वो जब याद आए, बहुत याद आए / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 31 जुलाई 2018
आज ही के दिन 1980 में मुंबई में झमाझम बारिश हो रही थी। मोहम्मद रफी साहब की अंतिम यात्रा में मौजूद किसी भी आदमी ने अपना छाता नहीं खोला और न ही रेनकोट पहना। गम की घटाएं गहरी और स्याह थीं परंतु गहरे दुख के कारण किसी ने अपने को वर्षा से बचाने का प्रयास नहीं किया। हर किसी के अवचेतन में रफी साहब का कोई न कोई गीत गूंज रहा था मानो ऊपर वाले से प्रतिवाद कर रहा हो कि हमारी इस आवाज को आप कैसे खामोश कर सकते हैं। उन्होंने लगभग 26 हजार गीत गाए, जिनमें गजल, भजन एवं प्रेमगीत इत्यादि शामिल थे। यह रफी साहब का ही कमाल था कि वे संजीदा दिलीप कुमार एवं हंसोड़ जानी वॉकर के लिए विविध ढंग से पार्श्व गायन करते थे। उन्होंने महान गायक किशोर कुमार के लिए भी पार्श्व गायन किया है।
रफी साहब का जन्म 24 दिसम्बर 1924 को अमृतसर शहर के निकट कोटला सुल्तान नामक कस्बे में हुआ था। अपनी किशोर अवस्था में रफी साहब अपने बड़े भाई की बाल काटने की दुकान पर वक्त गुजारते थे। उनकी दुकान के सामने एक फकीर गीत गाते गुजरता था और वे भी उसी गीत को दोहराते थे। उनके बड़े भाई हमीद ने उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान का शागिर्द बनने की प्रेरणा दी।
एक जलसे में बिजली गुल होने के कारण सहगल साहब ने गाने से इनकार कर दिया। किशोर वय के रफी ने बिना माइक ही गीत गाया जिसे वहां मौजूद संगीतकार श्याम सुंदर ने सुना और उन्हें अपने लिए गाने का न्योता दिया। 1944 में 'गुल बलोच' नामक फिल्म में पंजाबी भाषा का गीत गाया। नौशाद ने उन्हें 'अनमोल घड़ी' में गीत गाने का अवसर दिया। नौशाद की ही 'बैजू बावरा' के लिए गाए गीतों ने रफी साहब को अपार लोकप्रियता दी। उनका गाया हुआ भजन 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' गली-गली गांव-गांव गूंजा। सचिन देव बर्मन और शंकर जयकिशन ने भी उनसे गीत गवाए। संगीतकार ओपी नय्यर ने रफी और आशा भोंसले की आवाज में युगल गीत रिकॉर्ड किए।
रफी साहब ने गीत गाते समय कभी इस बात को महत्व नहीं दिया कि यह छोटे बजट की फिल्म है या बड़े बजट की फिल्म है, इसमें शिखर सितारे हैं या चरित्र भूमिका अभिनीत करने वाले कलाकार हैं। खाकसार की फिल्म 'शायद' के लिए रफी साहब ने गीत गाया 'मैं कोई फूल नहीं कि मुरझा जाऊंगा, खुशबू बनकर हवा में फैल जाऊंगा'। फिल्म का बजट कम था और संगीतकार मानस मुखर्जी भी स्थापित नहीं हुए थे। अत: रफी साहब से गुजारिश की कि वे अपना मेहनताना कम रखें। उनका जवाब था कि जो भी मर्जी हो, वह दे देना। गीत के ध्वनि मुद्रण के बाद उन्हें पारिश्रमिक दिया। उन्होंने पूरा धन मानस मुखर्जी को दे दिया। वह मानस मुखर्जी के संघर्ष का दौर था। यह संभव है कि उसी धन से खरीदा गया दूध मानस ने अपने पुत्र को पिलाया हो गोयाकि उनके पुत्र शान ने रफी साहब के दिए गए धन से खरीदा दूध पिया हो। आज शान पार्श्व गायन क्षेत्र में सितारा हैसियत रखते हैं। इतना ही नहीं, आज सारे देश में रफी साहब के गीतों को अन्य गायक गाते हैं। यादें रफी जश्न अनेक जगह मनाया जाता है। इस माध्यम से उभरते हुए पार्श्व गायकों को रोजी रोटी मिल जाती है।
एक दौर में लता मंगेशकर ने 'पार्श्व गायकों को भी संगीत की रॉयल्टी में अपना शेयर मिलना चाहिए' इस उद्देश्य से पार्श्व गायन क्षेत्र में एक अघोषित हड़ताल की। उस दौर में रफी साहब ने गीत गाए। उनका कहना था कि निर्माता पार्श्व गायक को धन देता है, साजिंदों की फीस चुकाता है। निर्माता ही फिल्मांकन पर धन खर्च करता है, अत: रॉयल्टी में अपना शेयर मांगना जायज नहीं है। लता मंगेशकर और रफी साहब के बीच अबोला कुछ समय तक कायम रहा परंतु दोनों ही अपनी कला के प्रति समर्पित कलाकार थे। अत: सुलह भी हो गई।
1963 में 'पारसमणि' फिल्म में उभरते हुए संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने रफी साहब से गीत गवाया - 'वो जब याद आए, बहुत याद आए, गमे जिंदगी के अंधेरे में हमने चिराग ए मोहब्बत जलाए बुझाए, वो जब याद आए…'। यह अत्यंत अल्प बजट की सितारा विहीन फिल्म थी परंतु रफी साहब ने इसे इस तरह डूबकर गाया कि आज इतने बरस बाद भी वह गीत याद आता है। रफी साहब का समर्पण और अनुशासन बेमिसाल रहा। उनके द्वारा गाए गीतों की संख्या पर कुछ विवाद है परंतु उनकी आवाज का जादू आज भी कायम है। आज भी बारात में बैंड मास्टर रफी साहब के गीत बजाते हैं। सबसे मजेदार बात यह है कि बारात में रफी साहब का गीत 'ये देश है वीर जवानों का' बजाया जाता है।
इस तरह बारात एक सेना के कूच करने की तरह लगती है। बारात का सारा तामझाम आक्रमण करने वाली सेना की तरह होता है। दूल्हे के पास खंजर या तलवार होती है जिससे वह दुल्हन के द्वार पर लगे नारियल पर वार करता है, जैसे एक विजेता पराजित देश में प्रवेश कर रहा हो। अजब गजब भारत की हर रीत निराली है और तमाशबीन बने रहना ही उचित है।