वो अजनबी / लावण्या नायडू
दिसम्बर की सर्द रात थी। किसी अपरिहार्य परिस्थिति में मुझे अकेले सफर करना पड रहा था। कोहरे की वजह से सारी ट्रेनें देरी से चल रही थी। मैं समय पर स्टेशन पहुँच गई। स्टेशन आकर पता चला ट्रेन 5 घंटे देरी से चल रही हैं। छोटा स्टेशन था अौर ज्यादा भीड़ भी नहीं थी। मेरी टिकट एसी कोच की थी इसलिए मैं एसी यात्रीयों के विश्राम कक्ष में बैठने चली गई। वहाँ केवल दो ही यात्री बैठे थे। मैं दरवाजे के पास वाली कुर्सी पर बैठ गई। थोड़ी देर में उनमे से एक यात्री उठकर चला गया शायद उसकी ट्रेन आ गई होगी। अब वहाँ केवल मैं अौर वह पुरुष यात्री थे। चारों तरफ सन्नाटा पसरा था।
थोड़ी देर बाद 3 आदमी अंदर आने के लिए बाहर एंट्री करवा रहे थे। अचानक जो सज्जन पहले से कक्ष में मौजूद थे वे उठकर मेरे बगल कि एक कुर्सी छोड़कर बैठ गए। हम दोनों के बीच कि खाली कुर्सी पर उन्होनें अपना बैग रख दिया। वो तीन नए यात्री थोड़े अजीब लग रहे थे पर न जाने क्यों उस अजनबी के बाजू में बैठे रहने से मुझे सुरक्षित महसूस हुआ। रात बढते-बढते थंड भी बढ़ने लगी। कुछ देर बाद एक चाय बेचने वाला लडका कक्ष के अंदर आया। अजनबी ने उसे आवाज देकर 2 कप चाय देने को कहा अौर एक कप मुझे देने इशारा कर दिया। मैने भी बिना कुछ कहे चाय का कप उस लडके के हाथ से लेकर पैसे देने ही वाली थी कि उस अजनबी ने पैसे देकर उसे चलता किया।
देखते देखते 5 घंटे बीत गये अौर मेरी ट्रेन आने की घोषणा भी हो गई। मैं उठकर चल दी। बाहर निकलते हुए दरवाजे के पास रुक कर मैं पीछे पलटी अौर मुस्कुराकर आंखों से उस अजनबी यात्री को धन्यवाद दिया मुझे सुरक्षित महसूस करवाने के लिये। उस अजनबी यात्री ने भी केवल पलकें झपकाकर मुस्कुरा दिया जैसे कह रहा हो ये तो मेरा फर्ज था। मैं पलटकर अपनी ट्रेन की तरफ बढ़ चली ये सोचते हुए कि दुनिया में अब भी अच्छे लोग हैं।