वो लाश किसकी थी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

Gadya Kosh से
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शाम का मंज़र... कितना खौफज़दा है। आसमान खून से तर है। ऐसा मालूम होता है, किसी ने सूरज का कत्ल कर दिया है। शायद आखिरी साँस उफ़क की बाहों में लेना चाहता है। वह डूबता ही जा रहा है। पुरानी यादों की आहट दिल पर दस्तक दे जाती है। कुछ ज़ख्मी लम्हों का काफिला आँखों में उतरने लगता है... 13 साल का बच्चा, खेल में मशगूल, चिंताओं से मुक्त... आहा! ज़िन्दगी की सबसे नाजुक उम्र।

“चिराग़, यहाँ आओ।”

डरा-सा सहमा-सा अपराधी भाव से ग्रस्त मैं सर झुकाए घर में गया।

“जी, बाबूजी।”

“मेरे पास आओ, बेटा।”

बाबूजी की आवाज में कुछ अजीब-सा महसूस हुआ। आज आवाज़ में पहले की तरह ताज़गी न थी। कुछ उलझा हुआ-सा भाव चेहरे पर दिखा। प्यार... बेबसी... या खौफ... काश! उस वक़्त समझ पाता। मैं बाबूजी के पास गया।

“बेटा, दिन- भर खेलते हो। क्या तुम पढ़ना नहीं चाहते?” उनकी नर्म आवाज को सुनकर थोड़ा-सा सुकून मिला।

“नहीं बाबूजी, मैं खूब-खूब पढ़ूँगा। भाईजी की तरह कविताएं लिखूँगा। इस समाज की और देश की सेवा करूँगा।” बाबूजी खुश हुए। प्यार से मेरा माथा चूम लिया। लेकिन मेरा बचपन कमरे की कैद में न रह सका। मैं तो बाहर अपने साथियों की हुड़दंग में शामिल होना चाहता था और मैंने किया भी वही। मौका देखा और गायब। मैं दरवाजे तक पहुँचा ही था कि पीछे से आवाज़ आई...

“चिराग़।”

मैं अपनी ही मस्ती में मस्त आगे बढ़ गया।

“अंकल आईसक्रीम कितने की है।”

“पाँच रुपए की एक।”

“पर मेरे पास तो सिर्फ एक रुपया है।”

“पैसे जेब में हैं नहीं और आ गए आईस्क्रिम खाने... हूँ...।”

…दिल में जगी तमन्नाएं खामोशी की गोद में दफ़्न हो गई। चेहरे पर उदासियों की चादर लपेटे हुए मैं अकेला चल पड़ा उन्हीं जंगलों की तरफ, जो मेरे बचपन के उदास दिनों के साथी थे। उदासी चाहे माँ की डाँट की हो य फिर भाईजी से झगड़ने की। यहीं आ कर दिल सुकून के दरिया में खुद को महसूस करता है। अरे हाँ! याद आया कि कल बाबूजी माँ और भाईजी के साथ अस्पताल गए थे। मुझसे यह कह कर गए थे कि लौट कर तुम्हें अंग्रेजी बोलना सिखलाऊँगा। भाईजी की तरह मैं भी बोलूँगा… What… is… your… name… हाँ... बिल्कूल ऐसे... फिर देखना... आहा! यह ख्याल आते ही उदासी की धुंध फ़ना हो गई और ऐसा लगा जैसे स्याह रातों में फ़लक पर चाँद निकल आया हो। मैं आहिस्ता-आहिस्ता गुनगुनाता हुआ घर की ओर चल पड़ा।

यह भीड़ कैसी है? दूर से ही दरवाजे पर खड़े लोगों को देखकर यह सवाल बार-बार मन में चुभ रहा था। घर जितना नजदीक आता था कदमों की रफ्तार उतनी ही तेज़ हो जाती थी। मैं भीड़ को चीर कर आगे पहुँचता हूँ। वहाँ एक लाश पड़ी है। हू-ब-हू बाबूजी जैसी...

…माँ का वो चीखना दिल को ऐसे चीर रहा था जैसे नर्म माँ को तेज़ चाकू। और भाईजी... उनकी आँखें यूँ खुश्क, ठहरी हुई शुन्य में गड़ी हुई मानो इस ज़िन्दगी से कहीं दूर किसी मंज़र में खोई हुई। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। माँ को रोते देख कर मेरी आँखें भर आई। मैं दौर कर माँ से लिपट गया।

“क्या हुआ माँ?”

“बेटा, बाबूजी...”

माँ सिर्फ इतना ही कह सकी लेकिन यह आवाज़ मेरे दिल में दहशत पैदा कर गई। इतने में मेरी चाची ने मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास खींचा और कहा–

“चिराग़, बाबूजी नहीं रहे।”

“झूठ कह रहीं हैं आप।”

मेरी आवाज़ गुस्से से भींगी हुई थी। मैंने फिर लाश को देखा। आँखें बन्द... चेहरा शांत... भाव रहित... पथराया हुआ... और शक्ल बिलकुल बाबूजी जैसी...। क्या एक शक्ल के दो इंसान नहीं हो सकते? कहीं इन्हें गलतफहमी तो नहीं हुई? बाबूजी को क्या हुआ था? मेरे मन में सवालों का तूफान उठ रहा था। कभी मैं इसे झूठ मानता कभी सच...। तभी दिल से आवाज़ आई...

“अरे नहीं यह बाबूजी नहीं हो सकते। बाबूजी मुझसे कह कर गए हैं कि वे लौट कर आएंगे और मुझे अंग्रेजी बोलना सिखलाएंगे... हाँ... वे झूठ नहीं कहते।”

…कई साल गुज़र गए। बहुत कुछ बदल गया। लेकिन एक सवाल जो अब तक चुभती है।

“वो लाश किसकी थी ?”

“बाबूजी की” जवाब आता है।

आह! ये सच नहीं... झूठ है... मैं कितनी बार इसे सुन चुका हूँ कि अब तो नफरत होने लगी है इस शब्द से। मेरे आसपास जब भी किसी की मौत होती है या मैं जब किसी की मौत की ख़बर सुनता हूँ, तो कान में एक ही शब्द गुजंता है “बाबूजी”। लेकिन जब आईना के सामने खड़ा होता हूँ, तो ऐसा लगता है मानो मुझमें अपनी मौत को नाकाम होता देखकर बाबूजी मुस्कुरा रहे हैं। मेरी डायरी के सुखे हुए लहूरंग पत्तों में दफ़्न एक शेर आज भी साँस ले रहा है –

“एक हादसा जिसने मुझे जवान कर दिया,
शायद मेरे वालिद का इंतकाल हुआ था ।”