हाइकुकारों के बारह सौ से अधिक हाइकु संकलित हैं। स्वर्ण-शिखर शीर्षक प्रतीक रूप में इस बात का द्योतक है कि संकलन में शिखर पर स्थित स्वर्ण के समान कांतिवान हाइकु को संगृहीत किया गया है।
संकलन के फ्लैप-कवर पर डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री ने इसके महत्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
संकलन के समस्त हाइकु विषय की दृष्टि से वैविध्य लिये हुए हैं। इन हाइकु में प्रकृति के विविध रूप तो हैं ही साथ ही, मानव मन और जीवन की विविध समस्याओं के भी प्रभावी चित्र हैं। आज का जीवन निरन्तर जटिल होता जा रहा है। इस जटिलता को संग्रह के अनेक हाइकु में देखा जा सकता है, उदाहरणार्थअपार्टमेंट-संस्कृति ने जीवन को कितना सीमित कर दिया है, इसे सुदर्शन रत्नाकर जी ने इस हाइकु में कितनी सहजता से व्यक्त किया है-आँगन छूटा / बालकनी में टँगा / आज जीवन।
वर्तमान की त्रासद स्थितियों, भूख, अभाव, भौतिक संस्कृति से उत्पन्न स्वार्थपरता इत्यादि अनेक विषयों को संग्रह के हाइकु में देखा जा सकता है यथा-
रात गुज़ारें / रोटी की चर्चा कर / भूख को मारें। (हरेराम समीप),
सेल्फी जैसे ही / मिलते एडिटेड / आज के रिश्ते। (सुशीला शील राणा) ,
हल्कू उदास / फिर आई बैरन पूस की रात। (डॉ. शिवजी श्रीवास्तव) ,
भव्य बंगला / खोजती विधवा माँ / कक्ष अपना। (सुनीता अग्रवाल नेह) ,
टूटा छप्पर / कम्बल न रजाई / निर्धन-कुटी। (भावना सक्सैना),
वक्त खोया है / धमाकों में बमों के / तख्त सोया है (डॉ. उमेश महादोषी) ।
इन हाइकु को देखकर समझा जा सकता है कि जीवन की तमाम विसंगतियों, त्रासद स्थितियों और अभावजन्य पीड़ाओं को व्यक्त करने में हाइकु विधा सक्षम है।
हाइकु अपने मूल स्वरूप में प्रकृति की कविता रही है, अतः अधिकतर हाइकुकारों का प्रिय विषय प्रकृति ही है। इस संग्रह में सम्मिलित प्रकृति सम्बन्धी विविध हाइकु को देखकर कहा जा सकता है कि प्रकृति के समस्त परम्परागत रूपों का चित्रण हाइकुकारों ने किया है; पर मानवीकरण तो प्रायः प्रत्येक हाइकुकार को प्रिय है, यथा-
थकी थी नदी / सागर की बाहों में / बेसुध गिरी। (प्रीति अग्रवाल) ,
चाँद उतरा / सीपियों के अँगना / सिंधु मचला। (अनिता ललित), जेठ की गर्मी / झुरमुटों में सोई / गुस्सैल हवा। (रमेश सोनी),
ताल के गाल / रश्मि की छुवन से / हुए हैं लाल। (डॉ.पूर्वा शर्मा)
जापान से आई इस विधा को हिन्दी ने पूर्णतः आत्मसात कर लिया है इसीलिए इसके बिम्ब, प्रतिमान, मुहावरे, परिवेश सभी में भारतीयता है। हिन्दी कविता के अन्य रूपों की भाँति हाइकु में भी सांस्कृतिक प्रतीकों के साथ अलंकारों, रसों एवं शब्द शक्तियों इत्यादि का समावेश हो रहा है, उदाहरण हेतु कुछ हाइकु देखे जा सकते हैं, जिनमें सांस्कृतिक प्रतीक आलंकारिक सौंदर्य के साथ अभिव्यक्त हुए हैं-
सूरज मोड़े / संध्या के छज्जों पे / अपने घोड़े। (भीकम सिंह) ,
सूर्य को अर्घ्य / आस्था के कलश की / अटूट धार। (मीनू खरे),
अम्मा ने रोपा / तुलसी का बिरवा / पावन घर। (मंजूषा मन) ,
डाली-पांचाली / बसन्त कृष्ण रोके / चीरहरण। (ज्योत्स्ना प्रदीप) , चिड़िया आती / कबीर के सबद / भोर में गाती। (रमेश गौतम)
इसी प्रकार के अनेक हाइकु हैं जिनका सौंदर्य भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में ही पूर्ण रूप से प्रकट होता है। इनके साथ ही परम्परा से प्रेम, उनके टूटते जाने की पीड़ा और अतीत-मोह के अनेक उत्कृष्ट हाइकु भी संकलन में विद्यमान हैं-
गीजर-युग / धूप में रखा पानी / यादों में दादी। (पुष्पा मेहरा) ,
अम्मा है रोती / सूने घर में जब / रोटियाँ पोती। (प्रियंका गुप्ता) ,
घर में वृद्ध / वट-सा छतनार / मिला आश्रय। (डॉ. आशा पाण्डेय) ,
सूखे हैं फूल / किताबों में मिलती / प्रेम की धूल। (शशि पुरवार)
निःसन्देह विविध विषयों एवं भाव रश्मियों से सुसज्जित वैश्विक हिन्दी हाइकु का यह उत्कृष्ट संग्रह स्वर्ण-शिखर हिन्दी हाइकु-इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण संग्रह सिद्ध होगा।
स्वर्ण-शिखर (वैश्विक हाइकु-संग्रह) -सम्पादक: रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, डॉ. हरदीप कौर सन्धु
प्रथम संस्करण-2021, मूल्य: 350.00रुपये, पृष्ठ: 160, प्रकाशक-अयन प्रकाशन, जे 19 / 39, राजापुरी, उत्तम नगर नई दिल्ली-110059