वोल्गा / शायक आलोक
वोल्गा के किनारे के उस छोटे गाँव से जब वह लडकी भागी तब उसके जन्म पर उसके कसाई पिता द्वारा रोपा गया तिकोने पत्ते वाला पेड़ सत्रह साल का था। कहते हैं उस रात खूब बर्फ पड़ी थी और घर से बाहर को जाते उसके पैरों के निशान क्षण में मिट गए। उसके पिता ने उसकी प्लास्टिक की गुडिया को उसी तिकोने पत्ते वाले पेड़ की एक डाल से नायलोन की रस्सी से जोर से बाँध दिया और उसे भुला दिया। फिर बरस बीत गए। सत्रह साल की वह लड़की सात साल की अपनीबेटी के साथ वापस लौटी। पिता का घर अब भी वहीं था पर पिता नहीं थे। पिता को याद कर उसने खूब आंसू बहाए। पिता का वह तिकोने पत्ते वाला पेड़ भी अपनी जगह नहीं था। उसने उस पेड़ के लिए भी आंसू बहाए। उसके आंसुओं से बर्फ में सूराख बन गया जहाँ उसे अपनी प्लास्टिक की गुडिया मिली। गुडिया की पीठ प्लास्टिक के धागों से सिली थी। पीठ खोलने पर उसे एक पत्र मिला।
“इरीना स्लालोवा, मेरी प्यारी बेटी।। उस रोज तुम्हें पेड़ से बाँध कर मैंने सजा दी थी औरफिर तुम्हें माफ़ कर दिया। तुम्हारा घर में नही होना ऐसा ही है जैसे रसोई में सुबह शाम तुम्हारे लिए गोश्त पकाते रसोई की खिड़की से मेरे प्यारे तिकोने पत्ते वाले पेड़ का न दिखना। यह पीड़ा मुझे यहाँ रहने नही देगी। अपना प्यारा पेड़ लिएजा रहा हूँ, तुम्हारी प्यारी गुडिया यहाँ रख छोड़ी है। “
...कहते हैं उस रात फिर खूब बर्फ पड़ी और घर को लौटे उसके पैरों के निशान क्षण में मिट गए।