वो तेरा घर, ये मेरा घर / मालती जोशी
आज खाने की मेज पर अरसे बाद पिंकी चहक रही थी । पी.एम.टी की परीक्षा सानंद संपन्न हो जाने से वातावरण हल्का हो गया था । इतने दिनों तक एक तनाव-सा व्याप्त था । घर पर भी और बच्चों के मन पर भी । प्रसन्ना का सेकंड सेमिस्टर परसों ही समाप्त हुआ । आज पिंकी भी फ्री हो गई थी । अब रिजल्ट की चिंता कुछ दिनों के लिए मुल्तवी रखकर आजादी का जश्न मनाया जा सकता था ।
खाने की मेज पर उसी की प्लानिंग चल रही थी । तरह-तरह के सुझाव और तरह-तरह की फरमाइशें । मि.प्रसाद ने बच्चों के उत्साह पर ब्रेक लगाते हुए कहा, “तुम लोग शायद भूल रहे हो कि पापा के ऑफिस में समर वेकेशन जैसी, कोई चीज नहीं होती ।”
“तो आप आराम से घर में बैठे रहिए ।” बच्चों की माँ ने तुनककर कहा “लेकिन मैं दस-पंद्रह दिनों के लिए कहीं जरुर जाऊँगी । आपको तो दफ्तर के अलावा कुछ सूझता ही नहीं है । इन दोनों की टेंशन मैंने अकेले झेली है । आय नीड ए चेंज बेडली ।”
"मैं सोच रहा था...” मि.प्रसाद ने झिझकते हुए कहा और चुप हो गए ।
“क्या सोच रहे थे आप ? अब कह भी डालिए ।”
“यही कि इस शनिवार- इतवार सागर जाकर बाबूजी को लिवा लाता।”
“ओह नो !”बच्चों ने कोरस में कहा, तो माँ ने उन्हें आँखों से डपट दिया और बोलीं,“इतनी जल्दी ?”
“जल्दी कहाँ ? उन्हें गए दो महीने से ऊपर हो गए हैं। इतने दिन वे बेटी के यहाँ कभी रहे हैं?”
“क्या पापा, आप भी बेटा-बेटी करने लगे हैं। ये सब फिजूल की बातें हैं।”
“अपने लिए होंगी, पर बाबूजी तो पुराने ढर्रे के व्यक्ति हैं। उनके लिए ये बातें बहुत महत्त्व रखती हैं। अब इस उम्र में यह आशा करना कि वे अपनी सोच बदल लेंगे, बेकार है। यह तो ठीक है कि माया की स्वतंत्र गृहस्थी है, इसीलिए वे दो महीने वहाँ टिक भी गए । छाया के यहाँ तो उसके सास-ससुर, जेठ-देवरों के बीच दो दिन भी नहीं रह पाते।”
बच्चों ने फिर बहस नहीं की । चुपचाप खाकर उठ गए । पत्नी ने टेबल समेटते हुए फूछा, ‘सुनिए ,क्या इसी हफ्ते जाना बहुत जरूरी है ?”
वे प्रश्नार्थक नज़रों से पत्नी को देखते रहे ।
“नहीं, मैं सोच रही थी, बच्चे थोड़ा रिलेक्स कर लेते । अभी-अभी तो बेचारे फ्री हुए हैं।”
बच्चों को रिलेक्स होने के लिए कौन मना कर रहा है ?”
“आप समझते नहीं हैं। बड़े-बुजुर्ग घर में होते हैं तो थोड़ा बंधन तो हो ही जाता है। बच्चों के हँसने-बोलने पर, खाने-पीने पर बंदिश लग ही जाती है।”
“तो तुम चाहती हो, बाबूजी को वहीं रहने दूँ ?” उनका स्वर थोड़ा तल्ख था।
पत्नी ने नरमाई से कहा, “नहीं, मेरा मतलब था, आठ-दस दिन और सही। फिर तो हमीं को ...”(वे तय नहीं कर पाईं कि ‘झेलना’ कहें कि ‘भुगतना’ कहें। पति की नाराजगी के डर से उन्होंने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया।)
कई बार अनकहे शब्द भी बहुत कुछ कह जाते हैं। मि. प्रसाद भी उन अनकहे शब्दों को भली भाँति पढ़ गए। उन्हें वितृष्णा और खीझ हो आई । अपने आपको वे पहली बार इतना निरुपाय अनुभव कर रहे थे। कितनी हसरत से, कितनी उमंग से वे बाबूजी को यहाँ लाए थे। यूँ तो माँ की मृत्यु के बाद ही उन्हें लाने का मन था, पर साल-भर तक बाबूजी वहाँ से हिलने के लिए राजी नहीं हुए । प्रसाद ही दौड़-दौड़कर वहाँ जाते रहे, बाबूजी की खोज-ख़बर लेते रहे। हर बार बाबूजी पहले से ज्यादा थके हुए, टूटे हुए नज़र आए। यह स्वाभाविक भी था। चालीस-पैंतालीस साल का साथ एकाएक छूट जाता है, तो आदमी टूट ही जाता है।
फिर बाबूजी के मित्र भी कहने लगे, “बेटा, अब अपने पिता को अपने पास ही रखो । बुढ़ापे का शरीर है। देखभाल की जरूरत पड़ती है।”
माँ की बरसी के बाद बाबूजी की एक नहीं सुनी गई। जिद करके वे लोग उन्हें अपने साथ भोपाल ले आए । बेटे के साथ-साथ बहू और बच्चों ने भी बहुत मनुहार की थी, तभी वे राजी हुए थे। पर बहुत जल्दी ही एहसास होने लगा कि स्वागत का यह भाव धीरे-धीरे तिरोहित होने लगा है।
यों तो बाबूजी बहुत शांत प्रकृति के जीव हैं। उनकी जरूरतें भी बहुत थोड़ी-सी हैं. इधर-उधर दखलंदाजी करने की आदत भी नहीं है। फिर भी वे हाड़-मास के जीव तो हैं। घर में उनकी उपस्थिति महसूस की ही जाती थी। सबसे बड़ी समस्या थी-सोने की। इससे बहले बाबूजी जब भी आए, माँ साथ में होती थीं। वे दोनों एक-दूसरे का खयाल रख लेते थे। आठ-दस दिन की बात होती थी। कुछ न कुछ व्यवस्था हो ही जाती थी। थोड़ी-सी असुविधा भी तब नहीं अखरती थी। बच्चे छोटे थे तो दादा-दादी के साथ खुशी से एडजस्ट भी हो जाते थे। बल्कि तब तो दोनों में होड़ लगा करती थी कि कौन किसके पास सोएगा। पर अब स्थितियाँ बदल गई थीं। बच्चें बड़े हो गए थे। दोनों के पास अपने स्वतंत्र कमरे थे। तीसरा प्रसाद दंपती का था। कुछ दिन पिंकी माँ के पास सोई और प्रसाद जी पिता के साथ उसके कमरे में सोए, पर यह व्यवस्था स्थायी तो नहीं हो सकती थी । तो जवान होती बिटिया के कमरे में बाबूजी का सोना भी अच्छा नहीं लगता था। फिर उन्हें प्रसन्ना के कमरे में सुलाया गया। वहाँ भी घोर असुविधा थी । उसे रात देर तक जागकर पढ़ने की आदत थी। उसका स्टीरियों भी हरदम बजता रहता था । दीवार पर कई ऐसे पोस्टर थे, जिन्हें बाबूजी की नजरों से बचाना जरूरी था।
अंततः बाबूजी की व्यवस्था हॉल में की गई। तीन बेडरूम वाले घर में भी बाबूजी के लिए निरापद बस यही स्थान था। वे दीवान पर आराम से सो जाते थे, पर उनके साथ उनका पानी, दवाइयाँ, टोपी, मफलर, टॉर्च, जूते, चश्मा सभी रखे रहते थें। सुबह नौकर के आने तक बाहर का कमरा बाहर वालों के बैठने योग्य नही रहता था।
सबसे बड़ी समस्या थी टॉयलेट की । बुढ़ापे के कारण रात में कई बार उठना पड़ता था। सो पप्पू के कमरे का ही आश्रय लेना पड़ता था । सुबह उन्हें जल्दी उठने की आदत थी। रात-भर का जागा हुआ प्रसन्ना, सुबह-सुबह उनके मुख-प्रक्षालन से खीज उठता था।
एक स्थिति यह आई कि बाबूजी बच्चों के लिए ‘अझेल’ हो गए। यह ‘अझेल’ शब्द भी बच्चों का ही गढ़ा हुआ था, जो प्रसाद जी को बहुत चुभा था। फिर उन्होंने छोटी बहन को चुपचाप पत्र लिखा कि कुछ दिनों के लिए बाबूजी को ले जाए। बच्चों की परीक्षा के बाद वे खुद उन्हें लिवा जाएँगे। अब परीक्षाएँ भी समाप्त हो गई हैं, पर लगता है, घर अभी भी मानसिक रूप से बाबूजी के पुनरागमन के लिए तैयार नहीं है । मिसेज प्रसाद देर रात तक टी.वी. देखती थीं। सुबह देर से उठती थीं। बारह बजे तक नहाती थीं। हफ्ते में दो दिन उनकी ‘मालिश वाली’ आती थी। हर पंद्रहवें दिन ‘मेहँदी वाली’ आती थी. हर तीसरे दिन उनकी ‘कुटी पार्टी’ होती थी । बाबूजी के रहते ये सारे काम सहजता से नहीं हो पाते थे।
पिंकी को सहेलियों के साथ बाहर घूमने का शौंक था। हर तीसरे दिन वे लोग पिक्चर जाती थीं। प्रसन्ना का तो कोई टाइम टेबल ही नहीं था। दोस्तों का जमघट हमेशा उसे घेरे रहता था। बाबूजी के रहते ये गतिविधियाँ भी थोड़ी धीमी हो जाती थी। फिर सारे परिवार को बाहर खाने का शौक था। बाबूजी साथ जाते नहीं थे । उनके लिए घर पर पूरा सरंजाम करके जाना पड़ता था। बाहर जाने का सारा मजा ही किरकिरा हो जाता था। प्रसाद जी घर वालों को न समझते हों, ऐसा नहीं था। पर उस कारण बाबूजी को हमेशा के लिए माया के यहाँ तो छोड़ा नहीं जा सकता था न !”
पत्नी ’सास-बह’ू का सीरियल देखने में व्यस्त थी । मौके का फायदा उठाकर उन्होंने माया को फोन लगाया। वे हर दस-पंद्रह दिन बाद फोन करके बाबूजी की कुशलक्षेम पूछ लेते थे। पर उन्होंने बाबूजी से बात कभी नहीं की। उन्हें डर लगा रहता कि कहीं उन्होंने आने की जिद पकड़ ली तो वे मना नहीं पर पाएँगे।
फोन माया के पति सुरेश ने उठाया था। कुशलक्षेम के बाद प्रसाद जी ने कहा, “मैं अगले रविवार आ रहा हूँ । बाबूजी से कहिए, तैयार रहें।”
"भाई साहब, आपको माया ने बताया नहीं क्या ? बाबूजी तो कब से चले गए।”
“चलें गए ? कहाँ ?” उन्हें लगा कि आवाज कुछ ज्यादा ही ऊँची हो गई है। उन्होंने चोर नजरों से पत्नी की ओर देखा। वह सीरियल में खोई हुई थी। उन्होंने अपनी आवाज तथाशक्ति धीमी करते हुए कहा, “कहाँ चले गए ?”
“अपने घर, जौरा। मैं खुद ही तो छोड़ आया था। हाँ, शायद बाबूजी ने मना किया था, इसीलिए माया ने आपको बताया नहीं होगा।”
वे कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गए
“आप ज्यादा परेशान न हों, भाई साहब ! ये पुराने लोग हैं न, दूसरी जगह एडजस्ट नहीं हो पाते। उन्हें अपना घर ही अच्छा लगता है।”
उस रात वे जरा भी नहीं सो सके । पता नहीं कैसे-कैसे विचार आते रहे। मुश्किल तो यही थी कि वे अपनी परेशानी पत्नी के साथ भी शेयर नहीं कर सकते थे। वह फौरन कह देती, ‘हमने तो छह महीने झेल भी लिया, पर आपकी बहन तो जरा से में ही उकता गई।’
दूसरे दिन उन्होंने माया को दफ्तर से ही फोन लगाया। जानते थे, उस समय सुरेश भी घर पर नहीं होगा । उनके उलाहनों के उत्तर में माया ने कहा, “भाई साहब, आप कुछ मेरी मजबूरी का भी तो अँदाज लगाइए। वे तो आठवें दिन से जाने की रट लगाए बैठे थे। बड़ी मुश्किल से मैंने उन्हें पंद्रह दिन रोका। फिर वे तो अकेले ही चल पड़े। बोले, ‘भोपान कौन-सा दूर है। यहाँ से बस में बिठा दो । वहाँ फोन कर दो. कोई न कोई उतार लेगा।’ मैंने बहुत मना किया, पर जब बिलकुल ही जिद पर आ गए तो उन्हें असली बात बतानी ही पड़ी।”
“क्या ?”
“यही कि बच्चों की परीक्षा होने तक आपको यही रहना है।”
“तब तो शायद तुमने यह भी बता दिया होगा कि मैंने ही तुमसे कहा था कि उन्हें ले जाओ।”
“भाई साहब, यह तो मैं कभी नहीं बताती, पर उन्होंने खुद ही अंदाजा लगा लिया । उसके बाद तो वे पल-भर भी यहाँ रुकने को राजी नहीं हुए । बोले, ‘ईश्वर की कृपा से अभी मेरा घर सलामत है । मुझे वहीं पहुँचा दो ।’ फिर ये खुद जाकर छोड़ आए थे । जरूरी व्यवस्थाएँ भी कर आए थे ।”
इसके बाद कहने को कुछ था ही नहीं । उन्होंने चुपचाप रिसीवर रख दिया और उस घड़ी को कोसते रहे, जब उन्होंने बाबूजी को माया के साथ भेजा था ।
पूरे हफ्ते वे गुमसुम बने रहे । फिर एक शाम मालवा एक्सप्रेस से चल ही पडे़ । मुँह अँधेरे मुरैना पहुँचे । वहीँ से जो पहली बस मिली, उससे जौरा के लिए चल पड़े। उन्होंने सोचा था कि इतनी सुबह घर खुलवाने में दिक्कत होगी । भूल ही गए थे कि गाँव-कस्बों की सुबह जरा जल्दी होती है । घर पहुँचकर देखा, सामने वाले आँगन में चारपाईयाँ बिछी हुई हैं और बाबूजी की मित्रमंडली चर्चा में मशगूल है ।
उन्होंने जाते ही सबके पाँव छुए, आशीर्वाद पाया । फिर वे सबके सब उठ खड़े हुए, “पंडिज्जी, अब आप बेटे की खातिर कीजिए, हम लोग चलते हैं ।”
“अरे, आप लोग बैठिए ना, मैं क्या कोई मेहमान हूँ ? यह तो मेरा घर है । आप लोग इत्मीनान से बैठें ।”
इस आग्रह में शिष्टाचार तो खैर था ही, एक उद्देश्य यह भी था कि उतनी देर तक बाबूजी के सामने अकेले पड़ने से बचे रहेंगे । पर बाबूजी के दोस्त रुके नहीं । उन्हें विदा करके बाप-बेटे दोनों भीतर आए । बाबूजी ने कहा, “तुम हाथ-मुँह धो लो। तब तक मैं चाय चढ़ाता हूँ ।”
बाथरुम का दरवाजा खोला तो चकित रह गए, “बाबूजी , ये कमोड कब लगवाया ? ”
अभी-अभी तो लगवाया है । सोचा, तुम लोग आते हो, तो तुम्हें परेशानी तो होती होगी । मुझे भी बुढापे में आरामदायक लगता है ।”
उस पुराने घर में वह नया-नकोर बाथरुम, टाट में रेशम के पैवंद-सा लग रहा था । फ्रेश होकर बाहर आए तो देखा, चौके में एक छोटी-सी मेज पर चाय लग गई थी । साथ में बिस्कुट भी थे ।
"यह मेज भी नई लग रही है ?”
“हाँ, अब पटे पर बैठकर खाना अच्छा नहीं लगता । तुम्हारी माँ याद आती है । वैसे भी पटे पर बैठकर खाने का मजा तो तब है, जब पास बैठकर कोई बात करे, गरम-गरम फुलके उतारकर मनुहार के साथ परोसे । जब अपने से लेकर खाना है, तो मेज ही ठीक है ।”
प्रसाद जी समझ गए कि बाबूजी एक तरह से यहीं रहने का मन बना चुके हैं । वे पहले की अपेक्षा चुस्त-दुरुस्त भी लग रहे थे । शायद माँ की आकस्मिक मृत्यु के दुःख से वे उबर चुके हैं ।अपने मन की बात कहने के लिए वे उपयुक्त शब्द खोज रहे थे, तभी किसना ने आकर उनके पैर छुए ।
“कैसे हो किसना ?”
“बस, बाबूजी की कृपा है ।” उसने गदगद भाव से कहा ।
“बाबूजी की कृपा का बखान फिर कर लेना । पहले जाकर भैया के लिए कुछ नाश्ता लेकर आ।” बाबूजी ने कहा ओर जेब से पैसे निकालकर वे तफसील से उसे कुछ समझाने लगे । प्रसाद जी ने कहना चाहा कि बाबूजी, आजकल मैं यह सब नहीं खाता हूँ । उन्होंने खुद उठकर किसना को पैसे देने चाहे, पर हिम्मत ही नहीं पड़ी । उन्होंने अनुभव किया कि बाबूजी अपने पुराने फॉर्म में लौट आए हैं । यह भी कि यह बाबूजी का घर है । यहाँ उनका आदेश ही चलता है ।
उन्होंने सोचा, नाश्ता आने से पहले नहा लिया जाए । नहाने के बाद आँगन में बँधी रस्सी पर तौलिया फैलाते हुए उन्होंने देखा कि एक महिला ने उन्हें देखते ही लंबा-सा घूँघट खींच लिया है ।
“बाबूजी, आँगन में कौन है ?”
“किसना की बहू होगी । वे लोग अब यहीं रहने लगे हैं न ? ”
“यहीं मतलब ?”
“पीछे गाय वाली कोठरी खाली पड़ी थी न । उसे ठीक-ठाक करके दे दी है । बहू भी गाँव में पड़ी थी, उसे भी ले आया है। वह मेरे लिए दो रोटियाँ डाल देती है । चौकाबासन, झाडू-बुहारी कर देती है । किसना मेरी धोती फींच देता है, सौदा-सुलफ ला देता है । काम भी हो जाता है और साथ भी । तुम लोगों को भी फिकर नहीं रहेगी कि बाबूजी अकेले पड़े हैं।”
“लेकिन आपको यहाँ अकेले रहने कौन देगा ? मैं तो आपको ले जाने के लिए ही आया हूँ ।”
“मुझे लाने-ले जाने की जरुरत नहीं है बैटा ! मेरी जब मर्जी होगी, चला आऊँगा । पर जब तक मेरे हाथ-पाँव चल रहे हैं, मुझे यहीं रहने दो । यहाँ मेरे दोस्त-अहबाब हैं, नाते-रिश्तेदार हैं, पास-पड़ोस है । दरवज्जे पर खड़ा भी हो जाता हूँ तो दस लोग ‘जै रामजी’ करते निकल जाते हैं । वहाँ तो समय काटे नहीं कटता । दिन-भर छत की किस्से ? तुम सब लोग अपने-अपने काम में मसरुफ रहते हो । अब इस उम्र में मुझसे ज्यादा पढ़ना-लिखना भी नहीं होता ।”
बाबूजी की बात एकदम सही थी । उसका कोई तर्कसंगत उत्तर प्रसादजी सोच रहे थे कि बाबूजी ने कहा, “एक बात और है बेटा ! तुम्हारी माँ तो नहीं रही । पर जब तक मैं हूँ, तब तक तो लड़कियों का पीहर बना रहे । कभी उनका मन हुआ, तो आने को एक घर तो हो ।”
’क्या वे लोग मेरे घर नहीं आ सकतीं ?’ उन्होंने कहना चाहा, पर अपनी बात का खोखलापन खुद ही उनकी जबान पर ताला लगा गया । उन्हें याद आया कि जब-जब बहनों को बुलाना चाहा, घर में समस्याओं का एक अंबार उठ खड़ा हुआ ।
बाबूजी अपनी रौ में कहे जा रहे थे, “माँ के पीछे बेचारी जब भी आई हैं, खुद ही खटती रही हैं ।अब यह किसना की बहू आ गई है तो थोड़ा हाथ बँटा देगी । कुछ तो सहारा हो जाएगा ।” प्रसाद जी ने विषयांतर करते हुए कहा, “बाबूजी, अपने इस छोकरे को जगह दे तो दी है, बाद में कहीं लफड़ा न हो जाए ।”
“कैसा लफड़ा ?”
“बाद में अगर इसने जगह खाली करने से इनकार कर दिया तो ?”
“बाद में मतलब ?”
प्रसाद जी शर्म से गड़ ही गए । अपनी व्यग्रता में उन्हें याद ही नहीं रहा कि वे क्या कह रहे हैं ? बाबूजी ने लेकिन इसे बड़े सहज भाव से लिया, बोले, “उसकी चिंता अभी से क्यों ? बाद में तो किसी को यहाँ रहना नहीं है । मकान तो बेचना ही है। जो भी खरीदेगा, वही किसना से भी निपट लेगा ।”
अपनी शर्म से वे अब तक नहीं उबर पाए थे और बाबूजी ने जैसे स्पष्ट ही उस ओर संकेत कर दिया । इसलिए अपनी सफाई-सी देते हुए प्रसाद जी बोले, “बाबूजी, घर बेचने की बात तो मेरे मन में कभी उठी ही नहीं।”
“मैं अभी की बात नहीं कर रहा हूँ बेटे !अभी मेरे रहते तो कोई सवाल ही नहीं उठता । मेरे लिए यह सिर्फ ईंट-गारे की इमारत नहीं है । मेरा मानसिक संबल है यह । पर मेरे पीछे तो इसे निकालना ही पडेगा । रखकर करोगे भी क्या ? प्रस्ताव तो अभी से आ रहे हैं । भोपाल जाने से पहले तो इतनी अच्छी ऑफर आई थी कि क्या बताऊँ ! बड़ी मुश्किल से अपने को रोक पाया । ये तो कहो कि ईश्वर ने ही सदबुद्धि दे दी थी, नहीं तो मेरी फजीरत ही थी ।”
अंतिम बात कहते-कहते बाबूजी का स्वर भर्रा गया था । इतनी देर से प्रसाद जी के मन में जो बात खदक रही थी, उसे कहने का भी यही मौका था । उन्होंने बिना किसी भूमिका के कह ही डाला, “बाबूजी, आप माया के यहाँ से उस पर जिद करके चले आए, यह अच्छा नहीं किया । जानते हैं, मैंने अब तक यह बात आपकी बहू को भी नही बताई है । वह तो यही सोचेगी न कि माया अपने बाबूजी को महीना-भर भी नहीं रख सकी ।”
“यह तुमने बहुत अच्छा किया । बहन को कटघरे में खड़ा होने से बचा लिया और अब तुमने बात उठाई है तो मुझे भी, तो मुझसे कहना था । उस लड़की को इस प्रपंच में क्यों डाला ? वह तो चलो, बात तुम भाई-बहनों के बीच ही रह गई । पर कल को अगर जमाई बाबू को मुझसे परेशानी होती, वे मुझसे ऊब जाते और माया से कहते तो सोचो, क्या होता ? मुझे तो कहीं मुँह छुपाने की भी जगह नहीं मिलती । ऐसी नौबत आने से पहले ही वहाँ चल देना अक्लमंदी थी, इसीलिए चला आया।”
“पर आप यहाँ क्यों आ गए? सीधे भोपाल आ जाना था न !” प्रसाद जी ने कहना चाहा, पर उनकी आवाज गले में फँसकर रह गई । बाबूजी जैसे उनकी बाद समझ गए । फिर बाबूजी जैसे उनकी बात समझ गए । पीठ थपथपाकर सांत्वना के स्वर में बोले, “रात-भर के जगे हो । थोड़ा आराम कर लो । मैं एक चक्कर बाजार के लगाकर आता हूँ । कौन-सी तरकारी खाओगे?”