वो उससे मिला था / अनघ शर्मा

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"वो उससे मिला था।" , लड़कियों के झुंड में से एक आवाज गूँजी.

"कब, कहाँ?" तूने कहाँ देखा? किसी ने पूछा।

"कल वही बस अड्डे पर देखा था दोनों को, वह आठ चालीस की बस से चली गई और वो..."

"और वह क्या?"

"और वह साढ़े नौ की बस से चला गया।"

"और तुम क्या करतीं रहीं वहाँ साढ़े नौ तक?"

"मैं तो कल कॉलेज आई ही नहीं थी, मैं तो कल बाज़ार गई थी।"

"बाजार गई थी या नम्रता का पीछा कर रही थी।"

"धत, उसने कहा।"

और फिर हँसते-हँसते सब चले गए.

सब चले गए. वह सब चले गए. एक-एक करके सब चले गए. ताहिरा चली गई, निम्मी चली गई, वसंतसेना भी चली गई. तीन पन्नों में सिमटी वसंतसेना भी चली गई, वह तो गणिका थी उसे तो जाना ही था।

"पर मैं, मैं कौन हूँ?"

ये मैं, मैं, मैं की उत्सुकता, उत्कंठा का कहीं पार नहीं। कैसा समंदर है जहाँ से कोई निकास नहीं, कोई पुल नहीं पार करके जाने को। पुल तो था पर टूट गया। पानी के एक ही थक्के से पुल टूट गया और बहा ले गया अपने साथ तीन साल। जो कहीं और होते तो पता नहीं कैसे गुजरते?

पर जैसे गुजरे वह भी तो बुरे नहीं गए. साफ, मीठे से किसी फल की तरह। अपने मरा के साथ कैसा वक्त गुजारा मैंने कितना अच्छा, सुखद पर अब?

मरा, मरा, कैसा मीठा नाम है। पर नाम तो कुछ और ही था। क्या था? याद नहीं अब। कभी कॉलेज के किसी ड्रामे में उसने मंगत राम नाम का पार्ट प्ले किया था, धीरे-धीरे वह पूरे कॉलेज में पहले मंगत राम और बाद में मरा के नाम से मशहूर हो गया। उसका मरा, सब यही कहा करते थे।

"मेरा था, वह मेरा था, सबको यही लगता था।"

"पर वह मेरा हो न सका।"

सब बदल गया। वह बदल गया जिसे वक्त कहा जाता है। मैं, वह जहान सब बदल गया।

नम्रता नीचे आ जल्दी, निम्मी ने आवाज लगाई, देख ताहिरा आई है, तेरे लिए मेहँदी लाई है। जल्दी आ कर लगवा ले, गर्मी में रंग अच्छा चढ़ेगा।

"पता नहीं ताहिरा ये आजकल क्यों मुरझाई रहती है। पता है तुझे ताहिरा पापा जी ने पूरे चालीस हजार रुपये खर्च कर ये बिजलियाँ लगवाई हैं। मेरी शादी में तो कुल दस हजार की ही थी, अभी कुल दो ही साल हुए हैं मेरी शादी को बताओ." निम्मी ने एक ठंडी साँस छोड़ते हुए कहा। उस पर भी इनके नखरे, राम ही निभाए इनसे तो।

चालीस हजार, हाय अल्लाह! ऐसा क्या है इन बत्ती की लड़ियों में, बल्ब ही हैं कहीं सितारे थोड़े ही टाँक रखे हैं। ठग लिया तुम्हारे पापा जी को लाइट वाले ने कहते-कहते ताहिरा की आँखें फैल गईं।

चालीस हजार-चालीस हजार उड़ते-उड़ते ये शब्द छत पर खड़ी नम्रता के कानों से कई बार टकरा-टकरा के निढाल हो कर गिर पड़े। बहुत देर बाद जब वह नीचे आई तो ताहिरा मेहँदी तैयार कर के खड़ी थी। आजा मेरी बन्नो मेहँदी लगवा ले ताहिरा ने कहा, सुन ये ले बड़ी मुश्किल से बिब्बन की मृच्छकटिक में से तीन पन्ने फाड़ कर लाई हूँ। चोरी से लाई हूँ अब शाबाशी दो चोर को बेगम। बड़ी पैनी नजर रखती है बिब्बन अपनी किताबों पे।

"सुन एक बात बोलूँ, ताहिरा ने कहा।"

"हाँ"

" जो गुजर गई उसे भूल जा। तमाम दुनिया की लड़कियों की शादी होती है बी.ए. के बाद। अब उस मंगतराम के चक्कर में भी मत फँसना। बड़ी मुश्किल में है तेरे पापा जी, आगे तो तू समझदार खुद ही है।

धूल, गुबार, तूफान, बारिश ही बारिश। चारों ओर पानी ही पानी, रेला ही रेला। सिर्फ़ सैलाब ही सैलाब।

कहाँ जाऊँ मैं? कहाँ जाऊँ? हर एक मिनट ये ही बातें उसके कानों में गूँजती रहीं। बीमार पति और तीन महीने की बच्ची, न दवा न दारू, न कोई आसरा। पर जाना तो होगा, ऐसे तूफान में ही जाना होगा। बूँदों के नश्तर लपक-लपक कर उसके चेहरे को छीलते रहे पर वह रुकी नहीं। एक कदम और बस पुल पार करते ही तो है दवाखाना। बस थोड़ी दूरी में ही पुल पार। बीच पुल में एक हवा का झोंका और एक ही झटके में पुल जमीन से अलग। पानी में उसके डूबते ही कोई और भी कूद पड़ा। दरिया के सैलाब में उसके डूबते हाथ को किसी ने थाम लिया। उसने चेहरा उठा के अपने रहनुमा को देखा। माजी का किसी मोड़ पर यूँ मिलना इतना सैलाब लाएगा किसी को क्या पता। मंगतराम बस इतना ही उसके मुँह से निकला और होश गायब।

जब उसे होश आया तो दोनों दूसरे किनारे पर थे। भँवर ही भँवर था चारों तरफ। इस भँवर में सब डूब गया दीन, ईमान, खुदा, बच्ची, पति सब डूब गया।

सब गुजर गया नम्रता, एक बार यूँ ही सोया ईमान जाग गया उसका। कौन जाने वह बीमार अब अच्छा होगा भी या नहीं? कैसे काटे होंगे उस बच्ची ने ये पहाड़ से तीन साल? भाग जा नम्रता, भाग जा। कौन जानता है तुझे यहाँ?

और वह भाग गई, उसके बटुए में से पैसे निकाल कर भाग गई. वह सब झूठ जिन्होंने जेवर सरीखे उसे बाँध रखा था, सब छोड़ कर भाग गई.

छूटे देश में सब बदल गया। रातें बदल गई, दिन बदल गए. दरिया के बहते किनारे बदल गए. जिस पति के लिए तीन साल की खुमारी के बाद वह प्रेमी को छोड़ आई थी। उसे ही वह सैलाब ले बहा।

"मेरी बच्ची।"

"वो तो अपनी ननिहाल में है। बड़ी मुश्किल से जीती रही तीन महीने की बच्ची। दो दिन बेहोश रही।"

तुम कहाँ रही बेटी? किसी ने पूछा।

सौ झूठ, सौ पर्देदारी, एक सच पर उसने इतने कफन लपेटे कि खुद, खुदा भी आ जाएँ तो सच ढूँढ़ न पाए.

वक्त के चनाब में दिन-रात तैरते रहे, दिन सालों में एहतियातन बदलते रहे। छूटी बेटी को जबसे उसने दुबारा गले लगाया तब से एक पल छोड़ा ही नहीं और उसका अब था भी कौन उसके सिवाय।

"कल तो हमारी बेटी का जन्मदिन है। उसे नाना के घर घुमाने ले जाएँगे। सुबह बस में बिठा कर ले जाएँगे।"

खिड़की के सहारे से बैठी नम्रता के गले लग-लग कर हवा बस में गई.

"जाओ बेटा कंडक्टर अंकल से डेढ़ टिकट ले लो, अपनी उम्र पाँच साल ही बताना।" उसने बच्ची से कहा।

माँ से पैसे लेकर बच्ची टिकट लेने चली गई.

"अंकल डेढ़ टिकट दे दो लालपुर के."

"कितने लोग हैं?" कंडक्टर ने पूछा।

"मैं और मेरी मम्मी।"

"आप तो काफी बड़े हैं आपका तो पूरा टिकट लगेगा।" , कंडक्टर ने कहा।

"पूरा कैसे लगेगा? अभी तो ये पाँच साल की ही है।" पीछे से माँ ने कहा।

कंडक्टर ने पलट कर माँ को देखा।

सब ठहर गया। अतीत जब पलट कर आता है तो सब ठहर ही जाता है।

चलती बस में भी उन दोनों के लिए सब ठहर गया। हवा, शोर, गति सब रुक गए. मरा उसकी बुदबुदाहट से बस इतना ही निकला। अतीत से निकल एक बार फिर वह उससे मिला था।